Saturday 29 September 2012

महाराष्ट्र में हुई कुछ उथलपुथल


मराठी में उथलपुथल को घडामोडप्रतिशब्द है. घडामोड’ (बनना-बिगडना) यह एक बहुत अच्छा अर्थवाही शब्द है. घडामोडमतलब जिसमें कुछ बनता है और कुछ बिगडता भी है. बात सही तरीके से बनते नहीं रहती; और सीधे बिगडती भी नहीं. लेकिन कभी-कभी बिगडतेरहती है. ऐसा ही अभी महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कॉंग्रेस में हुआ.

चर्चा प्रासंगिक
महाराष्ट्र में अभी जो गठबंधन की सरकार सत्तारूढ है, उसमें उपमुख्य मंत्री अजित पवार के त्यागपत्र से बनना-बिगडनाशुरू हुआ है ऐसा कहना गलत साबित हो सकता है. लेकिन सत्तारूढ गठबंधन की दुसरे क्रमांक की पार्टी राष्ट्रवादी कॉंग्रेस में निश्‍चित ही जो बनने-बिगडने की क्रिया शुरू हुई, उसका निर्णय आज की स्थिति में लग चुका है. इस पार्टी में की उथलपुथल पर सरकार का भविष्य निर्भर था. इसलिए उसकी चर्चा प्रासंगिक है.

राकॉं का महत्त्व
कॉंग्रेस पार्टी के पास, महाराष्ट्र की विधानसभा की २८८ में से ८६ सीटें है, तो राकॉं के पास ६२. दोनों मिलाकर १४८ सीटें होती है और इस गठबंधन को बहुमत प्राप्त होता है. कुछ निर्दलीय भी इस गठबंधन के साथ है, ऐसा बताया जाता है, लेकिन उनकी संख्या और प्रभाव भी नगण्य है. जिसकी चिंता करनी चाहिए ऐसी एकमात्र पार्टी है -राकॉं. विद्यमान सरकार में उपमुख्य मंत्री पद अजित पवार के पास था. वे, राकॉं के सर्वेसर्वा शरद पवार के भतिजे है. रिश्तेदारी के इस संबंध का भी महत्त्व है.

अजित पवार
२००९ के विधानसभा के चुनाव के बाद फिर इस गठबंधन को सत्ता मिली. २००४ से २००९ में भी वे सत्ता में थे. उस समय उपमुख्य मंत्री छगन भुजबळ थे. लेकिन २००९ में वे उपमुख्य मंत्री न बने, ऐसी इच्छा पश्‍चिम महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले अजित पवार की थी. स्वयं उपमुख्य मंत्री बने, ऐसी उनकी तीव्र इच्छा थी और इस बारे में उन्हें पश्‍चिम महाराष्ट्र में के अधिकांश विधायकों का समर्थन था. ऐसा कहा जाता है और वह सच भी होगा; ६२ में ६० विधायक अजित पवार के समर्थक है. यह वस्तुस्थिति ध्यान में लेकर, चाणाक्ष चाचा (शरद पवार) ने, भतिजे को उपमुख्य मंत्री पद पर आरूढ होने की सम्मति दी. उपमुख्य मंत्री बने अजित पवार के पास वित्त थौर जलसंपदा यह दो महत्त्वपूर्ण विभाग थे.

महाराष्ट्र में का सिंचाई विभाग
सरकारी सिंचाई प्रकल्पों में बहुत बड़े घोटाले होने के आरोप गत अनेक माह से हो रहे है. तब आघात लक्ष्य सिंचाई मंत्री सुनील तटकरे थे. वे भी राकॉं के ही है. भाजपा के नेता किरीट सोमय्या ने भ्रष्टाचार के आँकड़ें देकर तटकरें के विरुद्ध आरोप किए है. अब यह मामला उच्च न्यायालय में गया है, इस कारण उस संदर्भ में अधिक लिखना उचित नहीं. लेकिन अजित पवार के बारे में बात कुछ और थी. यह सच है कि जलसंपदा विभाग के मुख्य अभियंता विजय पांढरे ने सरकार पर भी कुछ गंभीर आरोप लगाए थे. उन आरोपों की जानकारी उन्होंने पत्र लिखकर मुख्य मंत्री और राज्यपाल को भी दी थी. बताया जाता है कि, राज्यपाल ने इस पत्र की गंभीर दखल ली और अजित पवार ने तुरंत त्यागपत्र देने का निर्णय लिया. गत दस वर्षों में सिंचाई प्रकल्पों पर ६० हजार करोड़ रुपये खर्च हुए; और सिंचाई की क्षमता केवल १/१० प्रतिशत ही बढ़ी! जून से अगस्त २००९ केल इन तीन माह की अवधि में २० हजार करोड़ रुपयों के ३२ प्रकल्पों को मंजुरी दी गई. विदर्भ के लिए सिंचाई में करीब एक वर्ष के लिए एक हजार करोड़ रुपयों का बजट रहता है. वह छह गुना बढ़ा. मजेदार बात यह है कि, बांध बनाना हो तो जमीन अधिग्रहित करनी पड़ती है; लेकिन घोटाले करने के उत्साह और जल्दबाजी में यह मूलभूत प्राथमिक काम भी नहीं किया गया! इस बारे में पैनगंगा नदी पर के बांध का उदाहरण पर्याप्त है. यह एक बड़ा बांध है. महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश मिलकर उसे बना रहे है. इसके लिए १३ हजार हेक्टर जमीन का अधिग्रहण करने की आवश्यकता है. वास्तव में केवल ३२५ हेक्टर जमीन का ही अधिग्रहण हुआ है. लेकिन टेंडर सब प्रकल्पों के लिए हैं! नियमों का पालन न करना, अपात्र ठेकेदारों को ठेके देना, उन्हें सैकड़ों करोड़ रुपये अग्रिम राशि देना आदि अन्य आरोप भी है. उन आरोपों की दिशा अजित पवार की दिशा में ही मुडी है.

कॉंग्रेस की चरित्र शैली
लेकिन, ऐसे आरोपों से कॉंग्रेस और उसी के पेट से निकले राकॉं के विचलित होने का इतिहास नहीं. २जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रकुल क्रीड़ा घोटाला, लवासा घोटाला, आदर्श इमारत घोटाला या अभी अभी का कोयला घोटाला, ये घोटाले विस्मृति में खो जाने लायक पुराने नहीं हुए है. किसी ने स्वयं त्यागपत्र दिया? नहीं. पानी सर तक आने के बाद, ए. राजा इस मंत्री ने त्यागपत्र दिया. वह द्रमुक के है. कॉंग्रेस के सांसद सुरेश कलमाडी की भी वहीं कहानी. दिल्ली में कॉंग्रेस प्रशासन की मुश्किल होने लगी तब उन्होंने त्यागपत्र दिया. कोयला खदान बटॅवारे के घोटाले की संसद और संसद के बाहर इतनी चर्चा हो रही है. कोयला वितरण मंत्री श्रीप्रकाश जयस्वाल ने त्यागपत्र दिया? महाराष्ट्र में भुजबळ और तटकरे पर भी गंभीर आरोप लगे है. लेकिन अभी भी वे मंत्री पद से चिपके हैं. ऐसी पृष्ठभूमि और चरित्रशैली रहते, अजित पवार सहसा त्यागपत्र दे, यह अनोखी बात है. उन्होंने कहा है कि, श्‍वेतपत्रिका (व्हाईट पेपर) निकालने में मुझे आपत्ति नहीं. नि:पक्ष जॉंच समिति से जॉंच हो. लेकिन मेरा त्यागपत्र का निश्चय पक्का है. इतना पक्का कि जॉंच मे निर्दोष साबित होने के बाद भी, मैं त्यागपत्र वापस नहीं लूँगा.
अजित पवार का यह वक्तव्य निश्‍चित ही अभिनंदनीय है. लेकिन इसी में राकॉं के अंतर्गत राजनीति का रहस्य है. अजित पवार ने, राकॉं के सर्वेसर्वा अपने चाचा शरद पवार को अपने त्यागपत्र की बात बताई और आश्‍चर्य यह कि शरद पवार ने उन्हें त्यागपत्र देने की अनुमति दी. राकॉं के अन्य एक प्रमुख नेता और शरद पवार के घनिष्ठ सहयोगी, केन्द्रीय मंत्री, प्रफुल्ल पटेल ने भी यहीं बताया; और फिर आरंभ हुआ एक महानाट्य. अजित पवार का त्यागपत्र जाते ही राकॉं के अन्य १९ मंत्रियों ने भी उनके त्यागपत्र पार्टी अध्यक्ष के पास भेजे. मतलब महाराष्ट्र में की गठबंधन की सरकार गिरी ही! यह त्यागपत्र मतलब कम से कम ६० विधायकों का, समर्थन पीछे लेना है. फिर निर्दलीय मिलाकर भी कॉंग्रेस के पास सौ विधायक भी नहीं बचते. सरकार का पतन अटल है. और अजित पवार को यहीं अपेक्षित होगा. लेकिन शरद पवार यह नहीं चाहते. उन्हें केंद्र में की संप्रमो की सरकार में रहना है. उससे दूर नहीं होना. उसी प्रकार महाराष्ट्र में भी कॉंग्रेस सरकार अपने पूरे कार्यकाल मतलब २०१४ तक रहे, ऐसी उनकी इच्छा है. अजित पवार को त्यागपत्र देने की अनुमति देते समय, उनके समर्थन में राकॉं इतनी दृढता से खड़ी रहेगी इसकी कल्पना शायद शरद पवार ने नहीं की होगी. इसलिए, इस घटना से वे भी चकित हुए होगे. गुरुवार को ही वे इस बारे में, त्यागपत्र देने वाले मंत्रियों से भेट कर उन्हें समझाते, लेकिन उसी दिन राकॉं के एक ज्येष्ठ नेता और महाराष्ट्र विधानसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष बाबासाहब कुपेकर के अंतिम संस्कार में सब को उपस्थित रहना आवश्यक होने के कारण, उस दिन यह सभा नहीं हुई. शुक्रवार को दोपहर राकॉं के सब विधायकों की बैठक लेना तय हुआ.

केवल अजित दादा का त्यागपत्र
इस बैठक में शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, सुप्रिया सुळे और पार्टी के अन्य ज्येष्ठ नेता उपस्थित थे. मैं त्यागपत्र के देने के बारे में दृढ हूँ’, ऐसा अजित पवार ने अपने भाषण में दोहराया और पार्टी मजबूत बनाने के लिए काम करूँगा, ऐसा विश्‍वास भी दिलाया. तथापि, त्यागपत्र देने के निर्णय पर मैं दृढ हूँ, ऐसा बताते समय ही, चाचा शरद पवार मेरे लिए देवता समान है और उनकी बात मैं मानूँगा, ऐसा भी कहा. इसका अर्थ क्या निकलेगा इसके बारे में अंदाज व्यक्त होने लगे थे. मेरा अपना अंदाज था कि, शरद पवार, अजित पवार को त्यागपत्र देने देंगे, लेकिन जिन अन्य १९ मंत्रियों ने त्यागपत्र दिए है, उन्हें त्यागपत्र वापस लेने को कहेंगे और वे सब मंत्री पवार साहब का कहा मानेंगे. अन्यथा पार्टी में फूट पड़ेगी. अब सब बातें साफ हो गई है. केवल अजित पवार त्यागपत्र देंगे यह तय हुआ है, अन्य १९ मंत्रियों के जो त्यागपत्र राकॉं के प्रदेशाध्यक्ष के पास है, उन्हें वह वापस लेने के लिए कहा जाएगा. उसी के अनुसार सब हुआ है.                          

उद्दिष्ट सफल
शरद पवार का उद्दिष्ट, इस निर्णय से सफल होगा. अजित पवार का स्वाभिमान सुरक्षित रखा गया यह लोगों को दिखेगा और उनका पार्टी में का वर्चस्व कम करने का कार्य भी साध्य होगा. दोनों पवार, एक ही घराने से हैं, लेकिन पार्टी के अंदर श्रेष्ठत्व के लिए दोनों के बीच संघर्ष असंभवनीय नहीं. महाराष्ट्र के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है. अजित पवार, उपमुख्य मंत्री पद से हट गए इस कारण उन्हें तुरंत पार्टी का अध्यक्ष पद मिलेगा ऐसा समझने का कारण नहीं. पार्टी को मजबूत बनाने की उनकी इच्छा कितनी ही तीव्र हो, तो भी ऐसा नहीं होगा. विद्यमान अध्यक्ष मधुकरराव पिचड़ को उनका लिहाज रखते हुए हटाया नहीं जाएगा. मतलब अजित पवार सत्ता से भी गए और पार्टी संगठन के सर्वोच्च पद से भी चुके, ऐसी परिस्थिति रहेगी और इसके लिए, इस समय तो कोई भी शरद पवार को दोष नहीं देगा या उनकी कन्या सांसद सुप्रिया सुळे को पार्टी के प्रमुख पद पर आसीन करने की उनकी चाल है, ऐसा कोई नहीं कह सकेगा.

आपसी प्रतिस्पर्धा
तात्पर्य यह कि, महाराष्ट्र में की इस उथलपुथल से सरकार गिरने का कोई खतरा नहीं. मुख्य मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की कार्यशैली से कॉंग्रेसजन खुश है, ऐसा नहीं. लेकिन इस समय वे उनके समर्थन में खड़े रहे. सिंचाई प्रकल्पों के बारे में की श्‍वेतपत्रिका हो अथवा भुजबळ के आरोपित महाराष्ट्र सदन निर्माण कार्य का घोटाला, मुख्य मंत्री कठोर निर्णय ले, ऐसी ही कॉंग्रेस के विधायकों की इच्छा होगी. इसमें श्‍वेतपत्रिका निकालने के लिए शरद पवार ने ही आग्रह किया है. मतलब वह पत्रिका जल्द ही निकलेगी, यह निश्‍चित. कारण सरकार गठबंधन की होने के बावजूद दोनों पार्टिंयों में न सामंजस्य है, न समन्वय. लेकिन यह सरकार चलने दे, तथाकथित जातीयवादी पार्टिंयॉं मतलब शिवसेना और भाजपा सत्ता में न आए, इस पर दोनों का एकमत है. या कहे, इसी एक बात पर दोनों का एकमत है. इसके अलावा महाराष्ट्र की राजनीति में कौन आगे रहता है इसके बारे में दोनों में स्पर्धा है. पहले भी थी और भविष्य में भी रहेगी. कुछ ही दिनों बाद नांदेड महापालिका का चुनाव है. दोनों पार्टिंयॉं एक-दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़ रही है. नगर परिषद हो या जिला परिषद, चुनावों में कौन किसे मात दे सकता है, इसी रणनीति को प्राधान्य रहता है. इन स्थानीय स्वराज संस्थाओं में पदभार स्वीकारते समय भी, स्थानिक स्तर पर जातिवादीशिवसेना या भाजपा से हाथ मिलाने में किसे भी संकोच नहीं होता. दूसरे को कैसे पटकनी दे सकेंगे, यहीं विचार प्रधान होता है और उसी के अनुसार रणनीति बनाई जाती है.

पृथ्वीराज हुए मजबूत
इस उठापठक से सबसे अधिक कोई खुश हुआ होगा, तो वे है पृथ्वीराज चव्हाण. वे कार्यक्षम मंत्री नहीं, तुरंत फैसले नहीं ले सकते, आदि मत, राकॉं की ओर से अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त किए जाते है. प्रसार माध्यम भी इस पर शोर मचाते रहते है. पृथ्वीराज चव्हाण को वापस केंद्र में बुलाया जाएंगा, ऐसी हवा भी बनाई जाती है. मुझे लगता है कि, ऐसा कुछ भी नहीं होगा. चव्हाण मुख्य मंत्री बने रहेगे. राकॉं के अंतर्गत संघर्षों के कारण उनका स्थान मजबूत हुआ है. राज्य की राजनीति में उनका वजन बढ़ा है. वे निश्‍चित ही इसका लाभ उठाएंगे. हमारे जैसे सामान्य लोगों को भी दिलासा मिला है कि अभी तो सरकार को कोई खतरा नहीं, मध्यावधि चुनाव नहीं. हम आशा करे कि, नई शक्ति प्राप्त मुख्य मंत्री, सिंचाई विभाग के कार्यकलापों पर यथाशीघ्र श्‍वेतपत्रिका निकालेंगे और उसमें भ्रष्टाचार करने वाले मंत्रियों को घर की राह दिखाएंगे. इस उठापठक से इतना हुआ तो भी काफी है.


- मा. गो. वैद्य    
 (अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com

          

Monday 24 September 2012

सुदर्शन जी


शनिवार १५ सितंबर २०१२ को भूतपूर्व सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी का रायपुर में निधन हुआ. कुप्पहळ्ळी सीतारामय्या सुदर्शन यह उनका पूरा नाम. वे जन्म से मराठी भाषी होते, तो यही नाम सुदर्शन सीतारामय्या कुप्पहळ्ळीकर होता. उनका मूल गॉंव कर्नाटक में कुपहळ्ळी. सीतारामय्या उनके पिताजी.

सार्थकता और धन्यता
१८ जून १९३१ यह उनका जन्म दिन और १५ सितंबर २०१२ उनका मृत्यु दिन. मतलब उनकी आयु ८१ वर्ष थी. इस कारण, उनका अकाल निधन हुआ ऐसा नहीं कहा जा सकता. लेकिन कौन कितने दिन जीवित रहा, इसकी अपेक्षा कैसे जीया, इसका महत्त्व होता है. अनेक महापुरुषों ने तो बहुत ही जल्दी अपनी जीवन यात्रा समाप्त की है. आद्य शंकराचार्य, संत ज्ञानेश्‍वर, स्वामी विवेकानंद जैसे उनमें के लक्षणीय नाम हैं. एक पुरानी लोकोक्ति है; जो जीवन का मर्म बताती है. ‘‘विना दैन्येन जीवनम्, अनायासेन मरणम्’’ लाचारी से मुक्त जीना और किसे भी कष्ट दिए बिना, मतलब स्वयं भी कष्ट न सहते हुए, मृत्यु को गले लगाने में जीवन की सार्थकता और मृत्यु की भी धन्यता है. सुदर्शन जी का जीवन इस जीवन सार्थकता और मरण धन्यता का उदाहरण है.

स्पृहणीय मृत्यु
लाचारी मुक्त जीवन जीना, यह काफी हद तक हमारे हाथों में है. हम निश्‍चय कर सकते है कि, मैं इसी प्रकार गर्दन उठाकर जीऊँगा. संकट के पर्वत भी खड़े हो तो परवाह नहीं. अनेकों ने ऐसा निश्‍चित कर जीवन जीया है. लेकिन मरण? वह कहॉं हमारे हाथ में होता है? लेकिन सुदर्शन जी ने ऐसा मरण स्वीकारा कि मानों उन्होंने उसे विशिष्ट समय आमंत्रित किया हो! प्रात: पॉंच-साडेपॉंच बजे उठकर घूमने जाना यह उनका नित्यक्रम था. करीब एक घंटा घूमकर आने के बाद वे प्राणायामादि आसन करते थे. १५ सितंबर को भी वे घूमने गये थे. करीब ६.३० बजे उन्होंने प्राणायाम आरंभ किया होगा; और ६.४० को उनकी मृत्यु हुई होगी. उनकी मृत्यु सही में स्पृहणीय थी.

संघ-शरण जीवन
सुदर्शन जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे. प्रचारकशब्द का अर्थ, औरों को स्पष्ट कर बताना कठिन होता है, ऐसा मेरा अनुभव है. मैं संघ का प्रवक्ता था, तब अनेक विदेशी पत्रकार मुझे उस शब्द का निश्‍चित अर्थ पूछते थे. मैं वह बता नहीं पाता था. मैं वर्णन करता था. वह पूर्णकालिक होता है. अविवाहित रहता है. उसे कोई मानधन नहीं मिलता; और जहॉं, जो करने के लिए कहा जाता है, वहॉं, उसे वह काम करना पड़ता है. ऐसा अर्थ मैं बताता था. सही में प्रचारकशब्द के इतने अर्थायाम है. सुदर्शन जी प्रचारक थे. वे सुविद्य थे. करीब ५७-५८ वर्ष पूर्व उन्होंने बी. ई. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी. वह भी टेलिकम्युनिकेशन्समतलब दूरसंचार, इस, उस समय के नए विषय में. अच्छे वेतन और सम्मान की नौकरी, उन्हें सहज मिल सकती थी. लेकिन सुदर्शन जी उस रास्ते जाने वाले नहीं थे. उस रास्ते जाना ही नहीं और अपना संपूर्ण जीवन संघ समर्पित करना, यह उन्होंने पहले ही तय किया होगा. इसलिए वे प्रचारकबने. संघ की दृष्टि से इसमें कोई अनोखी बात नहीं. आज भी संघ के अनेक प्रचारक उच्च पदवी विभूषित है. अनेक प्रचारक पीएच. डी. है. मेरे जानकारी के एक प्रचारक का संशोधन आण्विक और रसायन शास्त्र से संबंधित है. कुछ एम. बी. ए. है. एमबीबीएस है. बी. ई. और एम. ई. भी है. और अचरज तो यह है कि, इतनी महान् र्हता प्राप्त इन लोगों को हम कुछ अद्वितीय अथवा अभूतपूर्व कर रहे है, ऐसा लगता ही नहीं; और कोई बताएगा नहीं तो औरों को भी यह पता नहीं चलेगा. प्रचारक बनकर सुदर्शन जी ने अपने जीवन का एक मार्ग अपनाया. वह, संघ-शरण जीवन का, मतलब, समाज-शरण जीवन का, मतलब, राष्ट्र-शरण जीवन का मार्ग था. उस मार्ग पर वे अंतिम सॉंस तक चलते रहे.

प्रज्ञाप्रवाहके जनक
संघ की कार्यपद्धति की कुछ विशेषताएँ हैं, उनमें शारीरिक और बौद्धिक इन दो विधाओं का अंतर्भाव है. सुदर्शन जी इन दोनों विधाओं में पारंगत थे. अनेक वर्ष, तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्गों में उन्होंने शिक्षक के रूप में काम किया है. वे अखिल भारतीय शारीरिक शिक्षा प्रमुख भी थे. सरसंघचालक बनने के बाद भी, वे जब संघ शिक्षा वर्ग के मैदान पर उपस्थित रहते, तब विशिष्ट कठिन प्रयोग स्वयं कर दिखाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता. वे उसका आनंद भी लेते थे. उस थोडे समय के लिए वे सरसंघचालक है, यह भूलकर एक गणशिक्षक बन जाते. जो बात शारीरिक विधा में वहीं बौद्धिक विधा में भी. वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख भी बने. उसी समय, ‘प्रज्ञाप्रवाहके क्रियाकलापों को आकार मिला और उसमें अनुशासन भी आया. विविध प्रान्तों में बौद्धिक चिंतन का काम अलग-अलग नामों से चलता था. आज भी चलता होगा. प्रतिदिन की शाखा से उसका संबंध नहीं रहता था. लेकिन, राष्ट्र, राज्य, धर्म, संस्कृति, साम्यवाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद इत्यादि मौलिक अवधारणाओं के संबंध में जो प्रचलित विचार है, उनका मूलगामी परामर्श लेकर इन संकल्पनाओं का सही अर्थ प्रतिपादन करना, यह इस बौद्धिक क्रियाकलापों का उद्दिष्ट होता था. उसी प्रकार, तत्कालिक प्रचलित विषयों का भी परामर्श इस कार्यक्रम में लिया जाता था. प्रज्ञाप्रवाहइन सब को आश्रय देने वाला, उसे छाया देने वाला, एक विशेष छाता था और इस छाता के मार्गदर्शक थे सुदर्शन जी.

सरसंघचालक की नियुक्ति
प्रथम छत्तीसगढ़ में, फिर मध्य भारत में प्रान्त प्रचारक इस नाते, उसके बाद असम, बंगाल क्षेत्र में क्षेत्र प्रचारक इस नाते, अनुभवों से समृद्ध होकर, वे संघ के सहसरकार्यवाह बने; और सन् २००० में सरसंघचालक इस सर्वोच्च पद पर अधिष्ठित हुए.
संघ के संविधान के अनुसार, सरसंघचालक की नियुक्ति होती है. यह नियुक्ति निवर्तमान सरसंघचालक करते है. उस नियुक्ति के पूर्व, कुछ ज्येष्ठ सहयोगियों के साथ वे विचार विनिमय करते है. आद्य सरसंघचालक डॉ. के. ब. हेडगेवार जी ने श्री मा. स. गोळवलकर उपाख्य गुरुजी की नियुक्ति की थी. डॉक्टर के एक पुराने सहयोगी श्री आप्पाजी जोशी ने, अपने एक लेख में, इस बारे में हेडगेवार जी ने उन्हें पूछा था, ऐसा लिखा है. १९३९ में, संघ की कार्यपद्धति का विचार करने के लिए, वर्धा जिले के सिंदी गॉंव में, तत्कालीन प्रमुख संघ कार्यकर्ताओं की जो बैठक हुई थी, उसमें हेडगेवार जी ने आप्पाजी से पूछा था. श्री गुरुजी ने उनका उत्तराधिकारी निश्‍चित करते समय किसके साथ विचार विनिमय किया था यह मुझे पता नहीं. लेकिन श्री बाळासाहब देवरस की नियुक्ति करने का पत्र उन्होंने लिखकर रखा था; और वह तत्कालिन महाराष्ट्र प्रान्त संघचालक श्री ब. ना. भिडे ने पढ़कर सुनाया था. यह मेरा भाग्य है कि, उनके बाद के तीनों सरसंघचालक मतलब श्री बाळासाहब देवरस जी, प्रो. राजेन्द्र सिंह जी और श्री सुदर्शन जी ने इन नियुक्तियों के संदर्भ में मेरा मत भी जान लिया था. अर्थात्, अकेले मेरा ही नहीं. अनेकों का. सुदर्शन जी ने तो २०-२५ लोगों से परामर्श किया होगा. हेडगेवार जी के मृत्यु के बाद गुरुजी की घोषणा हुई. गुरुजी के मृत्यु के बाद बाळासाहब की नियुक्ति का पत्र पढ़ा गया. लेकिन बाद के तीनों ससंघचालकों ने उनके जीवित रहते ही अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति घोषित की. १९४० से मतलब करीब ७५ वर्षों से यह क्रम बिल्कुल सही तरीके से चल रहा है. न कहीं विवाद न मतभेद. यहीं संघ का संघत्व है. इसका अर्थ विशिष्ट पद के लिए एक ही व्यक्ति योग्य रहती है, ऐसा मानने का कारण नहीं. अंत में, कोई भी नियुक्ति व्यवस्था का भाग होती है. लेकिन पद के लिए योग्यता होनी ही चाहिए. १९७२ में श्री गुरुजी पर कर्क रोग की शस्त्रक्रिया होने के बाद, एक दिन एक विदेशी महिला पत्रकार ने, मुझे पूछा था (उस समय मैं तरुण भारत का मुख्य संपादक था)  Who after Golwalkar? मैंने कहा, ऐसे आधा दर्जन लोग तो होगे ही! उसे आश्‍चर्य हुआ. वह बोली, ‘‘हमें वह नाम मालूम नहीं.’’ मैंने बताया, ‘‘तुम्हे मालूम होने का कारण नहीं. हमें मालूम है.’’

निर्मल और निर्भय
सन् २००० में तत्कालीन सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्रसिंह जी ने सुदर्शन जी की सरसंघचालक पद पर नियुक्ति की. ९ वर्ष वे उस पद पर रहे; और अपने सामने ही वह पदभार श्री मोहन जी भागवत को सौपकर मुक्त हो गए. सुदर्शन जी स्वभाव से निर्मल थे; कुछ भोले कह सकते है. अपने मन में जो बात है, उसे प्रकट करने में उन्हें संकोच नहीं होता था. उनका अंत:करण मान लो हथेली पर रखे जैसा सब के लिए खुला था. किसी की भी बातों से वे प्रभावित होते थे. कुछ प्रसार माध्यम इसका अनुचित लाभ भी उठाते थे. लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं थी. वे जैसे निर्मल थे, वैसे ही निर्भय भी थे. किसी के साथ भी चर्चा करने की उनकी तैयारी रहती थी; और वे मानापमान का भी विचार नहीं करते थे.

अल्पसंख्य आयोग के सामने
एक प्रसंग बताने लायक है. २००१ में संघ ने एक व्यापक जनसंपर्क अभियान चलाया था. मैं उस समय दिल्ली में संघ का प्रवक्ता था. दिल्ली के संघ कार्यकर्ताओं ने कुछ लोगों के साथ मेरी भेट के कार्यक्रम निश्‍चित किए थे. उनमें, वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, सतर्कता आयुक्त एल. विठ्ठल, मुख्य चुनाव आयुक्त एम. एस. गिल, विख्यात पत्रकार तवलीन सिंग, आऊटलुक के संपादक (शायद उनका नाम विनोद मेहता था), और अल्पसंख्य आयोग के उपाध्यक्ष सरदार तरलोचन सिंह (त्रिलोचन सिंह) से हुई भेट मुझे याद है. एक गिल साहब छोड दे, तो अन्य सब से भेट, उन व्यक्तियों के कार्यालय में न होकर, घर पर हुई थी. तरलोचन सिंह ने सिक्ख और हिंदूओं के संबंध में मुझसे बारीकी से चर्चा की. मेरे साथ करीब सब स्थानों पर उस समय के दिल्ली के प्रान्त संघचालक श्री सत्यनारायण बन्सल रहते थे. मेरी बातों से तरलोचन सिंह का समाधान हुआ, ऐसा लगा. उन्होंने पूछा, ‘‘आप जो मेरे घर में बोल रहे है, वह अल्पसंख्य आयोग के सामने बोलोगे?’’ मैंने कहा, ‘‘हमें कोई आपत्ति नहीं.’’ उन्होंने हमें समय दिया. हमने अंग्रेजी में एक लिखित निवेदन तैयार किया और वह आयोग को दिया. कुछ प्रश्‍नोत्तर हुए. बाहर पत्रकारों का हुजूम उमड़ा था. उन्होंने ने भी आडे-टेडे प्रश्‍न पूछने शुरु किए. तरलोचन सिंह बोले, ‘‘इनके निवेदन से मेरा समाधान हुआ है. तुम क्यों अकारण शोर मचा रहे हो?’’

कॅथॉलिकों से संवाद
इस अल्पसंख्य आयोग में जॉन जोसेफ (या जोसेफ जॉन) नाम के ईसाई सदस्य थे. वे केरल के निवासी थे. उन्होंने पूछा, ‘‘आप ईसाई धर्मगुरुओं से बात करोगे?’’ मैंने हॉं कहा. वे इसके लिए प्रयास करते रहे. संघ के झंडेवाला कार्यालय में दो बार मुझसे मिलने आए. रोमन कॅथॉलिक चर्च के प्रमुखों के साथ बात करना निश्‍चित हुआ. उनकी दो शर्तें थी. (१) उनके साथ प्रॉटेस्टंट ईसाई नहीं रहेंगे (२) और उनके बिशप, संघ के प्रवक्ता आदि के साथ बात नहीं करेंगे. संघ के सर्वोच्च नेता के साथ ही बात करेंगे. मैंने सुदर्शन जी से संपर्क किया. वे तैयार हुए. दोनों की सुविधानुसार दिनांक और समय निश्‍चित हुआ. और बैठक के दो-तीन दिन पहले चर्च की ओर से संदेश आया कि, चर्चा के लिए संघ के अधिकारी को हमारे चर्च में आना होगा. चर्च नहीं, और संघ के कार्यालय में भी नहीं तो, किसी तटस्थ स्थान पर यह भेट हो, ऐसा जॉन जोसेफ के साथ हुई बातचित में तय हुआ था. मुझे चर्च की इन शर्तों से क्रोध आया और मैंने कहा, बैठक रद्द हुई ऐसा समझे. सुदर्शन जी केरल में यात्रा पर थे. दूसरे दिन दिल्ली आने वाले थे. मैंने उन्हें सब बात बताई. वे बोले, ‘‘जाएंगे हम उनके चर्च में!’’ मुझे आश्‍चर्य हुआ. मैंने तुरंत जॉन जोसेफ को यह बताया. सुदर्शन जी, मैं और महाराष्ट्र प्रान्त के तत्कालीन कार्यवाह डॉ. श्रीपति शास्त्री, ऐसे हम तीन लोग कॅथॉलिक चर्च में गए. हमारा अच्छा औपचारिक स्वागत हुआ. वहॉं हुई चर्चा के बारे में यहॉं बताना अप्रस्तुत है. वह एक अलग विषय है. सुदर्शन जी चर्चा से डरते नहीं थे, यह मुझे यहॉं अधोरेखित करना है.
बाद में प्रॉटेस्टंट पंथीय धर्म गुरुओं के साथ बैठक हुई. वह नागपुर के संघ कार्यालय के, डॉ. हेडगेवार भवन में. प्रॉटेस्टंटों के चार-पॉंच उपपंथों के ही नाम मुझे पता थे. लेकिन इस बैठक में २७ उपपंथों के २९ प्रतिनिधि आए थे. डेढ घंटे तक खुलकर चर्चा हुई. सब लोगों ने संघ कार्यालय में भोजन भी किया.

मुस्लिम राष्ट्रीय मंच
मुसलमानों के साथ भी उनकी कई बार चर्चा हुई ऐसा मैंने सुना था. लेकिन उस चर्चा में मैं उनके साथ नहीं था. इसी संपर्क से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का जन्म हुआ. इस मंच के संगठन का श्रेय संघ के ज्येष्ठ प्रचारक, जम्मू-काश्मीर प्रान्त के भूपूर्व प्रान्त प्रचारक और संघ के विद्यमान केन्द्रीय कार्यकारी मंडल के सदस्य इंद्रेश कुमार जी को है. सुदर्शन जी ने उन्हें पूरा समर्थन दिया. मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के जितने भी अखिल भारतीय शिबिर या अभ्यास वर्ग आयोजित होते थे, उनमें सुदर्शन जी उपस्थित रहते थे. वे मुसलमानों से कहते, ‘‘तुम बाहर से हिंदुस्थान में नहीं आए हो. यहीं के हो. केवल तुम्हारी उपासना पद्धति अलग है. तुम्हारे पूर्वज हिंदू ही हैं. उनका अभिमान करे. इस देश को मातृभूमि माने. फिर हिंदूओं के समान आप भी यहॉं के राष्ट्रीय जीवन के अभिन्न घटक हो, ऐसा आपको लगने लगेगा.’’ मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यक्रमों से मुसलमानों में भी हिंमत आई. देवबंद पीठ ने वंदे मातरम्न गाने का फतवा निकाला, तो इस मंच ने अनेक स्थानों पर वंदे मातरम्का सामूहिक गायन किया. सब प्रकार के खतरें उठाकर जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में मंच ने तिरंगा फहराया और वंदे मातरम् गाया. इतना ही नहीं, १० लाख मुसलमानों की हस्ताक्षर एक निवेदन राष्ट्रपति को प्रस्तुत कर संपूर्ण देश में गोहत्या बंदी की मांग की. हाल ही में मतलब जून माह में राजस्थान में के तीर्थक्षेत्र पुष्कर में मुस्लिम मंच का तीन दिनों का राष्ट्रीय शिबिर संपन्न हुआ. सुदर्शन जी उस शिबिर में उपस्थित थे. सुदर्शन जी को श्रद्धांजलि अर्पण करने हेतु अनेक मुस्लिम नेता आए थे, उसका यह एक कारण है.
तृतीय सरसंघचालक श्री बाळासाहब देवरस ने संघ में कुछ अच्छी प्रथाएं निर्माण की. उनमें से एक है, रेशीमबाग को सरसंघचालकों की स्मशानभूमि नहीं बनने दिया. उन्होंने बताएनुसार उनका अंतिम संस्कार गंगाबाई घाट पर - मतलब आम जनता के घाट पर, हुआ था. सुदर्शन जी का भी अंतिम संस्कार वही हुआ. वह दिन था रविवार १६ सितंबर २०१२. एक संघसमर्पित जीवन उस दिन समाप्त हुआ. उसे समाप्त हुआ कह सकते है? नही. केवल शरीर समाप्त हुआ. उसे अग्नि ने भस्मसात् किया. लेकिन असंख्य यादें और प्रेरणाप्रसंग पीछे छोडकर...

श्री सुदर्शन जी की स्मृति को मेरा विनम्र अभिवादन और भावपूर्ण श्रद्धांजलि.


- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
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