Sunday 27 May 2012

भाजपा का भविष्य


                             

दिनांक २४ मई को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकारी मंडल ने, लगातार दो बार, अध्यक्ष पद पर एक ही व्यक्ति रह सकती है, ऐसा संविधान संशोधन किया. इस कारण, विद्यमान अध्यक्ष नीतीन गडकरी को आगामी तीन वर्ष के लिए अध्यक्ष पद पर बने रहने का मौका मिला है. श्री गडकरी के वर्तमान अध्यक्ष पद की अवधि दिसंबर २०१२ को समाप्त हुई होती. अब वे २०१५ तक अध्यक्ष पद पर रह सकेंगे. अर्थात् आज तो यह संभाव्यता ही माननी चाहिए. कारण, यह संविधान संशोधन, पार्टी की आम सभा ने मंजूर करना चाहिए; और महत्त्वपूर्ण यह है कि गत बार के समान गडकरी का अविरोध चुनाव होना चाहिए. यह दोनों बातें संभावना के दायरे में होने के कारण ही, श्री गडकरी २०१५ तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहेगे, ऐसा माना जा रहा है.

पार्टी से व्यक्ति श्रेष्ठ?

राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने यह प्रस्ताव पारित करने के पूर्व एक घटना घटित हुई. कार्यकारिणी के एक सदस्य श्री संजय जोशी ने अपनी सदस्यता से त्यागपत्र दिया. यह त्यागपत्र उन्होंने अपनी मर्जी से नहीं दिया, यह सूर्यप्रकाश के समान स्पष्ट है. उन्हें वह देना पड़ा. क्यों? - एनडीटीव्ही पर इस विषय पर की चर्चा मैंने सुनी. चर्चा में भाग लेने वालों में से एक ने ऐसा मत व्यक्त किया कि, गडकरी ने अध्यक्ष पद प्राप्त करने के लिए संजय जोशी की बलि दी. मुझे यह अभिप्राय गडकरी पर अन्याय करने वाला लगा. लेकिन यह सच है कि, गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को खुश करने के लिए संजय जोशी को जाना पड़ा. वे त्यागपत्र न देते, तो क्या होता? श्री मोदी मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सभा में नहीं आते. शायद गुजरात से कोई भी नहीं आता. लेकिन उससे क्या बिगड़ता? क्या संविधान संशोधन नहीं होता? संभावना नकारी नहीं जा सकती कि, वह एकमत से नहीं होता. पार्टी में फूट दिखाई देती. जनतांत्रिक व्यवस्था माननेवाली पार्टी के संदर्भ में यह अप्रत्याशित नहीं है. मुझे लगता है कि, नरेन्द्र मोदी का अंहकार संजोने के लिए ही संजय जोशी की बलि दी गई है. यह अयोग्य है. पार्टी की अपेक्षा एक व्यक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध करने का यह प्रकार है, ऐसा खेदपूर्वक कहना पड़ता है.

षड्यंत्र

मोदी-जोशी के बीच की दूरी का सब संदर्भ मुझे पता है. जोशी को बदनाम करने का एक गंदा षड्यंत्र गुजरात में रचा गया था. एक अश्‍लील सीडी बनाई गई थी. उसका प्रसारण भी दूरदर्शन की एक वाहिनी से किया गया था. लेकिन बाद में ध्यान में आया कि, वह सीडी बनावटी है. देश में की और विदेशों में की फॉरेन्सिक प्रयोग शालाओं ने वह सीडी बनावटी होने का प्रमाणपत्र दिया है. इस गंदी राजनीति में श्री मोदी का यत्किंचित भी संबंध नहीं था, ऐसा छाती ठोककर कहा जा सकता है? यह कलंक जब तक दूर नहीं होता, तब तक कोई भी पद स्वीकार नहीं करूंगा, ऐसा जोशी ने निश्‍चित किया था और उस पर वे कायम रहे. उनके निष्कलंकत्व के बारे में यकीन होने के बाद ही गडकरी ने उन्हें फिर कार्यकारिणी का सदस्यत्व अर्पण किया. उन्हें त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर, अपना मत परिवर्तन हुआ है, और वे जोशी को निष्कलंक नहीं मानते, ऐसा अप्रत्यक्ष ही सही, सबूत गडकरी ने इस मामले में दिया है, ऐसा किसे ने कहा, तो उसे दोष नहीं दिया जा सकता.

अनुचित नीति

कोई एक व्यक्ति बाजू हट जाती है, तो पार्टी की बहुत बड़ी हानि होती है, ऐसा नहीं. श्री मोदी नाराज रहते, मुंबई की बैठक में नहीं आते, या और आगे जाकर भाजपा छोड देते, तो भी अधिक से अधिक गुजरात में भाजपा की सत्ता जाती. इसी वर्ष अक्टूबर-नवंबर में वहॉं विधानसभा का चुनाव है. भाजपा पराभूत भी होता. लेकिन क्या भाजपा यह पार्टी ही समाप्त होती? २००८ तक राज्यस्थान में भाजपा की सत्ता थी. २००८ के चुनाव में भाजपा का पराभव हुआ. क्या राज्यस्थान में की भाजपा समाप्त हुई? हाल ही हुए विधानसभा के चुनाव में उत्तराखंड में भाजपा का पराभव हुआ, क्या वहॉं भाजपा समाप्त हुई? एक व्यक्ति की राजी-नाराजी के लिए, न्याय-अन्याय का विचार न करना, यह नीति, न नैतिक दृष्टि से, और न ही व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती.

चारित्र्यसंपन्न उम्मीदवार

श्री नीतीन गडकरी के पुन: अध्यक्ष पद पर आने की इस प्रक्रिया को लगे धब्बे के बारे में अधिक कुछ लिखना आवश्यक नहीं. श्री गडकरी पुन: तीन वर्ष के लिए अध्यक्ष पद पर बने रहेगे, यह अब, करीब करीब निश्‍चित है. यह अच्छी बात है. २०१४ का लोकसभा का चुनाव उनके कार्यकाल में होगा. वे किसी एक गुट से संलग्न न होने के कारण और उनका अपना भी कोई गुट न होने के कारण, उम्मीदवारों का चुनाव करते समय व्यक्तिनिष्ठा, गुटनिष्ठा की अपेेक्षा उनका चारित्र्य और उनकी पार्टीनिष्ठा को प्राधान्य रहेगा, ऐसी आशा है. २०१४ के चुनाव में उम्मीदवारों के चरित्र और चारित्र्य को, अन्य चुनावों की तुलना में अधिक महत्त्व रहेगा. श्री अण्णा हजारे, हाल ही में नागपुर आये थे; उस समय उन्होंने सार्वजनिक रूप में कहा कि, ‘‘अच्छे उम्मीदवार दो. हम उनका प्रचार करेंगे.’’ अण्णा के शब्द और कृति को वजन है, यह भूलना नहीं चाहिए. हम ऐसी भी आशा करे कि, भाजपा के उम्मीदवारों में युवा उम्मीदवारों की संख्या अच्छी रहेगी.

तीसरा मोर्चा?

 २०१४ के चुनाव में भाजपा को सत्ता में आने के लिए परिस्थिति अनुकूल होगी. आज की सत्तारूढ कॉंग्रेस पार्टी, भ्रष्टाचार, अकर्तव्यता और दिशाहिनता के आरोपों से ग्रस्त और त्रस्त है. महंगाई भी तेजी से बढ़ रही है. हाल ही में पेट्रोल की कीमत में की गई बड़ी वृद्धि के कारण कॉंग्रेस के विरुद्ध जनक्षोभ फूंट पड़ा है. आंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में रुपये का मूल्य, अभूतपूर्व कम हुआ है. कॉंग्रेस के लिए २०१४ का चुनाव जीतना या आज के समान दो सौ सिटें कायम रखना असंभव है. जनता को दूसरा विकल्प स्वीकारना ही होगा; और वह विकल्प भाजपा ही है. अखिल भारतीय स्तर पर अन्य पार्टियॉं नहीं है. वाम पार्टियों की स्थिति भी कमजोर हुई है. केरल और प. बंगाल इन दो राज्यों में उनकी सरकारे थी. वे दोनों राज्य उनके हाथों से निकल चुके है. केवल त्रिपुरा इस छोटे राज्य में उनकी सरकार है. वे तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयास करेगे. लेकिन यह मोर्चा बनाना आसान नहीं है. प. बंगाल, ओडिशा, तामिलनाडु, पंजाब इन राज्यों में प्रादेशिक पार्टियॉं सत्ता में है. उनमें से कोई भी कम्युनिस्टों को अपने पास फटकने देने का विचार भी नहीं कर सकती. उत्तर प्रदेश में की समाजवादी पार्टी कॉंग्रेस की ओर मुडी दिखाई देती है. फिर शेष रहती है दो ही प्रबल प्रादेशिक पार्टियॉं. (१) मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और (२) चंद्राबाबू नायडू की तेलगू देसम् पार्टी. ये दोनों वाम दलों के साथ गये, तो भी वह मोर्चा मजबूत नहीं होता. लेकिन, तृणमूल कॉंग्रेस, बिजू जनता दल, अद्रमुक, बसपा, सपा, तेलगू देसम् यह पार्टियॉं, कॉंग्रेस और भाजपा इन दोनों को भी सत्ता से दूर रखने के इरादे से एक हुई, और उन्होंने सत्ता स्थापन करना तय किया, तो वाम पार्टियॉं उन्हें बाहर से समर्थन दे सकती है. ऐसा हमारे देश में इसके पहले हुआ है. १९८९ में विश्‍वनाथ प्रताप सिंग, १९९६ में देवेगौडा और १९९७ में इंद्रकुमार गुजराल की सरकारे गठबंधन की ही सरकारे थी. उन्हें अन्य पार्टियों ने बाहर से समर्थन दिया था. विश्‍वनाथ प्रताप सिंग की सरकार को तो भाजपा और वाम दलों का समर्थन था, तो देवेगौडा और गुजराल की सरकारों को कॉंग्रेस का समर्थन था. इनमें से एक सरकार में तो राईटिस्ट  कम्युनिस्ट पार्टी का एक मंत्री भी शामिल था. लेकिन इनमें की एक भी सरकार एक वर्ष से अधिक समय नहीं टिकी.

भाजपा ही विकल्प

यह बताने का प्रयोजन यह है कि, जनता स्थिर सरकार पसंद करेगी. और वह कॉंग्रेस पार्टी की नहीं होगी या तीसरे मोर्चे की भी नहीं होगी. मतलब भाजपा की ही होगी. यह सच है कि, इसमें भाजपा को मिलने वाले सकारात्मक मतों (Positive votes) के साथ नकारात्मक मतों (Negative votes) का प्रमाण भी लक्षणीय होगा. कॉंग्रेस नहीं फिर कोई भी चलेगा, इस मानसिकता में, बहुत बड़ी संख्या में भारत की जनता आई है. और उसकी पसंद भाजपा ही होगी. लेकिन ५४३ सदस्यों की लोकसभा में बहुमत के लिए २७२ सदस्यों की आवश्यकता होती है. भाजपा, अपने बुते पर उस संख्या तक पहुँचने की संभावना आज तो दिखाई नहीं देती. भाजपा के नेतृत्व में भी आज एक गठबंधन विद्यमान है. इस गठबंधन में जनता दल (युनाईटेड), शिरोमणी अकाली दल और शिवसेना शामिल है. एक समय इस गठबंधन में अद्रमुक, बिजू जनता दल और तृणमूल कॉंग्रेस भी शामिल थे या उनके करीब थे. वे पुन: भाजपा के नेतृत्व में के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में आ सकते है. इससे, राजग की सत्ता में आने की संभावना और भी मजबूत होती है.

एक खतरा

लेकिन गठबंधन बनाते समय एक खतरा होता है. भाजपा अपनी विशेषता, अपनी अस्मिता और अपना अलग अस्तित्व खोने का खतरा है. १९९८ तक के चुनावों में भाजपा अपने घोषणापत्र पर चुनाव लढ़ती थी. लेकिन १९९९ का चुनाव, उसने राजग के घोषणापत्र पर लढ़ा. लाभ केवल दो सिटों का हुआ. १९९८ में १८० सिटें जीती थी, तो १९९९ में १८२. लेकिन इससे भाजपा का बुहत नुकसान हुआ. उसने अपना कार्यक्रम ही छोड दिया. जिस कार्यक्रम के आधार पर, उसे जिनके मत निश्‍चित मिलते थे, वे ही मतदाता तटस्थ बने. मुझे यह सूचित करना है कि, भाजपा को अपनी मूल ताकद कायम रखनी होगी, इसके लिए उसका अगल घोषणापत्र होना चाहिए. गठबंधन में की पार्टियों के साथ सिटों के बारे में समझौता करने में हरकत नहीं. लेकिन सिद्धांत और कार्यक्रमों के बारें समझौता नहीं होना चाहिए. १९९९ में भाजपा ने अपने मूल सिद्धांत छोड़ने का प्रमाद किया. इस कारण, पक्के तटस्थ हुए और पराए चंचल हाथ ही नहीं लगे. यह स्वाभाविक ही मानना चाहिए. एक सुभाषित यही बताता है :

                  यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं हि निषेवते |
                  ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव च ॥

अर्थ : जो, जो निश्‍चित है उसका त्याग कर चंचल के पीछे लगता है, उसका निश्‍चित नष्ट होता है और चंचल तो हाथ ही नहीं लगता.

मूलभूत सिद्धांत

भाजपा का मूलभूत सिद्धांत हिंदुत्वका है. हिंदुत्व का व्यापक आशय, उसकी सर्वसमावेशकता, उसमें अध्याहृत विविधता का सम्मान, पंथ निरपेक्ष राज्यव्यवस्था का भरोसा, यह सब भाजपा को डंके की चोट परबताते आना चाहिए. एक बार नहीं बार बार. अपनी सही पहेचान बताई, तो तथाकथित अल्पसंख्य हमसे दूर जाएगे, यह भ्रम है. रा. स्व. संघ का अनुभव ऐसा नहीं. इस संदर्भ में, गोवा के नए मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर का उदाहरण अपनाने जैसा है. इंडियन एक्सप्रेसने ली विस्तृत मुलाकात (दि. १३ मई २०१२) में एक प्रश्‍न के उत्तर में उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं संघ से संबंधित हूँ. संघ ने मुझे अल्पसंख्यकों का द्वेष करना नहीं सिखाया. ...संघ ने मुझे जैसे अन्य धर्मों का आदर करना सिखाया, उसी प्रकार मेरे हिंदू होने का अभिमान धारण करना भी सिखाया. संघ के इन तत्त्वों पर मेरा विश्‍वास है.’’
''I am from the RSS and it did not teach me hatred for minorities. RSS taught me to respect other religions but to be proud of being Hindu. I still believe in those principles.''
दूसरे एक प्रश्‍न के उत्तर में उन्होंने कहा, ‘‘हमने हमारी कृति से अल्पसंख्यकों के बीच विश्‍वास निर्माण किया. कॅथॉलिक ईसाईयों के साथ हमारे संबंध हरदम अच्छे रहे; और उनके साथ ही मुसलमानों में भी मेरे अनेक मित्र है.’’ भाजपा के केन्द्रीय नेताओं को भी ऐसी ठोस भूमिका सार्वजनिक रूप में लेते आनी चाहिए. व्यापक हिंदुत्व की यह भूमिका स्वीकार की तो फिर अपने आप जाति, पंथ, भाषा इत्यादि संकुचित निष्ठा छूट जाती है.

भाजपा का घोषणापत्र

भाजपा के घोषणापत्र में निम्न कुछ बातों का समावेश रहना चाहिए.
१) काश्मिरी पंडितों का पुनर्वसन.
२) जम्मू में के जिन नागरिकों को लोकसभा के लिए मताधिकार है, लेकिन राज्य विधानसभा के लिए वह अधिकार नहीं, उन्हें वह प्राप्त करा देना.
३) गंगा नदी प्रदूषणमुक्त करना.
४) सबके लिए विवाह और तलाक का समान कानून बनाना.
५) अयोध्या में राम-मंदिर बनाना.
६) आर्थिक अनुशासन लगाकर अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के उपाय बताना.

१९९९ से २००४ इन पॉंच वर्षों के अपने कार्यकाल में, भाजपा के नेतृत्व में के राजग ने, पहले दो मुद्दों की ओर अक्षम्य दुर्लक्ष किया. उस समय जम्मू-काश्मीर में सत्तारूढ नॅशनल कॉन्फरन्स, राजग की घटक पार्टी थी. उस पार्टी का प्रतिनिधि केन्द्रीय मंत्रिमंडल में समाविष्ठ था. फिर भी राजग यह दो प्रश्‍न हल नहीं कर पाया, इतना ही नही, वह उसके लिए प्रयास करते भी नहीं दिखा, इसका आश्‍चर्य है. लाहोर को बस लेकर जाने की अपेक्षा यह प्रश्‍न निश्‍चित ही अधिक महत्त्व के थे.

भाजपा के घोषणापत्र में, समान नागरी कानून का मुद्दा रहता था. १९९९ के घोषणापत्र में वह गायब था. संपूर्ण नागरी कानून फिलहाल बाजू में रख दे. लेकिन कम से कम, सबके लिए विवाह और तलाक का समान कानून बनाया ही जाना चाहिए. इसमें कोई सांप्रदायिकता नहीं. हमारे संविधान की धारा ४४ ने ही यह जिम्मेदारी राज्यों पर सौपी है. मेरा विश्‍वास है कि, शिक्षित मुस्लिम और ईसाई महिलाओं के भी भाजपा को बड़ी संख्या में मत मिलेंगे. अयोध्या के राम-मंदिर का प्रश्‍न, अलाहबाद उच्च न्यायालय के फै सले से आसान बन गया है. मुसलमान समाज के नेताओं के साथ संवाद साधकर मसजिद के लिए अन्यत्र जगह देने का प्रस्ताव उपयुक्त सिद्ध होगा.

किमत चुकाने की तैयारी

कोई प्रश्‍न करेगा कि, भाजपा को अपने बुते पर पूर्ण बहुमत नहीं मिला और उसे अन्य पाटिर्यो की मदत लेनी पड़ी और उन्हें यह मुद्दे मान्य नहीं होगे तो क्या करे? मुझे लगता है कि भाजपा अपने मुद्दों पर दृढ रहे. सरकार नहीं बना पाए तो भी चलेगा. दुसरे किसी की सरकार बनी, तो भी वह नहीं टिकेगी. पुन: चुनाव की नौबत आई, तो सत्ता के मोह में न पड़कर, सत्तात्याग की कीमत देकर भी, अपने मूलभूत सिद्धांतों पर दृढ रहे भाजपा को पहले से भी अधिक सिटें मिलेगी. जो अपने शुद्ध आचरण के लिए किमत चुकाते है, वे ही किसी भी जीवन-मूल्य की प्रतिष्ठापना करते है यह सार्वत्रिक अनुभव है. हमें मूल्यनिष्ठ भाजपा चाहिए. गंगा गये गंगादास, जमुना गये जमुनादास - ऐसी बेहुदी राजनीतिक पार्टी किस काम की?

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)                     
              

Monday 21 May 2012

संसद की प्रतिष्ठा के वास्तविक हत्यारे कौन?



            
रविवार १३ मई कोसंसद के दोनों सभागृहों की दिन भर संयुक्त बैठक हुई. प्रसंग था पहली संसद की पहली बैठक को साठ वर्ष पूर्ण होने का. मतलब संसद की पहली बैठक १३ मई १९५२ को हुई. हमारा संविधान २६ जनवरी १९५० को कार्यांवित हुआ और उसके मार्गदर्शन में १९५२ को आम चुनाव हुए. इस चुनाव के बाद केन्द्र में नई संसद और राज्यों में नई विधानसभा निर्माण हुई. उस घटना को १३ मई को ६० वर्ष पूर्ण हुए. मतलब संसद की बैठक का हीरक महोत्सव, संसद सदस्यों ने मनाया.

सार्वभौम कौन?

ऐसे किसी भी औपचारिक उत्सव के समय जैसे मीठा बोला जाता है, अपनी ही आरती उतारी जाती है और दिल में कुछ भी हो, लेकिन ओठों से भद्रवाणी ही स्रवित होती है, वैसा ही उस दिन हुआ. एक स्वाभाविक मानवी प्रवृत्ति और वृत्ति मानकर ही, कोई उस प्रसंग को देखेगा. सबने, अलग-अलग भाषा में बताया कि, संसद की प्रतिष्ठा और सार्वभौमता की रक्षा की ही जानी चाहिए. इसमें कुछ भी अनुचित नहीं. प्रतिष्ठा के बारे में तो वाद होगा ही नहीं. सार्वभौमता के बारे में वाद हो सकता है और है भी. संसद कोई कानून बनाती है, उस कानून को न्यायालय में आव्हान देने का अधिकार जनता को है या नहीं? कोई भी यह अधिकार अमान्य नहीं करेगा. इसका अर्थ ही यह है कि, संसद के सार्वभौमत्व को न्यायपालिका की मर्यादा है. आव्हान देने का अधिकार किसे है? अर्थात् जनता को, फिर सार्वभौम कौन? जनता या संसद? क्या कहते है हमारे संविधान के प्रारं के शब्द? - ‘‘हम भारत के लोग, भारत का एक सार्वभौम गणराज्य निर्माण करना गंभीरता से निश्चित कर रहे है और स्वयं अपने लिए यह संविधान दे रहे है.’’  "We The People Of India" ऐसे शब्द मोटे अक्षरों में है. इस संविधान के, हम मतलब लोग निर्माता है और इस संविधान की निर्मिति संसद है. संविधान की पहली धारा संसद की प्रतिष्ठापना के संबंध में नहीं. ७८ वी धारा के बाद संसद के निर्मिति की प्रक्रिया बताई गई है. तब प्रश् सामने आया कि, सार्वभौम कौन? जनता या संसद? तो उसका उत्तर है जनता. और दूसरा प्रश् सार्वभौम कौन? संविधान या संसद? तो उत्तर है संविधान. संसद की सार्वभौमत्व की भाषा बोलने वालों ने यह ध्यान में रखना ही चाहिए. कई बार ऐसा दिखाई दिया है कि, वे यह बात ध्यान में लेते नहीं और कभी-कभी तो अपने व्यवहार से संविधान का अपमान करने में भी उन्हें शर्म नहीं आती.

एक प्रसंग

कुछ प्रसंग याद करे. पी. व्ही. नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे. उनकी सरकार के पास स्पष्ट बहुमत नहीं था. संसद की प्रतिष्ठा की रक्षा का व्रत लेनेवालों ने लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त करने के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत किया होता और वह प्रस्ताव पारित होने पर त्यागपत्र दे कर खुद मुक्त हो जाते. लेकिन, क्या ऐसा हुआ? नहीं. झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को घूस देकर सरकार के पक्ष में किया गया और बहुमत ऐसे झूठे, लज्जाजनक पद्धति से प्राप्त किया गया. क्या इसमें संसद की प्रतिष्ठा बची रही? किसने की उसकी हत्या? हम ऐसा मान ले कि, थोडा बिकाऊ माल संसद में जमा हुआ था. लेकिन सरकार में जो बैठे है उन्होने वह क्यों खरीदा? बात न्यायालय तक गयी. तकनिकी मुद्दों पर घूस देने वालों को न्यायालय ने छोड़ दिया. तो क्या समझे? संसद की इज्जत तकनिकी मुद्दों पर टिकी है या सांसदों के व्यवहार पर?

हत्यारे कौन?

दूसरा प्रसंग, जो अभी कुछ समय पूर्व का है. उसे पूरे चार वर्ष भी नहीं हुए है. २००८ के जुलाई माह का. डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को, बाहर से समर्थन दे रही वामपंथी पार्टिंयों ने, अपना समर्थन वापिस लिया. मनमोहन सिंह की सरकार अल्पमत में आई. क्या मनमोहन सिंह ने त्यागपत्र दिया? नहीं. उन्होंने सांसदों की खरीदी की. एक-एक को करोड़ों रुपये दिये गए, ऐसा कहा जाता है. मतलब कुछ सांसद बिके. कुछ को थोड़ी शर्म आई, इसलिए उन्होंने बीमार होने का ढोंग रचा. क्या मनमोहन सिंह ने संसद के प्रतिष्ठा की रक्षा की? उन्होंने उसी समय त्यागपत्र दिया होता, तो संसद की प्रतिष्ठा पर आसमान टूट पड़ता क्या? मनमोहन सिंह को संसद की प्रतिष्ठा का हत्यारा कहे तो क्या वह गलत होगा? इस गंदे कारस्थान में वे अकेले ही तो शामिल नहीं होगे. पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी का आशीर्वाद रहे बिना, संसद की अप्रतिष्ठा करने का यह पाप हो ही नही सकता. फिर कौन है, संसद की प्रतिष्ठा के हत्यारे? कॉंग्रेस के ये लोग और उनका साथ देने वाले अमरसिंह जैसे सांसद या अण्णा हजारे और रामदेव बाबा?
  
लालू जी का बलस्थान

लालू प्रसाद यादव के चरित्र का क्या बखान करे? जानवरों का चारा भी वे खा सकते है, वे ऐसे बलशाली सांसद है! १३ मई को उन्होंने कहा, ‘‘लोकपाल के नाम पर, यह देश और संसद नष्ट करने का आंदोलन चल रहा है. वे सांसदों को घेराव करने की बात करते है. वे हमें चोर और डाकू कहते है. हमारे सिर पर वे किसी को बिठाना चाह रहे है. संसद की बदनामी करने का यह गहरा कारस्थान है.’’ कितने सुंदर शब्द है ये! लेकिन क्या चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वाले लोग संसद में नहीं है? ऐसी जानकारी है कि, करीब १६० सांसद ऐसे हे, जिनके ऊपर ऐसे गंभीर आरोप है. शहाबुद्दीन साहब फिलहाल जेल में है. अभी वे सांसद है या नहीं, यह मैं बता नहीं सकता. लेकिन २००४ से २००९ तक वे सांसद थे. लोकसभा के सदस्य थे. किसने कम की संसद की प्रतिष्ठा? अण्णा हजारे और रामदेव बाबा ने या शहाबुद्दीन ने?

विशेष न्यायपीठ

हमारी न्याय व्यवस्था कहती हे कि, जब तक आरोप सिद्ध नहीं होता, तब तक आरोपी को निष्कलंक माना जाना चाहिए. इसी प्रावधान का आधार लेकर चोर, बलात्कारी और हत्यारें संसद में बैठे है. ऐसा किसी ने भी नहीं कहा है कि, संसद के सब याने करीब ७०० सदस्य हत्यारें और चोर है. लेकिन क्या संसद में ऐसे कोई भी नहीं है कि, जिनके ऊपर ये आरोप है? बोलो, लालू जी बोलो! तुम बोलोगे ही नहीं. तुम्हारी तो बोलती ही बंद हुई है. लालू प्रसाद हो या नरसिंह राव, या मनमोहन सिंह, या सोनिया जी, ऐसा कोई विशेष न्यायपीठ क्यों स्थापन नहीं करते जो रोज कामकाज चलाकर, : माह के भीतर, माननीय सांसदों पर के आरोपों का और मुकद्दमों का फैसला करेगा. उनके पास आज तो पर्याप्त बहुमत है. वे यह कानून अवश्य बनाए. सामान्य न्याय प्रक्रिया में होने वाले विलंब का अनुचित लाभ उठाने में ये सांसद होशियार है. और इसलिए काफी चालाख लोग सांसद बन रहे हैं. हाल ही में . राजा छूटे; और संसद में हाजिर भी हुए. उनकी सदस्यता समाप्त क्यों नहीं की गई? वे निरपराध थे तो जेल क्यों भेजे गये? कम से कम बिचारे राजा जैसों पर का अन्याय दूर करने के लिए ही सही, विशेष न्यायपीठ स्थापन करने की आवश्यकता ध्यान में ली जानी चाहिए. लेकिन वह सांसदों के ध्यान में नहीं आएगी. गुड़ से चिपके मकोड़ों के समान उनकी वृत्ति बन गई है. वे घूस देंगे, कुछ घूस खाएगे, (घूसखोर है, इसीलिए तो घूस देने का प्रयोग सफल होता है) और संसद में अपना स्थान कायम रखेंगे. कौन है संसद की गरिमा पर डाका डालने वाले दुष्ट लोग? अण्णा हजारे और रामदेव बाबा या सांसद?

सभागृह में का वर्तन

अब इन मान्यवरों के संसद भवन में के व्यवहार का विचार करे. हमने संसदीय जनतंत्र स्वीकार किया है. संसद में जनता के प्रतिनिधि जाते है. उनका काम कानून बनाना है. जनता के प्रश्, चर्चा के माध्यम से हल करना है. सरकार की ओर से जनता के लाभ की जानकारी प्राप्त हो, इसके लिए प्रश्-उत्तर का समय होता है. संसद के अधिवेशन में कुल कितने दिन यह प्रश्-उत्तर का सत्र चला. १३ मई को अनेकों के, दिन भर, मधुर भाषण हुए. किसी ने यह मुद्दा उठाया? नहीं. संसद की प्रतिष्ठा का हौवा खड़ा करने वालों को इतना तो निश्चित ही समझता होगा कि, विधि मंड़ल में विरोध के हथियार अलग होते है और बाहर आंदोलन करने वाले विरोधी राजनीतिक आदमी के हाथ में के शस्त्र अलग होते है. फिर, ये लोग चर्चा क्यों नहीं होने देते? क्यों हो हल्ला करते है? क्यों सभापति-अध्यक्ष के सामने की खाली जगह में (वेल में) दौडकर जाते है? क्योंहॉं धरना देते है? विद्यमान ७०० सांसदों में से कितनों ने, ऐसा व्यवहार कर संसद का अपमान किया. किसी ने जानकारी के अधिकार में यह पता किया, तो कौनसा चित्र, यह माननीय सांसद उपस्थित करेंगे? जो अपना स्थान छोड़कर खुली जगह में जाएगा, उसकी सदस्यता अपने आप समाप्त होगी, क्या ऐसा नियम संसद के प्रतिष्ठा की लंबी-चौड़ी बातें करने वाले बनाएगे? वे ऐसा नियम अवश्य बनाए. सांसदों में अनुशासन आएगा. उन्हें उनके मर्यादाओं का अहसास करा देना चाहिए या नहीं? या वे सर्वज्ञ और सत्त्व गुणों के पुतले है, ऐसा मानकर स्वस्थ बैठे रहें?

येचुरी का मुद्दा

इस निमित्त, राज्य सभा के मार्क्सवादी सदस्य सीताराम येचुरी का जो भाषण हुआ, वह लक्षणीय है. उन्होंने कहा, वर्ष में कम से कम सौ दिन संसद का अधिवेशन होना चाहिए. येचुरी के इस विधान का अर्थ क्या है? यही है कि, वर्ष के एक तिहाई दिन भी संसद चलती नहीं. क्यों? येचुरी ही बताते है कि, इंग्लंड में उनकी पार्लमेंट वर्ष में कम से कम १६० दिन तो चलती ही है. हमारे सांसदों के लिए क्यों यह संभव नहीं होता? मेरा तो सुझाव है कि कम से कम १८० दिन संसद चलनी ही चाहिए. वह पूर्ण समय चलनी चाहिए. हंगामें के कारण, सभापति पर स्थगिति लादने की नौबत नहीं आनी चाहिए. एक सादा नियम बना ले कि, संसद की बैठक का जो कालावधि होगा, वह किसी भी कारण पूर्ण नहीं किया गया, तो उस दिन की बैठक का भत्ता सांसदों को नहीं मिलेगा. फिर देखों संसद कैसे ठीक तरह से चलती है. यह नियम सुझाने की नौबत, हम जैसे सामान्यों पर आए, यह इस संसद का कितना घोर अपमान है! लेकिन वह उन्होंने अपनी ही करनी से करा लिया है. हंगामा, शोर, घोषणाबाजी, धरना, एक-दूसरे पर दौड़कर जाना, यह शस्त्र सार्वजनिक जीवन में उपयुक्त होगे भी. लेकिन वह संसद के सभागृहों के बाहर. रस्ते पर, मैदान में. संसद की गरिमा रखनी होगी तो संसद सही तरीके से चलनी ही चाहिए. सभागृह में विहित काम होना ही चाहिए. तर्क-शुद्ध चर्चा होनी ही चाहिए, और जिन्हें जन प्रतिनिधि के रूप में सभागृह में बैठने का अधिकार प्राप्त हुआ है, उन्होंने उस काम के लिए वर्ष में के आधे दिन उपलब्ध रखने ही चाहिए. जिन्हे किसी भी कारण से यह संभव नहीं होता होगा, वे सांसद ही क्यों बने? मोटा वेतन प्राप्त करने के लिए या स्थानीय विकास फंड में की राशि के कमिशन के लिए? २००४ से २००९ इन पॉंच वर्ष के हमारे संसदीय प्रवास में, संसद की प्रतिष्ठा का दंभ भरने वाले सांसदों ने, संसद चलाने प्रमाण प्रतिवर्ष केवल ६६ दिन रखा था. मतलब वर्ष में के २९९ दिन ये सांसद क्या करते थे? श्री येचुरी ने कहा कि, इन ६६ में से २४ प्रतिशत दिन, मतलब मोटे तौर पर १६ दिन, कार्य स्थगन सूचना और हंगामें के कारण व्यर्थ गए. मतलब संसद केवल ५० दिन सही तरीके से चली. जिन्होंने हंगामा किया क्या उन्हें इसके लिए खेद है? कल्पना करें उन्हें वेतन का केवल पॉंचवा हिस्सा ही दिया गया, तो उन्हें ठीक लगेगा?

अध्यक्षीय पद्धति

संसद की प्रतिष्ठा बनाए रखने की जिम्मेदारी सांसदों की है. उन्हें उसकी अप्रतिष्ठा करने में संकोच नहीं होता होगा, तो जनता क्यों संसदीय जनतंत्र सहे? रामदेव बाबा ने कहा कि, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का चुनाव जनता करें. उनके इस मत का उपहास करने का कारण नहीं. संसदीय पद्धति यह जनतांत्रिक व्यवस्था की एक पद्धति है. अमेरिका में, फ्रान्स में, जनतंत्र ही है, लेकिन संसदीय पद्धति नहीं. वह अध्यक्षीय पद्धति का जनतंत्र है. स्वयं श्रीमती इंदिरा गांधी को यह पद्धति पसंद थी. जन-मत का अंदाजा लेने के हेतु से, उनकी ही प्रेरणा से, वसंतराव साठे और बॅ. अंतुले ने इस विचार का सूतोवाच किया था. श्री साठे आज हमारे बीच नहीं है. लेकिन बॅ. अंतुले है. वे इस पर प्रकाश डाल सकेंगे. व्यक्तिगत स्तर पर मुझे अपने राष्ट्र का एकसंधत्व जन-मानस पर अंकित करने की दृष्टि से अध्यक्षीय जनतंत्र ही पसंद है. राज्यों मे आज के समान व्यवस्था रहने में कोई आपत्ति नहीं. लेकिन केन्द्र में संपूर्ण देश का विचार करने वाली व्यवस्था रहनी चाहिए. इस व्यवस्था का ब्यौरा (तपसील) भिन्न हो सकता है. जैसी पद्धति अमेरिका में है, वैसी फ्रान्स में नहीं. उसी प्रकार अध्यक्षीय पद्धति में प्रधानमंत्री का जनता की ओर से चुनाव करने का भी प्रयोजन नहीं रहेगा. लेकिन वह स्वतंत्र विषय है.

सांसदों की जिम्मेदारी

मुख्य विषय है संसद की प्रतिष्ठा बनाए रखने का. यह जिम्मेदारी सांसदों की ही है. वे उसे सही तरीके से नहीं निभा रहे है, इसलिए अलग-अलग विचार प्रकट हो रहे है. जनता ने भी यह देखना चाहिए कि, वह अपना प्रतिनिधित्व योग्य, सभ्य, विचारक्षम व्यक्ति को ही अर्पण करती है. शालेय क्रमिक पुस्तक में के व्यंगचित्र पर बंदी लगाने के बारे में संसद सदस्यों ने अपनी विचारशीलता का, जनतंत्र के मुख्य तत्त्व अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का, और प्रगल्भता का परिचय दिया, ऐसा नहीं कहा जा सकता. व्यंगचित्रों को निष्कासित कर वे स्वयं ही हास्य के पात्र बन गए है. विचारशीलता और विनोद में बैर नहीं. आंबेडकर भक्तों ने, ६३ वर्ष पूर्व जो व्यंगचित्र प्रकाशित हुआ था, उसके ऊपर अब आक्षेप लिया यह कितना बड़ा आश्चर्य है. उस समय तो डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जिंदा थे. लेकिन बाबासाहब ने उसके ऊपर आक्षेप नहीं लिया था. अब उसके ऊपर आक्षेप लेना यह अंधश्रद्धा का प्रकार है. बाबासाहब ने जीवन भर अंधश्रद्धा और व्यक्तिपूजा को भारतीयों के दुगुर्ण मानकर उसकी आलोचना की थी. आंबेडकर भक्तों की बात छोड़ दे. सांसदों को तो सब ही राजनीतिक नेता निष्कलंक चारित्र्य के अवतार लगे, यह कितना बड़ा आश्चर्य कहे! संसद की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए विनोद बुद्धि और विनोद का मर्म जानने की क्षमता को तिलांजली देने का क्या कारण है? इस बारे में कोई एखाद अपवाद छोड़ दे तो सब का हुआ एकमत देखकर अचंबा हुआ. ऐसी एकजूट, संसद अधिवेशन की कालावधि, सभागृह में संसदीय परंपरा का पालन और सांसदों के स्वच्छ एवं निरोगी आचरण के बारे में कुछ नियम करने के बारे में दिखाई दी तो कितना अच्छा होगा?

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)