Sunday 22 January 2012

अंधश्रद्धा निर्मूलन विधेयक

   २५ जनवरी के लिए भाष्य

अंधश्रद्धा निर्मूलन विधेयक महाराष्ट्र शासन ने तैयार किया है| ‘सन २००५ के विधानसभा विधेयक क्रमांक ८९’ ऐसा इस विधेयक का नामाभिधान है| गत २०११ के दिसंबर माह में नागपुर में हुए विधिमंडल के अधिवेशन में यह विधेयक प्रस्तुत किया जाएगा, ऐसी संभावना व्यक्त की गई थी| लेकिन, ऐसा दिखता है कि यह नहीं हुआ| २००५ से विधेयक तैयार हो और उस पर विधिमंडल में चर्चा होकर उसका करीब छ: वर्षों में कानून में रूपांतर न हो, यह आश्‍चर्य की बात है| सरकार इस बारे में ज्यादा गंभीर नहीं, ऐसा तर्क किसी ने किया तो उसे दोष नहीं दे सकते|

निमित्तकारण

नागपुर में, अधिवेशन चल रहा था उस समय, दि. १९ दिसंबर को इस विधेयक पर चर्चा करने का कार्यक्रम अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (अंनिस) ने आयोजित किया था| इस चर्चासत्र में आकर मैं अपने विचार व्यक्त करूँ, ऐसी विनति ‘अंनिस’के अग्रगण्य कार्यकर्ता श्री श्याम मानव ने मेरे घर स्वयं आकर की थी| मैं वह आमंत्रण निश्‍चित ही स्वीकारता, लेकिन ठीक उसी दिन, अमरावती में, हमारे परिवार मे  एक शादी होने के कारण और परिवार प्रमुख के नाते मुझे वहॉं जाना अनिवार्य होने के कारण मैं उस चर्चासत्र में उपस्थित नहीं रह सकूँगा, ऐसा मैंने श्री श्याम मानव को बताया| तब उन्होंने, मुझे इस पर, एक लेख लिखने की सूचना की और उस विधेयक के प्रारूप की एक प्रति भी मुझे दी| यही मेरे इस लेख का निमित्तकारण है|   

निरुपद्रवी

इस विधेयक का प्रारूप मैंने पढ़ा| मुझे उसमें कुछ अधिक आक्षेपार्ह नहीं लगा| उसके विरुद्ध जोरदार प्रचार या आंदोलन करने की आवश्यकता या औचित्य है, ऐसा मुझे नहीं लगता| इसी के साथ यह विधेयक अत्यंत आवश्यक है और उसका कानून नहीं बनाया गया, तो समाज का बहुत बड़ा नुकसान होगा, ऐसा भी मुझे नहीं लगता| विधेयक का कानून में रूपांतर हुआ, तो दारूबंदी, दहेज बंदी जैसे जो निरुपद्रवी कानून है, उनमें और एक कानून की वृद्धि होगी|

उद्दिष्ट

इसका अर्थ , इस विधेयक के उद्दिष्ट में जो निरूपित है, उसे कोई अर्थ ही नहीं, ऐसा नहीं होता| उद्दिष्ट अच्छा ही है| उसके शब्द है : ‘अंधविश्‍वास और अज्ञान पर परिपुष्ट, अनिष्ट एवं दुष्ट प्रथाओं से समाज में के सर्वसामान्य लोगों का संरक्षण करने की दृष्टि से, उसी प्रकार समाज में के सर्वसामान्य लोगों का मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक़ शोषण कर उनका नुकसान करने के और उसके द्वारा समाज की व्यवस्था बिगाड़ने के दुष्ट हेतु से वैदू और भोंदूबाबा की सर्वसामान्यत: जादूटोना के नाम से जानेवाली तथाकथित अतींद्रिय या अतिमानुष शक्ति या चमत्कार प्रगट कर, भूतपिशाच्च के नाम से जनमानस में पैदा किए अंधविश्‍वास के कारण होनेवाली अनिष्ट एवं दुष्ट प्रथाओं को और अघोरी रूढीयों का मुकाबला कर, उसका समूल उच्चाटन करने की दृष्टि से, इस संबंध में समाज में जागृति एवं अहसास निर्माण करने के लिए और निकोप तथा सुरक्षित वातावरण निर्माण करने के लिए’ इत्यादि| इस उद्दिष्ट पर आक्षेप हो ऐसा इसमें कुछ भी नहीं| उद्दिष्ट आगे जो कहता है कि, इन अनिष्ट प्रथाओं के कारण ‘जनता का मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक़ नुकसान होने की घटनाएँ सतत सामने आ रही है, उनका प्रमाण भयावह है’ यह सही नहीं है| समाज उत्सन्न हो, ऐसा कुछ भी आज नहीं हो रहा है| जिन अनिष्ट प्रथाओं का उल्लेख विधेयक में किया गया है और जिनकी सूची मैं इस लेख में दे रहा हूँ, उनका प्रमाण भयावह नहीं है| ऐसा होता तो, ऐसी अनिष्ट घटनाएँ बारबार होती; और उनके समाचारों से समाचारपत्रों के स्तंभ भरे रहे होते|

अनिष्ट प्रथा

अनिष्ट एवं अघोरी कृतिंयों की जो सूची इस विधेयक में दी है, वह इस प्रकार है :
१) भूत उतारने के बहाने किसी व्यक्ति को, रस्सी या ज़ंजीर से बांधकर रखना, पीटना, लाठी या चाबूक से मारना, पादत्राण भिगाकर उसका पानी पिलाना, मिरची की धुआं देना, छत से लटकाना, रस्सी या बालों से बांधना, उस व्यक्ति के बाल उखाडना, व्यक्ति के शरीर पर या अवयवों पर गरम की वस्तु के दाग देकर हानि पहुँचाना, सार्वजनिक स्थान पर लैंगिक कृत्य करने की जबरदस्ती करना, व्यक्ति पर अघोरी कृत्य करना, मुँह में जबरदस्ती मूत्र या विष्ठा डालना या ऐसी कोई कृति करना|
२) किसी व्यक्ति ने तथाकथित चमत्कार कर उससे आर्थिक प्राप्ति करना, इसी प्रकार ऐसे तथाकथित चमत्कारों का प्रचार और प्रसार कर लोगों को फंसाना, ठगना अथवा उन पर दहशत निर्माण करना|
३) अतिमानुष शक्ति की कृपा प्राप्त करने के लिए, जिसके कारण जान का खतरा निर्माण होता है या शरीर को प्राणघातक जख्म होते है, ऐसी अघोरी प्रथाओं का अवलंब करना; और ऐसी प्रथाओं का अवलंब करने के लिए औरों को प्रवृत्त करना, उत्तेजन देना या जबरदस्ती करना|
४) मौल्यवान वस्तु, गुप्त धन, जलस्रोत खोजने के बहाने या तत्सम कारणों से करनी, भानामति इन नामों से कोई भी अमानुष कृत्य करना या ऐसे अमानुष कृत्य करने और जारणमारण अथवा देवदेवस्की (?) के नाम पर नरबलि देना या देने का प्रयास करना, या ऐसे अमानुष कृत्य करने की सलाह देना, उसके लिए प्रवृत्त करना, अथवा प्रोत्साहन देना|
५) अपने भीतर अतींद्रिय शक्ति है ऐसा आभास निर्माण कर अथवा अतींद्रिय शक्ति संचरित होने का आभास निर्माण कर औरों के मन में भय निर्माण करना या उस व्यक्ति का कहना न मानने पर बुरे परिणाम होंगे, ऐसी औरों को धमकी देना|
६) कोई विशिष्ट व्यक्ति करनी करती है, काली विद्या करती है, भूत लगाती है, मंत्र-तंत्र से जानवरों की दूध देने की क्षमता समाप्त करती है, ऐसा बताकर उस व्यक्ति के बारे में संदेह निर्माण करना, इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपशकुनि है, रोग फैलने के लिए कारणीभूत होनेवाली है, इत्यादि बताकर या आभास निर्माण कर संबंधित व्यक्ति का जीना मुश्किल करना, कष्टमय करना या कठिन करना, कोई व्यक्ति सैतान या सैतान का अवतार है, ऐसा घोषित करना|
७) जारणमारण, करनी या टोटका अथवा ऐसे प्रकार किए है इस बहाने से किसी व्यक्ति को मारपीट करना, उसे नग्नावस्था में घुमाना या उसके रोज के व्यवहार पर बंदी लगाना|
८) मंत्र की सहायता से भूत-पिशाच्चों का आवाहन कर या भूत-पिशाच्चों का आवाहन करूँगा ऐसी धमकी देकर लोगों के मन में घबराहट निर्माण करना, मंत्र-तंत्र अथावा तत्सम बातें बनाकर किसी व्यक्ति को विष-बाधा से मुक्त करने का आभास निर्माण करना, शारीरिक हानि (क्षति) होने के लिए भूत या अमानवी शक्ति का कोप होने का आभास करा देना, लोगों को वैद्यकीय उपचार लेने से रोककर, उसके बदले उन्हें अघोरी कृत्य या उपाय करने के लिए प्रवृत्त करना अथवा मंत्र-तंत्र (टोटका) जादूटोना अथवा अघोरी उपाय करने का आभास निर्माण कर लोगों को मृत्यु का भय दिखाना, पीडा देना या आर्थिक अथवा मानसिक हानि पहुँचाना|
९) कुत्ता, सॉंप, बिच्छु आदि के काटे व्यक्ति को वैद्यकीय उपचार लेने से रोककर या प्रतिबंध कर, उसके बदले, मंत्र-तंत्र, गंडा-धागा आदि अन्य उपचार करना|
१०) उँगली से शस्त्रक्रिया कर दिखाता हूँ ऐसा दावा करना या गर्भवती स्त्री के गर्भ का लिंग बदल कर दिखाता हूँ ऐसा दावा करना|
११) (क) स्वयं में विशेष शक्ति होने या किसी का अवतार होने या स्वयं पवित्र आत्मा होने का आभास निर्माण कर या उसके बातों में आई व्यक्ति को पूर्वजन्म में तू मेरी पत्नी, पति या प्रेयसी, प्रियकर था ऐसा बताकर, उस व्यक्ति के साथ लैंगिक संबंध रखना|
(ख) अपत्य न होनेवाली स्त्री को अतींद्रिय शक्ति द्वारा अपत्य होने का आश्‍वासन देकर उसके साथ लैंगिक संबंध रखना|
१२) मंद बुद्धि के (mentally retarded) व्यक्ति में अतींद्रिय शक्ति है ऐसा अन्य लोगों के मन में आभास निर्माण कर उस व्यक्ति का धंदा या व्यवसाय के लिए प्रयोग करना|
ऐसी यह संपूर्ण सूची है| इसमें की सभी बातें अनिष्ट है, ऐसा नहीं| पानी का स्रोत ढूंढने के लिए, मैंने स्वयं एक पानीवाले महाराज को आमंत्रित किया था| लेकिन उनके निष्कर्ष पर अवलंबित न रहकर, मैंने बाद में एक शासनमान्य भूगर्भ वैज्ञानिक को भी बुलाया| दोनों ने करीब एक ही जगह बताई; और वहॉं कूपनलिका खोदने के बाद पानी मिला| गॉंववासियों को आश्‍चर्य हुआ; कारण इस खेत में पानी मिलेगा ही नहीं, इस बारे में खेत के मालिक के साथ अन्य सब गॉंववासियों को विश्‍वास था|  
अतींद्रिय शक्ति हो सकती है, ऐसा मुझे लगता है| विवेकानंद को, रामकृष्ण परहंस के केवल हस्तस्पर्श से एक विलक्षण शक्ति का प्रत्यय मिला था| रामकृष्ण कोई भोंदू या जादूगर नहीं थे और विवेकानंद भी किसी बहकावे में आनेवाले मूर्ख नहीं थे| सत्यसाई बाबा हवा में से घडियॉं या कुछ अन्य वस्तुएँ निकालकर देते थे, ऐसा मैंने सुना है| अनेकों का इस पर विश्‍वास है| उस विश्‍वास को झूठ क्यों माने यह मुझे समझ नहीं आता| विशिष्ट प्रकार की योगसाधना से अलौकिक सिद्धि प्राप्त हो सकती है, इस पर मेरा विश्‍वास है| करीब करीब जन्मांध रहे अमरावती जिले में के माधान गॉंव के गुलाबराव महाराज को सब शास्त्रों का ज्ञान क्यों और कैसे मिला होगा? रामानुजम् को, शाला में पढ़ते समय ही, गणित के गहन तत्त्व कैसे अवगत हुए होगे? ज्ञानेश्‍वर महाराज १७ वर्ष की आयु में ज्ञानेश्‍वरी जैसा अद्भुत ग्रंथ कैसे निर्माण कर सके? यह सब अलौकिक, अतिभौतिक शक्ति है| लेकिन इन शक्तियों से प्राप्त अलौकिकत्व का इन में से किसी ने व्यापार नहीं किया| अत: पूर्व जन्म में की या इस जन्म में की कई अतर्क्य ऐसी शक्तियों से ये पुरुष युक्त थे, यह मानना ही पडता है| ‘अंनिस’वाले पूर्वजन्म मानते है या नहीं, यह मुझे पता नहीं|

आघातलक्ष्य

भोंदूगिरी और उसके द्वारा लोगों को ठगना यह ‘अंनिस’का कहे या इस विधेयक का, आघातलक्ष्य है| इसमें अनुचित कुछ भी नहीं| इस विधेयक में बताए अघोरी कृत्यों की जो सूची दी है, उनमें की कुछ बातें होते रहती है, इस बारें में संदेह नहीं| नरबलि के भी उदाहरण होते है| क्वचित होते है लेकिन होते है| उन्हें दंडित करने की व्यवस्था रहने में आक्षेपार्ह कुछ भी नहीं| तथापि, सभी बाबा और महात्मा भोंदू होते है, ऐसा नहीं| मंत्रोच्चार में भी सामर्थ्य हो सकता है| बिच्छु का विष उतारनेवाले मांत्रिक मुझे पता है| अब प्रश्‍न निर्माण हो सकता है कि, सही में मंत्र से बिच्छु का विष उतरता है या वह उतरा है ऐसा बिच्छु ने काटे व्यक्ति का ग्रह होता है? वह विष उतरता नहीं लेकिन उसका वैसा ग्रह होता है, ऐसा हम मान ले| लेकिन ऐसा ग्रह होना सही या गलत? शास्त्र बताता है कि शारीरिक रोग में मानसिकता की भी भूमिका होती है| मन और शरीर परस्पर पर परिणाम करते ही है| फिर किसी बाबा के सानिध्य के कारण, बोलने से, स्पर्श से, व्यक्ति का समाधान होता होगा तो उसमें बुरा क्या है? वे, कुछ जप-जाप्य, क्रियाविधि, अनुष्ठान इत्यादि उपासना बताते होगे और शिष्य उसे आचरित करते होगे और उनके मन को उससे शांति मिलती होगी, तो आक्षेप लेने का क्या कारण? अपने ऐसे भक्तों को वे, उपरोक्त सूची में वर्णन किए अनुसार यातना देते होगे, तो बात अलग है| वह कृति दंडनीय ही माननी चाहिए|

छूट

इस विधेयक की धारा १३ में एक व्यापक छूट दी गई है| वह प्रशंसनीय है| यह धारा बताती है, ‘संदेह दूर करने के लिए इसके द्वारा ऐसा घोषित किया जाता है कि, जिस कारण शारीरिक या आर्थिक बाधा नहीं पहुँचती, ऐसे किसी भी धार्मिक विधि या धार्मिक कृत्य अंतर्भूत रहनेवाली कृतियों को इस अधिनियम में की कोई भी बात लागू नहीं होगी|’ मेरे मतानुसार यह छूट, इस कानून के दुरुपयोग से लोगों को बचा सकेंगी|

एक प्रश्‍न

एक प्रश्‍न ऐसा पूछॉं जा सकता है कि, जो अनिष्ट प्रथा या रूढीयों का निर्देश उपरोक्त सूची में किया है, वह रूढी और प्रथाएँ क्या इस कानून से समाप्त होंगी? मेरा उत्तर ‘नहीं’ है| थोडा बहुत धाक निर्माण हो सकती है और कानून धाक निर्माण करने के लिए ही होता है| हत्या, चोरी, डकैती के विरुद्ध कानून है| फिर भी यह अनिष्ट घटनाएँ होते ही रहती है| लेकिन इस कारण वह कानून ही निरर्थक है, ऐसा नहीं कहा जा सकता| तथापि, चोरी, हत्या आदि संबंधि का कानून और अंधविश्‍वास में से उद्भवित होनेवाले अनिष्टों के विरुद्ध का कानून इनमें एक मूलभूत अंतर है| चोरी, हत्या, डकैती करनेवाले लोग दूसरों के घरों पर आक्रमण कर अपराध करते है| भोंदू बाबा लोगों के घरों पर आक्रमण नहीं करते| लोग ही उनके पास जाते है| वे बुरी सलाह दे सकते है, देते भी होंगे| लेकिन वे भक्तों को बुलाने नहीं जाते| मुर्गे, बकरे की बलि या नर-बलि भी वे स्वयं नहीं देते| वे केवल बता सकते है| और वे उन्हें ही बता सकते है, जो उनके पास जाते है| अधिकतर कोई भी बाबा स्वयं का विज्ञापन (प्रचार) नहीं करते| इस दृष्टि से विचार करे तो, इस कानून की आवश्यकता ही नहीं, इसी निष्कर्श पर आना पडेगा|

समाज प्रबोधन

मन्नत, मुर्गीयों-बकरों की बलि, यह प्रकार हमारे समाज में है ही नहीं, ऐसा दावा नहीं कर सकते| लेकिन ये रूढीयॉं कानून से दूर होगी, ऐसा मुझे नहीं लगता| इस पर मूलगामी उपाय शिक्षा या जागरण ही है| हमारे गॉंव के समीप साकोर्ली की देवी को मुर्गे की बलि देने का प्रकार मैंने बचपन में देखा था| अब उसका कुछ अता-पता भी नहीं| लेकिन मुर्गे या बकरे का मांस खाना समाप्त हुआ या कम हुआ ऐसा नहीं| उसका प्रमाण बढ़ा भी होगा| लेकिन भगवान की कृपा संपादन करने की वह मूर्खता अब समाप्त हुई है| अब रसना (जीभ) के चोचले पूरे करने के लिए वह चल रहा है| ‘अंनिस’वालों का शायद उसे विरोध नहीं होगा| इसलिए मेरे मतानुसार इन अनिष्टों पर कार्यक्षम उपाय समाज प्रबोधन ही है| यह प्रबोधन जिस प्रकार विद्यालय में की औपचारिक शिक्षा से हो सकता है, उसी प्रकार, या उससे भी अधिक प्रमाण में भाषण, कीर्तन, प्रवचन, नाटकादि मनोरंजन के साधनों से भी हो सकता है; और वह सतत होता है इस कारण ही आज यह प्रथा बंद होने के मार्ग पर है| 

हिंदू ही क्यों?

और एक प्रश्‍न पूछॉं जाता है| ‘अंनिस’वाले हिंदू समाज में की रूढीयों के बारे में ही सक्रिय क्यों होते है? क्या मुसलमानों में बुरी प्रथा या रूढीयॉं नहीं है? तीन बार उच्चार करते ही तलाक, महिलाओं के लिए बुर्खा, दर्गे, मजार इत्यादि की पूजा, मोहरम की सवारी का संचार इत्यादि अनिष्ट रूढीयॉं उनमें भी है| ‘अंनिस’वाले उस बारे में मौन क्यों रहते है? मुझे, व्यक्तिगत स्तर पर इस बारे में ‘अंनिस’को दोष देना चाहिए ऐसा नहीं लगता| वे कहते नहीं है, फिर भी उन्हें मन में यह अहसास होता है कि वे हिंदू है और उनका हिंदू समाज पर प्रेम है| इस प्रेम के कारण ही उन्हें उनकी समझ के अनुसार हिंदू समाज निर्दोष और निर्लेप हो, ऐसा लगता है| उन्हें शायद महसूस भी नहीं होता होगा कि, वे इस आंदोलन के द्वारा एक प्रकार से हमारे राष्ट्र जीवन का जो मुख्य और महत्त्व का प्रवाह मतलब हमारा हिंदू समाज है, उसे ही बलवान कर रहे है| ऐसा बलवान, कि अन्य समाजों को भी, हम वापस इस समाज के साथ समरस हो, ऐसा लगे| उनके सुप्त मन में, हमारे देश का भाग्य और भवितव्य हिंदूओं से निगडित है, यह बात हो| इसलिए ही उनका लक्ष्य हिंदू समाज ही होगा| इन कारणों का विचार करने के बाद इस विधेयक के विरुद्ध आंदोलन आदि करें, ऐसा मुझे नहीं लगता|

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

Sunday 15 January 2012

चुनाव : उत्तर प्रदेश विधानसभा के

   
    १८ जनवरी के लिए भाष्य

इस जनवरी माह के अंत से, पूरा फरवरी और फिर मार्च माह के पहले सप्ताह तक पॉंच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हो रहे है| पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और गोवा ये वे पॉंच राज्य है| इन सब में उत्तर प्रदेश में के चुनाव को सर्वाधिक महत्त्व है|

उत्तर प्रदेश की विशेषता

अनेक संदर्भ में उत्तर प्रदेश की विशेषता लक्षणीय है| अन्य राज्यों में चुनाव एक दिन में होंगे, तो उत्तर प्रदेश में वह छ: दौर में होंगे| वहॉं करीब एक माह मतदान चलेगा| प्रत्येक राज्य में की जनता को अपने राज्य के भावी सत्ताधीश के बारे में उत्सुकता रहेगी, लेकिन उत्तर प्रदेश के बारे में उत्सुकता केवल उस राज्य के जनता तक ही मर्यादित नहीं| उसे अखिल भारतीय आयाम है| पंजाब हो या छोटा गोवा राज्य, वहॉं के चुनाव के परिणाम उस राज्य तक ही सीमित रहेंगे| लेकिन उत्तर प्रदेश में के चुनाव का परिणाम केन्द्र शासन पर भी होगा| केन्द्र में के गठबंधन के समीकरण बदलने की क्षमता उस चुनाव के परिणाम में है|

उत्तर प्रदेश की महानता

उत्तर प्रदेश यह भारत में का सबसे बड़ा राज्य है| भूगोलीय विस्तार से शायद मध्य प्रदेश सबसे बड़ा राज्य होगा, लेकिन जनसंख्या के बारे में उत्तर प्रदेश का ही प्रथम क्रमांक है| २००१ की जनसंख्या के अनुसार इस राज्य की जनसंख्या १६ करोड ६० लाख से अधिक है| नई जनगणना में उसने १८ करोड का आँकड़ा पार किया होगा, तो आश्‍चर्य नहीं| लोकसभा की कुल सिटों में १५ प्रतिशत केवल उत्तर प्रदेश से है| लोकसभा की ८०, तो विधानसभा की ४०० सिटें हैं| महाराष्ट्र के, एक लोकसभा क्षेत्र में ६ विधानसभा क्षेत्र ऐसा हिसाब लगाया, तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा की ४८० सिटें होनी चाहिए और मध्य प्रदेश या राज्यस्थान का निकष लगाया, तो यह संख्या ६४० होनी चाहिए| इन दो राज्यों में विधानसभा के आठ मतदार संघ एक लोकसभा मतदार संघ में समाविष्ट होते है| उत्तर प्रदेश एकमात्र ऐसा राज्य है कि जहॉं पॉंच विधानसभा मतदार संघ एक लोकसभा मतदार संघ में समाविष्ट होते है|

उत्तर प्रदेश की श्रेष्ठता

हमारा देश स्वतंत्र होकर अब ६४-६५ वर्ष हो चुके है| इस प्रदीर्घ समय में, अत्यल्प समय के लिए प्रधानमंत्री पद प्राप्त करनेवाले चरणसिंह, चंद्रशेखर, देवेगौडा, गुजराल को छोड दे और कुछ दीर्घ समय के लिए इस पद पर आरूढ हुए व्यक्तियों को ही ले, तो नौ प्रधानमंत्रीयों में से छ: उत्तर प्रदेश से चुनकर आए थे| अपवाद केवल मुरारजी देसाई, पी. व्ही. नरसिंह राव और विद्यमान डॉ. मनमोहन सिंह ही है| इनमें से भी मनमोहन सिंह को छोड देने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए| क्योंकि वे कहीं से भी चुनकर नहीं आये है| पंडित जवाहरलाल नेहरु, लालबहादूर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह, अटलबिहारी बाजपेयी ये सब उत्तर प्रदेश से चुनकर आये है| यह सब ध्यान में लिया तो उत्तर प्रदेश का महत्त्व कोई भी समझ सकता है|

उत्तर प्रदेश की भिन्नता

इसलिए उत्तर प्रदेश की विधानसभा के चुनाव की ओर सब भारतीयों का ध्यान लगा होना, स्वाभाविक है| अन्य चार राज्यों में दो पार्टियॉं या दो गठबंधनों में सत्ता के लिए होड है| उत्तर प्रदेश में चार पार्टियॉं स्पर्धा में है| चुनाव के बाद किसका किसके साथ गठजोड होगा यह आज कहा नहीं जा सकता| अनेक प्रकार के आँकड़ों के अदलाबदल होने की संभावनाएँ है| चुनाव के पहले, केवल एक गठबंधन बना है| वह है कॉंग्रेस और चौधरी चरणसिंह के पुत्र अजितसिंह के राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का| २००७ के चुनाव में रालोद भारतीय जनता पार्टी के साथ था| कॉंग्रेस ने अजितसिंह को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान देने की किमत चुकाकर यह गठबंधन बनाया है|
उत्तर प्रदेश में सत्ता प्राप्त करने के लिए अखिल भारतीय स्तर की दो पार्टियॉं चुनाव के मैदान में उतरी है, तो राज्य स्तर की दो पार्टियॉं भी है| कॉंग्रेस और भाजपा पहले गुट में आते है, तो मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी (सपा) दूसरे गुट में आते है| दिलचस्व बात यह है कि, इन चारों पार्टियों ने कभी ना कभी, उत्तर प्रदेश में सत्ता प्राप्त की है| स्वतंत्रता मिलने के पहले से पंडित गोविंदवल्लभ पंत ये कॉंग्रेस के श्रेष्ठ नेता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे| वे केन्द्र सरकार में जाने के बाद चंद्रभानू गुप्त, कमलापति त्रिपाठी, हेमवतीनंदन बहुगुणा, ये सब कॉंग्रेस पार्टी के नेता मुख्यमंत्री थे| भाजपा के कल्याणसिंह और राजनाथसिंह भी इस पद पर आसीन हुए थे| सपा के मुलायमसिंह भी मुख्यमंत्री रह चुके है और बसपा की मायावती तो अभी मुख्यमंत्री है ही|

उत्तर प्रदेश की संभाव्यता

कॉंग्रेस ने अपनी ताकत पर राज किया| वह भाग्य भाजपा को नसीब नहीं हुआ| आज बसपा भी अपने बुते पर सत्ता में है| ४०० सदस्यों की विधानसभा में बसपा के २०३ विधायक है| उसके बाद सपा का नंबर लगता है, फिर भाजपा और अंत में कॉंग्रेस| यह २००७ की स्थिति है| आज ऐसे संकेत दिखाई दे रहे है कि, कोई भी पार्टी अपनी ताकत पर सत्ता में नहीं आ सकती| रालोद के साथ गठबंधन करनेवाली कॉंग्रेस भी नहीं| मतलब चुनाव के बाद गठबंधन अपरिहार्य है| यह गठबंधन, सत्ता में शामिल होकर भी  सकता है, उसी प्रकार बाहर से समर्थन देकर भी हो सकता है| मायावती, प्रथम मुख्यमंत्री बनी, तब भाजपा ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया था| फिलहाल समाचारपत्र गठबंधनों के स्वरूप के कल्पनारम्य चित्र बना रहे है| उसमें सपा सत्ता में, तो कॉंग्रेस का बाहर से समर्थन; मायावती सत्ता में तो भाजपा का बाहर से समर्थन ऐसे चित्र बनाए जा रहे है| इसमें एक गृहितकृत्य है कि, बसपा या सपा अथवा कॉंग्रेस और भाजपा का गठबंधन नहीं हो सकता| राजनीति में कुछ भी असंभाव्य नहीं होता या कोई किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, यह तात्त्विक वचन रूढ हुए है| इसे ध्यान में रखेे तो संभाव्यता के क्षेत्र में ना दिखने जैसा कुछ भी हो सकता है|

बसपा की स्थिति

सर्वत्र ही राजनीति में जातीय गुटों का थोडा-बहुत प्रभाव दिखाई देता है| शायद पश्‍चिम बंगाल, तामिलनाडु या पंजाब अपवाद सिद्ध होंगे| लेकिन उत्तर प्रदेश में जातीय गुट प्रभावशाली है; और समाचारपत्रों में के समाचार और निरीक्षण सरे आम इन गटों का निर्देश करके ही लिखें जा रहें हैं| विषय समझाने के लिए मुझे भी उसी तंत्र का प्रयोग करना पड रहा है|
आज सबसे बड़ा गुट मुसलमान मतदाताओं का माना जाता है| वह एक मजबूत वोट बँक है, ऐसी सार्वत्रिक मान्यता दिखती है| ६ दिसंबर १९९२ को बाबरी ढ़ांचे के पतन के बाद यह वोट बँक कॉंग्रेस के विरोध में गई और कॉंग्रेस सत्ता से बाहर हुई| वह मजबूती के साथ मुलायमसिंह की सपा की ओर गई और उसने मुलायमसिंह को सत्ता में बिठाया| २००७ में भी यह वोट बँक सपा की ओर ही थी| लेकिन बसपा ने अलग समीकरण बनाया| तथाकथित मनुवाद की रट लगानेवाली मायावती ने अपनी चाल बदली| ‘मनुवाद’ गया और असके स्थान पर ‘सर्वजनहिताय’ यह नारा आया| उसने ब्राह्मणों को समीप लाया| दलित और ब्राह्मण, यह कम से कम समाचारपत्रों के स्तंभों में दो छोर माने जाते है, प्रत्यक्ष में स्थिति वैसी होगी, ऐसा नहीं लगता| लेकिन ये दो छोर मायावती नेेएक दूसरे से मिला दिए| सतीशचंद्र मिश्रा के रूप में बसपा को एक नया चेहरा मिला और बसपा की स्वीकार्यता, अन्य समाजगुटों में भी बढ़कर २००७ में अपनी ताकत पर बसपा सत्ता पा सकी| बसपा की यह जीत अनपेक्षित थी| सब के लिए धक्कादायक थी| हालही में प्रकाशित समाचारों पर विश्‍वास करे तो आज वह सामंजस्य शेष नहीं रहा| तथापि, मायावती ने समझदारी की एक बात की है| वह यह कि, अपनी नीव दलितों की उन्होंने उपेक्षा नहीं की| लेकिन केवल नीव मतलब इमारत नहीं होती| सत्ता की इमारत प्राप्त करने के लिए, फिलहाल उन्हें अन्य अतिरिक्त शक्ति प्राप्त नहीं| इस कारण, मायावती ने अपनी ताकत पर सत्ता प्राप्त करना करीब असंभव लगता है| इसके अतिरिक्त, उन पर प्रचंड भ्रष्टाचार के आरोप है| अनेक मंत्रियों को उन्हें हटाना पड़ा है| अनेकों के तिकट काटने पड़े हैं| लेकिन इस शस्त्रक्रिया से बसपा की शक्ति बढ़ेगी, ऐसा कोई भी नहीं मानता| उन्हें आखिर अपना और अपनी सत्ता का बखान करने के लिए एक विदेशी विज्ञापन कंपनी की सहायता लेनी पड़ी है| इस नई तकनीक के विज्ञापन का बसपा को कितना लाभ होता हे, यह मार्च माह में ही दिखाई देगा|

मुस्लिम वोट बँक

यादव और मुसलमानों की यह वोट बँक मुलायमसिंह ने बनाई थी| इनमें से मुस्लिम वोट बँक पर फिलहाल कॉंग्रेस का चारों ओर से आक्रमण शुरू हुआ है| ओबीसी के कोटे में से मुसलमानों के लिए साडेचार प्रतिशत आरक्षण देने की कॉंग्रेस की घोषणा, इसी रणनीति का भाग है| मुस्लिम बहुल आझमगढ़ को कॉंग्रेस के एक महासचिव दिग्विजय सिंह का बार बार भेट देना इसी रणनीति का निदर्शक है; हद तो यह है कि, इस वोट बँक को हासिल करने के लिए अपनी ही सरकार को मुश्किल में फंसाने की दिग्विजय सिंह की उद्दामता भी इसी का द्योतक है| राजधानी में का ‘बाटला हाऊस’ मामला इसका ही एक ठोस उदाहरण है| वहॉं २००८ में, जिहादी आतंकियों को मारने के लिए एंकाऊंटर हुआ| इसमें एक सिपाई शहिद हुआ, तो छिपकर बैठें दो आतंकी मारे गए| वे मुसलमान थे, यह बताने की आवश्यकता नहीं| मुसलमानों का तब से यह कहना हे कि, वह एंकाऊंटर  नकली था| जो मारे गए वे आतंकी थे ही नहीं| सरकार का मत अलग है| लेकिन दिग्विजय सिंह अपने मत पर दृढ है; और उन्होंने उत्तर प्रदेश के चुनाव में कॉंग्रेस की कमान अपने हाथ में ली है, राहुल गांधी भी दिग्विजय सिंह के मत से सहमत होगे ऐसा दिखता है| मुस्लिम वोट बँक को खुष कर अपनी ओर मोडना तय करने के बाद ऐसी कलाबाजियॉं दिखानी ही पड़ती है|

भाजपा की प्रतिमा

भाजपा भी सत्ता की दावेदार है| भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी बसपा और टू जी, राष्ट्रकुल स्पर्धा, हवाला, विदेश में का काला पैसा ऐसे अनेक आर्थिक घोटालों के कारण बदनाम हुई कॉंग्रेस, भ्रष्टाचार में सने इन दो प्रतिस्पर्धिंयों की तुलना में साफ प्रतिमा के भाजपा की ओर स्वाभाविक ही जनमत का झुकाव दिखता था| जाति-गुटों के बारे में सोचे, तो ओबीसी, ठाकूर और ब्राह्मणों का समर्थन भाजपा को मिलना संयुक्तिक ही माना जाना चाहिए| इसके अलावा, किसी भी जाति-गुट में शामिल ना होने वाले, किसी विशिष्ट जाति के होने पर भी, राजनीति के लिए अपने जाति का गुट बनाने का और किसी मुआवजे के लिए उसका उपयोग करने का तंत्र जिन्हें मान्य नहीं, ऐसे बहुत बड़ी संख्या के मतदाताओं का झुकाव स्वाभाविक ही भाजपा की ओर था| टीम अण्णा प्रचार में शामिल होती और स्वयं अण्णा प्रचार के संग्राम में उतरतेे, या नहीं आते, और वे किसी भी राजनीतिक पार्टी का नाम नहीं लेते, फिर भी उनके प्रचार का लाभ भाजपा को ही हुआ होता| लोग कहते थे कि भाजपा को कम से कम सौ सिटें मिलेंगी| मतलब २००७ की तुलना में दुगनी| लेकिन भाजपा को क्या दुर्बुद्धि सूझी पता नहीं| उसने भ्रष्टाचार के मामले में फंसे मायावती के मंत्रिमंडल में के एक मंत्री - बाबूसिंह कुशवाह को - पार्टी में शामिल कर लिया और इस कारण पार्टी में प्रचंड नाराजी फूंटी| केन्द्र में के नेता भी अस्वस्थ हुए| आखिर कुशवाह को पार्टी की सदस्यता देना स्थगित किया गया| लेकिन हानि तो हो चुकी है| प्रतिमा को धब्बा तो लग ही गया| उत्तर प्रदेश की राजनीति के एक सखोल अभ्यासक ने मुझे बताया कि, भाजपा की कम से कम १८ से २० सिटें कम होगी| बुंदेलखंड में कुशवाह भाजपा को लाभ दिला सकते है| ऐसा होगा भी लेकिन होने वाली हानि, इस होनेवाले लाभ से दोगुना से अधिक की होगी| उनके मतानुसार भाजपा के विधायकों की संख्या ७५ से आगे नहीं जा सकती|

सद्य:स्थिति

मतलब, आज की स्थिति यह है कि, बसपा को, स्पष्ट बहुमत न मिलने पर भी वह सबसे बड़ी पार्टी रहेगी| दुसरे स्थान के लिए,  सपा, भाजपा और रालोद के साथ कॉंग्रेस स्पर्धा में है| २००७ के विधानसभा चुनाव में कॉंग्रेस को जोरदार चपत लगी थी| लेकिन २००९ के लोकसभा के चुनाव में उसने लोकसभा की २५ सिटें जिती थी| कॉंग्रेस का अनुमान है कि, मुस्लिम मतदाताओं ने बड़ी संख्या में कॉंग्रेस के पक्ष में मतदान किया तो राजद की मदद होने के कारण यह गठबंधन सौ का आँकड़ा पार कर जाएगा| कॉंग्रेस, गठबंधन के साथ १५० सिटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुनकर आने के स्वप्न देख रही है| यह दिवास्वप्न है या इसे कोई यर्थाथ आधार है, यह ६ मार्च को ही दिखाई देगा| भाजपा भी हुई हानि की कैसे पूर्ति करती है यह भी आगे स्पष्ट होगा| प्रत्यक्ष मतदान शुरू होने के लिए अभी करीब पौन माह बाकी है| इस कारण आज का अंदाज सही साबित होगा, इसकी गारंटी नहीं| हॉं, इतना सही है कि, उत्तर प्रदेश के इस चुनाव की ओर सबका ध्यान लगा रहेगा| उन्हें यह २०१४ के आम चुनाव आगाज लगेगा|

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी) 

Monday 9 January 2012

काश्मीर समस्या : पाडगावकर और न्या. मू. रत्नपारखी

भाष्य ११ जनवरी के लिए

                                                


 भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर की जनता के साथ और मुख्यतः विघटनवादी शक्तियों के साथ वार्तालाप करने के लिए जो वार्ताकार टीम नियुक्त की थी, उसके प्रमुख श्री दिलीप पाडगावकर २५ दिसंबर को नागपुर आए थे। निमित्त था मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्या. मू. एम. एस. उपाख्य अण्णासाहब रत्नपारखी ने हाल ही में लिखे पुस्तक 'Kashmir Problem and its Solution'  के प्रकाशन का। प्रकाशन का कार्यक्रम उसी दिन सायंकाल संपन्न हुआ। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री. विकास सिरपुरकर कार्यक्रम के अध्यक्ष थे।प्रकाशन का यह औपचारिक कार्यक्रम होने के पूर्व सुबह, श्री पाडगावकर का दस-बारह लोगों के साथ अनौपचारिक वार्तालाप हुआ। इन दोनों कार्यक्रमों में मैं उपस्थित था।

पूर्व ग्रह दूर हुए

मुझे यह मान्य करना चाहिए कि, समाचारपत्रों में प्रकाशित समाचारों से वार्ताकार टीम के बारे में हमारे जो ग्रह बने थे, वह बड़ी मात्रा, इस वार्तालाप के कारण और सायंकाल कश सार्वजनिक कार्यक्रम में हुए भाषण के कारण दूर हुए। मेरे समान ही अनेकों की कल्पना थी कि, पाडगावकर विघटनवादियों का पक्ष लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस वार्ताकार टीम ने उनकी रिपोर्ट सरकार को दी है। वह गोपनीय है। लेकिन वह सदैव गोपनीय रहे, ऐसी पाडगावकर की इच्छा नहीं। उन्होंने स्पष्ट ही कहा कि, यथाशीघ्र वह प्रकट हो और उस पर सार्वजनिक चर्चा हो। केन्द्र सरकार उसे गोपनीय क्यों रख रही है यह एक पहेली है। लोकप्रबोधन की दृष्टि से वह प्रकट होना अत्यंत आवश्यक है। इससे, इन वार्ताकारों के बारे में जो गलतफहमियाँ फैली है, वह तो दूर होगी ही, लेकिन उन्हें उस राज्य में क्या अनुभव हुआ, यह भी स्पष्ट होगा।

प्रश्न नागरिकता का

सुबह की अनौपचारिक चर्चा में, पाडगावकर की करीब चालीस मिनट की प्रस्तावना के बाद मैंने ही उन्हें प्रथम प्रश्न पूछा कि, १९४७ से पाकिस्तान में से जो हिंदू निर्वासिहत जम्मू-काशमीर राज्य में, वास्तव में जम्मू प्रदेश में स्थायिक हुए, क्या उनमें से कोईआपसे मिला? जानकारों को पता होगा कि, ये जो तीन-चार लाख निर्वासित है, उन्हें भारत सरकार ने नागरिकता प्रदान की है, लेकिन जम्मू-काश्मीर की सरकार ने उन्हें नागरिकता नहीं दी है। इस कारण ये लोग, लोकसभा के चुनाव के लिए मतदान कर सकते है, लेकिन राज्य में के पंचायत चुनाव से विधानसभा के चुनाव तक उन्हें मतदान का अधिकार नहीं। इन लागों की व्यथा पाडगावकर को समझी है, ऐसा उनके उद्‌गारों से सूचित होता है। इस बारे में उनकी टीम ने उनके रियोर्ट में क्या कहा है, यह अभी तक तो गुप्त है। पाडगावकर ने सुबह के वार्तालाप में और सायंकाल के भाषण में यह जोर देकर बताया कि, वह रिपोर्ट गोपनीय होने के कारण, उसमें क्या है, यह मैं बताऊंगा नहीं और आप भी, मेरा भाषण सुनकर या अन्य रिति से, उस रिपोर्ट के बारे में अंदाज बनाना टाले। मुझे यह भी अच्छा लगा कि, इन लोगों को सरकार के एक भेदभावपूर्ण नीति का अहसास है।

रास्ता भटके?

पाडगावकर ने यह भी कहा कि, वे जम्मू में न जाकर, लाहोर के रास्ते भारत आते, तो यह समस्या ही निर्माण नहीं होती। भारत के प्रधानमंत्री बने दो व्यक्ति पाकिस्तान से आए थे। उनमें से एक विद्यमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह है, तो दुसरे इंद्रकुमार गजराल है। लेकिन मेरे मतानुसार, वे रास्ता भटके या उनके मुकाम का स्थान गलत था, यह उनके दुर्भाग्य का कारण नहीं। उनके दुर्भाग्य का सही कारण, वे हिंदू है, यह है। वे मुसलमान होते, तो उनके राज्य के नागरिक बनने में कोई बाधा नहीं आती। यह केवल तर्क नहीं। वस्तुस्थिति है। १९४७ में, जम्मू-काश्मीर पर पाकिस्तान ने किए आक्रमण के समय, जो लोग, उसी प्रदेश में से पाकिस्तान में भाग गए, वे वापस आए इसलिए, एक प्रकार से, रेड कार्पेट बिछाने का उद्योग जम्मू-काश्मीर की सरकार ने किया। राज्य विधानसभा में उस बारे में कानून ही पारित किया। जो लोग पाकिस्तानवादी थे, जिन्होंने भारत के विरुद्ध सब प्रकार के हिंसक आंदोलनों में भाग लिया होने की संभावना है, उन्हें वापस लाने के लिए राज्य सरकार उत्सुक है। कारण एक ही कि वे सारे मुसलमान है! जम्मू-काश्मीर के राज्यपाल ने उस विधेयक को सम्मति नहीं दी और वह विधेयक वापस लौटा दिया तब, विधानसभा ने उसे वैसी ही पुनः पारित किया। इस कारण राज्यपाल के सामने उस पर स्वाक्षरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। फिर वह राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए गया, उस समय किसी राष्ट्रहितैषी व्यक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और उस कानून अमल को स्थगिति मिली। कुछ वर्ष बाद स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने ही वह स्थगिति हटाई थी। लेकिन फिर कोई पुनः न्यायालय में गया और उसे पुनः स्थगिति मिली। इस कारण उस पर अमल रूका है। यह विघातक विधेयक जिस फारूक अब्दुला की सत्ता के समय दो बार मंजूर किया गया, वे आज डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्रिपद भोग रहे है! और दिलचस्व बात यह है कि, इस भेदभाव के समर्थन के लिए, जिनके विरोध में शेख महमद अब्दुला की नॅशनल कॉन्फरन्स ने सतत आग उगली है, उन महाराजा हरिसिंग के कार्यकाल में के एक नियम का वे आधार ले रहे है।

पंडितों का प्रश्न

इस वार्तालाप में, मैंने काश्मिरी पंडितों के पुनर्वसन के बारे में भी प्रश्न पूछा था। ऐसा लगा कि, पाडगावकर को इस समस्या का भी अहसास है। मैंने मेरा एक अनुभव बताया। मैं दिल्ली में संघ का प्रवक्ता था उस समय, काश्मिरी पंडितों में से कोई मुझे मिलने आया था। उनकी मांग है कि, काश्मीर की घाटी में ही एक विशिष्ट क्षेत्र में उनका पुनर्वसन होना चाहिए। करीब पाँच लाख की जनसंख्या का वह शहर होगा और उसे केन्द्र शासित प्रदेश मानकर, केन्द्र सरकार ने, चंडीगढ़ या पुदुचेरी नगर के समान उसकी भी सुरक्षा करनी चाहिए। 'पनून काशमीर' यह जो इन पंडितों की प्रातिनिधिक संस्था है, उसकी भी यही मांग है। श्री जगमोहन राज्यपाल थे उस समय, उन्होंने घाटी में के तीन स्थानों पर उनके पुनर्वास की योजना बनाई थी। लेकिन उस पर अमल नहीं हो सका। न्या. मू. अण्णासाहब रत्नपारखी ने भी उनकी पुस्तक में इस त्रिस्थली पुनर्वास की योजना का समर्थन किया है। लेकिन मेंरा मत, 'पनून काश्मीर' के मतानुसार है। उनका एक अलग नगर कहे या जिला होना चाहिए और वह केन्द्र शासित हो। जम्मू-काश्मीर की विद्यमान सरकार पुडितों की दुरावस्था के बारे में कभी कभार मगरमछ के आँसू बहाते दिखती है और निर्वासित पंडित अपने अपने गाँव लौटे, ऐसा भी वे सुझाते है। लेकिन पंडित पुनः अपने उपर विपत्ति नहीं ओढ लेंगे; और वे पुनः खतरा क्यों मोल ले? उन्हें अपने घर-बार छोडकर निर्वासित क्यों होना पड़ा? वे क्या कर रहे थे? मुसलमानों के घरों में आग लगा रहे थे या उनके महिलाओं-लड़कियों को भगाकर ले जा रहे थे? उनका अपराध एक ही था कि वे हिंदू थे। उनकी सुरक्षा के लिये सरकार आगे क्यों नहीं आई? मेरे कहने का आशय यह कतई नहीं कि, सब मुसलमान, पंडितों की सम्पत्ति या सम्मान लुटने के विचारों के थे! नहीं। कुऐ सज्जन भी थे। लेकिन उन सज्जनों की, मुस्लिम गुंडों के सामने कुछ नहीं चली। इस संदर्भ में आँखें खोलने वाला एक प्रसंग 'अंडर द शाडो ऑफ मिलिटन्सी : द डायरी ऑफ ऍन अन्‌नोन काश्मीरी' इस पुस्तक में वर्णित है। मेरे 'काश्मीर : समस्या और समाधान' इस पुस्तक में भी मैंने वह उद्‌धृत किया है। (जिज्ञासुओं को मेरे पुस्तक में पृ. १५०-१५१ पर वह मिलेगा या उपर उल्लेखित पुस्तक के मराठी अनुवाद 'दहशतीच्या छायेत' इस पुस्तक के पृ. ५७ और ५८ देखे।)

समस्या पर उपाय

जम्मू-काश्मीर समस्या पर क्या उपाय है, यह पाडगावकर के भाषण में से समझ नहीं आया। उनकी रिपोर्ट में, शायद, उसकी चर्चा होगी। उन्होंने इतना अवश्य बताया कि, कट्टर आतंकी विघटनवादी नेताओं में से कोई भी उन्हें मिलने नहीं आया। निमंत्रण मिलने के बाद भी वे नहीं आये। तथापि, न्या. मू. रत्नपारखी की पुस्तक में, काश्मीर समस्या पर के उपायों की विस्तृत चर्चा है। सियासी तथा फौजी दोनों उपयों की उन्होंने दखल ली है। उनके सब प्रतिपादनों से सहमत होना ही चाहिए, ऐसा नहीं। लेकिन उन पर चर्चा हो सकती है और वह होनी भी चाहिए यही लेखक की इच्छा होगी। हमारे संविधान में की धारा ३७० हटाए और जम्मू-काश्मीर राज्य, भारत में के अन्य राज्यों के समान एक घटक राज्य बनें, ऐसी एक मांग है। स्वयं भूतपूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अपनी 'माय फ्रोजन टर्ब्युलन्स इन्‌ काश्मीर' इस पुस्तक में धारा ३७० ने किए दुष्परिणामों का उत्तम वर्णन किया है। न्या. मू. अण्णासाहब ने वह परिच्छेद ही संपूर्ण अपने पुस्तक में उद्‌धृत किया है। लेकिन वे जगमोहन के मतों से सहमत नहीं दिखते। उन्हें जगमोहन का प्रतिपादन मतलब भावनोद्रेक लगता है। किसी उपन्यास के समान लगता है। उसमें तर्कवाद या युक्तिवाद का अभाव है, ऐसा उन्हें लगता है। उनके मतानुसार काश्मीर की अलगता और निवासियों में भेदभाव का कारण अपने संविधान की धारा ३७० नहीं। जम्मू-काश्मीर राज्य का जो स्वतंत्र संविधान है, उस संविधान की धारा ६ के कारण यह होता है और इस धारा ६ को हमारे संविधान में की धारा ३५-अ ने आधार दिया है। न्यायमूर्ति का प्रतिपादन है कि, प्रथम धारा ३५-अ हमारे संविधान में से रद्द करें। मैंने सहज ही मेरे पास की संविधान की प्रति देखी। उसमें २००३ तक के संशोधन अंतर्भूत है। लेकिन उसमें ऐसी आक्षेपार्ह धारा दिखाई नहीं दी। न्या. मू. रत्नपारखी का संविधान का अभ्यास अत्यंत सखोल एवं सर्वंकष है। इस कारण, उनसे गलती होना संभव ही नहीं। मुझसे ही गलती होने की संभावना है।

३७० का समर्थन

पाडगावकर को भी धारा ३७० के कायम रहने में कोई गलती है, एोस नहीं लगता। न्या. मू. रत्नपारखी लिखते है कि, धारा ३७० भारत को काश्मीर से जोडनेवाला पूल है। प्रश्न यह है कि ऐसा पूल म्हैसूर, बडोदा या ग्वालियर इन रियासतों के लिए क्यों नहीं? पाडगावकर ने अपने सार्वजनिक भाषण में कहा कि, धारा ३७० के अनुसार ही भिन्न भिन्न राज्यों के लिए धारा ३७१ है। पाडगावकर का कहना सही है। 'ए' से 'आय्‌' तक धारा ३७१ की उपधाराएँ हैं और वह क्रमश: नागालँड, असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, (फिर आंध्र प्रदेश), सिक्कीम, मिझोराम, अरुणाचल और गोवा इन राज्यों के लिए है। धारा ३७० यदि इतनी निरुपद्रवी होगी और धारा ३७१ के जम्मू-काश्मीर के लोगों का समाधान होना होगा, तो धारा ३० रद्द कर ३७१ के 'आय्‌' बाद का  'जे' अक्षर लेकर वह भी जम्मू-काश्मीर को लागू करें। कोई भी शिकायत नहीं करेगा!

स्वायत्तता एवं विभाजन

यह मान भी ले कि, मुसलमानों को खुष करने के लिए यह अलग व्यवस्था आवश्यक है। उन्हें अधिक स्वायत्तता चाहिए और अनेकों को यह समर्थनीय लगता है। फिर उनसे विचार विनिमय कर निश्चित करे, उस स्वायत्तता का आकार और प्रकार (content and complexion) लेकिन वह उस राज्य के अन्य भागों पर क्यों लादे? जिन्हें वह चाहिए, उन्हें वह भोगने दे। औरों  पर उसकी जबरदस्ती क्यों? इस विचार से रा. स्व. संघ के त्रिभाजन की मांग करनेवाले प्रस्ताव का उगम हुआ है। वह, वर्ष २००२ में, संघ के कार्यकारी मंडल ने (प्रतिनिधि सभा ने नहीं) पारित किया। तब और एक कारण उपस्थित हुआ था। १९४७ में पाकिस्तान में जो मुसलमान भाग गये और जिन्हें वापस लाने के लिए फारूक अब्दुला सरकार तड़प रही थी, उन सब का जम्मू प्रदेश में पुनवर्सन करने की योजना थी। विद्यमान जम्मू प्रदेश में मुसलमानों की संख्या ३५ प्रतिशत है। उसे और बढ़ाने की यह चाल थी। जम्मू के लोगों को डर लगा कि, यह जनसंख्या का अनुपात बिगाडने का षड्‌यंत्र है। जम्मू का अरग राज्य बना, तो भेदभाव समाप्त होगा। काश्मीर में जितने बड़े मतदार संघ के लिए एक विधायक है, उतने बड़े मतदार संघ के लिए जम्मू में भी एक विधायक रहेगा। आज काश्मीर घाटी का वर्चस्व कायम रखने के लिए करीब समान जनसंख्या होते हुए भी जम्मू-काश्मीर के हिस्से विधानसभा की ३७ सिटें हैं, तो घाटी के हिस्से ४६। काश्मीर घाटी के एक विधानसभा क्षेत्र में करीब ५३ हजार मतदाता होते है, तो जम्मू प्रदेश के एक मतदार संघ में मतदाताओं की संख्य करीब ६७ हजार होती है। जो बेचारे गत साठ वर्षों से अधिक स्थानिक एवं राज्यस्तरीय मतदान से वंचित है, उन्हें, जम्मू प्रदेश का अलग राज्य बन गया तो राज्य की नागरिकता भी प्राप्त होगी। आज ये लोग भारत के नागरिक है, लेकिन जम्मू-काश्मीर के नहीं। क्या अन्य राज्यों में ऐसी स्थिति है। विद्यमान राज्य के विभाजन से, घाटी में एक छोटा पाकिस्तान निर्माण होगा, यह न्यायमूर्ति का भय निरर्थक है, ऐसा मेरा मत है। पाकिस्तान में की आज की प्रचंड गडबडी देखकर कोई मुसलमान पाकिस्तान में जाने की इच्छा रखता होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता।
जो भी हो। संघ का प्रस्ताव होकर अब एक तप बीत रहा है। संघ ने भी उसके लिए ज्यादा आग्रह किया ऐसा नहीं दिखता। भाजपा का तो असे विरोध ही है। फिर, जैसे थे स्थिति रखने में हर्ज नहीं। लेकिन यह राज्य अन्य राज्यों के समान होना चाहिए। जम्मू-काश्मीर के संविधान में कहेनुसार वह भारत का अविभाज्य भाग होना चाहिए और वह वैसा दिखना चाहिए तथा महसूस भी होना चाहिए।

प्रशंसनीय मुद्दे

कुछ प्रशंसनीय मुद्दे न्या. मू. रत्नपारखी के इस पुस्तक मे है। (१) जम्मू-काश्मीर प्रश्न हल करने में पाकिस्तान की कोई भूमिका नहीं। (२) यह प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता से हल नहीं होगा। (३) हमगरी ताकद के भरोसे ही यह समस्या हल हो सकेगी। न्यायमूर्ति के शब्द है - "The problem will be solved on our own strenght. Our strenght lies in our economic and military power and democracy." (पृ. २३४

पाकव्याप्त काश्मीर


एक प्रश्न पाकव्याप्त काश्मीर का भी है। उसकी अधिक चर्चा न्यायमूर्ति के पुस्तक में नहीं है। लेकिन परिशिष्ठ क्रमांक १२ में २२ फरवरी १९९४ को संसद के दोनों सदनों ने पारित किया संपूर्ण प्रस्ताव उन्होंने अतंर्भूत किया है। उस प्रस्ताव में पाकव्याप्त काश्मीर के क्षेत्रे के साथ लदाख काश्मीर घाटी और जम्मू प्रदेश यह सब मिलकर जो जम्मू-काश्मीर राज्य है वह भारत का अविभाज्य भाग है ऐसा प्रतिपादित किया गया है। यह प्रस्ताव पारित कर आज १८ वर्ष हो रहे है। लेकिन सरकार को उस प्रस्ताव का ही सम्रण नहीं होगा ऐसा दिखता है। अन्यथा कारगिल युद्ध के समय युद्धबंदी सीमा रेखा के तथाकथित पावित्र्य से हमने हाथ-पाँव नहीं बांध लिए होते। इसी प्रकार काश्मीर में हिंसक कारवाईंयाँ करनेवालों के इस भाग में के प्रशिक्षण शिबिर हमनें उद्‌ध्वस्त करने की योजना की होती। काश्मीर समस्या के संदर्भ में पाकिस्तान का संबंध केवल उसके कपट से हथियाया प्रदेश कब मुक्त किया जाता है इसी मुद्दे तक मर्यादित है। हुरियत के नेता और अन्य लोग मुख्यतः अंतर्राराष्ट्रीय क्षेत्र के देश कुछ भी कहें जम्मू-काश्मीर राज्य की व्यवस्था के संदर्भ में केवल भारत एवं संपूर्ण काश्मीर की जनता (संपूर्ण राज्य की केवल घाटी की नहीं) इनका ही संबंध है यह भारत को छाती ठोककर बताते आना चाहिए। सौभाग्य से आज की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति हमारे लिए अनुकूल है। पाकिस्तान की समर्थक रही अमेरिका पाकिस्तान को पहले के समान मदद करने की मानसिकता में नहीं है। संपूर्ण मुस्लिमबहुल पश्चिम एशिया अंतर्गत रक्तलांच्छित घटनाओं से अस्वस्थ बना है। और मुख्य यह कि, पाकव्याप्त काश्मीर में की जनता पाकिस्तान के विरोध में है। इस मुद्दे का तपसील एक लेख की मर्यादा में देना असंभव है। उसकी चर्चा मैंने अपने 'काश्मीर, समस्या एवं समाधान' इस पुस्तक में की है। जिज्ञासू वहाँ पृ. १८०, १८१ और १८२ पर देखें। तात्पर्य यह कि समस्या का समाधान अपनी शक्ति पर अवलंबित है। न्यायमूर्ति ने फौजी एवं आर्थिक शक्ति का उल्लेख किया है। मुझे, उस शक्ति के साथ राजकर्ताओं की शक्ति भी चाहिए, यह जोडना है। इच्छा शक्ति होगी तब ही अन्य दो शक्तियों का उपयोग हो सकेगा।

- मा. गो. वैद्य

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

Monday 2 January 2012

श्रीमद्भगवद्गीता की सार्वकालिक यथार्थता

भाष्य ४ जनवरी के लिये    

श्रीमद्भगवद्गीता हिंसा और आतंकवाद को प्रेरणा देनेवाला ग्रंथ है, इसलिए उसपर बंदी लगाए, ऐसी मांग करनेवाली याचिका खारीज की गई, यह बहुत अच्छा हुआ| प्रचंड, पूर्व-पश्‍चिम लंबाई करीब दस हजार किलोमीटर! बाल्टिक सागर से पॅसिफिक महासागर तक! और उत्तर-दक्षिण अंतर करीब चार हजार आठ सौ किलोमीटर! यह प्रचंड रूस एशिया और यूरोप इन दो महाद्वीपों में फैला! शायद, दुनिया में एकमात्र देश होगा! उसके पूर्व की ओर, एशिया महाद्वीप में सैबेरिया यह एक प्रान्त है| वह भी बहुत विस्तीर्ण| अर्थात् केवल क्षेत्रफल की दृष्टि से| वहॉं मनुष्यों से बर्फ ही अधिक है| इस सैबेरिया के बर्फिले रेगिस्थान में तोम्स्क नाम का एक शहर है| वहॉं के कनिष्ठ न्यायालय में यह मुकद्दमा चला| और उसने हमारे देश में खलबली मचा दी|

चर्च का हाथ

मेरी पहली प्रतिक्रिया इस मामले की ओर दुर्लक्ष करने की थी| दस-बारह दिनों पूर्व ‘स्टार माझा’ दूरदर्शन वाहिनी की एक टीम, कुछ मुद्दों पर मेरा मत जानने घर आई थी| उस टीम के प्रमुख ने, मुझे, अनेक प्रश्‍नों के साथ यह भगवद्गीता पर बंदी डालने की मांग के बारे में भी प्रश्‍न पूछॉं था| मैंने कहा, इस मांगका कारण केवल अज्ञान है; और उसकी उपेक्षा ही करना योग्य होगा| लेकिन गत रविवार, ब्लॉग पर मेरा भाष्य पढ़ने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक ज्येष्ठ प्रचारक का अभिप्राय आया कि, ‘गीता प्रकरण पर’ मेरा भाष्य आएगा, ऐसी उनकी अपेक्षा थी| फिर मुझे भी लगा कि, इस विषय पर लिखना चाहिए| मन का ऐसा निश्‍चय हो ही रहा था कि मुकद्दमें के फैसले का आनंददायक समाचार आया| और इस विषय पर लिखना चाहिए, ऐसा लगा| साथ ही यह भी पता चला कि, तोम्स्क मामले के पीछे रूस के ऑर्थोडॉक्स चर्च का हाथ है|  

आर्थोडॉक्स चर्च

ईसाई धर्म के अनेक संप्रदाय और पंथ है| रोमन कॅथॉलिक यह सबसे बड़ा पंथ है| प्रॉटेस्टंट उससे कम लोकसंख्या का| और, उसके उपपंथ भी अनेक है| ऑर्थोडॉक्स चर्च यह भी एक पंथ ही है| ‘ऑर्थोडॉक्स’ मतलब पुराना, मूलगामी, परिवर्तनविरोधी| इस चर्च का प्रभाव ग्रीस और अन्य कुछ देशों में है| रूस में इस पंथ को माननेवालों की संख्या करीब बीस प्रतिशत है| १९१७ में हुई कम्युनिस्ट क्रांति के बाद, इस चर्च पर, सरकार ने बंदी लगाई थी| कारण, कम्युनिस्टों का धर्मसंप्रदायों को विरोध था| सत्तर वर्षों से अधिक समय तक यह बंदी कायम थी| ऐसा लगता है कि अब वह हटाई गई है| लोग खुले आम चर्च में जाने लगे है| इस पुरानी विचारधारा के कुछ लोगों को भगवद्गीता अच्छी ना लगी हो, तो इसमें आश्‍चर्य नहीं| शायद रूस में भगवद्गीता को दिनोंदिन बढ़ता भक्तसंघ प्राप्त हो रहा है, इस कारण भी चर्च में के कुछ अतिवादियों का माथा ठनका होगा|

रूस में प्रभाव

आप कहेगे कि रूस में! और भगवद्गीता का प्रभाव! हॉं, यह आश्‍चर्यजनक पर सत्य है| यह परिवर्तन ‘हरे कृष्ण’ इस नाम से जाने जानेवाले पंथ के अनुयायीयों ने किया है| यह पंथ सर्वत्र ‘इस्कॉन’ के नाम से जाना जाता है| ‘इस्कॉन’ मतलब ‘इंटरनॅशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कॉन्शस्नेस्’ -अर्थ स्पष्ट है - ‘भगवान् कृष्ण के बारे में जागृति करने के लिए बनी अंतर्राष्ट्रीय समिति’| इस समिति ने भगवान् कृष्ण और उसके तत्त्वज्ञान का रूसीयों को परिचय कराने की योजना बनाई है| वैसे इसका आरंभ तो १९७१ में ही हुआ था| उस समय कम्युनिस्ट शासन था| लेओनिद ब्रेझनेव्ह यह तानाशाह राज कर रहा था| १९७१ में इस ‘इस्कॉन’ के संस्थापक भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभूपाद का रूस की राजधानी - मॉस्को में - पॉंच दिन मुक्काम था| प्रोफेसर कोटोवस्की इस हिंदू धर्म का अभ्यास करनेवाले विद्वान से मिलने वे इतने दूर आए थे| वहॉं उनका कुछ युवकों के साथ संवाद हुआ| उसका परिणाम यह है कि आज रूस के राष्ट्रमंडल में के देशों में ५५ हजार वैष्णव है| मॉस्को में इस्कॉन का मंदिर है| वहॉं रोज एक हजार भक्त आते है| विशेष अवसरों पर तो यह आँकडा दस हजार से भी अधिक होता है| गोर्बाचेव रूस के राष्ट्रपति बनने के बाद, १९८८ में, इस ‘इस्कॉन’ को अधिकृत मान्यता मिली| अब मास्को में एक भव्य कृष्ण मंदिर बनाया जा रहा है| उसका नाम होगा ‘मॉस्को वेदिक सेंटर’| भक्तिविज्ञान गोस्वामी उस केन्द्र के प्रमुख है| नाम पढ़कर गडबडाने का कारण नहीं| वे रूसी है; और अभी भारत में आए है| मॉस्को में एक पुराना कृष्ण मंदिर था| वह मॉस्को नगर परिषद की आज्ञा से गिराया गया| उसके मुआवजे में इस्कॉन को पॉंच एकड जमीन मिली है, वहॉं भव्य ‘वेदिक सेंटर’ बन रहा है| २०१२ के अंत तक वह पूर्णहोगा| आज एक छोटी जगह पर अस्थाई मंदिर खड़ा है|

सेक्युलॅरिस्ट भी शामिल

रूस के एक न्यायालय में यह मुकद्दमा चलने का समाचार आते ही, भारत में उसपर प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था| भारत सरकार ने भी इसमें ध्यान दिया और संपूर्ण भारत की भावना, रूस के राजदूत को बुलाकर, उसे बताई| संघ, विहिंप, आदि हिंदुत्त्वनिष्ठ संगठनों ने मुकद्दमा दायर करने की कृति का निषेध करना स्वाभाविक ही था| लेकिन संसद में भी इस बारे आवाज उठी; और आश्‍चर्य यह कि लालूप्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव इन छद्म सेक्युलॅरवादियों के अर्क ने भी इस कृति का निषेध किया| हम यहीं समझे कि, भगवद्गीता का कर्ता यादवकुलोत्पन्न था इस कारण ही उनका गीता-प्रेम नहीं उमडा, उन्हें भगवद्गीता की महती समझ आई है, इसलिए ही उन्होंने रूस में की घटना का तीव्र निषेध किया|
इस स्थानपर इन तथाकथित सेक्युलॅरवादियों का वर्तन कैसा रहता है, इसका एक नमुना दिखाना उचित होगा| मध्य प्रदेश की भाजपा की सरकार ने, विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भगवद्गीता के कुछ श्‍लोकों को अंतर्भाव किया है| इस बारे में घोषणा होते ही ‘भगवाकरण’, ‘सांप्रदायिकता’ ‘आरएसएस का अजेंडा’ आदि नारे लगाकर सेक्युलॅरिस्टों ने छाती पीट ली थी| इन लोगों ने यह भी ध्यान में नहीं लिया कि, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे जैसे, जिन्हें वे पूज्य मानते है गीता की शिक्षा से अनुप्राणित हुए थे| विनोबा की ‘गीताई’ और ‘गीताई चिंतनिका’ सब के एक बार पढ़नी ही चाहिए| क्या गांधी-विनोबा सांप्रदायिक थे? ऐसी वृत्ति के लोगों ने भी भगवद्गीता पर की संभाव्य बंदी का निषेध किया, यह विशेष है|

सार्वकालिक, सार्वदेशिक

वस्तुत:, गीता सांप्रदायिक ग्रंथ है ही नहीं| वह भारत में निर्माण हुआ और हिंदू जिसे पूर्णावतार मानते है उस भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से निकला होने के बावजूद, वह संपूर्ण मानवजाति के लिए है| देश और काल की मर्यादा उसे बांध नहीं सकती| गीता का उपदेश सार्वकालिक और सार्वदेशिक है| गीता ने जितनी स्वतंत्रता दी है उतनी अन्य किसी भी धर्मग्रंथ ने नहीं दी| गीता, अपने और पराए ऐसा भेद करती ही नहीं| गीता के ९ वे अध्याय में का २३ वा श्‍लोक कहता है ‘‘जो अन्य देवताओं के भक्त, श्रद्धापूर्वक, उन उन देवताओं का पूजन करते है, वे भी अज्ञानवश ही सही, मुझे ही पूजते है|’’ मूल शब्द है ‘‘यऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: | तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥'' ‘अवधि’ इस शब्द का अर्थ आद्य शंकराचार्य ने ‘अज्ञान’ बताया है| यही विचार ७ वे अध्याय के २१ वे श्‍लोक में भी व्यक्त हुआ है| वह श्‍लोक इस प्रकार है ‘‘यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति | तस्म तस्याचलां श्रद्धां तामेव विद्याम्यहम् ॥'' मतलब भक्त, श्रद्धापूर्वक, जिस जिस देवतास्वरूप का पूजन करना चाहता है, उसकी उसकी श्रद्धा मैं अचल करता हूँ| यहॉं मोमीन-काफीर, या ईसाई-हीदन ऐसा भेद नहीं| ‘सब मेरे’ - ऐसी संपूर्ण विश्‍व को अपने भीतर समाविष्ट करनेवाली अलौकिक उदारता है|

राष्ट्रीय ग्रंथ

भगवद्गीता कार्यप्रवण करनेवाली है| मोहवश हताश हुए एक वीर पुरुष को कर्तव्यप्रेरित करने के लिए ही उसका अवतार है| स्वयं का उदाहरण देकर भगवान् कृष्ण कहते है कि, ‘मुझे नहीं मिला ऐसा कुछ भी नहीं है| जो प्राप्त करना है, ऐसा भी कुछ नहीं| फिर भी मैं कार्यरत हूँ| ज्ञानी मनुष्य ने उसके हिस्से आया कर्म करना ही चाहिए| कारण लोकस्थिति का संधारण होना ही चाहिए|’ ज्ञानदेव के शब्द है ‘‘हे सकळ लोकसंस्था | रक्षणीय गा सर्वथा ॥ तात्पर्य यह कि, आज भी और आगे भी भगवद्गीता यर्थाथ रहनेवाली है| सब जननेताओं को, फिर वह किसी भी कार्यक्षेत्र में काम करनेवाले हो, उसका चिरंनत मार्गदर्शन है| ऐसे इस अद्वितीय ग्रंथ को वस्तुत: हमारे मतलब सब भारतीयों के राष्ट्रीय ग्रंथ की मान्यता मिलनी चाहिए| उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने भी ऐसी सूचना की है| लेकिन सेक्युलॅरिझम् के विकृत जाल में फंसे आज के राजकर्ता यह करने का धाडस करेगे, ऐसी आशा करने में कोई अर्थ नहीं और सरकारी मान्यता पर श्रीमद्भगवद्गीता का सामर्थ्य भी अवलंबित नहीं| 
   
     इतस्तत:

    भिन्न भिन्न संस्कृतियों का सम्मेलन
हम ऐसा समझते है कि, ईसाई धर्म प्रसार के कारण संपूर्ण यूरोप महाद्वीप और संपूर्ण अमेरिका मतलब दक्षिण और उत्तरी अमेरिका ईसाई बन गई है| लेकिन वस्तुस्थिति वैसी नहीं है| अनेक जनजातियों ने अपनी पुरानी श्रद्धा और विश्‍वास अभी भी संजोकर रखे है| उनके नाम ईसाई नामों  के समान लगते है, लेकिन उनका अंतरंग अलग है|
अपनी भिन्न संस्कृति और श्रद्धा सुरक्षित रखनेवाली जनजातियों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन करीब तीन माह पूर्व मेक्सिको में के ताओस शहर में संपन्न हुआ| इस सम्मेलन में ४२ प्रतिनिधि आए थे| चेरोकी, लाकोटा, होपी, किपात्सी इन परंपराओं के लोगों के साथ कुछ हिंदू भी वहॉं उपस्थित थे| यह सम्मेलन, उत्तर अमेरिका के ‘इंटरनॅशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज्’ इस संस्था ने आयोजित किया था| नागपुर के प्रा. यशवंत पाठक इस संस्था के संयोजकों में प्रमुख है|
पहला सत्र प्रार्थना के साथ शुरू हुआ| यंगवुल्फ ने प्रार्थना पढ़ी| फिर सँटो डोमिनियन के प्रतिनिधि जोस ने परिषद को आशीर्वाद देनेवाला भाषण किया| फिर पेरू देश में ईसाई साम्राज्यवाद कैसे फैला, यह अलबुकर्क में रहनेवाले किपात्सी पंथीयों ने स्पष्ट किया| हिंदू स्वयंसेवक संघ के लक्ष्मीनारायण ने अमेरिका के संयुक्त संस्थान में (युएसए) बालगोकुलम् कैसे पनप रहा है, यह विशद किया|
डोग कोनेल ने पर्यावरण-संरक्षण का महत्त्व बताया| डॉ. योवेट्टो रोसर इस विदुषी ने समारोपीय भाषण किया| उन्होंने अपने भाषण में स्थानिक संस्कृतियों को विनाश का कैसे खतरा है, यह इतिहास के अनेक सबूत देकर स्पष्ट किया| आक्रमक संप्रदायों से बचाने के लिए केवल भारत ही हमें मदद कर सकता है, यह उन्होंने जोर देकर बताया; और सबने आपस में ऐक्यभावना के साथ रहना चाहिए, ऐसा उपदेश किया|

    थायलँड में का गणेशोत्सव

इस वर्ष थायलँड में लोगों ने उत्साह के साथ गणेशोत्सव मनाया| दो स्थानों पर गणेश की प्रतिष्ठापना की गई| एक, राजधानी बँकॉक में के रामिनतरा के शिवमंदिर में और दूसरी बँकॉक से करीब २०० किलोमीटर दूर के नखोन नायक में के गणेश मंदिर में|
करीब ३८ फुट ऊँची गणेश के भव्य मूर्ति के प्रतिष्ठापना की पूजा, बँकॉक के बौद्ध विश्‍वविद्यालय के कुलपति श्री फराराज कोसोन ने की| रामिनतरा मंदिर के प्रमुख श्री माए खु व्हॉन सॉंग ने भी पूजन किया|
गणेश विसर्जन के दिन एक भव्य जुलूस निकाला गया| भगवे वस्त्र और स्थानिक पद्धति के कपडे पहने लोग हाथों में झंडे फहराते हुए भजन, कीर्तन गाते, इस जुलूस में बड़ी संख्या में शामिल हुए| थाई पद्धति के घोष टीम (बँड्स) ने जुलूस में चैतन्य निर्माण किया|
गत अनेक वर्षों से केवल हिंदू ही नहीं, स्थानीय थाई लोग भी इस उत्सव में उत्साह से भाग लेते है| एक दिलचस्व बात यह कि इस वर्ष २८ थाई गणेश भक्त अपनी गणेश मूर्तिंयॉं लेकर मुंबई आए थे| चौपाटी पर उन्होंने गणेश मूर्ति का विसर्जन किया| इन २८ गणेश भक्तों की टीम का नेतृत्व शिल्पकॉन विश्‍वविद्यालय के डीन डॉ. खून खोन कृत और पं. ब्रह्मानंद दुबे ने किया|   

    संस्कृत भारती का कार्य

‘संस्कृत भारती’ संस्था लोगों को संस्कृत भाषा में बोलचाल करना सिखाती है| उसकी सिखाने की पद्धति ऐसी खास है कि, लोगों को अब संस्कृत कठिन और क्लिष्ट भाषा है, ऐसा लगता ही नहीं|
‘संस्कृत भारती’ गत तीस वर्षों से यह कार्य कर रही है| उसके इस प्रयास के कारण करीब ९० लाख लोग संस्कृत बोल सकते है, बोलते भी है| १९ देशों में संस्कृत भारती का काम चल रहा है|
हमारे देश में के अधिकांश प्रांतों में १० दिनों के संस्कृत संभाषण वर्ग चलते रहते है| सामान्यत: हर माह एक वर्ग होता है| पहले एक वर्ग में मुश्किल से १० - १५ लोग आते थे| अब हर वर्ग में ५० - ६० की उपस्थिति रहती ही है| और मुख्यत:; वे युवक होते है| म्हैसूर के सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ इंडियन लँग्वेजेस इस संस्था के प्रोफेसर आर. सुब्बाकृष्ण बताते हे कि, अत्याधुनिक विज्ञान एवं तंत्रज्ञान सिखानेवाली आयआयटी में संस्कृत भाषा पर संशोधन चल रहा है| मुंबई में की आयआयटी में तो संस्कृत भाषा में के विज्ञान और तकनीक का अभ्यास करने के लिए एक अलग केन्द्र ही (सेल) कार्यरत है|     
    भय्याजी काणे का स्मृतिदिन

कहॉं महाराष्ट्र? कहॉं मणिपुर? लेकिन इस मणिपुर राज्य में के उखरूल जिले में के खरासोम गॉंव में ‘ओजा शंकर विद्यालय’ नाम की शाला है| ‘शंकर’ यह भय्याजी का नाम है| पूरा नाम शंकर दिनकर काणे है|
भय्याजी काणे संघ के कार्यकर्ता लेकिन प्रचारक नहीं| साधे ही कार्यकर्ता थे| उन्होंने अपने कर्तृत्व के लिए मणिपुर राज्य को चुना| १२ वर्ष पूर्व उनका निधन हुआ| लेकिन, उनसे प्रेरणा लेनेवालों की स्मृति में वे जीवित ही है| २६ अक्टूबर २०११ को ओजा शंकर विद्यालय में उनका स्मृतिदिन मनाया गया| भय्याजी के भूतपूर्व विद्यार्थी रिंगफानी ने उस अवसर पर कहा, ‘‘सीधे साधे भय्याजी ने स्वयं को समाज के लिए समर्पित कर दिया था|’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘१९७१ में, भय्याजी महाराष्ट्र में से अत्यंत दुर्गम मणिपुर में के न्यू त्सोम गॉंव आए| वहॉं शिक्षक बनकर एक वर्ष सेवा की| उस अल्पावधि में वे स्थानीय तांखुल नागा ही बन गए| फिर वे हमें पढ़ाई के लिए कर्नाटक में ले गए| माता-पिता के समान हमारा ध्यान रखा| अलग अलग प्रांतों में ले जाकर करीब तीन सौ विद्यार्थींयों को शिक्षित किया| यह बच्चें विविध जनजाति एवं धर्म के थे| लेकिन उन्होंने कभी भी भेदभाव नहीं किया| ‘शिक्षा में से राष्ट्रीय एकात्मता’ यह उनका ध्येय था| उनका यह स्वप्न पूर्ण करना अब हम सब की जिम्मेदारी है|’’

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)