Tuesday 26 March 2013

एक मुख्यमंत्री ऐसा भी


घटना १८ मार्च की होगी. एक मुख्यमंत्री अपने राज्य की राजधानी से विमान से दिल्ली आ रहे थे. लेकिन आश्‍चर्य यह कि, उनके साथ कोई नौकर-चाकर नहीं थे. सुरक्षा गार्ड भी नहीं थे. कोई चपरासी भी नहीं दिखा. वे स्वयं ही अपना सामान संभाल रहे थे. विमान में उनका टिकट सादा इकॉनॉमी क्लास में था. सबके साथ कतार में खड़े रहकर आये.

हवाई अड्डे पर भी सामान्य यात्री की तरह प्रवेश किया. बस में बैठे. अपना नंबर आने के बाद विमान में प्रवेश किया. विमान में के कर्मचारियों की भी, कोई विशेष व्यक्ति के आने के बाद की भाग-दौड नहीं चल रही थी. वेे जाकर अपने आसन पर बैठै, बाद में एक अन्य यात्री उनके पडोस की सीट पर आकर बैठा.

दिल्ली हवाई अड्डे पर वे विमान से उतरे, तब भी सबसे पहले नहीं. कतार में खडे रहकर उतरे. स्वागत के लिए लाल दिये की गाडी भी नहीं आई थी. सब यात्री जिस बस में बैठे, उसी बस में बैठकर वे हवाई अड्डे की इमारत से बाहर निकले. वहाँ भी अपना सामान स्वयं लेकर चल रहे थे. पोशाख भी सादी थी. शर्ट और फूलपँट. कौन थे वे? वे थे गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर. रा. स्व. संघ के सहसरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले भी उसी विमान से यात्रा कर रहे थे. उन्होंने ही यह प्रसंग बताया.
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जिवंत शववाहिका
हाँ! उन्हें शववाहिका ही कहना चाहिए. वे सब महिला है. ग्यारह का समूह है. लावारिस शवों पर अंत्यसंस्कार करने का व्रत उन्होंने लिया है. शव, रेल दुर्घटना में छिन्नविच्छिन्न हुआ हो या पानी में डूबकर, सड-गल कर ऊपर आया हो, एड्स जैसे महाभयंकर रोग से दुनिया छोडकर जाने वाले का हो, या अनैतिक संबंधों से जन्म होने के कारण क्रूरता से मारे गए निष्पाप बालक का हो, ऐसे लावारिस, विरूप अवस्था के शवों पर अंतिम संस्कार करने में अच्छे-भले भी कतराते है, वहाँ ‘पंचशील महिला बचत समूह’की महिलाओं ने अब तक करीब डेढ हजार पार्थिवों पर अंत्यसंस्कार किए है. यह ‘पंचशील महिला बचत समूह’ महाराष्ट्र में के औरंगाबाद शहर का है.

बारिश हो या धूप, दिन हो या रात, पुलीस का फोन आते ही, दस मिनट में, ये महिलाएँ, शव मिलने के स्थान पर जा पहुँचती है. अंत्यविधि के लिए आवश्यक सब साहित्य; नया कपड़ा, फूल, अगरबत्ती, घासलेट, लकड़ियाँ खरीदती है; और आवश्यक विधि कर, पुलीस के सामने, उस पार्थिव को अग्नि देती है. इस अंत्यसंस्कार के लिए औरंगाबाद की महापालिका उन्हें तीन हजार रुपये देती है.

औरंगाबाद के भीमनगर क्षेत्र में वे रहती है. इस बचत समूह की अध्यक्ष है आशाताई मस्के. वे मराठी चौथी तक पढ़ी है. अपने क्षेत्र की महिलाओं के लिए कुछ अच्छा काम करे, इस उद्देश्य से २००५ में उन्होंेने ‘पंचशील महिला बचत समूह’की स्थापना की. इस बचत समूह की ओर से पोलिओ टीकाकरण, परिवार नियोजन शस्त्रक्रिया, ग्राम स्वच्छता अभियान, आदि उपक्रम चलाए जा रहे थे, २००७ में, महापालिका की लावारिस लाशों के निपटारे के बारे में नोटिस प्रकाशित हुई. इस नोटिस ने आशाताई को अस्वस्थ किया. क्या हम ये काम करे? महिलाएँ साथ देगी? हमसे ये काम हो सकेगा? - ऐसे अनेक प्रश्‍न उनके मन में उपस्थित हुए. करीब पंधरा दिन इसी मानसिक उधेडबुन में बीत गए. फिर उन्होंने तय किया कि, हमें यह काम करना ही है. उनके निर्धार को बचत समूह की अन्य महिलाओं का भी समर्थन मिला. आशाताई के पति ने भी उन्हें समर्थन दिया; और उन्होंने टेंडर भरा. और भी टेंडर आए थे. लेकिन महापालिका ने ‘पंचशील बचत समूह’का चुनाव किया.

काम मिलने के पाँच ही दिन बाद फोन आया. औरंगाबाद के फुलंब्री शिवार (मैदानी क्षेत्र) में एक शव मिला है. करीब १५ -२०  दिन का होगा. सडा-गला था. भयंकर दुर्गंध आ रही थी. शव से खून और पीप भी रिस रहा था. उसे देखते ही, पंचशील समूह की दो महिलाएँ चक्कर आकर गिर पड़ी. कुछ को उल्टियाँ हुई. लेकिन अब पीछे हटना संभव नहीं था. उन्होंने लाश को कोरे कपडे में लपेटा. स्मशानभूमि ले गये और उस पर अंत्यसंस्कार किए. आशाताई बताती है, ‘‘उसके बाद आठ दिन हम अलग ही दुनिया में थे. भोजन नहीं कर पाते थे. वही चित्र नज़रों के सामने रहता था. वह जानलेवा दुर्गंध, लाश की छिन्नविच्छिन्न अवस्था, सब भयंकर था! एक क्षण तो ऐसा लगा कि, क्यों ये काम करें? अन्य उद्योग कर भी बचत समूह पैसे कमा सकता है. लेकिन फिर मन का निश्‍चिय हुआ. और लोग जो नहीं कर सकते, वह हम करते है, इसका समाधान लगने लगा. कुछ भी हो, अब पीछे नहीं हटना.’’ आशाताई के निर्धार को उनकी सहयोगी महिलाओं ने भी साथ दिया, गत पाँच वर्षों से यह अनोखा सामाजिक काम यह बचत समूह कर रहा है. मानो इस बचत समूह की महिलाएँ शववाहिका ही बन गई है.
(‘अमेय’के ‘खरेखुरे लीडर्स’(सच्चे लीडर्स) के जनवरी २०१३ के अंक से साभार)                  

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पशुओं की कृतज्ञता
कुत्तों के स्वामी-निष्ठा की कहानियाँ हमने सुनी है. लेकिन दक्षिण आफी्रका के निवासी लॉरेन्स अँथनी हाथियों के कृतज्ञता की विलक्षण कहानी बताते है. श्री अँथनी लेखक भी है. उनकी तीन पुस्तकों में से एक ‘एलिफंट व्हिस्परर’ने बिक्री का रेकॉर्ड प्रस्थापित किया है. ७ मार्च २०१२ को अ‍ॅथनी का निधन हुआ. उनके अभाव का दु:ख भोग रहे है, उनकी पत्नी, उनके दो बच्चें, उनके दो नाति और अनेक हाथी!

हाँ, हाथी भी! हाथियों पर उनके अनंत उपकार है. मानव के अत्याचारों से उन्होंने अनेक जंगली हाथियों को बचाया है. सन् २००३ में अमेरिका ने इराक पर हमला किया, तब अँथनी ने अपनी जान जोखीम में डालकर, बगदाद  के चिड़ियाघर में हाथियों को बचाया था.

अँथनी की मृत्यु के दो दिन बाद ३१ हाथियों का झुंड, १२ मील दूर से उनके घर आया. उन हाथियों को कैसे पता चला कि, उनके उपकारकर्ता की मृत्यु हुई है. पता नहीं. लीला बर्नर नाम की ज्यू धर्मोपदेशिका बताती है कि, पता नहीं कैसे, हाथियों के दो झुंडों नेे, जान लिया कि, अपना सहृद चल बसा है. थुला थुला जंगल से निकलकर यह झुंड अँथनी के घर पहुँचा. अँथनी की पत्नी बताती है कि, गत तीन वर्षों में कभी भी हमने हमारे घर हाथी को आये हुए नहीं देखा था. लेकिन अब हाथियों को वह झुंड आया था. दो दिन और दो रात वही रुका. इस दौरान उन्होंने कुछ भी नहीं खाया; और तीसरे दिन सुबह, वह झुंड शांति के साथ लौट गया! हम पशु कहकर जिनकी अवहेलना करते है, वे भी कृतज्ञता जानते है, यह सच है!         
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डॉ. पुष्पा दीक्षित की पाणिनीय कार्यशाला
पाणिनी, विश्‍वविख्यात संस्कृत व्याकरणकार है. समृद्ध संस्कृत भाषा, पाणिनी ने अपनी असामान्य प्रतिभा से चार हजार सूत्रों में बांध दी है. पाणिनी के पहले भी अनेक व्याकरणकार हो चुके है. पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’में उनके उल्लेख है. लेकिन पाणिनी जैसा प्रभाव किसी का भी नहीं. जो पाणिनी को मान्य नहीं, वह अशुद्ध, ऐसी पाणिनी की प्रतिष्ठा है. पाणिनी के बाद भी अनेक व्याकरणकार हो गए. लेकिन उन सब ने पाणिनी के सूत्रों को केवल परिशिष्ट जोडे या उन सूत्रों का अर्थ विषद करने में धन्यता मानी.

जर्मनी के बॉन विश्‍वविद्यालय में संस्कृत और हिंदी इन दो विषयों के प्राध्यापक प्रतीक रुमडे ने २०१२ के मई माह में डॉ. पुष्पा दीक्षित की कार्यशाला में प्रशिक्षण लिया. उन्होंने ‘धर्मभास्कर’ मासिक के गत फरवरी माह के अंक में अपने अनुभवों का निवेदन किया है. उसी के आधार पर निम्न जानकारी दी है.

यह कार्यशाला छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में होती है. डॉ. पुष्पा दीक्षित राष्ट्रपति-पुरस्कार प्राप्त विद्वन्मान्य व्याकरण तज्ञ है. एम. ए., पीएच. डी. है. छत्तीसगढ़ शासन के महाविद्यालय में प्राध्यापक थी. अब सेवानिवृत्त है. ५ मई से ५ जून २०१२, एक माह यह कार्यशाला थी. इसमें करीब ५० विद्यार्थी सहभागी थी. वे महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश राज्यों से आये थे. नेपाल से भी कुछ विद्यार्थी आये थे. एक लघुभारत का ही दर्शन  वहाँ होता था. कार्यशाला में परस्पर संपर्क की भाषा अर्थात् संस्कृत ही थी.

रोज सुबह सात बजे अष्टाध्यायों के सूत्र पठन से अध्ययन की शुरुवात होती थी. दोपहर के भोजन की छुट्टी तक अध्ययन चलता था. भोजनोत्तर विश्रांती के बाद पुन: रात्री के भोजन तक विद्यार्थी एकत्र आते. सारे समय तक विद्यार्थी एक स्थान पर आसन लगाकर बैठते थे. यह एक प्रकार से ‘आसनविजय’ ही था.

कार्यशाला की सब व्यवस्था किसी गुरुकुल के समान थी. परिसर की सफाई, वर्ग में की बैठक व्यवस्था, पीने का पानी, रसोई में सहायता, भोजन परोसना, यह सब काम, निश्‍चित किए अनुसार विद्यार्थी ही करते थे. दिन भर अभ्यास का बौद्धिक श्रम होने के बाद विश्राम में, सायंकाल अलग-अलग भाषाओं में के भजन होते थे. रात्री के भोजन के बाद डॉ. पुष्पाताई (उन्हें विद्यार्थी माताजी कहते थे) भागवत सुनाती थी. उसके माध्यम से सामाजिक भान और शास्त्राध्ययन की लगन का स्मरण कराया जाता था.

माताजी का दिनक्रम विद्यार्थीयों के दिनक्रम से भी कठोर था. प्रात: पाँच बजे उठकर नित्यविधी निपटने के बाद वे कंप्युटर पर नित्य का ग्रंथ-लेखन करती. इस ग्रंथ-लेखन में कभी भी खंड नहीं हुआ. सात बजे अध्ययन शुरु होता. बीच-बीच में विद्यार्थीयों से प्रश्‍न पूछकर वे विद्यार्थीयों को जागरूक करती. इन करीब पचास विद्यार्थीयों के लिए भोजन बनाने, वे रसोईघर में भी काम करती. यह कार्यशाला, वे समाज में के संस्कृत प्रेमी सज्जनों से सहायता लेकर चलाती. विद्यार्थीयों से शुल्क नहीं लिया जाता. श्री रुमडे लिखते है, ‘‘मानों स्फूर्ति के झरने की इस कार्यशाला में भाग लेकर संस्कृत के विद्यार्थी हमारे ऊपर शास्त्राध्ययन के साथ कितनी बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी है, यह बात मन में पक्की करते है, माताजी के सहवास में इस तेज:पुंज से तेज के कुछ कण ले पाए, इससे आनंद की और क्या बात होती?’’
(‘धर्मभास्कर’ से साभार)

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मोटेल में भगवद्गीता
मोटेल मतलब मोटर कार से यात्रा करने वालो के लिए, रुकने की और अपनी कार रखने की व्यवस्था का होटल. ‘इस्कॉन’ मतलब ‘इंटरनॅशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कान्शस्नेस’. हम उसे ‘हरे कृष्ण’ संस्था कहते है. इस संस्था ने अमेरिका में विभिन्न मोटेल में भगवद्गीता की १६००० प्रतियाँ रखी है. इनमें हरेकृष्ण संप्रदाय के संस्थापक श्री प्रभुपाद महाराज का गीत पर का भाष्य है. सामान्यत: हर मोटेल में बायबल की एक प्रति रहती ही है. वहाँ बायबल की ऐसी एक लाख पैंतीस हजार प्रतियाँ रखी है. इसका अनुकरण कर ‘इस्कॉन’ने गीता की प्रतियाँ रखने का उपक्रम २००६ से शुरु किया. उनका गीता की दस लाख प्रतियाँ रखने का लक्ष्य है.

मोटेल में गीता की यह प्रतियाँ नि:शुल्क रखी जाती है. अमेरिका में के धनी भारतीय इसके लिए आवश्यक धन देते है. प्रभुपाद का भाष्य पढ़कर गीता से अनभिज्ञ लोग भी गीता का अर्थ समझ लेते है. वॉशिंग्टन डी. सी. में के मोटेल में निवास किए एक यात्री जॉन रॉड्रिग्ज, ने मोटेल के मालिक को आभार का पत्र लिखकर सूचित किया है कि, ‘‘मोटेल के मालिक के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ कि, उन्होंने मुझे यह अवसर उपलब्ध करा दिया. इससे मुझे, ‘मैं कौन हूँ?’, ‘यह जीवन मतलब क्या?’ - इसका ज्ञान हुआ. इस कारण मेरा जीवन अधिक सुखी और तनावरहित हुआ है. मेरा इस सौभाग्य पर विश्‍वास ही नहीं होता. धन्यवाद.’’

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कुछ विनोद
पुणे के यह फलक पढ़े -
१) हम कभी पढ़ाई नहीं करते. कारण पढ़ाई केवल दो ही बातों से संभव है. (अ) लगाव के कारण (आ) भय के कारण. फालतू लगाव हमने पाले नहीं. और हम डरते तो किसी के बाप से भी नहीं.

२) सिगारेट तस्तरी में न बुझाए अन्यथा चाय अ‍ॅश ट्रे से पीनी पडेगी.

३) जीवन में का पहला वस्त्र है लंगोट. उसे जेब नहीं होती. अंतिम वस्त्र (होता है) तन से लपेटी सफेद चादर. उसे जेब नहीं होती. फिर भी मनुष्य जीवन भर जेब भरने के लिए मरता है.

४) हमारे घर के बच्चें क्रांतिकारक है. इस कारण गेट के सामने रखी गाडी पर हमला होने पर हम जिम्मेदार नहीं. थोडे समय बाद गेट के सामने की गाडी भी दिखेगी नहीं, इसकी गारंटी. गाडी गेट के सामने लगाए और आकर्षक पुरस्कार जीते : (पुरस्कार)
            *पंक्चर टायर      * फटी हुई सीट   * टूटे हेडलाईट
            * पेट्रोल की टंकी खाली और बंपर इनाम गाडी पुलीस स्टेशन में.

५) रोज सुबह उठने के बाद अमीर और महान व्यक्तियों के नाम पढ़े. उसमें आपका नाम न हो, तो काम शुरु करे.

६) देखने वाला कोई हो तो दाढी करने में मतलब है. कोई देखने वाला ही नहीं होगा, तो नहाना भी व्यर्थ है. 
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सियासी क्षेत्र के कुछ सुभाषित
१) ‘‘हम छोटे चोरों को फाँसी पर लटकाते है और बड़े चोरों को सरकारी पद देते है’’ - इसाप
२ ) ‘‘सर्वत्र सियासी लोग एक जैसे ही होते है. जहाँ नदी नहीं, वहाँ पूल बनाने का आश्‍वासन देते है.’’ - निकिता क्रुश्चैव
३ ) राजनीति ऐसी एक कला है जो गरीबों से मत मिलाती है और अमीरों से पैसा. दोनों को एक-दूसरे से सुरक्षा देने का आश्‍वासन देती है. - ऑस्कर अमेरिंगर
४ ) ‘‘मेरे विरोधकों को मैंने एक समझौते का प्रस्ताव दिया. मैंने कहा, मेरे विरुद्ध की असत्य बातें प्रसारित करना, तुमने बंद किया, तो तुम्हारे बारे में की सच्ची बातें मैं बताऊँगा नहीं.’’ - अ‍ॅडलाय स्टीव्हन्सन
५ ) राजनीतिज्ञ ऐसा आदमी है कि जो देश के लिए तुम्हारे प्राण भी लेगा.
६ ) और एक विनोद.
            राजनीतिज्ञ नदी में डूबकर मर गया तो क्या होगा? अर्थात् पानी दूषित होगा. लेकिन सब राजनीतिज्ञ डूबकर मर गए तो? - तो सब प्रश्‍न हल हो जाएगे.

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सरदारजी
क्या आप जानते है कि,
१ ) आयकर में का ३३ प्रतिशत भाग सिक्ख देते है.
२ ) देश में कुल दान-धर्म में ६७ प्रतिशत हिस्सा सिक्खों का होता है.
३ ) सेना में सिक्खों की संख्या ४५ प्रतिशत है.
४ ) ५९ हजार गुरुद्वारों में के लंगर में रोज ५९ लाख लोगों को नि:शुल्क भोजन दिया जाता है.
५ ) हिंदुस्थान की जनसंख्या में सिक्खों का प्रमाण कितना है? केवल १.४ प्रतिशत.

और यह एक घटना
छुट्टी में कुछ मित्र दिल्ली आये. शहर में घूमने के लिए उन्होंने एक टॅक्सी किराए पर ली. चालक एक बूढ़े सरदारजी थे. युवा लड़कें, यात्रा में सरदारजी को चिढाने के लिए, सरदारजी से जुडे विनोद एक-दूसरे को सुनाने लगे. सरदारजी शांतता से सब सुन रहे थे.     

घूमना समाप्त होने के बाद उन्होंने सरदारजी को किराए के पैसे दिए. छुट्टे पैसे लौटाते समय सरदारजी ने हर एक को एक रुपया ज्यादा दिया. और उनसे कहा, ‘‘तुमने इतने समय तक सरदारजी का मजाक उडाने वाले किस्से सुनाए. उनमें के कुछ अभिरुचिहीन भी थे. लेकिन मैंने शांति के साथ सब सुन लिया. मेरी तुमसेे एक बिनति है. यह जो ज्यादा एक रुपया मैंने तुम्हें दिया है, वह इस शहर में या अन्यत्र भी कोई सिक्ख भिखारी मिला, तो उसे दे.’’ निवेदक सुमंत आमशेखर बताते है कि, दिल्ली घूमने गये उन लड़कों में मेरा एक मित्र भी था. वह कहता है, ‘‘अनेक वर्षों बाद भी वह एक रुपया मेरे पास पडा हुआ है.’’


- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com

Monday 18 March 2013

आतंकवाद से मुकाबला और राज्यों के अहंकार


हमारे देश में आतंकवाद की भीषण समस्या है, आतंकवाद हमारे देश पर का एक महान संकट है, इस बारे में हमारे देश में दो मत होगे ऐसा नहीं लगता. अपवाद करना ही होगा, तो वह, आतंकवादी कारवाईंयॉं करने वाले दो प्रकार के समूहों का करना होगा. एक समूह जिहादी आतंकवादियों को है, तो दूसरा माओवादी आतंकवादियों का है. हर समूह में अनेक गुट है, उनके नाम भी भिन्न-भिन्न है. पहले जिहादी आतंकवादियों में लष्कर-ए-तोयबा, इंडियन मुजाहिद्दीन, सीमी आदि नाम धारण करने वाले गुट है, तो दूसरे में माओवादी, नक्सली, पीपल्स वॉर ग्रुप आदि नाम के गुट है. इन दोनों गुटों का परस्पर सहकार्य नहीं है, लेकिन दोनों के उद्देश्य समान है. वह है हिंसा का आधार लेकर भारत को कमजोर बनाना और अपनी सत्ता स्थापन करना. पहले को इस्लामी राज चाहिए, तो दूसरे को मार्क्सवादी.

संपूर्ण भारत ही आघातलक्ष्य
इन आतंकवादी गुटों की हिंसक कारवाईंयॉं किसी एक राज्य तक मर्यादित नहीं. राजधानी दिल्ली, पुणे, मुंबई, बंगलोर, हैद्राबाद इन स्थानों पर आतंकवादियों ने किए बम विस्फोट अब सर्वपरिचित है. उन्होंने सैकड़ों निरपराध लोगों की हत्या की है. इन सब आघातों का लक्ष्य और भक्ष्य केवल वे शहर नहीं थे, संपूर्ण भारत को बरबाद करना, यह उनका उद्दिष्ट था. वामपंथी विचारधारा के आतंकवादी वनवासी क्षेत्र में सक्रिय है. बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र इन राज्यों में उनकी कारवाईंयॉं शुरु रहती है. पहले गुट का आघातलक्ष्य मुख्यत: नागरी लोग और संस्था है, तो दूसरे गुट का आघातलक्ष्य पुलीस और अर्धसैनिक दल है.

इन आतंकवादियों की हिंसक कारवाईयॉं अलग-अलग राज्यों में होती रहती है, फिर भी वह समस्या उन-उन राज्यों की समस्या नहीं है; और इस कारण इन हिंसक चुनौतियों का सामना कर, उन्हें समाप्त करना यह केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी है. इस दृष्टि से केन्द्र सरकार ने कुछ कदम उठाए भी है. लेकिन हमारा, मतलब हमारे देश का दुर्भाग्य यह कि, केन्द्र सरकार के उस संदर्भ के उपक्रमों को और नीतिनिर्धारण को राज्यों का मन से समर्थन नहीं मिलता. देश की सुरक्षा की अपेक्षा उन्हें अपने राज्य के स्वायत्तता की अधिक चिंता है. वे यह भूल ही जाते है कि, आखिर देश है, इसलिए तो उनका अस्तित्व है, उनका घटकत्व है. संपूर्ण देश को स्वातंत्र्य मिला इसलिए तो वे भी स्वातंत्र्य भोग रहे है.

नक्षली हिंसाचार के संबंध में कहे तो वह समस्या अनेकसंलग्न राज्यों में है. एक राज्य में हिंसाचार कर नक्षली अन्य राज्यों में भाग जाते है. इसलिए सब राज्यों को अपने कक्षा में लेने वाली, उनके बंदोबस्त की व्यवस्था आवश्यक है. यह आवश्यकता केन्द्र सरकार ही पूर्ण कर सकती है.

संपूर्ण देश की समस्या
इस संदर्भ में केन्द्र सरकार ने कुछ कदम उठाए भी है. एक नॅशनल इन्व्हेस्टिगेशन एजन्सी की (एनआयए) मतलब राष्ट्रीय अपराध-अन्वेषण यंत्रणा की निर्मिति की है. राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में इस यंत्रणा को कुछ विशेष अधिकार है. राज्यों का भी पुलीस दल होता है. कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उनकी है. वह किसी ने छीनी नहीं. लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्‍न आने पर राज्य के पुलीस विभाग के अधिकार को परे रखने का अधिकार एनआयए को है. इसमें गलत क्या है? क्या राज्य का पुलीस विभाग इतना सक्षम है कि, स्वयं अपने बुते पर आतंकी हमलों का बंदोबस्त कर सकता है? मुंबई पर हुए हमले महाराष्ट्र की पुलीस क्यों रोक नहीं पाई? उस विभाग से संलग्न खुफिया विभाग क्यों कमजोर साबित हुआ? अभी हाल ही में हैदराबाद में बम विस्फोट हुए. अनेक निरपराधी मारे गए. आतंकवादियों ने बताया कि, अफजल गुरु को, जिसने हमारे संसद भवन पर हमला किया, फॉंसी पर लटकाया गया और अजमल कसाब जिसे मुंबई के बम विस्फोट में शामिल होने के कारण फॉंसी पर लटकाया गया, उसका बदला लेने के लिए हमने यह हमले किए थे. क्या आंध्र प्रदेश की सरकार यह हमले रोक पाई? सब जिहादी संगठनों की जड़ें पाकिस्थान में है. वहॉं से इन संगठनों को प्रेरणा और शक्ति मिलती है. क्या उस पाकिस्तान का मुकाबला कोई एक राज्य अपने बुते पर कर पाएगा? वस्तुत: यह किसी भी एक राज्य की जिम्मेदारी नहीं. वह जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की है. स्वयं प्रधानमंत्री ने ही यह जिहादी टेरर मशीनपाकिस्तान में है और पाकिस्तान उसे नियंत्रण में रखें, ऐसा वक्तव्य किया है. हाल ही में पाकिस्तान की संसद ने प्रस्ताव पारित कर अफजल गुरु को फॉंसी पर लटकाने के लिए भारत की निंदा की है. एक प्रकार से पाकिस्तान ने स्वयं ही यह स्पष्ट किया है कि, भारत में की जिहादी आतंकवादी कारवाईयों को उसका समर्थन है.

हमारा राज्य फेडरलनहीं
इस आतंकवाद को नियंत्रण में लाने के लिए केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर एक आतंकवाद विरोधी केन्द्र (नॅशनल काऊंटर टेररिझम् सेंटर -एनसीटीसी) स्थापन करना तय किया है. इस केन्द्र को, मतलब  एनसीटीसीको अपराध की खोज करने, अपराधियों की जॉंच करने, उन्हें गिरफ्तार करने, उनपर मुकद्दमें दायर करने के अधिकार देना संकल्पित है. इसमें क्या गलत है? अभी तक आतंकवाद विरोधी केन्द्र सक्रिय नहीं हुआ है. उसके सक्रिय होने की आवश्यकता है. लेकिन उसे अमल में लाने में राज्यों के अहंकार आडे आते है. कहा जाता है कि उनका आक्षेप है कि, इस केन्द्र के कारण राज्यों के अधिकार बाधित होंगे. उनका कहना है कि, हमारा संविधान फेडरल स्टेट (संघीय राज्य व्यवस्था) की गारंटी देता है. मतलब राज्य स्वायत्त है. उनके इस संविधान प्रदत्त स्वायत्तता पर इस एनसीटी के कारण आक्रमण होता है. मेरा प्रश्‍न है कि, हमारे संविधान में फेडरलशब्द कहा है? अमेरिका के संयुक्त संस्थान के समान हमारे देश की राज्य रचना नहीं है. वहॉं एक-एक राज्य, अलग-अलग पद्धति से अस्तित्व में आए और बाद में उन्होंने एक होकर संघ बनाया. पहले वे स्वतंत्र थे और बाद में वे संयुक्तमतलब युनाईटेडहुए. हमारे देश के न नामाभिधान में, न रचना में, ऐसा युनाईटेड (संयुक्त) शब्द है. हमारे संविधान का शब्द युनियनहै. हमारे संविधान की पहली धारा बताती है कि, India that is bharat is a union of States. युनाईटेडशब्द में बाद में आने वाली संयुक्तता है, तो युनियनशब्द में अंगभूत एकत्व का भाव है.

एक देश, एक जन
व्यक्तिश: मेरा, ‘युनियन ऑफ स्टेट्सइस शब्दावली को ही विरोध है. इस शब्दावली में राज्य आधारभूत एकक (unit) कल्पित है. यह मूलत: गलत है. इस गलत शब्द के कारण ही स्वायत्तता के ख्वाब संजोने के लिए प्रोत्साहन मिलता है. अमेरिका के संयुक्त संस्थान की तरह यह देश किसी प्रस्ताव या समझौते से नहीं बना है. वह मूलत: एक है. आज नहीं. २६ जनवरी १९५० से नहीं. अंग्रेजों का राज्य आने के बाद नहीं. या उनके पहले जो मुगल आए, तब से नहीं. बहुत प्राचीन समय से है. समुद्रपर्यन्ताया एकराट्यह वेदों का वचन है. एकराट्का अर्थ एक राष्ट्रकरे या एक राज्यकरे, वह वचन संपूर्ण देश के एकत्व का बोधक है. विष्णुपुराण में उसका विस्तार बताया है.

उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्|
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति: ॥

ऐसा वह वचन है. उसका अर्थ स्पष्ट है. समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो प्रदेश है, उसका नाम भारत है और वहॉं के लोग भारती (भारतीय) है. रघुवंश में राजाओं का वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास ने आसमुद्रक्षितीशानाम्विशेषण का प्रयोग किया है. उसका अर्थ समुद्र तक फैली भूमि के राजाहै. श्रीरामचंद्र के मन में भी यही भाव था. उसने जब वाली को मारा, तब वाली ने उससे प्रश्‍न किया कि, ‘‘तूने मुझे क्यों मारा? मैंने तेरा क्या अपराध किया था?’’ उस पर श्रीरामचंद्र का उत्तर प्रसिद्ध है. श्रीरामचंद्र कहते है,

‘‘ईक्ष्वाकूणामियं भूमि: सशैलवनकानना |
मृगपक्षिमनुष्याणां निग्रहानुग्रहेष्वपि ॥

अर्थ है, यह पर्वत, वन, कानन सहित संपूर्ण भूमि इक्ष्वाकू की है; और अधर्माचरण करने वालों को दंड आणि धर्माचरण करने वालों पर अनुग्रह करने का हमें अधिकार है.

देश के एकत्व का भान
तात्पर्य यह कि, यह एक देश है. यहॉं के लोग एक है. यह एक राष्ट्र है. इस एक राष्ट्र में पहले अनेक राज्यसम्मिलित थे, यह सच है. पहले अनेक गणराज्य थे. लेकिन साम्राज्य भी थे. शत्रुओं के आक्रमण के बाद, उसे पुन: स्वतंत्र करने के प्रयास जिन्होंने किए, वे किसी भी प्रदेश के हो, उन्होंने संपूर्ण देश को स्वतंत्र करने का ही स्वप्न देखा. अन्यथा छत्रपति शिवाजी महाराज को अपनी जान जोखीम में डालकर दिल्ली जाने का क्या कारण था? या नादीरशाह दिल्ली में तबाही मचा रहा था, तब पहले बाजीराव ने, दिल्ली की रक्षा के लिए उत्तर की ओर कूच करने का क्या कारण था? नादीरशाह ने पुणे पर तो आक्रमण नहीं किया था! और अभी हाल ही में जिन क्रांतिकारकों ने अपने प्राण संकट में डालकर अंग्रेजों को खदेड़ने का प्रयास किया, वह किस प्रान्त को स्वतंत्र करने के लिए? उनका प्रयास तो संपूर्ण देश को ही स्वतंत्र करने का था. सुभाषचंद्र बोस ने आझाद हिंद सेना क्यों बनाई थी? केवल बंगाल स्वतंत्र करने के लिए? उनका नारा जय हिंदथा. जय संपूर्ण हिंदुस्थानऐसा उसका अर्थ है. कारण उनके सामने संपूर्ण हिंदुस्थान की स्वतंत्रता का ध्येय था. सन् १९४२ में क्रिप्श मिशन भारत में, स्वतंत्रता के संबंध में चर्चा करने हेतु आया था. उसने हर प्रान्त को स्वतंत्रता देने की योजना लाई थी. कॉंग्रेस ने उसे नकारा.

संविधान में संशोधन
मेरे मतानुसार संविधान के पहली धारा की भाषा, संविधान में संशोधन कर, बदलनी चाहिए. वह धारा इस प्रकार चाहिए -  that is Bharat is one country, with one people and one culture i.e. one value system and therefore one nation, और यह करना असंभव नहीं. श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो संविधान की प्रत्यक्ष आस्थापना में ही (प्रि-ऍम्बल) संशोधन किया था. जो शाश्‍वत और चिरस्थायी रहना चाहिए था, उसमें भी बदल किया था; और वह बदल आज कालबाह्य होने के बाद भी हम चला ले रहे है, फिर संविधान की पहली धारा की शब्दावली बदलने में क्या हर्ज है? अमेरिका के संयुक्त संस्थान (युएसए) के संविधान का अनुकरण करने के मोह में हमने यह शब्द स्वीकार किए होगे, ऐसा मुझे लगता है. हमारे देश का अतिप्राचीन इतिहास और वैचारिकता का विचार अग्रक्रम पर होता, तो यह अकारण भ्रम निर्माण करने वाली शब्दावली हम स्वीकारते ही नहीं. अमेरिका के इतिहास में भी, उस संयुक्त संस्थान की संयुक्तता कायम रखने के लिए अब्राहम लिंकन ने गृहयुद्ध मान्य किया, लेकिन दक्षिणी ओर के राज्यों को अलग नहीं होने दिया था, या घटना ध्यान में लेनी चाहिए.

तथापि, जो है, वह मान्य करने पर भी यह स्पष्ट करना चाहिए कि, विभिन्न राज्य कारोबार की सुविधा के लिए है. अंग्रेज, जैसे-जैसे प्रदेश जितते गए, वैसे-वैसे राज्य बनाते गए. अंग्रेजों के जमाने में मुंबई विभाग में, मराठवाडा और विदर्भ को छोड़कर संपूर्ण महाराष्ट्र, सौराष्ट्र को छोड़कर संपूर्ण गुजरात, आज पाकिस्तान में अंतर्भूत सिंध प्रान्त और कर्नाटक के कुछ जिले इतना विशाल प्रदेश समाविष्ट था. इसी प्रकार बंगला में बिहार का भी अंतर्भाव था. स्वातंत्र्योत्तर समय में, उग्र आंदोलनों से ही सही, कुछ योग्य राज्यरचना हुई है. लेकिन वह संपूर्ण समाधानकारक नहीं है. बीस करोड़ का एक उत्तर प्रदेश राज्य और १०-१२ लाख का मिझोराम या पचास लाख जनसंख्या से कम के अनेक राज्य, यह व्यवस्था योग्य नहीं. पुन: एक बार राज्य पुनर्रचना आयोग बिठाकर, तीन करोड़ से अधिक या पचास लाख से कम जनसंख्या के राज्य नहीं रहेगे, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए.

लेकिन यह स्वतंत्र विषय है. मुख्य बात यह है कि हमारी राज्य व्यवस्था संघात्मक (फेडरल) नहीं चाहिए. वह एकात्मिक (unitory) चाहिए. युनिटरी का अर्थ विकेन्द्रीकरण को विरोध नहीं होता. राज्य कारोबार के घटक छोटे ही होगे. वे वैसे ही चाहिए. उन्हें अंतर्गत कारोबार की स्वतंत्रता रहेगी. हम विकेंद्रित व्यवस्था के पक्षधर है. लेकिन केन्द्र मजबूत होना ही चाहिए. विदेशी आक्रमण, परराष्ट्र संबंध, देश की सुरक्षा व्यवस्था, देशांतर्गत विद्रोह का बंदोबस्त - जैसे जिहादी और नक्सली आतंकवाद का बंदोबस्त, नदियों के पानी का बँटवारा, आदि और इस प्रकार के अन्य सार्वदेशीय विषय केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में ही होने चाहिए. हमने जनतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार की है. इस कारण केन्द्र में सदा एक ही पार्टी की सत्ता रहेगी, यह संभव नहीं. अत: किस पार्टी की सत्ता है इसका विचार न कर, उस सत्ता को, देशहित की दृष्टि से, सब राज्यों का समर्थन रहना चाहिए. देशहित और हमारे राज्य के हित के बीच संघर्ष उत्पन्न हुआ, तो देशहित को ही प्राधान्य होना चाहिए. इसी दृष्टि से राज्यों ने, स्वायत्तता के भ्रम से निर्माण हुए अपने अहंकार और केन्द्र सरकार कीराजकीय पार्टी का विरोध परे रखकर, सब प्रकार का आतंकवाद जड़ से नष्ट करने के लिए एकजूटता के साथ केंद्रीय सत्ता के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहना चाहिए. उसने बनाई रणनीति और व्यवस्था को राज्यों ने मन से समर्थन देना चाहिए. यह एकजूट ही देश में के आतंकवादी हिंसाचार को जड़ से उखाड़ फेकेगी, और इस हिंसाचार को प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष मदद करने वाले पड़ोसी भारतद्वेषी राष्ट्रों के मन में धाक भी निर्माण करेगी.


- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com

   


             

    

 
       

Thursday 14 March 2013

अस्मिता की खोज में बांगला देश



हमारे देश के पडोसी बांगला देश में, एक क्रांति हो रही है. 1971 में बांगला देश स्वतंत्र हुआ, यह सर्वविदित है. उससे पूर्व वह पाकिस्तानका भाग था. उसका नाम पूर्व पाकिस्तान था. लेकिन पश्‍चिम पाकिस्तान अपने इस पूर्व भाग को, मतलब वहाँ की जनता को कभी समज ही नहीं पाया. दोनों भागों में एक ही समानता थी. और वह थी कि, दोनों ही भाग मुस्लिमबहुल थे; और उसी आधार पर ही 14 अगस्त 1947 को भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान की निर्मिति हुई थी.

इस्लाम और राष्ट्रभाव
लेकिन, उस समय, दोनों ओर के मुस्लिम समाज के नेता यह वास्तविकता भूले थे कि, इस्लाम राष्ट्रत्व का आधार नहीं हो सकता. इतिहास में बहुत पीछे न जाते भी, अब यह स्पष्ट हुआ है कि, इस्लाम कबूल करने वाले लोग एक-दूसरे के साथ बंधु-भाव से छोड़ दे, स्नेह भाव से भी नहीं रह सकते. वैसा होता तो इरान और इराक के बीच युद्ध ही नहीं होता. इराक कुवैत पर हमला ही नहीं करता. अभी हाल ही में तालिबान, उनके हाथों से अफगानिस्तान की सत्ता निकलते ही, सत्ताधारी मुसलमानों पर आत्मघाती हमले कर उन्हें जान से नहीं मारता. अभी-अभी मतलब गत फरवरी माह में सुन्नी-पंथी बलुची लोगों ने, अपने देश में के शिया-पंथी मुसलमानों की हत्या नहीं की होती. वह भी अन्य निधार्मिक स्थान पर नहीं, तो पवित्र मस्जिद के आहाते में. अर्थात शियाओं की मस्जिद के आहाते में. यह हमला इतना भीषण था कि, उसमें करीब एक सौ शिया मुसलमान मारे गए; और अभी हाल ही की उसके बाद की ताजी घटना बताए तो पाकिस्तान के कराची शहर में, 3 मार्च को, शिया-पंथीयों की बस्ती में बम विस्फोट कराकर कम से कम 50 शिया मुसलमानों को मारा गया. इन सब घटनाओं से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि, इस्लाम, पराक्रम की, जिहाद की, बलिदान की, या आत्यंतिक धर्म-निष्ठा की प्रेरणा दे भी सकता होगा, लेकिन वह बंधुता की प्रेरणा नहीं दे सकता. और राष्ट्रभाव का आधार तो परस्पर बंधुभाव होता है, धर्म-संप्रदाय नहीं होता. 70 हजार लोग जिसमें मारे गए, वह सीरिया में का गृहयुद्ध इसी बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है.

भाषा का महत्त्व
पूर्व पाकिस्तान की मतलब आज के बांगला देश की कुल जनसंख्या पश्‍चिम पाकिस्तान में के चारों प्रान्तों की कुल जनसंख्या से अधिक थी. लेकिन संपूर्ण पाकिस्तान के संसदीय चुनाव में पूर्व पाकिस्तान के नेता शेख मुजीबुर रहमान को बहुमत प्राप्त होने के बाद भी, उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था. इस्लामी देशों में की सियासी पद्धति के अनुसार उन्हें जेल भेजकर उनका मुँह बंद किया गया. विरोध का और भी एक मुद्दा था. और वह था पूर्व पाकिस्तान की जनता पर उर्दू भाषा थोपने का. पूर्व पाकिस्तान के जनता की भाषा बंागला है. उन्हें उर्दू की सक्ती पसंद नहीं आई. उर्दू मुसलमानों की धर्म-भाषा नहीं है. कुरान शरीफ अरबी भाषा में है; उर्दू में नहीं. सौदी अरेबिया, इराक, इरान, अफगानिस्तान इन देशों की भाषा उर्दू नहीं है. भारत में मुगलों का आक्रमण और उसके बाद उनका शासन आने के बाद उर्दू का जन्म हुआ. वह मुख्यत: सैनिकों के छावनी की भाषा है. वह, दिल्ली और उसके समीपवर्ती प्रदेशों में की उस समय की हिंदी और अरबी के मिश्रण से बनी भाषा है. वह उत्तर भारत में ही चली-बढ़ी और वहीं चल रही है. हमारे भारत के तामिलनाडु, कर्नाटक और केरल, इन राज्यों में रहने वाले मुसलमान क्रमश: तमिल, कानडी और मलियालम भाषा का उपयोग करते है. केरल में मुस्लिम लीग का दबदबा है. भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार इस पार्टी का अस्तित्व, भारत के अन्य भागों से करीब खत्म हो चुका है, लेकिन केरल में वह पार्टी आज भी कायम है. फिलहाल उस पार्टी का एक गुट, काँग्रेस के नेतृत्व की सरकार में शामिल है. इस मुस्लिम लीग के अधिकृत समाचारपत्र का नाम है ‘चंद्रिका’! मजहब एक रहते हुए भी भाषाएँ भिन्न हो सकती है, यह सादा सहअस्तित्व का तत्त्व पश्‍चिम पाकिस्तान के उर्दू भाषिक मुसलमानों को नहीं समझा और उन्होंने फौजी ताकत का उपयोग कर पूर्व पाकिस्तान में के, बांगला भाषी लोगों का दमन करने की रणनीति अपनाई.

घृणास्पद अत्याचार
इस रणनीति के विरोध में पूर्व पाकिस्तान की बांगला भाषी जनता ने विद्रोह किया. मुक्ति वाहिनी की स्थापना हुई. सशस्त्र क्रांति आरंभ हुई. पाकिस्तान की फौज ने, इस क्षेत्र के कट्टर मुसलमानों की सहायता से उस क्रांति को कुचलने के लिए, अन्यत्र के मुस्लिम आक्रमक जिस अघोरी, मानवता के लिए लज्जाजनक वर्तन का अंगीकार करते है, वही प्रकार अपने बांगला भाषी बंधुओं के बारे में किया. उन्होंने खून किए, सामूहिक हत्याएँ की और स्त्रियों पर बलात्कार के घृणास्पद अत्याचार भी किए. हम ही हमारे मजहब की स्त्रियों पर बलात्कार कर रहे है, इसका भी भान उन नराधमों को नहीं रहा.

स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद
भारत की सक्रिय सहायता से, पूर्व पाकिस्तान ने, पश्‍चिम पाकिस्तान के अत्याचारी बंधन से स्वयं को मुक्त कर लिया. जेल में ठूँसे गए शेख मुजीबुर रहमान को रिहा किया गया. वे नए स्वतंत्र बांगला देश के सर्वाधिकारी बने. उन्होंने पंथ निरपेक्ष (सेक्युलर) राज्य की घोषणा की. कट्टरपंथी जमाते इस्लामी, मुस्लिम लीग, निझाम-ए-इस्लामी और वैसी ही अन्य संस्थाओं पर पाबंदी लगाई. यह घटनाक्रम 1972 का है. लेकिन वे कट्टरपंथी दबे नहीं. 1975 में शेख मुजीबुर रहमान की हत्या की गई और फौज ने सत्ता अपने हाथों में ली. उसके बाद सत्ता में आए फौजी शासकों ने इन संस्थाओं के विरुद्ध की बंदी हटाई. फिर आगे चलकर जनतंत्र की हवाएँ बहने लगी. शेख मुजीबुर रहमान की पार्टी का नाम था, ‘अवामी लीग.’ फिलहाल बांगला देश में आज इस अवामी लीग की ही सत्ता है; और शेख मुजीबुर रहमान की कन्या शेख हसीना प्रधानमंत्री है. इसके पहले भी वे प्रधानमंत्री रह चुकी है. लेकिन बीच के कुछ समय में ‘बांगला देश नॅशनॅलिस्ट पार्टी’ भी सत्ता में थी. ‘बांगला देश नॅशनॅलिस्ट पार्टी’की प्रमुख खालिदा झिया भी महिला ही है. उनकी पार्टी कट्टरवादियों के साथ है.

21 फरवरी
अवामी लीग के राज्य में, जिन्होंने 1971 के स्वाधीनता संग्राम के समय, खून, महिलाओं पर बलात्कार, जैसे जघन्य अपराध किए थे, उनके विरुद्ध मुकद्दमें भरने के लिए ‘बांगला देश आंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय’ (बांगला देश इंटरनॅशनल क्राईम ट्रिब्युनल) स्थापित किया गया. इस न्यायालय ने, अत्यंत अधम अपराधों के आरोप लगे, जमाते इस्लामी का असिस्टंट सेक्रेटरी जनरल -अब्दुल कादर मुल्ला- को फाँसी की सज़ा सुनाने के बदले आजीवन मतलब 15 वर्षों के कारावास की सज़ा सुनाई. वह दिन था 4 फरवरी 2013. और दूसरे ही दिन से इस सज़ा के विरोध में बांगला देश में के विद्यार्थींयों और अन्य युवकों ने प्रचंड विरोध आरंभ किया. इस विरोध का आकार और तीव्रता इतनी बढ़ी कि, 21 फरवरी को, बांगला देश की राजधानी ढाका के शाहबाग चौक में पचास लाख युवक एकत्र हुए; वे एक ही नारा लगा रहे थे, ‘कादर मोल्लार फाशी चाई’ (कादर मुल्ला को फाँसी दो). 21 फरवरी इस दिन का एक भावोत्कट महत्त्व है. इसी दिन, इसी शाहबाग में, ठीक साठ वर्ष पहले, बांगला भाषा को, राज्यभाषा का दर्जा देने की मांग के लिए, एकत्र हुए विद्यार्थींयों पर उस समय की पूर्व पाकिस्तान की सरकार ने गोलियाँ चलाकर अनेक विद्यार्थींयों को मार डाला था. उस ‘एकुशिये फेब्रुवारी’की वेदना आज भी बांगला देशी विद्यार्थींयों के मन में कायम है. 21 फरवरी 2013 को वही प्रकट हुई.

जमाते इस्लामी का हिंसाचार
विद्यार्थींयों की यह 21 फरवरी की शाहबाग चौक में की विशाल रॅली, मिस्त्र की राजधानी कैरो के तहरिर चौक में की रॅली की याद दिलाती है. तहरिर चौक में की इस विशाल रॅली ने मिस्त्र के तत्कालीन तानाशाह होस्नी मुबारक को पदच्युत किया था. उसके बाद अरब जगत में नया वसंतागम होने का चित्र निर्माण किया गया था. यह बात अलग है कि, इस वसंतागम के परिणामस्वरूप वहाँ वसंत की सुखद हवाएँ नहीं चली. परिवर्तन हुआ. लेकिन फिर शिशिर की कट्टरपंथी हवाएँ ही वहाँ प्रभावी सिद्ध हुई. शाहबाग चौक में की क्रांतिकारी प्रचंडता अपना प्रभाव दिखा गई. 5 फरवरी को कादर मुल्ला सौम्य सज़ा से छूट गया, लेकिन 28 फरवरी को इसी जमाते इस्लामी का उपाध्यक्ष दिलवर हुसेन सईद को, उसी न्यायालय ने फाँसी की सज़ा सुनाई. उसके बाद जमाते इस्लामी की ओर से इस सज़ा के विरोध में हिंसक आंदोलन शुरु हुआ. इस हिंसाचर में अब तक करीब सौ लोगों ने जान गवाँई है.

यह हिंसाचार और भी भडक सकता है. कारण, जमाते इस्लामी की ताकत नगण्य नहीं. खलिदा झिया के राज्य में वह पार्टी भी सत्ता में भागीदार थी; और आज की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी खलिदा झिया की ‘बांगला देश नॅशनॅलिस्ट पार्टी’, जमाते इस्लामी के समर्थन में मैदान में उतरी है. खलिदा झिया ने, अपनी नाराजगी छुपाकर नहीं रखी है. भारत के राष्ट्रपति महामहिम प्रणव मुखर्जी, बांगला देश कोअधिकृत भेट देने गए तब, खलिदा झिया ने, उनके साथ तय अपनी भेट रद्द की. लेकिन, बांगला देश में के विद्यार्थी भी खामोश नहीं रहेंगे. न्यायालय ने अब्दुल कादर मुल्ला को आजीवन कारावास की सज़ा दी है, लेकिन उसी अपराध के लिए, उसी के साथ के और एक अपराधी को फाँसी की सज़ा भी सुनाई थी. उसका नाम है अब्दुल कलाम आझाद उर्फ बच्चू. वह भागकर पाकिस्तान गया है. इस कारण उस सज़ा पर अमल नहीं हो पाएगा. लेकिन दिलावर हुसेन सईद की सज़ा पर अमल हो सकता है. यह सईद कोई सामान्य आदमी नहीं. जमात की तिकट तर वह चुना गया और 1996 से 2008 तक बाराह वर्ष बांगला देश पार्लमेंट का सदस्य था. उसके विरुद्ध 50 लोगों की हत्या, लूटमार, महिलाओं पर बलात्कार जैसे अपराध के आरोप है. उसे न्यायालय ने फाँसी की सज़ा सुनाने पर नई पीढी के युवकों में आनंद है, लेकिन जिस दिन यह सज़ा अमल में आएगी, उस दिन बांगला देश में बहुत बड़ा हो-हल्ला मचे बिना नहीं रहेगा. केवल फाँसी की सज़ा सुनाते ही इतना हिंसाचार फँूटता है, तो वह सज़ा अमल में आने पर कितना तीव्र हिंसाचार होगा, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं.

शुभसंकेत
इसलिए कहा जा सकता है कि, बांगला देश को अपनी अस्मिता खोजनी है. आंदोलन करने वाले छात्र, बांगला देश के स्वतंत्रता युद्ध के बाद जन्मे है. उन्होंने अपने आंदोलन का नाम ही ‘मुक्ति-जोद्धा प्रजन्म कमेटी’ मतलब ‘मुक्ति-योद्धा नई पिढ़ी’ रखा है. बांगला देश की विद्यमान सरकार सेक्युलर राज्य व्यवस्था के लिए अनुकूल है. लेकिन आज के संविधान ने बांगला देश का अधिकृत धर्म इस्लाम है, यह भी घोषित कर रखा है. क्या बांगला देश की सरकार में यह हिंमत होगी, कि वह संविधान में संशोधन कर हमारा राज्य सेक्युलर रहेगा, ऐसा घोषित करेगी? तुरंत तो यह बदल संभव नहीं लगता. कुछ माह बाद मतलब 2013 में बांगला देश की संसद का चुनाव है. प्रमुख विरोधी पार्टी ‘बांगला देश नॅशनॅलिस्ट पार्टी’ और जमाते इस्लामी का गठबंधन है. क्या इस गठबंधन को हराकर, शेख हसीना की अवामी लीग फिर सत्ता में आएगी, यह प्रश्‍न है. आंदोलक विद्यार्थींयों की शक्ति पूर्णत: अवामी लीग के पीछे खड़ी रहेगी, ऐसा मान भी ले, तो भी चुनाव का फैसला क्या रहेगा, यह आज कहा नहीं जा सकता. इसलिए कहना है कि बांगला देश, अपनी अस्मिता की खोज में है. तहरिर चौक के आंदोलन के बाद भी मिस्त्र में हुए चुनाव ने कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहूड को ही सत्ता दिलाई थी. बांगला देश में भी वैसे ही तो नहीं होगा! सही समय पर ही इस प्रश्‍न का उत्तर मिल सकेगा. हाँ, यह सही है कि बांगला देश में कट्टरपंथी इस्लामिस्ट राज्य के बदले, पंथनिरपेक्ष या सर्वपंथादर रखने वाला, राज्य बनाने के लिए बड़ी युवा शक्ति, उस देश में खड़ी है. बांगला देश और भारत की भी दृष्टि से यह शुभसंकेत है.


- मा. गो. वैद्य  
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Sunday 3 March 2013

जिहाद और आतंकवाद


जिहादी आतंकवादियों ने, हैदराबाद में विस्फोट किए. २१ फरवरी को दिलसुखनगर नामक चहलपहल वाली बस्ती में यह विस्फोट किए गए. उनमें अनेक निरपराध लोग मारे गए. ऐसा क्रौर्य जिहादी भावना से पछाडे हुओं से ही संभव होता है.

राज्य काप्रयोजन
ऐसा बताया जा रहा है कि, २००१ के दिसंबर में हमारी सार्वभौम संसद पर हमला कर वहॉं सुरक्षा कर्मचारियों की हत्या करने का जो षडयंत्र हुआ, उस षडयंत्र का सूत्रधार अफजल गुरु को फॉंसी देने के कारण, उस फॉंसी का बदला लेने के लिए हैदराबाद में विस्फोट किए गए. यह कारण सच हो सकता है. लेकिन जो स्वयं आतंकवादी है, जिसे दूसरों के प्राणों की परवाह नहीं, उसे फॉंसी देने में शासन से कोई भूल हुई, ऐसा कोई भी नहीं कह सकता. किसी भी पद्धति की शासन व्यवस्था हो, जनतांत्रिक हो, तानाशाही हो या फौजी हो, उसे दंड-व्यवस्था मान्य करनी ही पड़ती है. दंड-व्यवस्था नहीं होगी तो शासन व्यवस्था नहीं रहेगी. राज्यनाम की राजनीतिक व्यवस्था दंड-शक्ति के आधार पर ही खड़ी रह सकती है. राज्यका वही, अधिष्ठान और प्रयोजन भी होता है. जो दंडनीय है, उन्हें राज्य व्यवस्था की ओर से दंड दिया जाना ही चाहिए.

न्याय व्यवस्था का लाभ
हमारे देश में, अन्य सुसंस्कृत देशों के समान चलने वाली दंड व्यवस्था है. यहॉं तानाशाही या फौजी शासन नहीं कि, राजकर्ताओं के मन में आया और किसी को भी मार दिया. यहॉं न्याय व्यवस्था है. इस व्यवस्था का संपूर्ण लाभ अफजल गुरु को मिला है. उसे निम्नस्तर की अदालत ने फॉंसी की सज़ा सुनाई थी. उस पर तुरंत अमल नहीं किया गया. उस सज़ा के विरुद्ध वरिष्ठ न्यायालय में जाने का प्रावधान है. उसके अनुसार अफजल गुरु उच्च न्यायालय में गया. वहॉं भी वही सज़ा कायम रखी गई. उसके ऊपर भी एक सर्वोच्च न्यायालय है; वहॉं भी वह गुहार लगा पाया. लेकिन वहॉं भी वही सज़ा कायम रही. हमारी न्याय व्यवस्था में ही, इस निर्णय का पुन: विचार करने की बिनती करने की व्यवस्था है. इस व्यवस्था का भी अफजल ने लाभ लिया. उसके बाद राष्ट्रपति के पास दया की याचिका करने की सुविधा है. उसका लाभ भी अफजल गुरु ने लिया; और अंत में की याचिका नामंजूर करने के बाद उसे फॉंसी पर लटकाया गया. महमद घोरी ने पृथ्वीराज चौहान को, औरंगजेब ने संभाजी महाराज को, मुजीबुर रहमान को फौज ने या झिया-उल-हक ने झुल्फिकारअली भुत्तो को जैसे आनन-फानन में मार डाला,  वैसे अफजल गुरु को नहीं मारा गया. इस कारण उसकी फॉंसी का बदला लेने का प्रयोजन ही नहीं था.

वे देशद्रोही ही
लेकिन जिहादी वृत्ति के लोगों को यह मान्य नहीं था. यह अच्छी बात है कि, भारत के अधिकांश मुसलमानों को यह जिहादी आतंकवाद मान्य नहीं है. उन्होंने अफजल की फॉंसी का निषेध नहीं किया. लेकिन हमारे ही देश के एक राज्य में मतलब जम्मू-कश्मीर राज्य में, वास्तव में उस राज्य के एक भाग में, जिहादी आतंकवाद के समर्थक एवं संरक्षक लोग है. अफजल के नाम पर उन्होंने वहॉं की जनता को बंधक बनाया. हड़ताल रखा. उग्र निदर्शन किए. वे सब लोग, सही में भारतीय है ही नहीं. भारत के साथ, जन्म से ही शत्रुता का व्यवहार करने वाले, भारत के साथ शत्रुत्व रखना ही जिनके जीवन का निमित्त और अस्तित्व है, उस पाकिस्तान से प्रेरित, और उसके इशारों पर नाचने वाले है. फिर वे गिलानी हो, उमर फारुख हो, यासिन मलिक हो या अन्य कोई. ये लोग पाकिस्तान सरकार के, वस्तुत: पाकिस्तान में सही में जिसकी सत्ता चलती है, उस पाकिस्तान की फौज के गुलाम है. लोगोंं ने, स्वयंशासन के लिए, चुनकर दिए लोगों का अस्तित्व उन्हें सहन नहीं होता. कश्मीर की घाटी में, लोकनिर्वाचित पंच-सरपंचों के खून हो रहे है. वे पंच-सरपंच भी मुसलमान ही है. गिलानी-फारुख-मलिक ने कभी इन हत्याओं की निंदा करने का समाचार हमने पढ़ा है? ये सब देशद्रोही लोग है, न्याय व्यवस्था के द्रोही है, जनतंत्र के द्रोही है, शांती और व्यवस्था के अनुसार जीवन जीने की चाह रखने वाले अपने मुसलमान भाईयों के भी द्रोही है.

मतलबी राजनीति
अफजल गुरु की फॉंसी की सज़ा पर सर्वोच्च न्यायालय की मुहर लगने के बाद, हमारी सरकार ने उस सज़ा पर तुरंत अमल करना चाहिए था. राष्ट्रपति के पास उसकी दया की याचिका पॉंच-छ: वर्ष क्यों पडी रही? इस सज़ा पर तुरंत अमल किया जाता, तो ९ फरवरी के बाद मतलब अफजल को फॉंसी देने के बाद, कश्मीर की घाटी में जो उग्र प्रतिक्रिया प्रकट हुई, वह प्रकट नहीं होती. लेकिन, सरकार चलाने वाली पार्टी की, स्पष्ट कहे तो कॉंग्रेस पार्टी की, राजनीति आडे आई. उसे न्याय-प्रक्रिया की अपेक्षा अपनी वोट बँक कैसे मजबूत रहेगी, इसकी ज्यादा चिंता थी. इस कारण उसने फॉंसी में इतना विलंब किया और अकारण अपने ऊपर हेत्वारोप ओढ लिए. पॉंच-छ: वर्ष राह देखने का कारण, कॉंग्रेस पार्टी कभी भी बता नहीं सकेगी. भारतीय जनता का मत है कि, कॉंग्रेस ने अपनी स्वार्थी, संकुचित राजनीति के लिए, अफजल की फॉंसी में विलंब लगाया. और विलंब करने के बाद जब फॉंसी दी, तब स्वाभाविक ही जनता ने कॉंग्रेस के ऊपर आरोप लगाया कि, राजनीनिक लाभ के लिए सरकार ने अब फॉंसी की सज़ा पर अमल किया. इस आरोप के लिए जनता को दोष देने में मतलब नहीं. कॉंग्रेस सरकार ने स्वयं की कृति से ही यह आरोप अपने ऊपर ओढ लिया है.

बकवास
हमारे देश में ढोंगी सेक्युलरवादी लोग है, इस फॉंसी के लिए अभी तक उनका रोना शुरु ही है. कहते है कि, सरकार ने अफजल की पत्नी को उसके फॉंसी की सूचना समय रहते नहीं दी. वैसे सूचना देने में हमें कोई आपत्ति नहीं. लेकिन अगर वह समय रहते नहीं दी गई, तो मानवाधिकार का भंग करने का बहुत बड़ा अपराध हुआ ऐसा हमें नहीं लगता. संसद भवन पर हमला कर, वहॉं के सुरक्षा कर्मचारियों की हत्या करने वाले अफजल के साथियों ने उन कर्मचारियों के परिवारों को, सूचित किया था? उनकी हत्या क्यों की गई? उनका क्या अपराध था? मानवाधिकार मानवों के लिए होते है. अफजल जैसे दानवों के बारे में उन अधिकारों की चर्चा करना अप्रस्तुत है. अफजल गुरु का एक मनोगत, उसकी मृत्यु के बाद कुछ समाचारपत्रों में प्रसिद्ध हुआ है. उसमेंे वह कहता है कि, भारतीय सैनिकों ने कश्मीर की जनता पर जो अन्याय किया, ‘निरपराधियोंकी हत्या की, उसका बदला लेने के लिए हमने संसद भवन पर हमला किया. कुछ समय के लिए हम इसे सच मान भी ले. फिर अफजल ने, उस संसद ने पारित किए कानून के आधार पर, अपना मुकद्दमा क्यों चलाया? क्यों तीन-तीन याचिकाए की? राष्ट्रपति के पास दया की याचिका क्यों की? पहले ही न्यायालय में, अपनी बदले की भूमिका क्यों स्पष्ट नहीं की? हमें तो लगता है कि, अफजल का वह निवेदन ही बनावट होगा. कश्मीर की घाटी के किसी पाकिस्तानवादी ने उसे बनाकर, प्रकाशित किया होगा. २००१ से यह मुकद्दमा चल रहा है; और अफजल का मनोगत २०१३ में प्रकट हेता है, इसे बकवास के सिवा और क्या अभिधान लगाए?

जिहादका पराक्रम
यह सच हो सकता है कि, अफजल गुरु की फॉंसी का बदला लेने के लिए हैदराबाद के विस्फोट कराए गए होगे. बदले को तारतम्य होता ही नहीं. बदले के विस्फोट दिल्ली, मुंबई, बंगलोर में भी हो सकते थे. बदला लेने वालों को हैदराबाद अधिक सुविधाजनक लगा होगा और यह अस्वाभाविक भी नहीं. जहॉं अकबरुद्दीन ओवेसी जैसे, जनप्रतिनिधि के रूप में चुनकर आ सकते है, वह स्थान इन विस्फोटों के लिए अधिक उपयुक्त लगना स्वाभाविक ही मानना चाहिए. मैं इस आतंकवाद को जिहादीआतंकवाद कहता हूँ. कारण इस्लाम में जिहादको निष्ठावान मुसलमानों का एक कर्तव्य माना गया है. इस जिहादका पूरा नाम जिहाद फि सबिलिल्लाहहै. इस अरबी शब्दावली का अर्थ ‘‘अल्लाह के मार्ग के लिए प्रयत्न’’ होता है, ऐसा जानकार बताते है. अल्लाह के मार्ग के लिए प्रयत्न अर्थात् पवित्र ही होगा. इस कारण जिहादसे एक प्रकार की पवित्रता भी जुडी है. ‘अल्लाह का मार्गअर्थात् अल्लाह के राज्य के विस्तार का मार्ग. इस ध्येय से प्रेरित होकर पैगंबर साहब के अरबस्थान में के अनुयायी, अपनी सेना लेकर दुनिया पादाक्रांत करने निकले. उनके पराक्रम को वंदन करना चाहिए कि, एक सदी में ही, पूरा पश्‍चिम एशिया, उत्तर अफ्रिका और दक्षिण यूरोप -स्पेन से अल्बानिया-चेचेन्या तक- उन्होंने काबीज किया. यह सामान्य बात नहीं. वे सब जिहादी अभियान थे. मतलब जो अल्ला को मानने वाले नहीं थे, मतलब काफीर थे, उनके विरुद्ध के अभियान थे. और काफीर कौन? - अर्थात् जो इस्लाम को नहीं मानते वे.

जिहादी क्रौर्य
इतिहास की असंख्य घटनाए हमें बताती है कि, पराभूत होकर पकड़े गए शत्रु ने इस्लाम स्वीकार किया, तो उसे क्षमा मिलती थी. उसने इस्लाम नहीं कबूला, तो उसे कत्ल किया जाता था. इस कत्तल से बचा तो उसे जिझियादेना पडता था. इसमें मुस्लिम इतिहासकारों या राजकर्ताओं को कुछ अनुचित नहीं लगा. निंदनीय लगना तो संभव ही नहीं था. आज भी नहीं लगता. सैनिकों को पराक्रम के लिए उकसाने हेतु आज भी जिहादका प्रयोग किया जाता है. अब शायद काफीर का अर्थ भी बदल गया है. पाकिस्तान या पश्‍चिम एशिया की ओर नज़र उठाकर देखे. जो मुसलमान है,  पवित्र कुरान को मानते है, पैगंबर साहब को मानते है, लेकिन विशिष्ट पंथ नहीं मानते, उन्हें भी काफीर माना जाता है. पाकिस्तान में, कादियानी मुसलमान काफीरमाने जाते है. हाल ही में बलुचिस्तान में वहॉं के सुन्नी मुसलमानों ने, आत्मघाती बम विस्फोट कर एक ही दिन में करीब दो सौ शिया पंथीय मुसलमानों की हत्या की, क्या सुन्नीयों ने शियाओं को काफीरमाना था, वे ही बता सकेगे. या पाकिस्तान और अफगाणिस्तान के तालिबानी जब अपने ही धर्म-बंधुओं पर छिपकर हमले कर उनकी हत्या करते है, तब वे जिनकी हत्या करते है, उनके लिए किस विशेषण का प्रयोग करते है? सीरिया में फिलहाल मारकाट चल रही है, जिसमें, जानकारों का अंदाज है कि, ७० हजार से अधिक लोग मारे गए, वे सब मुसलमान ही है. सत्तारूढ तानाशाह बशर असाद इस्लाम के एक पंथ का कार्यकर्ता है, तो बागी सब सुन्नी. क्या वे एक-दूसरे को काफीरकहते होगे? पता नहीं. लेकिन दोनों ही जिहादका नारा अवश्य लगाते होगे.

इस्लाम की ही निंदा
यह बताने का प्रयोजन यह कि, ‘जिहादकी नई परिभाषा की जानी चाहिए. वह सही में धार्मिक कृत्य होगा, तो बदला, हत्या, कत्तल से उसे दूर करना चाहिए. कोई भी पवित्र कर्तव्य क्रौर्य से संलग्न नहीं हो सकता. ऐसा कहते है कि, ‘जिहादका और भी एक अर्थ है. उसका नाम है अल्-जिहादुल्-अकबर’. सुफी पंथीय मुसलमान इसका प्रसार करते है, ऐसा कहा जाता है. इसका अर्थ है अपने विकार-वासनाओं के साथ युद्ध. और ऊपर जिस जिहाद का वर्णन किया है, उसका नाम है अल्-जिहादुल्-अषघर’. यह आक्रमक जिहाद है. मुल्ला-मौलवी और अन्य मुस्लिम विचारवंतों ने साथ बैठकर जिहादका कालानुरूप अर्थ स्पष्ट करना चाहिए. पुराना ही शब्द कायम रखकर नया काल-संगत अर्थ लगाना, यह धर्म-सुधार की एक पद्धति ही है. इराक में शियाओं ने सुन्नीयों के विरुद्ध जिहादपुकारने या बलुचिस्तान में सुन्नीयों ने शियाओं के विरुद्ध जिहादपुकारने में इस्लाम की ही निंदा है.                 

आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई
एक मुद्दा आतंकवाद के विरुद्ध की लड़ाई का भी है. सरकार ने पंथ-संप्रदाय का विचार न कर, आतंकवाद समाप्त करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करने चाहिए. उग्र प्रकृति के लोग हर समाज में होते है. हिंदू समाज में भी होगे. कुछ पर मालेगॉंव विस्फोट, समझौता एक्सप्रेस में  विस्फोट आदि आरोप के है. वे सब हिंदू है. उनके मामले अभी भी न्यायालय में नहीं पहुँचे. सरकार त्वरित यह करे; और संपूर्ण न्याय प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद, न्यायालय जो सज़ा सुनाएगा उस पर तुरंत अमल करे. ऐसा कुछ न होते हुए हिंदू आतंकवाद’, ‘भगवा आतंकवादका शोर मचाना शुद्ध मूर्खता है. गैर जिम्मेदार तरिके से ऐसा शोर मचाने वाले लोग स्वयं ही स्वयं को अपमानित करते है. यह भान अगर वे रखेगे, तो उसमें उनका कल्याण ही है. और जिस राज्य शासन के वे अंग बने है, उस शासन की शान भी है.

- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
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