Friday 23 October 2015

हिन्दुत्व यानी शाश्वत धर्म, युगधर्म और आपद्धर्म का विवेक


धर्मकी संकल्पना को आसानी से समझना, कठिन है। क्यौं कि वह बहोत व्यापक है। अंग्रेजी में धर्मका अनुवाद रिलिजनऐसा किया जाता है। किन्तु यह अनुवाद अपर्याप्त है। अपने ही भाषा के कुछ शब्द लीजिये और रिलिजनया रिलिजसशब्द से उसका अनुवाद कीजिये, तब कैसी हास्यास्पद स्थिति बनती है, इसका अनुभव आयेगा। जैसे धर्मशाला’! क्या यह रिलिजस स्कूलहोती है? ‘धर्मार्थ अस्पताल’! क्या यह हॉस्पिटल फॉर रिलिजन्सहोता है? ‘धर्मकांटा’! क्या इस पर रिलिजन का भार तोला जाता है? ‘राजधर्म’! क्या यह राजा का रिलिजन होता है जो प्रजा का नहीं होता? और पुत्रधर्म’! क्या यह बेटे का रिलिजन होता है, जो उसके माँ-बाप का नहीं होता?
मूल में धृधातु
धर्मका सही अर्थ समझने के लिये हमें उसके मूल में जाना चाहिये। धर्मशब्द संस्कृत भाषा के धृधातु से बना है। धृका अर्थ है धारण करना, जोड के रखना। महाभारत कहता है, ‘‘धारणाद् धर्म इत्याहु: धर्मो धारयते प्रजा: अर्थ है, वह धारण करता है, मतलब है maintenance और sustenance करता है, इस लिये उसे धर्मकहा जाता है। और धर्म प्रजा का धारण करता है। प्रजा यानी केवल मानव नहीं, सृष्टि में जो भी चराचर अस्तित्व है, वह सब प्रजा है। यह सब भगवान् की प्रजा है। इस की धारणा करने का कार्य मानव का है।
व्यापकता से जोडना
और स्वयं को उसके साथ जोडना यह किसी वस्तु की धारणा करने का तरीका है। स्वयं को यानी व्यक्ति को अपने से परे किसी व्यापकता से जोडना यह धर्म है। हम अपने लिये कितना भी बडा मकान बनाएं, वह धर्म नहीं होता। जब औरों के निवास की हम व्यवस्था करते हैं, तब धर्मशालाखडी होती है। हम अपने लिये दवाईयों का कितना भी संग्रह करें, वह धर्मनहीं होता। हम अन्यों के नि:शुल्क आरोग्य की व्यवस्था निर्माण करते हैं, तब धर्मार्थ अस्पतालबनता है। धर्मशालाहो या धर्मार्थ अस्पताल’, इन के द्वारा हम अपने को एक बडे अस्तित्व के साथ जोडते हैं। राजधर्मयानी राजा के वे कर्तव्य, जो उसे प्रजा के साथ जोडते हैं, और पुत्रधर्मयानी पुत्र के वे कर्तव्य जो उसे माँ-बाप के साथ जोडते हैं।
कितनी व्यापकता के साथ आप अपने को जोड सकेंगे, यह उस व्यक्ति पर या व्यक्तिसमूह पर निर्भर होगा। क्षमता हो तो आप सम्पूर्ण मानवजाति के साथ स्वयं को जोड सकते हैं। महाराष्ट्र में संत तुकाराम हो गये। वे कहते हैं तुका झाला आकाशाएवढा’- यानी तुकाराम आकाश के समान बडा, यानी व्यापक हुआ है। सारांश यह है, कि मनुष्य ने अपने को मानव समाज के साथ जोडने के प्रयास करने चाहिये। खाना हम अपने घर में पकाते हैं, फिर भी उसे किसी किसी को पहले अर्पण करना चाहिये। कम से कम भगवान् को नैवेद्य तो देना चाहिये। अतिथि को भोजन देना चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि जो केवल स्वयं के लिये भोजन पकाते हैं वे अन्न नहीं, पाप भक्षण करते हैं। गीता के शब्द हैं- भुञ्जते तेे त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्’ (अध्याय 3, श्लोक 13)
सृष्टि के साथ सामंजस्य
यह पहली सीढी है। दुनिया में केवल मानव ही नहीं रहते। पशु हैं, पक्षी हैं, पहाड हैं, नदियाँ हैं, वृक्ष हैं, उस के फूल, फल और पत्ते हैं। मतलब मानवसमष्टि के बाहर भी सृष्टि है। उस के साथ स्वयं को जोडना, यह भी धर्मही है। और जोडना भी कैसे, तो आदर से, सम्मान से, पूज्यभावना से। यह भावना गयी कि फिर जिस देश में हमें जन्म मिला है, वह कंकड पत्थरवाली, जड, अचेतन भूमि नहीं रहती। वह मातृभूमि होती है। मनुष्य के भावजीवन में मातायह सर्वश्रेष्ठ भावना है। अपने देश को मातृभूमिमाना कि उसके साथ हमारा रिश्ताही बदल जाता है। बंकीमचंद्र चटर्जी जैसे भावकवि के लिये वह दशप्रहरणधारिणी दुर्गाबनती है। कमलदलविहारिणी  कमला’ (लक्ष्मी) बनती है और विद्यादायिनी वाणीयानी सरस्वती बनती है। यह भावना बन गयी कि वन्दे मातरम्कहते समय हृदय आदर से, सम्मान से और पूज्य भाव से ओतप्रोत भर जाता है। अपने देश में कुछ तपके ऐसे हैं जिनको वन्दे मातरम्कहने का संकोच होता है। वे इस भूमि के पुत्र नहीं हो सकते, भलेही नागरिक बने।
यह भावना बनी कि फिर हिमालयएक पहाड नहीं रहता, ‘देवतात्माबन जाता है। आप देखेंगे कि सामान्यत: हर पहाडीपर कोई ना कोई मन्दिर होगा। उसके कारण उस निर्जीव पहाड को भी पवित्रता प्राप्त होती है। नदियाँ लोकमाता बनती है। गंगा, गंगामैया होती है। नर्मदा की परिक्रमा करना यह एक पवित्र व्रत बनता है। कुम्भमेला किसी ना किसी नदी के किनारे लगता है। हम अपनी लोकमाताओंको भूल गये, अत: वे प्रदूषित हुई हैं। प्राणियों के साथ भी हमने आस्था से और श्रद्धा से स्वयं को जोडना चाहिये। इस हेतु हमारे पूर्वजों ने उसे किसी ना किसी देवतास्वरूप के साथ जोड दिया है। गौ को भगवान् कृष्ण के साथ, बैल को शंकर जी के साथ, कुत्ते को दत्तात्रेय के साथ, मोर को सरस्वती के साथ, साँप को भी शंकर जी के साथ। यह मानव ने सृष्टि के साथ जोडने की क्रिया है। जैसे प्राणी वैसेही वृक्ष भी। तुलसी विष्णु के साथ, बिल्व शंकर जी के साथ, शमी गणेश जी के साथ, औदुंबर दत्तात्रेय के साथ। गाँव के हिन्दू लोग कभी औदुंबर हो, या पिपल, या वट, इन वृक्षों को इंधन के रूप में उपयोग नहीं करते। पुराने लोगों को environment- पर्यावरण, शब्द सम्भवत: मालूम नहीं होगा किन्तु उसकी रक्षा का महत्त्व वे  जानते थे। इस लिये उन्होंने अपने को इस चराचर सृष्टि के साथ जोड दिया है और कहा है कि इसकी पूजा धर्म है।
चैतन्य के साथ
यह दूसरी सीढी है। और इस के परे तीसरी सीढी है। वह है चेतनतत्त्व के साथ अपने को जोडना। इसी चेतनतत्त्व का नाम परमात्मा है। फिर आप उसे गॉडकहिये या अल्लाहकहिये। वह आत्मतत्त्व का सम्पूर्ण और सम्यक् रूप है। हम जीवित है इसका अर्थ है कि उस परमात्म तत्त्व का अंश हमारे अन्दर विद्यमान है। उस के कारण हमारे शरीर के व्यवहार चलते हैं। उसके कारण मन और बुद्धि सचेतन लगती है। वह तत्त्व शरीर के बाहर चला गया कि वह शरीर घर में रखने लायक भी नहीं रहता। उसे दफनाना या जलाना पडता है। शरीर के अन्दर स्थित इस तत्त्व को जीवात्मा कहते हैं, जो परमात्म तत्त्व का अंश है। इस लिये श्रीमच्छंकराचार्य कहते हैं, ‘जीवो ब्रह्मैव नापर: जैसे किसी कमरे में, दिवारों के कारण आकाश मर्यादित होता है, किन्तु दिवारें गिर जाने के बाद, कमरे के अन्दर का आकाश बाहर के विशाल आकाश तत्त्व के साथ एकरूप हो जाता है। वैसे ही देह के अन्दर मर्यादित जीवात्मा देह छूटने पर, परमात्म तत्त्व के साथ मिल जाता है। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते इस परमात्म स्वरूप को जोडने का मार्ग यानी रिलिजन’, या मजहब है। परमात्मा के साथ जोडने के मार्ग अनेक हो सकते हैं और सभी ठीक हो सकते हैं।  जैसे एक स्थान पर पहुँचने के मार्ग अनेक हो सकते हैं अपनी अपनी रुचि के अनुसार वह मार्ग चुनने की आपको स्वतंत्रता है। यही तत्त्व शिवमहिम्न: स्तोत्र में ‘‘रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव’’ इन शब्दों में बताया गया है। उसका अर्थ है कि जिस प्रकार पानी अनेक मार्गों से अन्तत: समुद्र को ही मिलता है, वैसे ही अपनी अपनी रुचि के अनुसार हम सीधे, टेढे किसी भी मार्ग को चुनें, वे सब उस परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं। इस लिये हमारे धर्ममें अनेकता का गौरव है। इसी लिये यहाँ पर मजहबी उन्माद नहीं जन्मा है, और आगे भी नहीं निर्माण होगा। विश् की शान्ति के लिये यह विचार और तद्नुसार आचार आवश्यक है।
     तात्पर्य यह है कि धर्म, व्यक्ति, समाज, सृष्टि और परमेष्ठी को जोडनेवाला सूत्र है। पहले से दूसरा अस्तित्व अधिक व्यापक है। परमेष्ठी सर्व व्यापक है, और इन सब में होते हुये भी इस के परे भी है। इस अस्तित्वों में परस्पर संघर्ष नहीं है। इसी लिये धर्म की परिभाषा बनती है कि विश् को सामंजस्य से जोडनेवाला तत्त्व’ (A principle of universal harmony)
संस्कृति की आधारशिला
यह धर्म की समझ, हमारी संस्कृति की आधारशिला है। हम यह भी कह सकते हैं कि धर्मकी नींव पर खडा किया गया विशाल भवन यानी संस्कृति है। मनुष्यों के लिये यह आवश्यक है। संस्कृति यानी  अच्छे या बुरे मापने के मानदण्ड। संस्कृति यानी एक मूल्यव्यवस्था होती है। एक Value-system होती है। यह मनुष्यों में ही सकती है। पशु अपनी प्रकृति से चलते हैं। मनुष्य प्रकृति से ऊपर ऊठ सकता है। यह उत्थान यानी संस्कृति है। मनुष्य की और एक खासीयत है। वह प्रकृति से भी नीचे जा सकता है। उस में विकृति सकती है। पशुओं में ना विकृति आती है, ना संस्कृति। एक उदाहरण देता हूँ।
हरी घास पडी है। और दो बैल एकही समय उसे खाने के लिये पहुँचे हैं। उन में से एक तगडा है और दूसरा दुबला। तगडा बैल दुबले से नहीं कहेगा कि तुम भूखे दीखते हो, तुम पहले खाओ। पेट में भूख है और सामने घास पडी है। उस पर वह टूट पडेगा। मनुष्य स्वयं भूखा रह कर भी दूसरे को खिला सकता हैं। और एक बात है। पशुओं में विकृति नहीं आती। घास खाकर पेट भर गया, और घास बची, तो बैल उसे अपने साथ नहीं ले जायेगा। मनुष्य का भरोसा नहीं है। अत:, मनुष्य प्रकृति से ऊपर उठे, विकृति की ओर अध:पतित हो, इस लिये संस्कृति की शिक्षा दी जाती है। संस्कारों से मनुष्य में संस्कृति आती है। इस हेतु ही, शिक्षा संस्थाएं, घर का वातावरण, और सार्वजनिक व्यवहार ऐसे रहे कि मनुष्य पर संस्कार होते जाय। संस्कृति का शब्दार्थही है अच्छा होना है। प्रकृति यानी जैसे है वैसे रहना और विकृति का अर्थ है अध:पतन।
सांस्कृतिक आदर्श
अपना धर्म यानी हिंदू धर्म संस्कृति का पोषक रहा है। जिन्होंने अपने सुख की कीमत देकर मूल्य प्रस्थापित किये हैं वे सब हमारे आदर्श रहे हैं। सौतेली माँ के कहनेपर राजगद्दी छोडनेवाला श्रीराम, अनायास राज्य मिला तो भी उस सिंहासनपर बैठनेवाला भरत, दीनदुखी की सेवा के लिये राजवैभव छोडकर निकले सिद्धार्थ गौतम, राजपुत्र की रक्षा हेतु कटिबद्ध एक माता, हत्यारे को अपने पुत्र की और इंगित करती है और अपनी आँखो के सामने अपने पुत्र की हत्या देखती है वह पन्नादाई, शत्रु की सुन्दर महिला कब्जे में आने के बाद भी, ‘मातृवत् परदारेषुकी संस्कृतिशिक्षा अपने आचरण में लानेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज, ये सारे हमारे सांस्कृतिक आदर्श हैं।
शाश्वत धर्म और युगधर्म
जीवनमूल्यों के आचरण का आकारप्रकार समयानुसार परिवर्तित होता है। किन्तु इस परिवर्तन में भी जो शाश्वत है, उसका ध्यान और भान, दोनों रखा जाना चाहिये। शाश्वत यानी कभी बदलनेवाला क्या है, युगानुसार बदलनेवाला क्या है और संकट के समय कैसा बर्ताव होना चाहिये, इस का विवेक नित्य मनुष्यों ने रखना चाहिये। हिंदू धर्म में और संस्कृति में विकास हुआ है, परिवर्तन हुआ है। किन्तु शाश्वत को कभी भूला नहीं गया। एक नित्य का उदाहरण देता हूँ। मनुष्य ने कपडे पहनने चाहिये। यह शाश्वत संस्कृति-मूल्य है। जानवर कपडे नहीं पहनते। मनुष्य भी जब पैदा होता है, तब कपडे पहन कर नहीं आता। मनुष्यों ने कपडे पहनने चाहिये, उनके द्वारा जो अंग ढकने हैं, वे ढके जाने चाहिये, यह शाश्वत धर्म है। कौन से कपडे पहनने चाहिये यह युगधर्म पर निर्भर रहेगा। ग्रीष्म काल में अलग प्रकार के कपडे रहेंगे और शीत काल में अलग। पुरुष के अलग, महिलाओं के अलग। कोई धोती पहनेगा, तो कोई पायजमा, तो कोई फुलपँट। महिलाओं के अनेक प्रकार के प्रावरण होंगे। ये समयानुसार बदलेंगे। वसिष्ठ-विश्वामित्र ने जिस प्रकार के वस्त्र धारण किये होंगे वैसे हम नहीं धारण करेंगे। हम युगानुसार परिवर्तन करेंगे। यानी युगधर्म का पालन करेंगे।
आपद्धर्म
और एक आपद्धर्म होता है। मान लीजिये कि कोई व्यक्ति मलीरिया से पीडित है। उसे तेज बुखार है। वह बुखार जाने तक स्नान नहीं करेगा। यह आपद्धर्म है। नित्य धर्म है उसने प्रति दिन स्नान करना चाहिये। आपद्धर्म के सम्बन्ध में एक रोचक कथा छांदोग्य उपनिषद में है। उषस्ति की कथा इस नाम से वह जानी जाती है। उषस्ति नाम के एक व्यक्ति के गाँव में अकाल पडा था। दोन दिन तक उसको खाने को कुछ नहीं मिला। वह दूसरे गाँव की और चला  वहाँ भी वैसी ही परिस्थिति थी। निराश होकर वह और आगे बढा। उसने देखा कि एक पेड के नीचे बैठकर एक व्यक्ति कुछ खा रहा है। वस्तुत: वह चाट रहा था। उषस्ति उसके पास गया और पूछा कि क्या खाते हो जी?’ उसने उत्तर दिया, ‘उडद खा रहा हूँ।उषस्ति ने कहा, ‘मुझे उसमें से थोडे दो ना मैं दो दिन से भूखा हूँ।वह व्यक्ति बोला, ‘अवश्य देता जी। किन्तु ये सब जूठे हो गये है।उस पर उषस्ति बोला, ‘जूठे ही सही, मुझे थोडे दे दो।उस व्यक्ति ने एक पत्ते पर थोडे उडद उषस्ति को दिये। बाजू में पानी से युक्त मिट्टी का छोटासा बर्तन था। उसे मूँह लगाकर वह पानी पिया और थोडा पानी उषस्ति के लिये रख दिया। किन्तु उडद खाना पूर्ण होने के बाद उषस्ति ने पत्ता फेंक दिया और हाथ झटककर जाने लगा। तो उस व्यक्ति ने कहा, ‘महाशय, पानी पी के जाओ ना तब उषस्ति बोला, ‘मैं जूठा पानी नहीं पिता।तब वह व्यक्ति बोला, ‘जूठे उडद खाते हो, तो जूठा पानी क्यौं नहीं चलता।तब उषस्ति ने कहा मैं जूठे उडद नहीं खाता तो मर जाता। अब मुझ में कुछ जान आयी है। मैं कहीं आसपास झरना होगा तो देखता हूँ।जूठे उडद खाना यह आपद्धर्म है। आपद्धर्म को नियमित धर्म नहीं बनाना चाहिये।
समयानुसार परिवर्तन
     तात्पर्य यह हे कि हिंदू जाति ने इसी प्रकार शाश्वत धर्म, युगधर्म और आपद्धर्म का विचार और विवेक किया है। समयानुसार परिवर्तन किया है। इसी लिये तो वह जाति आज भी जीवित है। उसके शाश्वत मूल्य स्थिर है और व्यवहारों के आकार प्रकार समयानुसार बदलते गये हैं। अपने भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् लिखते हैं "There has been no such thing as a uniform stationary unalterable Hinduism, whether in point of belief or practice. Hinduism is a movement, not a position; a process, not a result; a growing tradition, not a fixed revelation. Its past history encourages us to believe that it will be found equal to any emergancy that the future may throw up, whether in the field of thought or of history. ............ Leaders of Hindu thought or practice are convinced that the times require, not a surrender of the basic principles of Hinduism, but a restatement of them with special reference to the needs of a more complex and mobile social order."
                                                (Hindu View of Life)

(भावार्थ - विश्वास हो या व्यवहार हो, हिंदुत्व कभी अपरिवर्तनीय और स्तब्ध नहीं रहा है। हिंदुत्व यानी प्रचलन है, स्थिति नहीं। वह एक प्रक्रिया है, परिणाम नहीं। वह विकसमान परम्परा है कोई निश्चल साक्षात्कार नहीं। उस के इतिहास से हमें प्रेरणा मिलती है कि विचारों के क्षेत्र में हो या इतिहास के क्षेत्र में, सभी परिस्थितियों के चुनौती का वह सामना कर सकता है। हिंदुत्व के पुरोधाओं को यह पूर्ण विश्वास रहा है कि हिंदुत्व को अपने मूलभूत सिद्धान्तों को त्यागने की आवश्यकता नहीं है। केवल अधिक जटिल और गतिशील सामाजिक व्यवस्था में उन तत्त्वों के नये ढंग के अभिव्यक्ति की आवश्यकता है।)
हिंदुत्व यानी विकसमान परम्परा है, यह कभी भूलना नहीं चाहिये।
-मा. गो. वैद्य