Tuesday 19 August 2014

हिन्दू धर्म की विशालता

समादरणीय श्री ब्रह्मविद्यानंदजी महाराज
सादर प्रणाम

मेरा लेख जो शंकराचार्य, साईबाबा और हिन्दू धर्मइस शीर्षक से र्मैने लिखा था, उस के संदर्भ में आपने अपनी प्रतिक्रिया जो प्रकाशनार्थ भेजी, उसकी एक प्रति आपने मुझे भेजी वह मैंने पढी। मैं इस अनुग्रह के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ। छत्तीसगढ के किस अखबार में मेरा लेख प्रकाशित हुआ यह मैं नहीं जानता। मैंने दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले पाञ्चजन्यसाप्ताहिक के अतिरिक्त किसी भी अन्य समाचारपत्र को वह लेख नहीं भेजा था। पाञ्चजन्यने उसे प्रकाशित नहीं किया यह बात अलग है। संभवत:, छत्तीसगढ के उस अखबार ने मेरे ब्लॉग से वह लेख उद्धृत किया होगा। आप भी मेरे अन्य लेख उस ब्लॉग से पढ सकते हैं। ब्लॉग है mgvaidya.blogspot.com छत्तीसगढ के उस अखबार में शीर्षक में अपने स्वयं का आस्थाशब्द जोड दिया है। सम्पादक का वह अधिकार है। मेरी उस पर कोई आपत्ति नहीं।

अब बात आपके लेख की। आपने अपने लेख में झारखण्ड के एक आदिवासी का जो उदाहरण दिया वह यहाँ गैरलागू है। उस आदिवासीव्यक्ति को ईसाई बनाया गया। यहाँ, साईबाबा जो जन्म से मुसलमान थे, उनको हिन्दू बनाया गया है। उनकी पूजा आरती करना, या हिन्दूओं की अन्य देवताओंके समान उनकी मूर्ति प्रतिष्ठित करना यह हिन्दूकरण है। उसका स्वागत करना चाहिये। अपने हिंदुस्थान के इतिहास में शक, हूण, कुशान, यवन (यानी ग्रीक) आक्रामक करके आये। उन्होंने यहाँ विजय पाकर यहीं रहना पसन्द किया। काल के ओघ में वे सारे हिन्दू समाज में विलीन हो गये। गुजरात के गिरनार पर्वत पर रुद्रदामन् राजा का जो शिलालेख मिला है, उस में रुद्रदामनने अपनी पूर्वपीठिका बतायी है। उनके पिता का नाम जयदामन् था और पितामह का नाम चेष्टन था। चेष्टन के पुत्रपौत्रों ने हिन्दू नाम स्वीकृत किये। इसी तरह से शक, हूण और कुशान भी विशाल हिन्दू धर्म में और समाज में विलीन हो गये। अत:, साईबाबा को हिन्दू बनाया गया है, इसका आनंद मानना चाहिये कि दु:ख? आप के महाराज जैसे पीठाधीशों और मठाधीशों ने इसी प्रकार अपने हिन्दू समाज से अलग हुये अपने बंधुओं को फिर से अपने समाज में लाने के लिये प्रयत्नशील होना आवश्यक है।

हमारी प्राचीन काल से चली आयी धर्मकी अवधारणा को सभी ने ध्यान में लेना चाहिये। उपासना यह धर्म का केवल एक अंग है, सम्पूर्ण धर्म नहीं। धर्मकी व्युत्पत्ति संस्कृत के धृधातु से है और धृका अर्थ जोडना, धारण करना है। महाभारत में लिखा है, धर्मो धारयति प्रजा:। धर्म वह है जो प्रजा का धारण यानी रक्षण, पोषण करता है। उसी में लिखा है कि धारणाद् धर्म इत्याहु: -अर्थ स्पष्ट है कि वह धारण करता है इस लिये उसे धर्म कहते हैं।

किस की धारणा करता है धर्म’? सम्पूर्ण विश्‍व की, ब्रह्माण्ड की भी कह सकते हैं। विश्‍व में चार प्रमुख अस्तित्व हैं। एक है मानवव्यक्ति। दूसरा है मानवसमष्टि। मानवव्यक्ति समष्टि का अंश है । किन्तु समष्टि उसके बाहर भी है। किन्तु विश्‍व मानवसमष्टि के साथ समाप्त नहीं होता। क्यौं कि यहाँ पशु-पक्षी हैं, पहाड-नदीयाँ हैं- वृक्ष और वन भी हैं। यानी चराचर सृष्टि है। मानवसमष्टि इस सृष्टि का अंश है। और चौथा और सबसे महत्त्व का अस्तित्व है चैतन्य। जिसको मैं परमेष्ठी कहता हूँ। यह सब में है और सब के बाहर भी है। व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्ठी इन चारों को जोडनेवाला जो सूत्र है इसका नाम धर्महैं। जो विधा, अपने को व्यापकता से जोडती है वह धर्मबन जाती है। अपनी भाषा के कुछ शब्द लीजिये। जैसे धर्मशाला, धर्मार्थ अस्पताल, धर्मकांटा, राजधर्म, पुत्रधर्म आदि। धर्मशालामें कौनसी उपासना होती है? फिर धर्मशालाक्यौं? कारण हम अपने लिये कितना भी बडा और सुंदर मकान बनाइये वह धर्मनहीं। जब औरों के निवास की व्यवस्था करते हैं, तब धर्मशालाखडी होती है। हम अपने लिये दवाईयों का कितना भी प्रबन्ध करें, वह धर्मनहीं है। जब अन्यों के स्वास्थ्य की चिन्ता और व्यवस्था होती है, तब धर्मार्थ अस्पतालबनता है। यह स्वयं को व्यापकता से जोडना है। राजधर्मक्या राजा की उपासना है जो प्रजा की नहीं? जिन कर्तव्यों से राजा अपने को प्रजा से जोडता है वह राजधर्म है। और पुत्र जिन कर्तव्यों से स्वयं को माता-पिता से जोडता है वह पुत्रधर्म होता है। यही समष्टि धर्म है।

सृष्टि के साथ भी जोडने की व्यवस्था है। आवश्यकता है सम्मान से और आदर से जोडना चाहिये। अत: सृष्टि को हम मातृस्वरूप में देखते है। नदी लोकमाता बनती है। गंगामैय्या होती है। भूमि, भूमाता या मातृभूमि बतनी है। गौ-गोमाता बनती है। अचल हिमालय देवतात्मा कहलाया जाता है। पशुओं को पवित्रता अर्पण करने हेतु, उनको किसी ना किसी देवतास्वरूप से जोड दिया गया है। बैल को शंकरजी के साथ, गौ को भगवान् कृष्ण के साथ, हंस को सरस्वती के साथ, साँप को भी शंकर जी के साथ, छोटे चूहे को भी गणेशजी के साथ। इसी प्रकार वनस्पतियों को भी। तुलसी भगवान् विष्णु के लिये। बिल्व शंकर जी के लिये। दूर्वा गणेश जी के लिये। औंदुबर दत्तात्रेय के लिये और वटवृक्ष सावित्री के साथ।

अन्तिम सीढी जो है वह परमेष्ठी के साथ जोडने की। यह उपासना का दायरा है। आपने पूछा कि एकं सत् का क्या अर्थ है। वह है परमात्मा या परमेष्ठी। वही सत् यानी अक्षय है। किन्तु उस की उपासना की अनेक विधायें हो सकती हैं। विप्रा बहुधा वदन्ति का मतलब है बुद्धिमान लोक अनेक विधाओं से उसका वर्णन कर सकते हैं। यानी नाम अनेक हो सकते हैं। और अलग अलग नाम होने  के लिये रूप भी अनेक होना आवश्यक है। इस लिये हम अपने उपासना के लिये किसी रूप का या नाम का स्वीकार कर सकते हैं। कुछ थोडे ऐसे भी हो सकते हैं कि जो निराकार, निर्गुण की भी उपासना कर  सकते हैं। उपासना को ही परमार्थसाधना कहते हैं।

किन्तु विश्‍व जैसा पारमार्थिक है वैसाही वह भौतिक भी है। धर्मदोनों की चिन्ता करता है और व्यवस्था निहित करता है। अत: धर्मकी वैशेषिकों ने जो परिभाषा की है वह भी ध्यान में लेनी चाहिये। वह यह यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म: यानी जिस से अभ्युदययानी ऐहिक उन्नति और नि:श्रेयसयानी पारमार्थिक कल्याण की सिद्धि होती है, वह धर्महै। हिन्दू धर्म इस अर्थ में एकमात्र धर्महै। बाकी सब मजहब, सम्प्रदाय, पंथ एवं आस्थाएँ हैं। इस सबको हिन्दू धर्म में स्थान है। इस लिये डॉ. राधाकृष्णन् ने जो कहा कि 'Hinduism is not a religion; it is a common-wealth of many religions' वह एकदम सही है।

हिन्दू धर्म की इस विशाल व्यापकता के कारण ही वेदों की निन्दा करनेवाले गौतम बुद्ध को भी भगवान् का अवतार माना गया है। कवि जयदेव का यह वचन-
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम्
सदयहृदय दर्शितपशुघातम्
केशव धृतबुद्धशरीर । जय जगदीश हरे।
इसका चाहे उतना विस्तार किया जा सकता है। अत: यही विश्राम लेना चाहता हूँ।

हां, और एक बात रही। वह यह आपके गुरू स्वामी स्वरूपानंद महाराज की। आप ही अपने मन में सोचे कि अन्य पीठों के भी शंकराचार्य है। वे विवाद का विषय क्यौं नहीं बनते और स्वरूपानंद जी महाराज ही क्यौं? मैंने इस विषय का अधिक विस्तार करने की आवश्यकता नहीं। समझनेवाले समझ सकते हैं।

अस्तु। शेष शुभ।

स्नेहांकित
मा. गो. वैद्य