Tuesday 26 February 2013

संघ और सेवा


संघ मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. उसे समझ पाना जरा कठिन है. कारण, विद्यमान संस्थाओं के नमूने में वह नहीं बैठता. उसके नाम का हर शब्द महत्त्च का है. सप्रयोजन है. तथापि पहला राष्ट्रीयशब्द उन सबमें सर्वाधिक महत्त्व का है, ऐसा मुझे लगता है. निरपेक्ष भाव से काम करने वाले अनेक कार्यकर्ता होते है. उन्हें हम स्वयंसेवककह सकते है. ऐसे कार्यकर्ताओं की कोई संस्था या समूह हो सकता है. उसे हम संघ कह सकते है. लेकिन उसमें का हर संघ’ ‘राष्ट्रीयमतलब राष्ट्रव्यापी होगा ही ऐसा नहीं. और, ‘राष्ट्रइस शब्द के अर्थायाम के बारे में भी संभ्रम है. दुनिया में अन्यत्र वह नहीं भी होगा, लेकिन हमारे देश में है. हम सहज, लेकिन स्वाभिमान से, कह जाते है कि, १५ अगस्त १९४७ को हमारे नए राष्ट्र का जन्म हुआ. तो १४ अगस्त को हम क्या थे? ‘राष्ट्रनहीं थे? कुछ लोग राज्यको ही राष्ट्र मानते है; तो अन्य कुछ, देश मतलब राष्ट्र समझते है. राज्यऔर देश का राष्ट्र सेघनिष्ठ संबंध है. लेकिन राष्ट्रउनसे अलग, उनसे व्यापक, उनसे श्रेष्ठ होता है. देश के बिना राष्ट्रहो सकता है? रहा है. इस्रायलयह उसका उदाहरण है. १८०० वर्ष उन्हें देश नहीं था. लेकिन हमारा देश और हम एक राष्ट्र है मतलब ज्यू राष्ट्र है. इसलिये दुनिया में कहीं भी रहने वाला ज्यू, वह हमारा बंधु है, यह वे भूले नहीं. मतलब अपना राष्ट्र वे भूले नहीं. फिर राष्ट्र मतलब क्या होता है? राष्ट्र मतलब लोग होते है. राष्ट्र मतलब समाज होता है. किन लोगों का राष्ट्र बनता है या लोगों का राष्ट्र बनने की क्या शर्ते है उसका विवेचन एक स्वतंत्र विषय है. आज वह प्रस्तुत नहीं. मुझे, यहॉं, यह अधोरेखित करना है कि, संघ के सामने सतत, अव्याहत, राष्ट्र का ही विचार होता है. मतलब अपने लोगों का, अपने समाज का, विचार होता है.   

सेवा कार्य का प्रारंभ
हमारे इस राष्ट्र में जो समाज रहता है, उस संपूर्ण समाज का जीवनस्तर समान नहीं है. कुछ लोग बहुत गरीब है. अशिक्षित है. नए आधुनिक जीवन से उनका परिचय ही नहीं. वहॉं आरोग्य नहीं. उसकी व्यवस्था भी नहीं. वे सब हमारे ही समाज के लोग है. मतलब वे हमारे राष्ट्र के घटक है. क्या उन्हें ऐसा नहीं लगना चाहिए कि, हम भी इस राष्ट्र के घटक है. इस मौलिक बात का हमारे समाज बंधुओं को न ज्ञान था और न भान. संघ ने यह करा देने की ठानी; और संघसंस्थापक डॉ. के. ब. हेडगेवार जी के जन्म शताब्दी वर्ष मतलब १९८९ से संघ ने यह काम हाथ में लिया. संघ में सेवा विभागशुरु हुआ. इसके पूर्व संघ के स्वयंसेवक व्यक्तिगत स्तर पर सेवा कार्य करते थे. छत्तीसगढ़ में  जशपुर का वनवासी कल्याण आश्रम १९५२ में शुरु हुआ था. वह एक स्वयंसेवक ने ही शुरु किया था. बिलासपुर जिले के चांपा गॉंव में भारतीय कुष्ठ धाम, एक स्वयंसेवक ने ही शुरु किया था. संघ स्वयंसेवकों के व्यतिरिक्त अन्य महान् पुरुषों ने भी सेवा कार्य से लौकिक प्राप्त किया है. कुष्ठरोग निवारण के संदर्भ में अमरावती के शिवाजीराव पटवर्धन, वरोडा के बाबासाहब आमटे, वर्धा के सर्वोदय आश्रम के कार्यकर्ताओं के नाम सर्वत्र विख्यात है. मेरे मित्र शंकर पापळकर का सेवा प्रकल्प, मूक-बधिर और मतिमंद बालकों के संदर्भ में है. मुझे याद है कि पापळकर का अमरावती जिले के वझ्झर का प्रकल्प मैंने दो-तीन बार देखा है. विलक्षण कठिन है उनका काम. नाली में, कचरा कुंडी में, रेल प्लॅटफार्म पर छोड दिये अनाथ, अपंग नवजात शिशुओं के वे पिताबने है. उस आश्रम में का दिल को छूने वाला एक प्रसंग आज भी मुझे याद है. मैं भोजन करने बैठा था, उन्होंने एक लड़के को मेरे सामने लाकर बिठाया, और मुझसे कहा, इसे एक निवाला अपने हाथ से खिलाईये. उस लड़के के दोनों हाथ नही थे. मैंने उसे एक निवाला खिलाया. मेरा दिल इतना भर आया था कि, मुझे आँसू रोकना बहुत कठिन हुआ. मुझे वह एक निवाला, हजार लोगों को अन्नदान करने के बराबर लगता है.

सेवा भारती का विस्तार
मुझे यह बताना है कि, यह सब वैयक्तिक प्रकल्प प्रशंसनीय है, फिर भी उनके विस्तार और क्षमता को भी स्वाभाविक मर्यादा है. संघ ने वर्ष १९८९ में, सेवा कार्य को अखिल भारतीय आयाम दिया. अपनी रचना में ही सेवा विभागनाम से एक नया विभाग निर्माण किया. उसके संचालन के लिए सेवा प्रमुखपद की निर्मिति कर, एक श्रेष्ठ प्रचारक को उसका दायित्व सौपा. स्वयंसेवकों द्वारा व्यक्ति स्तर पर जो काम शुरु थे, वह सब इस विशाल छत्र के नीचे आए. जशपुर का वनवासी कल्याण आश्रम, ‘अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रमबना. और केवल वनवासी क्षेत्र के ही नहीं, अन्य सब क्षेत्रों में के सेवा कार्यो के लिए एक व्यवस्था निर्माण की गई. वह व्यवस्था सेवा भारतीके नाम से जानी जाती है. इस सेवा भारती के कार्यकलापों का गत दो दशकों में इतना प्रचंड विस्तार हुआ है कि, डेढ लाख से अधिक सेवा प्रकल्प चल रहे है.

एक अनुभव
हमारे समाज में जो दुर्बल, उपेक्षित और पीडित घटक है, उन पर सेवा भारतीने अपना लक्ष्य केंद्रित किया है. उनमें के, जंगल में, पहाड़ों में, दरी-कंदराओं में रहने वालों के लड़के-लड़कियों के लिए एक शिक्षकी शालाए शुरु की. उस शाला का नाम है एकल विद्यालय’. गॉंव का ही एक युवक इस काम के लिए चुना जाता है. उसे थोड़ा प्रशिक्षण देते है और वह वहॉं के बच्चों को सिखाता है. संपूर्ण हिंदुस्थान में ऐसे एकल विद्यालय कितने होगे, इसकी मुझे कल्पना नहीं. लेकिन अकेले झारखंड आठ हजार एकल विद्यालय है. करीब १०-१२ वर्ष पहले की बात है. जशपुर जाते समय रास्ते में, झारखंड का एक एकल विद्यालय देखने का मौका मिला. हमारे लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था. १० से १४ वर्ष आयु समूह के ५५ बच्चें और उनके पालक उपस्थित थे. उनमें २३ लड़कियॉं थी. उन्होंने गिनती सुनाई, पुस्तक पढ़कर दिखाए, गीत गाए. गॉंव में शाला थी. मतलब इमारत थी. शिक्षक भी नियुक्त थे. लेकिन विद्यार्थी ही नहीं थे. मैंने एक देहाती से पूछा, आपके बच्चें उस शाला में क्यों नहीं जाते? उसने कहा, वह शाला दोपहर १० से ४ बजे तक रहती है. उस समय हमारे बच्चें जानवर चराने ले जाते है. सरकारी यंत्रणा यह क्यों नहीं समझती कि, शाला का समय विद्यार्थींयों की सुविधा के अनुसार रखे. यह एकल विद्यालय को सूझ सकता है कारण उसे समाज को जोडना होता है. झारखंड के यह एकल विद्यालय सायंकाल ६॥ से ९ तक चलते है. गॉंव में बिजली नहीं थी. लालटेन के उजाले में शाला चलती थी; और शिक्षक है ९ वी अनुत्तीर्ण!

सेवा संगम
वनवासी क्षेत्र के एकल विद्यालय यह सेवा प्रकल्प का एक प्रकार है. ऐसे अनेक प्रकल्प-प्रकार है. जैसे अन्यत्र है, वैसे विदर्भ में भी है. २२ फरवरी २०१३ को इन सेवा प्रकल्प प्रकारों का एक संगम नागपुर में हुआ. रेशीमबाग में. इस संगम का नाम ही सेवा संगमहै. इस सेवा संगमका उद्घाटन, नागपुर सुधार प्रन्यास के प्रमुख, श्री प्रवीण दराडे (आयएएस), उनकी पत्नी, आदिवासी विकास अतिरिक्त आयुक्त डॉ. पल्लवी दराडे और शंकर पापळकर ने किया. यह कार्यक्रम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जनकल्याण समिति द्वारा आयोजित था.

मुझे ऐसी जानकरी मिली है कि, विदर्भ में, करीब साडे पॉंच सौ सेवा प्रकल्प चल रहे है. अर्थात् एक संस्था के एक से अधिक प्रकल्प भी होगे ही. इनमें से करीब ८० संस्थाओं के प्रकल्पों की जानकारी देने वाली प्रदर्शनी भी वहॉं थी.

सेवा कार्य के आयाम
फिलहाल सेवा के कुल छ: आयाम निश्‍चित किए है. १) आरोग्य २) शिक्षा ३) संस्कार ४) स्वावलंबन ५) ग्राम विकास और ६) विपत्ति निवारण.
आरोग्यविभाग में, रक्तपेढी, नेत्रपेढी, मोबाईल रुग्णालय, नि:शुल्क स्वास्थ्य परीक्षण, परिचारिका प्रशिक्षण तथा आरोग्य- रक्षक-प्रशिक्षण, ऍम्बुलन्स और रुग्ण सेवा के लिए उपयुक्त वस्तुओं की उपलब्धता यह काम किए जाते है. नागपुर के समीप खापरी में विवेकानंद मेडिकल मिशन द्वारा चलाया जाने वाला अस्पताल, यह इस आरोग्य प्रकल्प का एक ठोस और बड़ा उदाहरण है. अब अमरावती में भी डॉ. हेडगेवार आयुर्विज्ञान एवं अनुसंधान संस्थानशुरु हो रहा है. रक्तपेढी, नागपुर के समान ही अमरावती, अकोला, यवतमाल और चंद्रपुर में भी है. सबका नाम डॉ. हेडगेवार रक्तपेढीहै.

२) शिक्षा : ऊपर एकल विद्यालय का उल्लेख किया ही है. लेकिन इसके अतिरिक्त, जिनकी ओर सामान्यत: कोई भूल से भी नहीं देखेगा, ऐसे बच्चों की शिक्षा और निवास की व्यवस्था करने वाले भी प्रकल्प है. नागपुर में विहिंप की ओर से, प्लॅटफार्म पर भटकने वाले और वही सोने वाले बच्चों के लिए शाला और छात्रावास चलाया जाता है. उसका नाम है प्लॅटफार्म ज्ञानमंदिर निवासी शाला’. फिलहाल इस शाला में ३५ बच्चें है. श्री राम इंगोले वेश्याओं के बच्चों के शिक्षा की व्यवस्था देखते है, तो वडनेरकर पति-पत्नी, यवतमाल में पारधियों के बच्चों को शिक्षित कर रहे है. ये बच्चें अन्य सामान्य बच्चों की तरह शाला में जाते है. लेकिन रहते है छात्रावास में. लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग छात्रावास है. इसे चलाने वाली संस्था का नाम है दीनदयाल बहुउद्देशीय प्रसारक मंडल’. अमरावती की प्रज्ञाप्रबोधिनीसंस्था भी पारधी विकास सेवा का काम करती है. पारधीमतलब अपराधियों की टोली, ऐसा समझ अंग्रेजों ने करा दिया था. स्वतंत्रता मिलने के बाद भी वह कायम था. संघ के कार्यकर्ताओं ने वह दूर किया. सोलापुर के समीप यमगरवाडीका प्रकल्प संपूर्ण देश के लिए आदर्श है. छोटे स्तर पर ही सही यवतमाल का प्रकल्प भी अनुकरणीय है, यह मैं स्वयं के अनुभव से बता सकता हूँ. अमरावती का पारधी विकास सेवा कार्य’, यमगरवाडी के प्रणेता गिरीश प्रभुणे की प्रेरणा से शुरु हुआ है. झोला वाचनालययह नई संकल्पना कार्यांवित है. इसमें थैले में पुस्तकें भरकर वाचकों को उनके घर जाकर जाती है. यवतमाल का दीनदयाल बहुउद्देशीय प्रसारक मंडल बच्चों को तंत्र शिक्षा के भी पाठ पढ़ाता है. यहॉं बच्चें च्यॉक बनाते है, अंबर चरखे पर सूत कातते है और वह खादी ग्रामोद्योग संस्था को देते है.
३) संस्कार : शाला की शिक्षा केवल किताबी होती है. परीक्षा उत्तीर्ण करना इतना ही उसका मर्यादित लक्ष्य होता है. लेकिन शिक्षा से व्यक्ति सुसंस्कृत बननी चाहिए. इस शालेय शिक्षा के साथ हर गॉंव में संघ शाखाओं द्वारा ग्रीष्म की छुट्टियों में मर्यादित कालावधि के लिए, संस्कार वर्ग चलाए जाते है. इन वर्गो में मुख्यत: झोपडपट्टी में के विद्यार्थीयों का सहभाग होता है. उन्हें कहानियॉं सुनाई जाती है. सुभाषित सिखाए जाते है. संस्कृत श्‍लोक सिखाए जाते है. २०१२ के ग्रीष्म में ऐसे संस्कार वर्गो की नागपुर की संख्या १२८ थी. इन वर्गो में श्‍लोक पठन, और कथाकथन की स्पर्धाए भी होती है.
४) स्वावलंबन : महिलाओं को आर्थिक दृष्टि से सबल बनाने की दृष्टि से उनके बचत समूह बनाए जाते है. अनेक स्थानों पर सिलाई केंद्र शुरु कर सिलाई काम सिखाया जाता है. योग्य सलाह भी दी जाती है. नागपुर में एक मातृशक्ति कल्याण केंद्रहै. उसके द्वारा सेवाबस्ती में - बोलचाल की भाषा में कहे तो झोपडपट्टियों में, किसी मंदिर या घर का बाहरी हिस्सा किराए से लेकर बालवाडी चलाई जाती है. बस्ती की ८ वी या ९ वी पढ़ी युवती ही उस बालवाडी में शिक्षिका होती है. ग्रीष्म की छुट्टियों में उनके लिए १५ दिनों का प्रशिक्षण वर्ग लिया जाता है. इस केंद्र का एक, ‘नारी सुरक्षा प्रकोष्ठभी है. यह प्रकोष्ठ निराधार, परित्यक्ता य संकटग्रस्त महिलाओं को आधार देने, उनके निवास और भोजन की व्यवस्था करने, तथा उन्हें कानूनी सहायता देने का काम करता है. इसी प्रकार यह संस्था दो गर्भसंस्कार केन्द्र भी चलाती है.
५) ग्राम विकास : विदर्भ में किसानों की आत्महत्या का गंभीर प्रश्‍न है. हाल ही में केंद्रीय कृषि मंत्री ने संसद में बताया कि, अप्रेल से जनवरी इन १० माह में विदर्भ में २२८ किसानों ने आत्महत्या की है. किसानों के हित के लिए सेवा भारतीकी ओर से भी काम चल रहा है. किसानों को जैविक खेती का महत्त्व समझाया जाता है. जलसंधारण की तकनीक समझाई जाती है. गौवंश रक्षा और गौपालन पर जोर दिया जाता है. गाय से मिलने वाले पंचगव्य से अनेक दवाईयॉं बनाने के प्रकल्प, नागपुर जिले में देवलापार और अकोला जिले में म्हैसपुर में है. वहॉं बनाई जाने वाली औषधियॉं मान्यता प्राप्त है और उनकी बिक्री भी बढ़ रही है. यवतमाल जिले की यवतमाल-पांढरकवडा इन दो तहसिलों में, दीनदयाल बहुउद्देशीय मंडल ने ६० गॉंव चुनकर उनमें के हर गॉंव के चुने हुए १५ - २० किसानों को जैविक खेती का प्रशिक्षण दिया है. तथा कपास तथा ज्वार के जैविक बीज भी उन्हें दिये है.    
६) विपत्ति निवारण :  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रवर्तित जनकल्याण समिति ने मतलब उसके कार्यकर्ताओं ने मतलब संघ के स्वयंसेवकों ने, बाढ़, आग, भूकंप जैसी दैवी आपत्तियों के समय, अपने प्राण खतरे में डालकर भी, आपत्पीडितों की सहायता की है. संघ के स्वयंसेवकों का यह एक स्वभाव ही बन गया है कि, संकट के समय अपने बंधुओं की रक्षा के लिए दौडकर जाना. कोई भी प्रान्त ले, सर्वत्र सबको यह एक ही अनुभव आता है.

अन्य कार्य
अनचाहे, छोड़ दिये अर्भकों को संभालने का काम जैसे शंकर पापळकर का प्रकल्प कर रहा है, वैसा ही काम यवतमाल के ज्येष्ठ संघ कार्यकर्ता स्वर्गीय बाबाजी दाते ने शुरु किया था. उनकी संस्था का नाम है मायापाखर’. फिलहाल इस मायापाखरमें ४ लड़के और १४ लड़कियॉं है. अनेक स्थानों पर स्वयंसेवक वृद्धाश्रम भी चला रहे है.

इस सेवाभारती के उपक्रम का उद्दिष्ट क्या है? उद्दिष्ट एक ही है कि सबको, हम समाज के एक घटक है, ऐसा लगे. उनके बीच समरसता उत्पन्न हो. सबको हम एक राष्ट्र के घटक है, इसलिए हम सब एकात्म है ऐसा अनुभव हो. इस प्रकार यह सही में राष्ट्रीय कार्य है. संघ के शिबिरों में प्रशिक्षण लेकर स्वयंसेवक इस मनेावृत्ति से अपने जीवन का विस्तार कर उसे वैसा ही बनाते है. हमारे गृहमंत्री को, माननीय शिंदे साहब को, इस निमित्त यह बताना है कि, संघ के शिबिर में एकात्म, एकरस, एकसंध राष्ट्रीयत्व की शिक्षा दी जाती है. आतंकवाद नहीं सिखाया जाता. कृपा कर पुन: अपनी जुबान न फिसलने दे और किसी संकुचित सियासी स्वार्थ के लिए बेलगाम वचनों से उसे गंदी न करे.  
 
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com
                            
                     

Monday 18 February 2013

अफजल गुरु की फॉंसी और उसके बाद ...


भारत की सार्वभौम संसद पर हमले के सूत्रधार अफजल गुरु को ९ फरवरी को तिहाड जेल में फॉंसी दी गई. सर्वोच्च न्यायालय ने, निचले न्यायालय ने दी सज़ा पर मुहर लगाई. उसके बाद भी पुन: अफजल गुरु की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दाखिल की गई थी. उसका भी फैसला अफजल गुरु के विरोध में गया; और उसकी फॉंसी की सज़ा पक्की हुई. उसके बाद उसकी दया की अर्जी राष्ट्रपति के पास गई. वह अनेक वर्ष वैसी ही पड़ी थी. उस पर निर्णय नहीं हो रहा था. सामान्य जनता और अनेक सियासी पार्टिंयों की भी मांग थी कि, अफजल गुरु को फॉंसी होनी ही चाहिए. मुंबई पर के बम हमले में का जिंदा पकड़ा गया एकमात्र हमलावर अजमल कसाब को फॉंसी पर चढ़ाने के बाद भी अफजल गुरु के मामले का फैसला - मतलब राष्ट्रपति की ओर से उसकी दया की अर्जी पर का फैसला प्राप्त नहीं हो रहा था. अजमल कसाब की फॉंसी के करीब तीन माह बाद वह फैसला आया और ९ फरवरी २०१३ को उसे फॉंसी दी गई.

कॉंग्रेस के लिए प्रश्‍न
इसमें भारत की मतलब भारत सरकार की या भारत के न्यायव्यवस्था की क्या गलती है?
संसद पर जिहादी आतंकवादियों का हमला २००१ के दिसंबर में हुआ था. दिल्ली के न्यायालय ने इस अपराध में शामिल रहने के लिए अफजल गुरु को २००२ में फॉंसी की सज़ा सुनाई थी. उस सज़ा पर के अपील के दरम्यान हर स्तर पर सब प्रक्रिया पूरी होने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने २००५ में फॉंसी की सज़ा पर मुहर लगाई थी. उसके बाद भी पुनरीक्षण की अर्जी की गई. उस पर भी विचार होकर २००७ में उसे निरस्त किया गया. सर्वोत्तम बात यह होती कि, उसे तुरंत फॉंसी पर लटकाते. राष्ट्रपति के पास दया की अर्जी देने का प्रावधान हमारी व्यवस्था में है. उस व्यवस्था का लाभ उठाते हुए अफजल ने दया की अर्जी दी. उस पर फैसला होने के लिए पॉंच वर्ष से अधिक समय लगा. क्यों? सत्तारूढ कॉंग्रेस पार्टी ने इस प्रश्‍न का उत्तर देना चाहिए. कारण यह प्रश्‍न पूँछने का जनता को अधिकार है; और सत्तारूढ पार्टी उस जनता का ही प्रतिनिधित्व कर रही है.

प्रश्‍नों की मालिका
मुंबई पर हुए बम हमले उसके बाद की घटना थी. भारतीय न्यायव्यवस्था की ओर से जो सुविधा अफजल गुरु को उपलब्ध थी, वही सुविधा अजमल कसाब को भी उपलब्ध थी. उसने भी उन सब सुविधाओं का लाभ लिया. उसने भी राष्ट्रपति के पास दया की अर्जी भेजी थी. लेकिन वह नामंजूर की गई और उसे फॉंसी फर लटकाया गया. अजमल को फॉंसी, अफजल को क्यों नहीं, यह प्रश्‍न स्वाभाविक ही जनता के मन में निर्माण हुआ. उस प्रश्‍न का उत्तर ९ फरवरी को मिला. लेकिन उस उत्तर से भी कुछ प्रश्‍न निर्माण हुए ही. एक प्रश्‍न ऐसा निर्माण हुआ कि इतने विलंब से अफजल को फॉंसी क्यों दी गई? उसे तुरंत फॉंसी क्यों नहीं दी गई? संसद पर हमला यह कोई सामान्य बात नहीं थी. संसद भवन भारतीय जनतंत्र का एक श्रेष्ठ प्रतीक है. आतंकियों का कारस्थान सफल होता, तो कितने सांसदों की बलि जाती, यह कोई बता सकता है? यह घटना भी अमेरिका के गौरवस्थान पर के २००१ के सितंबर में हुए हमले के समान ही थी; और उस निघृण कारस्थान का अफजल गुरु मुखिया था. पाकिस्तान के गौरव प्रतीक पर ऐसा हमला होता, तो अफजल को जो सुविधाए मिली वह उस हमले के मुखिया को मिलती? इस प्रश्‍न का उत्तर मन ही मन देने के पूर्व, किसी समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके झुल्फिकार अली भुत्तो का मुकद्दमा कैसे निपटा गया और कैसे उन्हें फॉंसी पर लटकाया गया, इसकी जानकारी का ब्यौरा ले; और फिर इन दो देशों की न्यायव्यवस्था की तुलना करे.

तर्क या तर्कट?
ऐसी स्थिति होते हुए भी, कई वर्ष बीत जाते है और सज़ा पर अमल नहीं होता, इस बात का किसे ताज्जुब लगे तो क्या आश्‍चर्य है? उस सज़ा पर विलंब से ही सही अमल हुआ. स्वाभाविक ही जनता के मन में प्रश्‍न निर्माण हुआ कि, अभी ही यह फॉंसी क्यों दी गई? इसके पीछे क्या राजनीति है? लोगों ने अपने तर्क चलाए. किसी ने कहा, लोकसभा का चुनाव २०१४ के बदले २०१३ में ही होने जा रहा है. किसी दूसरे ने कहा, चुनाव प्रचार में विरोधी पार्टी भाजपा को, कॉंग्रेस की आलोचना करने के लिए मुद्दा न मिले, इसलिए इस समय सज़ा पर अमल किया गया. सच क्या है यह सरकार ही जानती है. मेरा मत यह है कि, फॉंसी तुरंत अमल में लाई जाती, तो भी कश्मीर के घाटी के अलगाववादी, पाकिस्तानपरस्त मुसलमानों की प्रतिक्रिया में कोई फर्क नहीं पड़ता.

पाकिस्तानपरस्त का चरित्र
पाकिस्तान के कदमों में अपनी निष्ठा अर्पित करने वालों की पर्याप्त संख्या कश्मीर की घाटी में है. उन्हें कश्मीर का भारत में हुआ शामिलीकरण मान्य ही नहीं. इन अलगाववादियों में भी तीन प्रमुख गुट है. लेकिन उन सब का, कश्मीर भारत में न रहे, इस बारे में एकमत है. एक गुट को लगता है कि कश्मीर स्वतंत्र राज्य हो, दूसरे को लगता है कि वह पाकिस्तान में विलीन हो. इन सब गुटों के पाकिस्तान की सरकार और फौज के साथ संबंध है, यह सर्वविदित है. हाल ही में इसके सबूत भी मिले है. फिलहाल श्रीनगर में नज़रबंद गिलानी तो खुल्लमखुल्ला पाकिस्तान में कश्मीर का विलीनीकरण चहने वाले है. जिन्हें ऐसी खुल्लमखुला पाकिस्थानपरस्ति मान्य नहीं, उनका अलग गुट है. उसके प्रमुख है मीरवाईज उमर फारूख. वे सौम्य वृत्ति के है, ऐसी धारणा समाचारपत्रों ने जनता के बीच निर्माण की है. लेकिन फिलहाल वे कहॉं है? - पाकिस्तान मे है! किसके साथ सलाह-मश्‍वरा कर रहे है? - मुंबई पर हुए हमले का सूत्रधार, जिसे हमारे हवाले करो ऐसी मांग निरंतर भारत कर रहा है, और जिसका समर्थन अमेरिका ने भी किया है, उस हाफिज सईद के साथ. तीसरा गुट है यासीन मलिक का. उनके गुट का नाम ही जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंटमतलब जम्मू-कश्मीर के मुक्ति का मंच, है. मुक्ति किससे? अर्थात् भारत से. वे तो सीधे हफीज सईद के साथ एक ही मंच पर उपस्थित हुए है. सारी दुनिया को पता है कि, पाकिस्तान में सही में सत्ता फौज के हाथों में रहती है. बीच-बीच में कुछ समय के लिए जनतांत्रिक व्यवस्था का ढकोसला कहे, या आभास, निर्माण किया जाता है. लेकिन उस व्यवस्था से आई सरकार फौज के विरोध में कोई भी निर्णय नहीं कर सकती. किसी ने ऐसी हिंमत की तो उसे तुरंत सत्ता से बाहर कर दिया जाता है. जनरल अयूबखान, जनरल याह्याखान, जनरल झिया-उल-हक्, जनरल मुशर्रफ ने अपने-अपने अधिकार के समय उस देश के नागरी मुखौटों की सरकारें कुछ ही क्षणों मे नष्ट की और वर्षों तक फौजी ताकत के बल पर अपना शासन चलाया. अब जनरल कयानी की बारी है. उनकी कृपा, और अमेरिका के समर्थन से जरदारी की सरकार चल रही है. हुरियत कॉन्फरन्स के सौम्य वृत्ति के नेता के रूप में जिनकी पहचान है, वे मीरवाईज, जनरल कयानी के साथ गुफ्तगूँ कर रहे है. इन लोगों के पीछे रहने वाली कश्मीरी जनता ने अफजल को फॉंसी देने के लिए रोष प्रकट करने पर कोई आश्‍चर्य नहीं.

मूल्यों की बात
हम ऐसी कल्पना करे कि, कश्मीर में की जनता अफजल को फॉंसी देने से बहुत ही क्षुब्ध हुई है. हमने उन्हे यह मौका नहीं देना चाहिए था. लेकिन मेरा प्रश्‍न यह है कि, अनेक वर्षो के बाद कश्मीर में प्रथम ही स्थानीय संस्थाओं के चुनाव हुए. कश्मीर में की जनता ने ही मतदान में भाग लिया. घाटी के बारे में कहे तो, वहॉं के मुसलमानों ने ही मतदान कर अपने प्रतिनिधि चुनकर दिए और उनके हाथों में कारोबार सौपा. वहॉं अब ९९ प्रतिशत मुसलमानों की ही बस्ती है. यह इन पाकपरस्त मुसलमानों को क्यों नहीं सुहाता? उनकी हत्या क्यों की जाती है? कौन है उन पर खूनी हमला करने वाले. ये वही अलगाववादी लोग है; जिन्हें जनता के प्रतिनिधियों के हाथों में सत्ता नहीं देनी. उनका एक ही लक्ष्य है, कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो; और दु:ख की बात यह है कि, वहॉं इन्हीं लोगों की धाक है. उन्हें मानवी मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं. ऐसा होता, तो पाकिस्तान की फौज ने, नियंत्रण रेखा पर, दो भारतीय सैनिकों को पकडकर उनकी हत्या की और उनमें से एक का सिर काट कर ले गये, तब उनके इस क्रूर कृत्य से भी उनमें रोष फूट पड़ता. वे पाकिस्तान का निषेध करने के लिए, कुछ घंटे ही सही, कश्मीर में बंद का आयोजन करते. पाकिस्तान से इतनी तो बिनती करते कि, मारे गए सैनिक का सिर पाकिस्तान की फौज वापस लौटाए. मैं १९९९ के कारगिल युद्ध के समय के पाकिस्तान के क्रौर्य की याद नहीं करा दे रहा. अभी हाल ही में घटित क्रौर्य का उल्लेख कर रहा हूँ. पाकिस्तान के बारे में इन्हें इतना प्रेम है? पाकिस्तान की प्रतिमा, एक अच्छे, न्याय से चलने वाले राज्य की बने, ऐसा इन पाक समर्थक लोगों को लगता है? तो मीरवाईज उमर फारूख ने इस घटना का उल्लेख जनरल कयानी के साथ चर्चा करते समय किया?

भारतनिष्ठ कश्मिरी जनता के लिए
कश्मीर के घाटी में की सब जनता पाकिस्थान समर्थक नहीं. पाकिस्तान की जनता की स्थिति वे निश्‍चित ही जानते होगे. वहॉं कैसे शियापंथियों को चुन-चुन कर मारा जाता है, इसकी जानकारी उन्हें होेगी ही. शाला में पढ़ने वाली लड़की पर गोलियॉं दागकर उसकी हत्या करने का प्रयास करने वाले तालिबानी कहॉं होगे इसकी कल्पना उन्हें होगी ही. कश्मीर की सरकार ने, जो जनतांत्रिक पद्धति से सत्ता में आई है, इस जनता के भावनाओं की दखल लेनी चाहिए. उनका मनोबल बढ़ाने के लिए कदम उठाने चाहिए. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि, अफजल की फॉंसी के कारण कश्मीर की जनता में भारत प्रति परात्मभाव (alienation) निर्माण होगा. लेकिन किस जनता के बीच? भारतनिष्ठ जनता के बीच वह निर्माण होने का क्या कारण है? क्या उन्हें संसद पर हुआ हमला मान्य है? सर्ंपूण न्यायव्यवस्था की प्रक्रिया पूरी होने के बाद अफजल गुरु को फॉंसी पर लटकाया गया, क्या यह उन्हें पता नहीं? फॉंसी के कारण इस जनता में क्षोभ निर्माण होता होगा तो क्या वह झुल्फिकारअली भुत्तो फॉंसी देने के बाद प्रकट हुआ था? या कश्मीर घाटी के हिंदूओं पर अत्याचार कर उन्हें निर्वासित करने पर उन्हें कभी क्रोध हुआ था? उमर अब्दुल्ला को लगता है कि, घाटी के युवकों को, ऐसे ही अपराध के लिए फॉंसी पर लटकाए मकबूल भट के फॉंसी के बारे में असहज नहीं लगेगा, लेकिन अफजल गुरु की फॉंसी के बारे में ऐसा नहीं है. उमर अब्दुल्ला की पार्टी राज्य में अनेक वर्ष सत्तासीन रही है. उन्हीं के कार्यकाल में यह परायापन क्यों बढ़ा, और वह बढ़ा होगा, तो उसके कारण क्या है इसका वे गहराई और गंभीरता से विचार करे. जिस अपराध के लिए फॉंसी का प्रावधान है, उस फॉंसी के लिए उन्हें जनता का समाधान करते आना चाहिए. यह जैसे नॅशनल कॉन्फरन्स की जिम्मेदारी है, वैसी ही वह विपक्ष पीडीपी की भी है. इस पार्टी के सर्वेसर्वा मुफ्ती महमद सईद भारत सरकार में गृहमंत्री रह चुके है. उनका भी संयम छूटे, यह, बहुत ही सौम्य शब्दों का उपयोग करे तो भी, खेदजनक है.

भारतीय समाचारपत्रों ने भी, समाचार लेख प्रकाशित करते समय संयम और औचित्य का ध्यान रखना चाहिए. अफजल गुरु कोई देशभक्त क्रांतिकारक नहीं, जिसे किसी विदेशी हुकूमत ने फॉंसी पर लटकाया. वह हिंसाचार पर विश्‍वास रखकर चलने वाला एक अतिरेकी आतंकवादी है, इसका विस्मरण नहीं होना चाहिए. इस कारण उसका जेल में का सामान या उसके परिवारजनों को देने की सहुलियतों के बारे में अपने मत व्यक्त करने में कोई मतलब नहीं. हिंसाचारी अतिरेकी को न्याय की प्रक्रिया पूर्ण कर फॉंसी दी गई इसका सबको समाधान होना चाहिए.

- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)