Sunday 25 December 2011

‘लोकपाल’का पेच कायम

    २८ दिसंबर के लिए भाष्य

लोकपाल विधेयक संसद में रखा गया, लेकिन उसके बारे में पेच अभी भी कायम है| इस त्रिशंकु अवस्था के लिए, कारण डॉ. मनमोहन सिंह के संप्रमो सरकार की नियत साफ नहीं, यह है| सरकार की नियत साफ होती, तो उसने सीधे अधिकारसंपन्न लोकपाल व्यवस्था स्थापन होगी, इस दृष्टि से विधेयक की रचना की होती| उसने यह किया नहीं| विपरीत, उसमें से भी राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए अल्पसंख्यक मतलब मुस्लिम, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जमाति और महिलाओं के लिए कम
से कम ५० प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा है |

आरक्षण क्यों?

इस आरक्षण की क्या आवश्यकता है? ‘लोकपाल’ कोई शिक्षा संस्था नहीं; वह एक विशिष्ट अधिकार युक्त, भ्र्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए स्थापन की जानेवाली संस्था है| इस संस्था को कार्यकारित्व (एक्झिक्युटिव) और न्यायदान के भी अधिकार रहेगे| वह रहने चाहिए, ऐसी केवल अण्णा हजारे और टीम अण्णा की मांग नहीं; १२० करोड भारतीयों में से बहुसंख्यकों की मांग है| विद्यमान न्यायपालिका में, क्या इन चार समाज गुटों के लिए आरक्षण है? नहीं! क्यों नहीं? आरक्षण नहीं इसलिए क्या कोई
मुस्लिम या अनुसूचित जाति या जमाति का व्यक्ति, अथवा महिला न्यायाधीश नहीं बनी? न्यायाधीश किस जाति या किस पंथ का है, इस पचड़े में पड़ने की हमें आवश्यकता प्रतीत नहीं होती| लेकिन समाचार पत्रों में के समाचार क्या बताते है? यही कि, सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश न्या. मू. बालकृष्णन् अनुसूचित जाति से है| क्या वे आरक्षणपात्र समूह की सूची (रोस्टर) से आए थे? एक मुस्लिम न्या. मू. अहमदी ने भी इस पद की शोभा बढ़ाई थी| उनके पूर्व न्या. मू. हिदायतुल्ला मुख्य न्यायाधीश थे| क्या वे मुस्लिमों के लिए आरक्षण था इसलिए इस सर्वोच्च पर पहुँचे थे? हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपतियों की सूची देखे| डॉ. झाकिर हुसैन, हिदायतुल्ला, फक्रुद्दीन अली अहमद, अब्दुल कलाम इन चार महान् व्यक्तियों को वह सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ था| वह किस आरक्षण व्यवस्था के कारण? पद के लिए आरक्षण ना होते हुए भी प्रतिभा पाटिल आज उस पद पर आरूढ है| श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थी| श्रीमती सोनिया गांधी को भी तांत्रिक अडचन ना होती तो वह पद मिल सकता था| यह आरक्षण के प्रावधान के कारण नहीं हुआ| यह सच है कि, अभी तक कोई महिला मुख्य न्यायाधीश नहीं बनी| लेकिन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में भी महिला न्यायाधीश है| प्रधानमंत्री पद किसी मुस्लिम को नहीं मिला इसलिए क्या वह अन्याय हुआ? और आगे वह मिलेगा ही नहीं, क्या ऐसी कोई व्यवस्था हमारे संविधान में है? फिर लोकपाल व्यवस्था में आरक्षण का प्रावधान क्यों?

उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए

इसके लिए कारण है| अनुसूचित जाति या अनुसूचित जमाति या महिलाओं की चिंता यह वो कारण नहीं| मुस्लिम मतों की चिंता यह सही कारण है| और आरक्षण की श्रेणी में केवल मुस्लिमों का ही अंतर्भाव किया, तो उस पर पक्षपात का आरोप होगा, यह भय कॉंग्रेस को लगा इसलिए मुस्लिमों के साथ महिला और अनुसूचित जाति एवं जमाति को भी जोड़ा गया| कॉंग्रेस को चिंता दो-तीन माह बाद होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव की है| इस चुनाव की संपूर्ण जिम्मेदारी युवराज राहुल गांधी ने स्वीकारी है| एक वर्ष पूर्व, बिहार विधानसभा के चुनाव में उनके नेतृत्व की जैसी धज्जियॉं उड़ी थी, वैसा उत्तर प्रदेश के चुनाव में ना हो, इसके लिए सर्वत्र जॉंच-फूककर रणनीति बनाई जा रही है| इस रणनीति के तहत ही, अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण में साडे चार प्रतिशत मुस्लिमों को देना सरकार ने तय किया है| इस कारण ओबीसी मतदाता नाराज होगे, लेकिन कॉंग्रेस को उसकी चिंता नहीं| कारण, उ. प्र. में ओबीसी कॉंग्रेस के साथ नहीं और आने की भी सम्भावना नहीं| मुस्लिम मतदाता किसी समय कॉंग्रेस के साथ था| बाबरी ढ़ॉंचा ढहने के बाद वह कॉंग्रेस से टूट चुका है| उसे फिर अपने साथ जोड़ने के लिए यह चाल है| उ. प्र. विधानसभा के करीब १०० मतदार संघों में मुस्लिम चुनाव के परिणाम पर प्रभाव डाल सकते है| इसलिये कॉंग्रेस को चिंता है| इस चिंता के कारण ही, यह साडे चार प्रतिशत आरक्षण है, इस कारण ही लोकपाल विधेयक में भी वैसा प्रावधान है|

सेक्युलर!

मुस्लिमों के लिए ‘कोटा’ यह पहली पायदान होगी| आगे चलकर स्वतंत्र मतदार संघों की मांग आएगी और सत्ताकांक्षी, अदूरदर्शी, स्वार्थी राजनेता वह भी मान्य करेगे| भारत का विभाजन क्यों हुआ, इसका विचार भी ये घटिया वृत्ति के नेता नहीं करेगे| इस संबंध में और एक मुद्दा ध्यान में लेना आवश्यक है| विद्यमान ओबीसी में कुछ पिछड़ी मुस्लिम जातियों का समावेश है| उन्हें ओबीसी में आरक्षण प्राप्त है| लेकिन उनकी मुस्लिम के रूप में स्वतंत्र पहेचान नहीं| सरकार को वह स्वतंत्र पहेचान करानी और
कायम रखनी है, ऐसा दिखता है| राष्ट्रजीवन के प्रवाह के साथ वे कभी एकरूप ना हो, इसके लिए यह सब कवायत चल रही है| और यह सरकार स्वयं को ‘सेक्युलर’ कहती है| पंथ और जाति का विचार कर निर्णय लेनेवाली सरकार ‘सेक्युलर’ कैसे हो सकती है, यह तो वे ही बता सकते है!मुस्लिमों के लिए आरक्षण संविधान के विरुद्ध है, यह कॉंग्रेस जानती है| भाजपा और अन्य कुछ पार्टियॉं इसका विरोध करेगी यह भी कॉंग्रेस जानती है| इतना ही नहीं तो न्यायालय में जाकर, अन्य कोई भी इसे रद्द करा ले सकता है, यह भी कॉंग्रेस को पता है| फिर भी, कॉंग्रेस लोकपाल संस्था में सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों का अंतर्भाव करने का आग्रह क्यों कर रही है? इसका भी कारण उत्तर प्रदेश के चुनाव ही है| सर्वोच्च न्यायालय, मुस्लिमों के लिए रखा यह आरक्षण संविधान विरोधी घोषित करेगा, इस
बारे में शायद किसी के मन में संदेह नहीं होगा| लेकिन, इससे कॉंग्रेस की कोई हानि नहीं होगी| हमने आपके लिए प्रावधान किया था| भाजपा और अन्य पार्टियों ने उसे नहीं माना, इसमें हमारा क्या दोष है, यह कॉंग्रेस का युक्तिवाद रहेगा| अर्थमंत्री प्रणव मुखर्जी ने उसका संसूचन भी किया है| चीत भी मेरी पट भी मेरी- यह कॉंग्रेस की चालाकी है|

चिंता की बात

आरक्षण के प्रावधान ने एक और बात स्पष्ट की है| सरकार का प्रारूप कहता है कि, आरक्षण पचास प्रतिशत से कम नहीं रहेगा|  लोकपाल संस्था में नौ सदस्य रहेगे| उसका पचास प्रतिशत मतलब साडे चार होता है| मतलब व्यवहार में नौ में से पॉंच सदस्य आरक्षित समूह से होगे| फिर गुणवत्ता का क्या होगा? गुणवत्ता अल्पसंख्य सिद्ध होगी; और इस गुणवान अल्पसंख्यत्व की किसे भी चिंता नहीं, यह इस सरकारी विधेयक  में का चिंता का विषय है|

एक अच्छा प्रावधान

प्रस्तावित सरकारी विधेयक में लोकपाल की कक्षा में प्रधानमंत्री को लाया गया है, यह अच्छी बात है| टीम अण्णा की यही एक मांग संप्रमो सरकार ने मान्य की है| शेष मांगों को अंगूठा दिखाया है| प्रधानमंत्री के बारे में कुछ विषयों का अपवाद किया गया यह सही हुआ| इसी प्रकार, न्यायपालिका को लोकपाल की कक्षा के बाहर रखा गया, इस बारे में भी सर्वसाधारण सहमति ही रहेगी| इसका अर्थ न्यायापालिका में भ्रष्टाचार ही नहीं, ऐसा करने का कारण नहीं| न्या. मू. रामस्वामी और न्या. मू. सौमित्र सेन को महाभियोग के मुकद्दमें का सामना करना पड़ा था| पंजाब-हरियाना न्यायालय में के निर्मल यादव इस न्यायाधीश पर मुकद्दमा चल रहा है| निलचे स्तर पर क्या चलता है या क्या चला लिया जाता है, इसकी न्यायालय से संबंध आनेवालों को पूरी कल्पना है| लेकिन उसके लिए एक अलग कायदा उचित होगा ऐसा मेरे समान अनेकों का मत है| इसी प्रकार नागरिक अधिकार संहिता (सिटिझन चार्टर)  सरकार ने बनाई है| सरकार का यह निर्णय भी योग्य लगता है|

सरकारी कर्मचारी

परन्तु ‘क’ और ‘ड’ श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल से बाहर रखा गया, यह गलत है| सबसे अधिक भ्रष्टाचार इन्हीं दो वर्ग के सरकारी कर्मचारियों द्वारा होता है| यह केवल तर्क नहीं या पूर्वग्रहाधारित धारणा नहीं| ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ इस अंग्रेजी दैनिक के २२ दिसंबर के अंक में कर्नाटक के लोकायुक्त के काम का ब्यौरा लेनेवाला लेख प्रसिद्ध हुआ है| बंगलोर में के अझीम प्रेमजी विश्‍वविद्यालय में के ए. नारायण, सुधीर कृष्णस्वामी और विकास कुमार इन संशोधकों ने, छ: माह परिश्रम कर जो संशोधन किया, उसके आधार पर ऐसा निश्‍चित कहा जा सकता है| इन संशोधकों ने १९९५ से २०११ इन सोलह वर्षों की कालावधि का कर्नाटक के लोकायुक्त के कार्य का ब्यौरा लिया है| अब तक सबको यह पता चल चुका होगा कि, कर्नाटक में का लोकायुक्त कानून, अन्य राज्यों के कानून की तुलना में कड़ा और धाक निर्माण करनेवाला है| इसके लिए और एक राज्य का अपवाद करना होगा, वह है उत्तराखंड| उत्तराखंड की सरकार ने हाल ही में लोकायुक्त का कानून पारित किया है| उस कानून की प्रशंसा स्वयं अण्णा हजारे ने भी की है| लेकिन उसके अमल के निष्कर्ष सामने आने के लिए और कुछ समय लगेगा| कर्नाटक में जो कानून सोलह वर्ष से चल रहा है और उसके अच्छे परिणाम भी दिखाई दिए है|

सरकार की नियत

हमारा विषय था कर्नाटक के लोकायुक्त के काम का ब्यौरा| उसमें ऐसा पाया गया है कि वरिष्ठ श्रेणी में के सरकारी नौकरों में भ्रष्टाचार का प्रमाण, कुल भ्रष्टाचार के केवल दस प्रतिशत है| आयएएस, आयपीएस आदि केन्द्र स्तर की परीक्षा में से आए अधिकारियों में भ्रष्टाचार का प्रमाण तो पूरा एक प्रतिशत भी नहीं| वह केवल ०.८ प्रतिशत है| मतलब कर्नाटक के लोकायुक्त ने देखे भ्रष्टाचार के मामलों में के ९० प्रतिशत सरकारी कर्मचारी ‘क’ और ‘ड’ श्रेणी के थे| और संप्रमो सरकार ने लाए प्रस्तावित विधेयक में, इन दोनों श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल/लोकायुक्त से बाहर रखा गया है| भ्रष्टाचार समाप्त करने के संदर्भ में इस सरकार की नियत इस प्रकार की है|

सीबीआय

और एक महत्त्व का मुद्दा यह कि सीबीआय इस अपराध जॉंच विभाग को लोकपाल से बाहर रखा गया है| टीम अण्णा को यह पसंद नहीं| यह यंत्रणा लोकपाल की कक्षा में ही रहे यह उनकी मांग है| कर्नाटक के लोकायुक्त के बारे में संशोधकों ने ब्यौरा लिया है उससे अण्णा और टीम अण्णा की मांग कैसे योग्य है, यह समझ आता है| कर्नाटक के लोकायुक्त को, भ्रष्टाचार के अपराध के जॉंच के अधिकार है| इतना ही नहीं, एक नए संशोधन के अनुसार वह, किसी ने शिकायत ना की हो तो भी (सुओ मोटो) फौजदारी जॉंच कर सकता है, ऐसे अधिकार उसे दिए गए है| वैसे देखा जाय तो स्वयं अपनी ओर से जॉंच किए मामलों की संख्या बहुत अधिक नहीं, केवल ३५७ है| विपरित अन्यों की शिकायत पर जॉंच किए गए मुक द्दमों की संख्या २६८१ है| इस प्रावधान ऐसी धाक निर्माण हुई है कि, गत कुछ वर्षों में अकस्मात छापे मारने के मामलों में लक्षणीय कमी हुई है| टीम अण्णा के एक सदस्य भूतपूर्व न्या. मू. संतोष हेगडे है, यह हम सब जानते है| वे २००६ से २०११ तक कर्नाटक के लोकायुक्त थे; और उन्होंने ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री को भी त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया था| लोकपाल तथा लोकायुक्त की धाक होनी ही चाहिए| ऊपर लोकायुक्त की ओर से संभावित भ्रष्टाचारीयों के ठिकानों पर मारे गए छापों की जो संख्या दी गई है उसमें से ६६ प्रतिशत छापे, संतोष हेगडे के लोकायुक्त काल के है|

धाक आवश्यक

तात्पर्य यह कि, प्रस्तावित सरकारी विधेयक में के लोकपाल एक दिखावा (जोकपाल) है| यह अण्णा हजारे को ठगना है| कम से कम कर्नाटक में जैसा सक्षम लोकायुक्त कानून है, वैसा केन्द्र में लोकपाल का होना चाहिए| लोकायुक्त की नियुक्ति हर राज्य ने करनी चाहिए ऐसा इस विधेयक में कहा गया है, वह योग्य है| यह देश की संघीय रचना को बाधक है, आदि जो युक्तिवाद किया जा रहा है, वह निरर्थक है| कर्नाटक के समान अनेक राज्यों ने कम-अधिक सक्षम लोकायुक्त पहले ही नियुक्त किए है| वैसा कानून उन राज्यों में है| कहा जाता हे कि महाराष्ट्र में भी, लोकायुक्त कानून है| लोकायुक्त भी है| लेकिन उसे कोई मूलभूत अधिकार ही नहीं है| कर्नाटक के समान ही उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त को भी सक्षम अधिकार होगे, ऐसा दिखता है| उस लोकायुक्त ने भी पॉंच-छ: मंत्रियों को जेल की राह दिखाई है|

लोग सर्वश्रेष्ठ

जो एक मुद्दा, इस प्रस्तावित लोकपाल विधेयक की चर्चा में आया नहीं और जिसकी चर्चा संसद में की चर्चा में भी नहीं होगी और जो मुझे महत्त्व का लगता है, उसका उल्लेख मैं यहॉं करनेवाला हूँ| वह है संसद सदस्यों द्वारा होनवाले भ्रष्टाचार का| चुनाव के दौरान, उम्मीदवारों ने किए भ्रष्टाचार की दखल चुनाव आयोग लेता है, यह अच्छा ही है| लेकिन जो लोकप्रतिनिधि चुनकर आते है और उस नाते शान से घूमते है, उनके भ्रष्टाचार की दखल कौन लेगा? इस बारे में संसद निष्प्रभ साबित हुई है, यह सब को महसूस हुआ है| पी. व्ही. नरसिंहराव के कार्यकाल में के झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को खरीदने का मामला, झामुमो के नेता शिबु सोरेन की मूर्खता के कारण, स्पष्ट हुआ, इसलिए उस भ्रष्टाचार का हमें पता चला| लेकिन, २००८ में मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए सांसदों की खेरदी-बिक्री हुई, उसका क्या हुआ, यह सब को पता है| जिन्होंने खरेदी-बिक्री के व्यवहार की जानकारी दी  उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी| लेकिन यह लज्जास्पद व्यवहार जिन्होंने कराया, वे तो आज़ाद है| और संसद उनके बारे में कुछ भी नहीं कर सकेगी| फिर उनके ऊपर किसका अंकुश रहेगा? इसलिए निर्वाचित लोकप्रतिनिधियों को भी लोकपाल में लाना चाहिए| ‘संसद सार्वभौम है’, आदि बातें अर्थवादात्मक है| स्वप्रशंसापर है| कानून बनाने का अधिकार संसद का है, यह कोई भी अमान्य नहीं करेगा| लेकिन संसद से श्रेष्ठ संविधान है| संसद संविधान की निर्मिति है| संसद ने कोई कानून पारित किया और वह संविधान के शब्द और भावना से सुसंगत ना रहा, तो न्यायालय वह कानून रद्द करता है| इसके पूर्व ऐसा अनेक बार हुआ है| इस कारण संसद की सार्वभौमिकता का अकारणढ़िंढोरा पिटने की आवश्यकता नहीं, और संविधान से भी श्रेष्ठ लोग है| We, the People of India इन शब्दों से संविधान का प्रारंभ होता है| हम मतलब भारत के लोगों ने, न्याय, स्वातंत्र्य, समानता, बंधुता इन नैतिक गुणों के आविष्कार के लिए यह संविधान बनाया, यह हमारी मतलब हम भारतीयों की घोषणा है, अभिवचन है; और वह पाला जाता है या नहीं, इसकी जॉंच करने का जनता को अधिकार है|

दबाव आवश्यक

टीम अण्णा ने जनता की आवाज बुलंद की यह सच है| उस आवाज का दबाव सरकार पर पडा यह भी सच है| लेकिन इस दबाव के कारण ही - लोकपाल को नाममात्र अधिकार देनेवाले ही सही - कानून का प्रारूप सरकार प्रस्तुत कर सकी| लेकिन इस सरकारी प्रारूप ने, लोगों को निराश किया| इस कारण टीम अण्णा के सामने आंदोलन के अतिरिक्त दुसरा विकल्प नहीं बचा| निर्वाचित लोकप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का प्रावधान चुनाव के नियमों में होता, तो कॉंग्रेस और उसके मित्रपार्टियों के आधे से अधिक सांसद घर बैठ चुके होते| मनमोहन सिंह की इस सरकार ने, २००९ में उसे मिला जनादेश खो दिया है| उसने यथासत्त्वर जनता के सामने पुनर्निर्वाचन के लिए आना यह जनतांत्रिक व्यवस्था के तत्त्व और भावना के अनुरूप होगा|

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)     
                       

Sunday 18 December 2011

चालीस वर्ष पूर्व का गौरव दिन

    २१ दिसंबर के लिए भाष्य

१६ दिसंबर १९७१ को, मतलब ठीक चालीस वर्ष पूर्व, भारत ने स्वातंत्र्योत्तर काल में एक महान् गौरव प्राप्त किया था| भारते की फौज ने पाकिस्तान को बुरी तरह से परास्त किया था| नया, स्वतंत्र बांगला देश उसी कारण निर्माण हो पाया| पाकिस्तान के दो टुकडे हुए| पाकिस्तान की तानाशाही को एक सबक मिला|

पाकिस्तान की शरणागति

इस्लाम का आधार लेकर भारत को तोडकर बने पाकिस्तान ने अपने जन्म के दिन से ही भारत के साथ शत्रुत्व का व्यवहार करना ही पसंद किया| प्रथम १९४७ में, टोलीवालों के बहाने काश्मीर पर उसने आक्रमण किया| भारतीय फौज वह आक्रमण पूरी तरह से विफल कर पाकिस्तानियों को खदेड रही थी, उसी समय हमारे राजकर्ताओं को कुबुद्धि सूझी; और उन्होंने, पाकिस्तान ने नहीं, हमारे विजयी फौज का आगे बढ़ना रोका| अकारण, काश्मीर का प्रश्‍न राष्ट्रसंघ में गया| इस बात ६४ वर्ष हो गए है| लेकिन प्रश्‍न जस का तस बना है| पाकिस्तान ने आक्रमण कर हथियाया जम्मू-काश्मीर राज्य का प्रदेश, अभी भी पाकिस्थान के ही कब्जे में है| १९६२ को, चीन से हमें करारी हार मिली| दुनिया भर में भारत की बेइज्जती हुई| पाकिस्तान को लगा कि, भारत को पराभूत करना अपने हाथ का मैल है| इसलिए उसने १९६५ में पुन: धाडस किया| लेकिन इस युद्ध में पाकिस्तान के हाथ कुछ नहीं लगा| भारतीय फौज बिल्कुल लाहोर की सीमा तक जा पहुँची थी| तथापि, युद्ध में पाकिस्तान ने जो गवॉंया था, वह उसने ताशकंद में हुए समझौते के टेबल पर वापस हासिल कर लिया| लेकिन १९७१ में भारत ने पाकिस्तान को निर्विवाद तरीके से पराभूत किया| पाकिस्थान को घुटने टेककर शरण आना पड़ा| वह दिन था, १६ दिसंबर १९७१| उस दिन पाकिस्थान के पूर्व क्षेत्र के सेनापति लेक्टनंट जनरल ए. ए. के. नियाझी ने शरणागति स्वीकार की| पाकिस्तान के ९३ हजार सैनिक भारत के कैदी बने|

इंदिरा जी का अभिनंदन

इस गौरवास्पद विजय के लिए भारत की फौज का मुक्तकंठ से अभिनंदन करना चाहिए| इसके साथ ही, उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का भी अभिनंदन करना चाहिए| वे दृढ रही| आंतरराष्ट्रीय वातावरण भारत के लिए अनुकूल नहीं था| चीन और अमेरिका की मित्रता हुई थी| और ये दोनों बलवान देश पाकिस्तान के समर्थन में खड़े थे| उस समय इंदिरा जी ने रूस का दौरा किया| रूस के साथ मित्रता का अनुबंध किया| वह समय अमेरिका और रूस के बीच के शीतयुद्ध का था| चीन के साथ रूस के संबंध बिगडे थे| इस स्थिति का इंदिरा जी ने चतुराई से लाभ उठाया| इस कारण चीन कोई साहस नहीं कर सका; और अमेरिका को भी अपने पाकिस्तान-प्रेम में फौजी सहायता का कदम उठाने के पूर्व विचार करने के लिए बाध्य किया| अमेरिका ने अण्वस्त्रों से सुसज्जित अपना नौसेना का सातवा बेड़ा भारत की दिशा में भेजा, लेकिन उसके पहुँचने के पहले ही युद्ध का फैसला हो चुका था| पाकिस्तान ने शरणागति स्वीकारी थी| श्रीमती गांधी का गौरव इसलिए भी करना चाहिए कि, उन्होंने अपनी फौज के जीत की राह रोकी नहीं| १९४७ के समान आत्मघातकी निर्यय नहीं लिया| दुनिया क्या कहेगी, इस विचार से भी नहीं डगमगाई| जिन गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के नेता का भारत का स्थान था, उन गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को भी भारत का यह ‘आक्रमक’ कदम पसंद नहीं था| संयुक्त राष्ट्रसंघ में बांगला देश का प्रश्‍न उपस्थित हुआ तब, भारत के मित्र कहे जानेवाले अधिकतर राष्ट्रों ने भारत की भूमिका का समर्थन नहीं किया| अच्छे और बुरे, मित्र और शत्रु में से एक का चुनाव करने के बारे में भी वे राष्ट्र तटस्थ रहे| श्रीमती गांधी ने इन राष्ट्रों की परवाह नहीं की| उन्होंने दृढ रहकर, चौदह दिनों के अल्प काल में, जीत हासिल कर, भारत का नाम और प्रतिष्ठा उज्ज्वल की|

इस्लाम की मर्यादा

इस युद्ध ने कुछ बातें अधोरेखित की| पहली यह कि, इस्लाम की कटिबद्धता, राष्ट्र या लोगों को जोडकर नहीं रख सकती| इस्लाम के आधार पर पाकिस्तान निर्माण किया गया| ‘इस्लाम खतरें में’ का नारा देकर, मुसलमानों की बहुसंख्या का भाग, भारत से अलग हुआ| पश्‍चिम की ओर के चार प्रांत एकत्र हुए| वे चार प्रांत है बलुचिस्थान, वायव्य सरहद प्रांत, पंजाब और सिंध| तो पूर्व में बंगाल| एक पश्‍चिम पाकिस्तान, और दूसरा पूर्व पाकिस्तान बना| इन दो भागों में डेढ हजार किलोमीटर से अधिक दूरी है|
भारत से अलग होने के लिए, इस्लाम यह आधार उन्हें उपयुक्त लगा| लेकिन वह इस्लाम उन्हें एक नहीं रख पाया| बहाना बना भाषा का| पूर्व पाकिस्तान के लोगों की भाषा बंगाली थी और आज भी है, तो पश्‍चिम पाकिस्तान उर्दूूभाषी| उर्दू के साथ बंगाली को भी राज्यभाषा का दर्जा दे, इतनी छोटी मांग पूर्व पाकिस्तान की थी| पाकिस्तान के फौजी प्रशासकों ने उर्दू थोपने का प्रयास किया| बंगाली भाषिकों ने इसका प्रखर विरोध किया| मध्यम वर्ग और विद्यार्थी तानाशाही के विरुद्ध मैदान में उतरे|

दमन

इस्लाम व्यावर्तक (exclusivist) पंथ है| सर्वसमावेशकता (inclusiveness) उसे हजम नहीं होती, यह इस संघर्ष ने स्पष्ट किया है| जनतंत्र के प्राथमिक तत्त्व भी वे नहीं मानते| जनरल अयुब खान की फौजी तानाशाही समाप्त करने के बाद १९७० के दिसंबर में संपूर्ण पाकिस्तान में आम चुनाव हुए| उस चुनाव में पूर्व पाकिस्तान के बंगाली भाषी नेता मुजीबुर रहमान की अवामी लीग पार्टी को बड़ी सफलता मिली| पूर्व पाकिस्तान में की १६२ में से १६० सिटों पर अवामी लीग विजयी हुई| संपूर्ण पाकिस्तान की संसद में भी अवामी लीग को बहुमत प्राप्त हुआ था| स्वाभाविक ही, मुजीबुर रहमान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनते| वे भी मुसलमान ही थे| लेकिन उर्दूभाषी नहीं थे| उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने देना, ऐसा षड्यंत्र, उस समय के अध्यक्ष जनरल याह्याखान और सिंध से चुनकर आये झुल्फीकार अली भुत्तो ने मिलकर रचा| और मुजीबुर रहमान को गिरफ्तार कर उन्हें कैद में डाल दिया| स्वाभाविक ही, जनक्षोभ और अधिक भड़का| निदर्शन आरंभ हुए| याह्याखान और भुत्तो ने फौजी ताकद का प्रयोग कर वह जन-आक्रोश कुचलने का प्रयास किया| जनरल टिक्काखान को पूर्व पाकिस्तान भेजा गया| टिक्काखान की फौज ने अपने और पराए मतलब मुस्लिम और अन्य ऐसा भेदभाव किए बिना अत्याचार का तांडव शुरू किया| कितने लोगों का कत्ल हुआ इसकी गिनती ही नहीं| अंदाज है कि कम से कम एक लाख लोग मारे गए होगे; और दूसरा अत्याचार महिलाओं पर बलात्कार का| लोगों को भयभीत करने का यह खास उपाय मुस्लिम फौज अपनाती है और इसमें भी उन्होंने भेदभाव नहीं रखा!

बांगला देश स्वतंत्र

ऐसे अत्याचारों से जनक्षोभ समाप्त नहीं होता, यह दुनिया का इतिहास है| आज २०११ में हमने इस सत्य का आविष्कार ट्युनेशिया, मिस्र और लिबिया में देखा है| ४० वर्ष पूर्व वह पाकिस्तान में देखने को मिला| बंगला भाषिकों ने, पाकिस्तान की गुलामी से मुक्त होने के लिए मुक्तिवाहिनी (मुक्तिसेना) स्थापन की| यह घटना मार्च १९७१ की होगी| बंगला भाषिकों ने अपनी सरकार भी स्थापन की| अर्थात् निर्वासित सरकार| और मुख्य यह कि भारत सरकार ने उस सरकार को संपूर्ण मदद की| भारत की फौज मुक्तिवाहिनी की सहायता के लिए सुसज्ज थी| लेकिन बारिश समाप्त होने की राह देखना उन्हें योग्य लगा| इसलिए प्रत्यक्ष युद्ध कुछ समय लंबा खींचा| युद्ध के लिए, कुरापात पाकिस्तान ने ही की| ३ दिसंबर १९७१ को, पाकिस्तान की हवाई सेना ने, सीमा पर तैनात भारतीय सैनिकों की छावनियों पर हमले किये| और युद्ध आरंभ हुआ| वह १६ दिसंबर को समाप्त हुआ| भारत की स्पष्ट जीत के साथ| मुजीबुर रहमान को रिहा किया गया| वे पूर्व पाकिस्तान की राजधानी ढाका आये| उन्होंने बांगला देश के निर्मिति की घोषणा की| उस देश का पूरा नाम है ‘गण प्रजातन बांगला देश’ मतलब प्रजातंत्रवादी गणराज्य (रिपब्लिक) बांगलादेश|

मुजीबुर रहमान की हत्या

मुजीबुर रहमान ने सांसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार की थी| लेकिन पता नहीं क्यों १९७५ की जनवरी में हुए चुनाव में की सफलता के बाद मुजीबुर रहमान ने अध्यक्षीय पद्धति का पुरस्कार किया| अध्यक्षीय पद्धति भी जनतांत्रिक हो सकती है| अमेरिका, फ्रान्स में ऐसी ही पद्धति है| लेकिन वहॉं अनेक पार्टिंयॉं हो सकती है| मुजीबुर रहमान एकदलीय राज पद्धति चाहते होगे, या सारी सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित रहे, ऐसा उन्हें लगता होगा, ऐसा तर्क करने के लिए कारण है| कुछ भी हो, लोगों को, मुस्लिम बहुसंख्य देश को भी जनतंत्र सुहाया, इस बारे में समाधान हुआ| लेकिन यह दिलासा अधिक समय नहीं टिक पाया| केवल आठ माह में, निश्‍चित कहे तो १५ ऑगस्त १९७५ को मुजीबुर रहमान और उनके परिवार की हत्या की गई और मुख्य सेनापति मेजर जनरल झिया उर रहमान सत्ताधीश बने| उन्होंने १९७८ में अध्यक्षीय राज पद्धतिनुसार चुनाव कराए और उस चुनाव में वे राष्ट्राध्यक्ष चुने भी गए| उन्होंने छ: वर्ष राज किया और फिर बिरासत निश्‍चित करने के इस्लामी परंपरा के अनुसार ३० मई १९८१ में उनकी भी हत्या हुई| न्या. मू. अब्दुल सत्तार अध्यक्ष बने| लेकिन उनके विरुद्ध भी जनक्षोभ हुआ| और २४ मार्च १९८२ को जनरल ईर्शाद यह फौजी अधिकारी सत्ता में आए| सत्तार का नसीब कुछ अच्छा माने| कारण, उनकी हत्या नहीं हुई| खून का बूंद भी बहाए बिना बांगला देश में फौज ने क्रांति की| जनरल ईर्शाद १९९० तक सत्ता में थे फिर उन्हें भी हटना पड़ा| उनका भी नसीब अच्छा था| वे आज भी जीवित है| १९९१ के फरवरी माह में वहॉं संसद के चुनाव हुए| भूतपूर्व फौजी तानाशाह झिया उर रहमान की पत्नी बेगम खालिदा झिया प्रधानमंत्री बनी| उनकी पार्टी का नाम है ‘बांंगला देश जातीय (=राष्ट्रीय) पार्टी’| आज अवामी लीग की शेख हसीना वाजीद प्रधानमंत्री है| वे शेख मुजीबुर रहमान की कन्या है और मुजीबुर रहमान ने स्थापन की अवामी लीग की नेता है| गत बीस वर्षों से वहॉं जनतांत्रिक पद्धति से राजव्यवस्था चल रही है| बांगला देश जातीय पार्टी और अवामी लीग क्रमक्रम से सत्ता भोग रही है| इसका अर्थ उस देश में सांसदीय पद्धति का विकास हुआ है, ऐसा नहीं लिया जा सकता| देश में फौजी शासन नहीं, नागरी शासन है, इतना ही मर्यादित अर्थ स्वीकारना उचित होगा|

सेक्युलॅरिझम् समाप्त हुआ

बांगला देश की स्थापना हुई, उस समय मुजीबुर रहमान ने यह देश स्वतंत्रता का पुरस्कार करेगा, राज्य व्यवस्था पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) रहेगी, सांस्कृतिक बाहुल्य की कदर करनेवाला रहेगा और सब नागरिकों को समान माननेवाला होगा, ऐसा आश्‍वासन दिया था| लेकिन उनके बाद आये राजकर्ताओं ने उस आश्‍वासन का पालन नहीं किया| मुसलमानों को श्रेष्ठत्व और मुस्लिमों के अलावा अन्य को गौणत्व प्रदान करने वाली व्यवस्था पुन: शुरू हुई| मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद किसी ने भी ‘सेक्युलर’ शब्द का प्रयोग नहीं किया| इतना ही नहीं, जनरल झिया उर रहमान, जिन्होंने १९७५ से १९८१ तक राज किया, उन्होंने बांगला देश के संविधान में से ही ‘सेक्युलर’ शब्द हटा दिया| पंथाधारित राजनीतिक दलों पर की बंदी भी हटा दी| उनके बाद आये जनरल ईर्शाद तो उससे भी आगे बढ़ गए| उन्होंने इस्लाम को राज्य का अधिकृत धर्म ही घोषित कर दिया| इन दोनों फौजी तानाशाहों ने इस्लामी धार्मिक संस्थाओं को हर संभव सहायता देकर अपना जनाधार संगठित किया| विद्यमान प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि, उन्होंने पुन: देश के संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द अंतर्भूत किया है| यह सच है कि, केवल शब्द महत्त्व का नहीं है| उसके अनुसार आचरण अपेक्षित है| यह होने के लिए कुछ समय देना होगा| लेकिन अवामी लीग ही सत्ता मे रहेगी, इसकी गारंटी कौन दे सकता है? खलिदा झिया, भूतपूर्व राष्ट्राध्यक्ष झिया उर रहमान की पत्नी है; और झिया ने ही संविधान में से वह शब्द हटा दिया था| उनका राज कई वर्ष चला; और उनका व्यवहार पंथनिरपेक्ष था ही नहीं|

भारत का क्या लाभ?

इस संदर्भ में और एक विचारणीय मुद्दा यह है कि, बांगला देश को स्वतंत्रता दिलाने में भारत को क्या लाभ हुआ? एक लाभ निश्‍चित ही हुआ कि, पाकिस्तान कमजोर हुआ| कभी ना कभी पाकिस्तान के साथ निर्णायक युद्ध होगा ही, ऐसा राजनीतिक विचारकों का मत है| ऐसी परिस्थिति निर्माण हुई तो, कम से कम पूर्व की ओर से हमला नहीं होगा| तुलना में वह दिशा सुरक्षित रहेगी| यह लाभ कम महत्त्वपूर्ण नहीं| बांगला देश के लोग और राजकर्ता, उन्हें स्वतंत्रता दिलाने के लिए भारत के प्रति कृतज्ञ रहेगे, यह अपेक्षा खोखली साबित हुई है| पाकिस्तान के समान शत्रुत्व का भाव बांगला देश ने प्रदर्शित नहीं किया, लेकिन मित्रता के सबूत बहुत ही थोडे हैं, और वह भी कुछ समय पूर्व के ही| भारत के विरुद्ध, पाकिस्तान प्रेरित हो अथवा चीनपुरस्कृत, आतंकवादी कारवाईयॉं करनेवालों को बांगला देश में प्रशय मिला है| उसमें भी अब कुछ इष्ट परिवर्त हुआ है| तथापि, इन आतंकवादियों के प्रशिक्षण के अड्डे बांगला देश में थे और आज भी होंगे, इस बारे में संदेह नहीं| भारत और बांगला देश की सीमा कमजोर है| बांगला देश की जनसंख्या बहुत अधिक है| करीब बीस करोड होगी| इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए वहॉं जमीन कम पड़ती है| इसलिए बांगलादेशी घुसपैंठियों के झुंड भारत में आते रहते है| बांगला देश, उन्हें रोक नहीं पाया, यह सत्य है| लेकिन इसके लिए केवल बांगला देश को दोष देने से बात नहीं बनेगी| दोष तो हमारे देश के राजकर्ताओं की ढूलमूल नीति और अपने स्वार्थी सियासत के लिए वोटबँक तैयार करने के मनसुबों का ही है और यह अधिक घातक है|

प्रश्‍न कायम

पाकिस्तान का पराभव करने के बाद हम पाकिस्तान पर धाक कायम नहीं रख सके| १९७२ में, मतलब बांगला देश स्वतंत्र होने के बाद, सिमला में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री भुत्तो और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ| हम विजेता होने के बावजूद उस समझौते में सफल नहीं हो सके| काश्मीर के प्रश्‍न का फैसला कर सकते थे| लेकिन नही किया| उसके बाद भुत्तो अधिक समय अधिकारपद पर नहीं रहे| १९७७ में उनकी गच्छन्ति हुई| और पुन: फौजी तानाशाही शुरू हुई| कट्टरपंथी झिया उल हक्क राष्ट्राध्यक्ष बने| उनके सत्ताकाल में पुन: इस्लामी कट्टरवाद को प्रोत्साहन मिला| उन्होंने आतंकी संगठनों द्वारा भारत के विरुद्ध छद्म युद्ध किया| उसे अमेरिका का भी समर्थन था| इस्लामी कट्टरवाद क्या होता है, इसका अमेरिका को, उसके प्रतिष्ठा के स्थानों पर इस्लामी आतंकियों ने हमाल करने के बाद ही अहसास हुआ| प्रत्यक्ष या परोक्ष आतंकवाद को पाकिस्तान का मतलब पाकिस्तान की फौज का समर्थन और मार्गदर्शन रहता है (और पाकिस्तान में सही में सत्ता फौज की ही रहती है) यह अमेरिका अच्छी तरह से समझ चुकी है| पाकिस्तान को अमेरिका की ओर से दी जा रही सहायता का प्रवाह अब क्षीण हो रहा है| इस नई परिस्थिति का लाभ कैसे ले यह भारतीय राजकर्ताओं की चतुराई पर निर्भर है| लेकिन वह विषय अलग है|
हम सब ने ४० वर्ष पूर्व के उस गौरवमयी दिन का नित्य स्मरण रखना चाहिए| विद्यमान सरकार ने और जनता ने भी इस विजशाली दिन को याद नहीं रखा, इसका आश्‍चर्य लगा|

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
                           

Sunday 11 December 2011

सरकार बची, लेकिन इज्जत गई

   भाष्य १४ दिसंबर के लिए   ....................................

आखिर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने खुदरा वस्तुओं के व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश (एफडीआय) का निर्णय वापस लिया| प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जनता के लाभ में है, किसानों के हित मे है, ऐसा दावा यह सरकार कर रही थी| तो विरोधी पार्टियॉं सरकार के इस निर्णय का विरोध कर रही थी| विरोधकों ने इसके लिए करीब डेढ सप्ताह संसद का काम नहीं चलने दिया|

कार्यक्षम उपाय?

व्यक्तिगत रूप में, मेरा अभी भी मत है कि, संसद में हो या विधिमंडल में, विरोध करने के शस्त्र अलग है| नारे लगाना, सभापति के आसन के सामने की खुली जगह में आना, सभापति का दंड हथियाना या धरने जैसे हंगामा करने के प्रकार करना, और संसद या विधिमंडल का काम नहीं चलने देना आक्षेपार्ह है| विरोध प्रकट करने के यह प्रकार एक समय सदन केबाहर चलने भी दिए जा सकते है| लेकिन सभागृह में वे चलने नहीं देने चाहिए| यह केवल सभापति का अपमान नहीं; संपूर्ण संसद का विधिमंडल मतलब संसदीय जनतंत्र का अपमान है; और सभापति ने यह चलने नहीं देना चाहिए| लेकिन अब ऐसा लगता है कि, युपीए के जैसी निगोडी सरकार को सीधा करने का यही एकमात्र कार्यक्षम मार्ग है|

सरकार ही जिम्मेदार

केवल, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश के मुद्दे का ही अपना ‘दृढ’ निश्‍चय सरकार को बदलना पड़ा ऐसा नहीं| २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जॉंच करने के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करे, विरोधकों की औचित्यपूर्ण मांग भी मनमोहन सिंह की सरकार ने मग्रुरी के साथ अमान्य कर दी थी और संसद का करीब एक सत्र व्यर्थ गवाया| सतही स्तर पर लगता है कि, विरोधकों की आक्रमकता इसके लिए कारण है| लेकिन अब विचारान्त ऐसा लगता है कि, इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार है| २ जी स्पेक्ट्रम प्रकरण, संयुक्त संसदीय समिति को सौपने की मांग में गलत क्या था? और अगर वह गलत था तो सरकार ने, देर से ही सही, वह मान्य क्यों किया?

इज्जत गवाई

किसी भी स्वाभिमानी सरकार ने त्यागपत्र दिया होता, लेकिन स्वयं को अयोग्य लगनेवाली बात मान्य नहीं करती| लेकिन इस सरकार में स्वाभिमान ही नहीं| केवल कुर्सी बचाए रखना यही उसकी एकमात्र नीति दिखाई देती है| ऐसा केवल तर्क करने का भी अब कारण नहीं बचा है| अर्थमंत्री प्रणव मुखर्जी ने स्वयं ही मान्य किया| उन्होंने अपनी पार्टी के सांसदों के सामने भाषण करते समय स्पष्ट कहा कि, लोकसभा का मध्यावधि चुनाव टालने के लिए सरकार को यह निर्णय लेना पड़ा| प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा इतना देश के हित में था और उससे किसान और सामान्य जनता का भी हित साध्य होनेवाला था, तो सरकार अपने निर्णय पर कायम रहती| होता सरकार का पराभव और मध्यावधि चुनाव| उससे सरकार का क्या बिगडता? क्या इसके पूर्व मध्यावधि चुनाव हुए नहीं? १९८९ के बाद केवल दो वर्ष मतलब १९९१ में चुनाव हुआ| १९९६ के बाद पुन: १९९८ में चुनाव हुआ. और उसके बाद केवल डेढ वर्ष बाद १९९९ में फिर चुनाव हुआ| किसान और जनता के हितों के लिए प्रतिबद्ध इस सरकार को पुन: चुनाव का सामना करना पडता, तो वह भी तीन वर्ष सत्ता भोगने के बाद| और इसके लिए सरकार को कोई दोष भी नहीं देता| विपरीत, अपने ‘न्याय्य और जनहितैषी’ निर्णय के लिए सरकार ने अपनी सत्ता का बलिदान दिया, ऐसा लोगों को बताने का उसे मौका मिलता| लेकिन ये लाचार सरकार यह कर नहीं सकी| उसने अपनी सत्ता कायम रखी; लेकिन इज्जत गवाई|

गठबंधन का धर्म

सब जानते है कि , यह अकेली कॉंग्रेस पार्टी की सरकार नहीं है| बहुमत के लिए आवश्यक कम से कम २७३ सिटों में से कॉंग्रेस पार्टी के पास केवल २०६ सिटें ही है| राष्ट्रवादी कॉंग्रेस, तृणमूल कॉंग्रेस और द्रमुक की मदद से यह सरकार चल रही है| ऐसी संमिश्र सरकार होना यह कोई अनोखी बात नहीं| आज का समय ही ऐसा नहीं है कि किसी एक पार्टी की सरकार सदा रहेगी| अन्य देशों में भी, उदाहराणार्थ इंग्लंड या जर्मनी में भी, संमिश्र सरकारे हैं| लेकिन सरकार में जो पार्टी सबसे बड़ी होती है, वह अपनी सहयोगी पार्टियों की भूमिका समझकर निर्णय लेती है| लेकिन युपीए - २ की सरकार को यह समझदारी नहीं सूझी| यह अनेक पार्टियों का गठबंधन है, इस कारण अन्य सहयोगी पर्टियों की राय क्या है, यह जान लेने की आवश्यकता सरकार में की सबसे बडी पार्टी कॉंग्रेस को महसूस नहीं हुई| वे अपनी ही मस्ती में निर्णय लेते रहे| प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश जैसे, देश की आर्थिक व्यवस्था पर गहरा परिणाम करनेवाला निर्णय लेने के पूर्व, सरकार ने, विरोधी पार्टियों, कम से कम प्रमुख विरोधी पार्टियों से चर्चा करनी चाहिए थी| कारण, यह केवल पार्टी के हित का प्रश्‍न नहीं था| संपूर्ण देश की आर्थिक व्यवस्था का प्रश्‍न था| सरकार ने यह तो किया ही नहीं| लेकिन अपने मित्र पार्टियों का भी मत नहीं जान लिया| सरकार की मित्रपार्टियों में से प्रमुख दो -तृणमूल कॉंग्रेस और द्रमुक  - ने इस प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का विरोध किया था| लेकिन सरकार ने उसे भी नहीं माना| द्रमुक, थोडा समझाने के बाद झुकी, लेकिन तृणमूल की बबता बॅनर्जी दृढ रही; और एक प्रकार से विरोधी पार्टियों ने रखे काम रोको प्रस्ताव को समर्थन दिया| काम रोको प्रस्ताव देना यह वैध संसदीय शस्त्र है| वह मंजूर होता तो सरकार को त्यागपत्र नहीं देना पड़ता|  काम रोको प्रस्ताव मतलब अविश्‍वास प्रस्ताव नहीं| इस कारण, उसका समाना कर सरकार शक्तिपरिक्षण हो जाने देती| लेकिन सरकार ने यह सम्मानजनक मार्ग नहीं अपनाया| उसने सत्ता की लालच में, अपने ‘दृढ’ निर्णय को ही स्थगिति दी| इसमें  सरकार तो बची, लेकिन इज्जत गई|

विचारविनिमय आवश्यक

संमिश्र सरकार चलानी हो तो कुछ आवश्यक व्यवस्थाऐं करनी पड़ती है| मित्रों के साथ विचारविनिमय करने के लिए कोई यंत्रणा बनानी पड़ती है| ऐसी यंत्रणा होती तो सरकार को ऐसी लज्जाजनक स्तिति का सामना नहीं करना पड़ता| ऐसी जानकारी है कि, सरकार ऐसी कोई समिति निर्माण करनेवाली है| अच्छी बात है| कारण, संमिश्र सरकार के निर्णय, केवल एक पार्टी के निर्णय नहीं हो सकते| और, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश केवल केन्द्र तक ही सीमित मुद्दा नहीं था| वह संपूर्ण देशव्यापी मुद्दा था| अपने देश में अनेक राज्य है| सब राज्यों में कॉंग्रेस पार्टी या कॉंग्रेस के मित्र पार्टीयों की सरकारें नहीं है| पश्‍चिम बंगाल का एक अपवाद छोड दे तो भी, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, त्रिपुरा, ओरिसा, तामिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ - इन राज्यों में कॉंग्रेस के विरोधियों की सरकारें हैं| देश की ६० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या के भाग में कॉंग्रेस की अपनी सत्ता नहीं या मित्र पार्टियों के साथ भी कॉंग्रेस सत्ता में भी नहीं| सब मित्र पार्टियॉं मिलकर, तृणमूल कॉंग्रेस भी कॉंग्रेस पार्टी के साथ है, ऐसी कल्पना कर भी, कॉंग्रेस और मित्र पार्टियों की सत्ता रहनेवाले राज्यों की जनसंख्या संपूर्ण देश की जनसंख्या के ३८ प्रतिशत से अधिक नहीं होती| इस स्थिति में संपूर्ण देश की अर्थव्यवस्था का विचार करते समय, जहॉं विरोधी पार्टियों की सरकारे है, वहॉं के मुख्यमंत्रियों के साथ चर्चा करना आवश्यक नहीं था? प्रधानमंत्री ने बाद में स्पष्ट किया कि, राज्यों को, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा मानना या नहीं इसकी स्वतंत्रता है| लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी| सब मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई होती, तो केन्द्र सरकार को सही स्थिति समझ आती| पूर्वोत्तर भारत में जो छोटे-छोटे राज्य है और वहॉं अधिकांश राज्यों में कॉंग्रेस पार्टी की सरकारे है, उनका भी प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश को विरोध था| वह क्यों? उनका मनमोहनकृत स्पष्टीकरण से समाधान क्यों नहीं हुआ? केन्द्र में सत्ता है इस कारण किसी परवाह नहीं करना यह नीति ना समझदारी की है, ना देश के विस्तार का ध्यान रखने की और ना जनमत जान लेने की| केवल अहंकार और उसमें से निर्माण हुए मग्रुरी की यह नीति है|

मीठी बातें निरर्थक

इस फजिहत पर भाष्य करते हुए कॉंग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि, ‘‘सरकार जनता की इच्छा के सामने झुकी; और जनता के सामने झुकना, यह पराभव नहीं है|’’ लेकिन यह लिपापोती भी बहुत विलंब से हुई| २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या अभी का प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा, संसद का कामकाज अनेक दिन बंद पड़ा, इसके लिए कॉंग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है, ऐसा ही लोग मानेेगे| और उनके मन सदैव यह प्रश्‍न बना रहेगा कि, इसमें कॉंग्रेस ने क्या हासिल किया? लोग अभी ही संदेह व्यत कर रहे है कि, तेलंगना या महँगाई अथवा किसानों की आत्महत्या के मुद्दों पर मुश्किल में ना फंसे, इसीलिए कॉंग्रेस ने यह नाटक किया| उसे, संसद का शीतकालीन अधिवेशन शुरू होने के पहले दिन ही इसका अहसास हो जाना चाहिए था| इस कारण, कॉंग्रसाध्यक्ष कितनी ही मीठी बातें क्यों ना करें, लोग यही समझेगे कि, और दो-सवा दो वर्ष सत्ता भोगने के लिए ही सरकार ने अपनी बेइज्जति होने दी| निर्णय लेने की यह अस्थिरता किसी भी सरकार की प्रतिष्ठा और गौरव बढ़ानेवाली नहीं|
सरकार ने बताया है कि, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा उसने छोडा नहीं, केवल स्थगित किया है| लेकिन विरोधी पार्टियों के सदस्यों को यह मान्य नहीं और सरकार के इस भाष्य में कोई दम भी नहीं| दक्षिणपंथी कम्यनिस्ट पार्टी के सांसद गुरुदास दासगुप्त ने स्पष्ट कहा है कि, ‘‘वास्तव में यह पूरी से पीछे हटना है| सरकार केवल अहंकार में बहाने बना रही है|’’ वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने कहा कि, संसद का संपूर्ण सत्र बेकार गवाने के बदले सरकार झुकी इसका हमें आनंद है| उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि, इस बारे में राज्य सरकारों का मत भी जान लेना चाहिए| सरकार कहती है कि, वह सबकी सहमति प्राप्त करने का प्रयत्न करेगी और बाद में ही निर्णय लेगी| यह अच्छा विचार है| लेकिन सबकी सहमति मिलना संभव नहीं, यह सूर्यप्रकाश के समान स्पष्ट है| इस कारण, सरकार इस मुद्दे पर तो, सब मुख्यमंत्रियों और सब विरोधी पार्टी के नेताओं को बुलाकर सहमती के लिए प्रयास करने की कतई संभावना नहीं| हम यहीं माने कि, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा अब पीछे छूट गया है| २०१४ के चुनाव के बाद ही, वह फिर उठाया जा सकता है या सदा के लिए खत्म किया जा सकता है|


- मा. गो. वैद्य

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

Sunday 4 December 2011

अरब राष्ट्रों में वसंतागम और उसके बाद


भाष्य : 4 दिसंबर 2011
खुले मन से यह मान्य करना होगा कि, अरब राष्ट्रों में जनतंत्र की हवाऐं बहने लगी है| इन गतिमान हवाओं को आंधी भी कह सकते है| एक-एक तानाशाही राज ढहने लगा है| प्रारंभ किया ट्यूनेशिया ने| वैसे यह एक-सवा करोड जनसंख्या का छोटा देश है| लेकिन उसने अरब देशों में क्रांति का श्रीगणेश किया| तानाशाह अबीदाईन बेन अली को पदच्युत किया| जनतंत्र की स्थापना की| चुनाव हुए| मतदाताओं ने उस चुनाव में उत्साह से भाग लिया| इस चुनाव ने संविधान समिति का गठन किया| आगामी जून माह में उस संकल्पित संविधान के प्रावधान के अनुसार फिर आम चुनाव होगे| 

मिस्र में की क्रांति

ट्यूनेशिया में हुई क्रांति की हवा मिस्र में भी पहुँची| गत बत्तीस वर्षों से सत्ता भोग रहे होस्नी मुबारक को भागना पड़ा| उनके विरुद् के जनक्षोभ का स्थान रहा तहरीर चौक क्रांति का संकेतस्थल बन गया| जिस फौज के दम पर मुबारक की तानाशाही चल रही थी, वही फौज तटस्थ बनी| लोगों की जीत हुई| लेकिन सत्ता में कौन है? जनप्रतिनिधि? नहीं! फौजी अधिकारियों ने ही सत्ता सम्हाली! उन्होंने चुनाव घोषित किए| लेकिन वह होगे ही इसका लोगों को भरोसा नहीं| वे पुन: क्रांति के संकेतस्थल - तहरीर चौक में - जमा हुए और उन्होंने तत्काल सत्तापरिवर्तन की मांग की| सत्ता की भी एक नशा होती है| फौजी अधिकारियों को लगा कि, दमन से आंदोलन कुचल देंगे| उन्होंने पहले पुलीस और बाद में फौज की ताकद अजमाकर देखी| इस जोर जबरदस्ती में मिस्र के पॉंच नागरिक मारे गए| लेकिन लोग उनके निश्‍चय पर कायम थे| फिर फौज को ही पछतावा हुआ| दो फौजी अधिकारी, जो फौज द्वारा पुरस्कृत सत्तारूढ समिति के महत्त्व के सदस्य थे, उन्होंने, इस गोलीबारी के लिए जनता की स्पष्ट क्षमा मांगी| उनमें से एक जनरल ममदोह शाहीन ने घोेषित किया कि, ‘‘हम चुनाव आगे नहीं ढकेलेंगे, यह उनका अंतिम शब्द है|’’ ‘नारेबाजी करनेवालों से डरकर हम सत्तात्याग नहीं करेंगे’ - ऐसी वल्गना, एक समय इस फौजी समिति के प्रमुख ने की थी| लेकिन वह घोषणा निरर्थक सिद्ध हुई| यह सच है कि, इस फौजी समिति के प्रमुख फील्ड मार्शल महमद हुसैन तंतावी अभी तक मौन है| लोग उस मौन का अर्थ, उनकी सत्ता छोडने की तैयारी नहीं, ऐसा लोग लगा रहे है| और इसमें लोगों की कुछ गलती है ऐसा नहीं कहा जा सकता| कारण कील्ड मार्शल तंतावी, भूतपूर्व तानाशाह होस्नी मुबारक के खास माने जाते थे| लेकिन अब समिति के अन्य दो फौजी अधिकारियों का मत बदल चुका है| उनके विरुद्ध तंतावी कुछ कर नहीं सकेगे| निश्‍चित किए अनुसार गत सोमवार को चुनाव हुआ| वह और छ: सप्ताह चलनेवाला है| मार्च माह में नया संविधान बनेगा और यह संक्रमण काल की फौजी सत्ता समाप्त होगी| मिस्र अरब राष्ट्रों में सर्वाधिक जनसंख्या का राष्ट्र है| एक प्राचीन संस्कृति -इस्लाम स्वीकार करने के बाद वह संस्कृति नष्ट हुई - लेकिन उसकी बिरासत उस राष्ट्र को मिली है| ट्युनेशिया की जनसंख्या डेढ करोड के से कम तो मिस्र की दस करोड के करीब| मिस्र कीघटनाओं का प्रभाव सारी अरब दुनिया में दिखाई देखा| 

लिबिया का संघर्ष

मिस्र के बाद क्रांति की लपटें लिबिया में पहुँची| कर्नल गद्दाफी इस तानाशाह ने लिबिया में चालीस वर्ष सत्ता भोगी| लिबिया की जनता ने उसे भी सबक सिखाना तय किया| उसे अपनी फौजी ताकद का अहंकार था| उसने, अपनी फौजी ताकद का उपयोग कर यह विद्रोह कुचलने का पूरा प्रयास किया| नि:शस्त्र जनता के विरुद्ध केवल रनगाडे ही नहीं वायुसेना का भी उपयोग करने में उसे संकोच नहीं हुआ| और शायद वह को क्रांति कुचलने में भी सफल हो जाता| लेकिन क्रांतिकारकों की ओर से अमेरिका के नेतृत्व में नाटो की हवाई सेना खड़ी हुई| नाटो की हवाई ताकद के सामने गद्दाफी की कुछ न चली| लेकिन असकी मग्रुरी कायम रही| आखिर उसे कुत्ते की मौत मरना पड़ा| उसका शव किसी मरे हुए जानवर के समान घसीटकर ले गये| लिबिया में अभी भी नई नागरी सत्ता आना बाकी है| लेकिन वह समय बहुत दूर नहीं| नाटों के राष्ट्रों का हस्तक्षेप नि:स्वार्थ ना भी होगा, उन्हें लिबिया में के खनिज तेल की लालच निश्‍चित ही होगी| लेकिन उन्होंने अपनी हवाई सेना गद्दाफी के विरुद्ध सक्रिय करना, लिबिया में की फौजी तानाशाही समाप्त करने लिए उपयोगी सिद्ध हुआ, यह सर्वमान्य है| 

येमेन में भी वही

इन तीन देशों में की जनता के विद्रोह के प्रतिध्वनि अन्य अरब देशों में भी गूंजे| प्रथम, येमेन के तानाशाह कर्नल अली अब्दुला सालेह को कुछ सद्बुद्धि सूझी| स्वयं की गत गद्दाफी जैसी ना हो इसलिए उसने पहले देश छोड़ा; और २३ नवंबर को सौदी अरेबिया में से घोषणा की कि, मैं गद्दी छोडने को तैयार हूँ| अर्थात् यह सद्बुद्धि एकाएक प्रकट नहीं हुई| वहॉं भी उसकी सत्ता के विरुद उग्र आंदोलन हुआ था| उसने, उसे कुचलने का प्रयास भी किया था| लेकिन गद्दाफी की तरह उसने पागलपन नहीं किया| अपने सत्ता के विरुद्ध के जन आक्रोश की कल्पना आते ही उसने अपना तैतीस वर्षों का राज समाप्त करने की लिखित गारंटी दी| तुरंत, उपाध्यक्ष के हाथों में सौंप दी| आगामी तीन माह में चुनाव कराने का आश्‍वासन उसने दिया है| लेकिन उसकी शर्त है कि, अभी उसे उसका राजपद भोगने दे और नई सत्ता उसके विरुद्ध कोई मुकद्दमा आदि ना चलाए| हम भारतीयों को यमन करीबी लग सकता है| कारण हमारा परिचित एडन बंदरगाह येमेन में ही है| वहीं कैद में क्रांतिकारक वासुदेव बळवंत फडके की मृत्यु हुई थी| 

सीरिया में का रक्तपात

यह क्रांति की आंधी प्रारंभ में उत्तर आफ्रीका या अरबी सागर से सटे प्रदेशों तक ही मर्यादित थी| लेकिन अब यह आंधी उत्तर की आरे बढ़ रही है| भूमध्य सागर को छू गई है| अभी वह सीरिया में पूरे उफान पर है और सीरिया के फौजी तानाशाह बाशर आसद, गद्दाफी का अनुसरण कर रहे है| अब तक, कवल दो माह में इस तानाशाह ने चार हजार स्वकीयों को मौत के घाट उतारा है| उसकी यह क्रूरता देखकर, अन्य अरब राष्ट्रों को भी चिंता हो रही है| अरब लीग, यह २२ अरब राष्ट्रों का संगठन है| उसने कुछ उपाय बाशर आसद को सुझाए है| राजनयिक कैदियों को रिहा करने और शहरों में तैनात फौज को बराक में वापस भेजने के लिए कहा है| सीरिया में की स्थिति पर नज़र रखने के लिए कुछ निरीक्षक और विदेशी पत्रकारों को प्रवेश देने का भी सुझाव दिया है| इसी प्रकार, बाशर आसद अपने विरोधकों के साथ चर्चा कर मार्ग निकाले, ऐसा भी सूचना दी है| २ नवंबर २०११ को अरब लीग की यह बैठक हुई| बैठक में बाशर उपस्थित थे| उन्होंने यह सब सूचानाएँ मान्य की| लेकिन कुछ राजनयिक कैदियों को रिहा करने के सिवाय और कुछ नहीं किया| विपरीत, फौज का और अधिक ताकद के साथ उपयोग किया| अरब लीग ने फिर बाशर को सूचना की और लीग की सूचनाओं का पालन करने के लिए समयसीमा भी निश्‍चित कर दी| लेकिन बाशर ने अपनी राह नहीं छोडी| आखिर अरब लीग ने सीरिया को लीग से हकाल दिया और उसके विरुद्ध आर्थिक नाकाबंदी शुरू की| 
निरीक्षकों का कयास है कि, बाशर आसद के दिन अब पूरे हो रहे है| कारण, अब फौज का एक हिस्सा भी आंदोलन में उतरा है| सीरिया में फौजी शिक्षा अनिवार्य है| इस कारण, विश्‍वविद्यालय में पढ़नेवाले विद्यार्थींयों को भी विविध शस्त्रास्त्रों का उपयोग करने की जानकारी है और ये सब विद्यार्थी सीरिया में की तानाशाही समाप्त करने के लिए ना केवल आंदोलन में शामिल हुए है, बाशर आसद के सैनिकों से भिड भी रहे हैं| अभी तक पश्‍चिमी राष्ट्र, लिबिया के समान इस संघर्ष में नहीं उतरे है| लेकिन अरब लीग के माध्यम से वे आंदोलकों को सहायता किए बिना नहीं रहेंगे| कारण संपूर्ण आशिया में जनतांत्रिक व्यवस्था कायम हो यह अमेरिका के साथ सब नाटों राष्ट्रों की अधिकृत भूमिका है| इसके परिणाम भी दिखाई देने लगे है| मोरोक्को में हाल ही में चुनाव लिये गये| वहॉं राजशाही है| संवैधानिक राजशाही| मोरोक्कों में लोगों को निश्‍चित क्या चाहिए, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है| 

वसंतागम या और कुछ?

ट्युनेशिया से जनतंत्र की जो हवाऐं अरब जगत में बहने लगी है, उसे पश्‍चिमी चिंतकों ने अरब जगत में ‘वसंतागम’  (Arab Spring)  नाम दिया है| सही है, इस क्षेत्र में तानाशाही के शिशिर की थंडी, लोगों को कुडकुडाती, उन्हें अस्वस्थ करती हवाऐं चल रहि थी| अनेक दशकों का शिशिर का वह जानलेवा जाडा अब समाप्त हो रहा है| वसंतऋतु आई है| कम से कम उसके आगमन के संकेत दिखाई दे रहे है| एक अंग्रेज कवि ने कहा है कि,   'If winter comes can spring be far behind' - मतलब शिशिर ऋतु आई है, तो वसंत क्या उससे बहुत पीछे होगी? शिशिर आई है, और दो माह बाद वसंत आएगी ही, ऐसा आशावाद कवि ने अपने वचन में व्यक्त किया है| लेकिन अरब जगत में वसंतागम के जो संकेत दिखाई दे रहे है, वे सही में वसंतागम की सुखद हवा की गारंटी देनेवाले है, ऐसा माने?  ऐसा प्रश्‍न मन में निर्माण होना स्वाभाविक है| 
प्रथम ट्युनेशिया का ही उदाहरण ले| वहॉं चुनाव हुए| २७१ प्रतिनिधि चुने गए| २२ नवंबर को निर्वाचित प्रतिनिधियों की पहली बैठक हुई| संक्रमणकाल के फौजी प्रशासन ने, स्वयं दूर होना मान्य किया था| लेकिन निर्वाचितों में ४१ प्रतिशत प्रतिनिधि ‘नाहदा’ इस इस्लामी संगठन के कार्यकर्ता है| स्वयं के बूते पर वे राज नहीं कर सकते| इसलिए ‘सेक्युलर’ के रूप में जिन दो पर्टिंयों की पहचान है, उनके साथ उन्होंने हाथ मिलाया है| एक पार्टी के नेता मुनीफ मारझौकी है, तो दूसरी के मुस्तफा बेन जफर| मुनीफ की पार्टी स्वयं को उदारमतवादी मानती है, तो जाफर के पार्टी की पहेचान कुछ वाम विचारों के ओर झुकी पार्टी की है| ‘नाहदा’के नेता हमादी जेबाली प्रधानमंत्री बनेंगे यह निश्‍चित है| तानाशाही राज में, राजनयिक कैदी के रूप में उन्होंने कारावास भी सहा है| उन्होंने गारंटी दी है कि, हम ‘भयप्रद’ इस्लामी नहीं| सही बात यह है कि, दूसरी दो पार्टिंयों के बैसाखी के सहारे उनकी सरकार चलनी है, इसकारण इस्लाम में की स्वाभाविक भयप्रदता उन्हें छोडनी ही पडेगी| वे दोनों पार्टिंयॉं उनकी शर्ते भी लादेगी| इस्लामी होते हुए भी उदारमतवादी होना यह वदतोव्याघात है| और जेबाली को यह स्पष्टीकरण इसलिए देना पड़ा कि, १३ नवंबर को अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं के सामने भाषण करते समय जेबाली ने कहा था कि, ‘‘ट्युनेशिया में एक नई संस्कृति प्रवेश कर रही है| और अल्लाह ने खैर की तो छटवी खिलाफत हो निर्माण सकती है|’’ इस्लामी पाटीं के नेताओं के अंतरंग में कौनसे विचार उफान भर रहे है, इसका संकेत देनेवाले यह उद्गार है| ‘खिलाफत’ कहने के बाद ‘खलिफा’ आता है| उसके हाथों में राजनीतिक और धार्मिक शक्ति केंद्रित होगी ही| ईसाईयों के पोप के समान खलिफा केवल सर्वश्रेष्ठ धर्मगुरु नहीं होता| प्रथम महायुद्ध समाप्त होने तक तुर्कस्थान का बादशाह खलिफा था| उसके पहले बगदाद का मतलब इराक का बादशाह| लोगों की निर्वाचित प्रतिनिधिसभा खलिफा का चुनाव नहीं करती| वह पद एक तो जन्म से प्राप्त होता है या उस पद पर धार्मिक नेताओं के संगठन की ओर से नियुक्ति की जाती है| ‘खिलाफत’की स्थापना का विचार उदारमतवादी लेागों के मन में -जिन्होंने यह जनतांत्रिक क्रांति की उनके मन में - निश्‍चित ही भय निर्माण करनेवाला है| 

मिस्र में भी...

मिस्र में २८ नवंबर को मतदान का एक दौर समाप्त हुआ| और दो दौर बाकी है| लेकिन पहले दौर के मतदान से अंदाज व्यक्त किया जा रहा है कि, मुस्लिम ब्रदरहूड इस कट्टर इस्लामी संगठन द्वारा पुरस्कृत उम्मीदवार अधिक संख्या में चुने जाएगे| यह लेख वाचकों तक पहुँचने तक पहले दौर के मतदान के परिणाम शायद घोषित भी हो चुके होंगे| लेकिन राजनयिक विरोधकों ने मुस्लिम ब्रदरहूड के उम्मीदवारों को कम से कम ४० प्रतिशत मत मिलेंगे ऐसा अंदाज व्यक्त किया है| इस मुस्लिम ब्रदरहूड संगठन ने, मुबारक विरोधी आंदोलन में सक्रिय भाग नहीं लिया था| मुबारक के राज का समर्थन भी नहीं किया था| लेकिन आंदोलन में सक्रियता भी नहीं दिखाई थी| इस मुस्लिम ब्रदरहूड से भी अधिक कट्टर संस्था, जिसका नाम सलाफी है, उसके उम्मीदवारों को भी अच्छा मतदान होने का अंदाज है| यह सलाफी, सब प्रकार की आधुनिकता के विरुद्ध है| महिलाओं के राजनीति और सामाजिक, सार्वजनिक कार्य में के सहभाग को उनका विरोध है| दूरदर्शन आदि मनोरंजन के साधनों को भी उनका विरोध है| ट्युनेशिया के समान ही, वहॉं भी किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना नहीं त्रिशंकु अवस्था में मुस्लिम ब्रदरहूड और सलाकी का गठबंधन होने के संकेत स्पष्ट दिखाई देते है| इस गठबंधन को इजिप्त की नई संसद में ६५ प्रतिशत सिटें मिलेगी, ऐसा निरीक्षकों का अंदाज है| आश्‍चर्य यह है कि, तानाशाही शासन के विरोध में जिन्होंने प्राण की बाजी लगाई, वे असंगठित होने, या अन्य किन्हीं कारणों से पीछे छूट जाएगे ऐसा अंदाज है| उनकी तुलना में होस्नी मुबारक के शासनकाल में, सरकारी कृपा या अनास्था के कारण, इन दो इस्लामी संगठनों को बल मिला था, यह वस्तुस्थिति है| सही तस्वीर तो जनवरी के बाद ही स्पष्ट होगी| 

भवितव्य

पहले अंदाज व्यक्त कियेनुसार हुआ तो, एक खतरा है| वह है कट्टरवादियों के हाथों में सत्ता के सूत्र जाना| फिर इन क्रांतिवादी देश में भी तालिबान सदृष्य राज दिखाई देगा| मतलब वसंत का आगमन पुन: अन्य ऋतुओं को अवसर देने के बदले शिशिरागम के ही संकेत देते रहेगा| देखे क्या होता है| लेकिन यह देखना भी उत्सुकतापूर्ण और उद्बोधक रहेगा| 


- मा. गो. वैद्य
babujaivaiday@gmail.com

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

                          

Wednesday 30 November 2011

इतस्ततः


२९ नवंबर के लिए भाष्य


 

विदेश में संस्कृत

३० अक्टूबर को प्रकाशित हुए ‘ऑर्गनायझर’ इस विख्यात अंग्रेजी साप्ताहिक के दीपावली अंक में, ‘संस्कृत भारती’ के अखिल भारतीय संगठन मंत्री श्री श्रीश देवपुजारी का, विदेशों में संस्कृत कैसे लोकप्रिय हो रहा है, यह निवेदन करनेवाला एक सुंदर लेख प्रकाशित हुआ है| यहॉं प्रस्तुत जानकारी, मैंने उसी लेख से ली है|
कॉमनवेल्थ गेम्स (राष्ट्रमंडलीय क्रीडा स्पर्धा) कार्यक्रम समाप्त होने के बाद भी उसकी चर्चा कॉंग्रेस के सांसद सुरेश कलमाडी के भ्रष्टाचार की पराक्रम गाथाओं के कारण कई दिन चली थी| फिलहाल कलमाडी साहब तिहार जेल की हवा खा रहे है| लेकिन इस क्रीडा कार्यक्रम की कुछ विशेषताएँ भी है| उनमें से एक यह कि, इंग्लंड की रानी एलिझाबेथ के प्रतिनिधि ने, भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के प्रतिनिधि को क्रीडा आयोजन का अधिकारदंड (Baton) देते समय ‘संगच्छध्वम्, संवदध्वम्, सं वो मनांसि जानताम्’ यह वैदिक मंत्र पढ़ा गया; और वह भी उसके एकदम सही उदात्त-अनुदात्त-स्वरित स्वरों के आरोहावरोह के साथ| मंत्र पढ़नेवाले छात्र भारतीय नहीं थे| गोरे अंग्रेज थे| देवपुजारी ‘यू ट्यूब’ पर कुछ साहित्य खोज रहे थे, उस समय, यह आश्‍चर्यकारक बात देवपुजारी के ध्यान में आई|
उन्हें ‘यू ट्यूब’ पर अन्य भी कुछ ऐसा साहित्य मिला| दूसरी एक कतरन (क्लिप) में एक अश्‍वेत अमेरिकन ईसाई पाद्री प्रवचन दे रहा था| वह श्रेताओं को नमस्ते का महत्त्व बता रहा था! एकदूसरे को मिलते समय सब ‘नमस्ते’ कहें ऐसा आग्रह कर रहा था| वह बता रहा था कि, ‘नमस्ते’ यह परमेश्‍वर को वंदन करने का विधि है, और वह परमात्मा अन्य सब लोगों के भी अंत:करण में वास करता है| इसलिए किसी के मिलने पर ‘नमस्ते’ कहो|
तिसरी कतरन में एक प्रौढ व्यक्ति, ‘प्रणाम’ कैसे करे, यह सिखा रही थी| हम सब जानते है कि, ‘प्रणाम’ हाथ जोडकर किया जाता है और वह ‘नमस्ते’ का बोधक होता है|
एक अन्य कतरन में एक ऑर्केस्ट्रा संस्कृत गाने गा रहा था| उस आर्केस्ट्रा का नाम है ‘शान्ति:शान्ति:’!
यह किस बात का प्रभाव होगा? यह प्रभाव है ‘संस्कृत भारती’द्वारा अमेरिका में संस्कृत संभाषण के जो वर्ग चलाए जाते है उसका| प्रतिवर्ष अमेरिका में कम से कम ४० स्थानों पर यह संस्कृत संभाषण वर्ग नियमित लिए जाते है| इसका परिणाम यह हुआ है कि, कम से कम सौ अमेरिकी परिवार, आपस में संस्कृत में बोलने लगे है| कुछ संभाषण वर्ग निवासी पद्धति के होते है| वह एक प्रकार से पारिवारिक मेला ही होता है| इस मेले का नाम है ‘जान्हवी’| परिवार में के सब छोटे-बडे एकत्र आते है तथा बालक और युवक खेल आदि का आनंद लेते है, तो वयस्क लोग चर्चा करते है| लेकिन खेल हो या चर्चा, सब संस्कृत में ही चलता है|
यूरोप के फ्रान्स में भी संस्कृत का आकर्षण बढ़ रहा है| बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय के गोपबंधु मिश्र नाम के प्राध्यापक गत दो वर्ष से फ्रान्स में रह रहे है| वे वहॉं एक विश्‍वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाते है| उस विश्‍वविद्यालय में उन्होंने एक संस्कृत संभाषण शिबिर भी आयोजित किया था|
‘संस्कृत भारती’ने आयर्लंड में के चार शिक्षकों को संस्कृत पढ़ाया| अब वे अपने विश्‍वविद्यालय में संस्कृत पढ़ा रहे है| विद्यार्थींयों को संस्कृत पढ़ाने के पूर्व, उन्होंने उनके पालकों की सभा ली| उन्हें संस्कृत का महत्त्व समझाया| पालकों ने इस उपक्रम को मान्यता दी| इन चार शिक्षकों के प्रमुख का नाम रटगुर (Rutgure) है| लेकिन अब वो अपना नाम ‘मृत्युंजय’ बताता है!
पाश्‍चात्त्यों को अपने जीवन की पुनर्रचना करे, ऐसा लगता है| उन्हें योग और आयुर्वेद पढ़ने में रस निर्माण हुआ है| इससे हमारे जीवन में समतोल और शान्ति निर्माण होगी, ऐसा उन्हें लगता है| इस कारण हिंदूओं के विचार और तत्त्वज्ञान जानने की इच्छा उनके मन में जागृत हुई है| और, यहॉं भारत में? ‘गुड मॉर्निंग’ से लेकर ‘हॅपी बर्थ डे’ धडल्ले से चल रहे है| रामनवमी उनके लिए ‘बर्थ डे ऑफ राम’ होता है!

ईसाई विश्‍वविद्यालय में योग

उपर योग के बारे में आकर्षण का उल्लेख किया है| हमारे यहॉं ‘सेक्युलॅरिझम्’ का रंगीन चष्मा लगाए रहने के कारण, सेक्युलॅरिस्टों को कुछ और ही रंग दिखाई देते है| कुछ दिनों पूर्व मध्य प्रदेश में की भाजपा की सरकार ने सरकारी विद्यालयों में सूर्यनमस्कार और योग पढ़ाने की व्यवस्था की थी| उस समय ईसाई और कुछ मुस्लिम संस्थाओं के साथ ढोंगी सेक्युलरवादियों ने भी उस उपक्रम का विरोध किया था| उनका कहना था कि, हमारा संविधान ‘सेक्युलर’ है और योग तथा सूर्यनमस्कार हिंदू धर्म का अंग होने के कारण सरकारी विद्यालयों में उसकी शिक्षा देना संविधान के विरुद्ध है| लेकिन, सब ईसाई और मुस्लिम इन विचारों के नहीं है| बंगलोर से प्रकाशित होनेवाले ‘बंगलोर मिरर’ इस समाचारपत्र के १७ ऑगस्त २०११ के अंक में ऐसी जानकारी है कि, कट्टरता के लिए विख्यात देवबंद के दारुल उलूम ने ‘योग’ इस्लाविरोधी नहीं, ऐसा फतवा निकाला था| अनेक ईसाई संस्थाएँ भी अब ऐसा ही मत प्रकट करने लगी है|
अमेरिका में तो मानो योग सिखाने की चाह ही निर्माण हुई है| कॅलिर्फोनिया में कापेपरडाईन विश्‍वविद्याय, ईसाई विश्‍वविद्यालय के रूप में पहेचाना जाता है| वह विश्‍वविद्यालय ‘प्राणविन्यास फ्लो योग’ इस नाम से, सूर्यनमस्कार पर आधारित प्राणायाम सिखाता है| टेक्सास राज्य में बॅप्टिस चर्च का ‘बेलर’ (Baylor) विश्‍वविद्यालय है|  उस विश्‍वविद्यालय में अधिकृत रूप से, प्रतिवर्ष, वसंत ऋतु में, अष्टांग योग का प्रशिक्षण दिया जाता है| टेनेसी राज्य में के बेलमॉण्ट विश्‍वविद्यालय में ‘फ्लो योग’, ‘रेस्टोरेटिव्ह योग’, ‘योग ऍट द वॉल’, नामों से प्राणायाम सिखाया जाता है| इलीनाईस, मॅसॅच्युसेट्ल, वॉशिंग्टन, मिसीसीपी इन राज्यों में भी विभिन्न नामों से योग पढ़ाया जाता है| कहीं उसे ‘हठयोग’ कहा जाता है, तो कहीं ‘पॉवर योग’| वॉशिंग्टन में के व्हिटवर्थ विविश्‍वविद्यालय में ‘देवान् पूजय’, ‘येशुम् अनुसर’, ‘मानवं सेवस्व’ इन संस्कृत मंत्रों के साथ योग शिक्षा दी जाती है| इनमें के अधिकांश विश्‍वविद्यालय, अपनी पहेचान ईसाई विश्‍वविद्यालय के रूप में बताते है| अमेरिका में के ‘युनिव्हर्सल सोसायटी ऑफ हिन्दुइझम्’ इस संस्था के अध्यक्ष राजन् आनंद बताते है कि, ‘‘योग हिंदू धर्म से जुडा है, लेकिन वह संपूर्ण दुकिया की संपदा है| अपने धर्म का पालन करते हुए भी योगानुष्ठान किया जा सकता है|’’  ‘नॅशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ हेल्थ’ यह अमेरिका में की एक प्रमुख संस्था है| उस संस्था ने सार्वजनिक रूप से बताया है कि, योग से मन की उद्विग्नता दूर होती है, उसे शान्ति मिलती है और श्‍वासोच्छ्वास निरामय होता है|

‘सुयश’ यशोगाथा

पुना में ‘सुयश’ नाम की एक सेवाभावी संस्था है| उसका वनवासी बंधुओं की सेवा करने का व्रत है| ‘सुयश’ के इस सेवाकार्य का मुख्य सूत्र वनवासी बंधु आत्मनिर्भर बने, यह है| १९८२ में ‘सुयश चैरिटेबल ट्रस्ट’ की स्थापना की गई| उसके कार्य का विस्तार अब महाराष्ट्र के बाहर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और ओरिसा इन राज्यों में भी हुआ है|
वर्ष २००९ में ‘सुयश’ने निश्‍चित किया कि, वनवासी बंधु किसी की भी आर्थिक सहायता लिए बिना स्वयंपूर्ण बने| इसके अंतर्गत ११३ गॉंवों में के २४१० परिवारों ने अपने पैसों से ३६ लाख ५० हजार रुपयों के बीज खरीदे, बोए और ८ करोड ६८ लाख रुपयों का उत्पादन लिया|
वर्ष २०१० में २९३ गॉंवो में के १२ हजार ५५ परिवार इस प्रयोग में शामिल हुए| ३०० युवा किसानों की फौज खडी हुई| १ करोड ७१ लाख रुपयों के बीज खरीदे गए और उसमें से ५७ करोड ६४ लाख रुपयों का उत्पादन हुआ| आगे इस उपक्रम की प्रगति ही होती गई| २०११ में, अधिक आत्मविश्‍वास के साथ ७२८ गॉंवों के २७,८५० परिवारों ने इस योजना में भाग लिया| उनका उद्दिष्ट १४० करोड रुपयों का उत्पादन लेने का है|
‘सुयश’ने सब कार्यकर्ताओं को कृषि विकास का एक मंत्र ही दिया है| इसके लिए चार सूत्री कार्यक्रम चलाया गया| वे चार सूत्र इस प्रकार है :
१) बीज एवं बीजप्रक्रिया : पहले वनवासी बंधु बीजप्रक्रिया किए बिना बीजों का उपयोग करते थे| इस कारण फसलें रोग की शिकार होती थी| ‘सुयश’ने बीजप्रक्रिया करने का मार्गदर्शन किया| बीजप्रक्रिया के लिए, गोबर, नमक का पानी, जिवाणुसंवर्धक (रायझोबियम, ऍझेटोबॅक्टर) जैसी सेंद्रिय प्रक्रियाओं का प्रयोग करना सिखाया| अंकुरणशक्ति कैसे जॉंचे यह भी सिखाया| इससे उत्पादन में २० से २५ प्रतिशत वृद्धि हुई|
२) सेंद्रिय खाद : ‘सुयश’ने रासायनिक खाद के दुष्परिणामों की जानकारी लोगों को दी| गड्डा पद्धति से कम्पोस्ट खाद बनाना सिखाया| इसके अलावा, केंचुओं के खाद, हीरयाली के खाद, जिवाणु खाद कैसे बनाना, इसका भी मार्गदर्शन किया| यह सब करते समय मिट्टी /खाद की जॉंच के लिए, परीक्षण संच उपलब्ध करा दिए और उनका उपयोग करना भी सिखाया|
३) जैविक कीटनाशक : रासायनिक कीटकनाशकों का मानव, अन्य प्राणी, पर्यावरण और मित्र कीडोंपर दुष्परिणाम होता है और उत्पादन खर्च भी बढ़ता है| इस पर उपाय, इस रूप में ‘सुयश’ने जैविक पद्धति से कीटनियंत्रण कैसे करना और रोग आने के पहले ही फसलों का संरक्षण कैसे करना, इस बारे में मार्गदर्शन किया| गौमूत्र अर्क, वनस्पतिजन्य कीटकनाशक (दशपर्णी अर्क, निबोली अर्क) आदि का प्रयोग कैसे करे, इसका प्रशिक्षण दिया| रोग ही ना आए, इसके लिए क्या करना चाहिए यह भी बताया|
४. जलव्यवस्थापन : असमय बारिश, पानी की कमी, केवल खरीप की फसल पर परिवार चलाना असंभव है, यह सब बातें ध्यान में रखकर बांधबंधन, पत्थर के बांध, वनराई बांध, खेती तालाब, कुएँ, फेराक्रिट बंधारे आदि उपायों से बारिश का पाणी रोककर, उसका नियोजन कैसे करें, इस बारे में ‘सुयश’के कार्यकर्ताओं ने मार्गदर्शन किया| संग्रहित पानी की मात्रा कैसे गिने और उससे कितनी खेती का सिंचन हो सकता है यह भी गणित वनवासियों को समझाया| रब्बी का बुआई क्षेत्र बढ़ाकर वनवासियों के कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के लिए ‘सुयश’ने चार-पॉंच वनवासी परिवारों के लिए एक जलनियोजन प्रकल्प की व्यवस्था करना निश्‍चित किया और उसके अनुसार वनवासियों को मार्गदर्शन किया|
इस उपक्रम के कारण, गॉंव के लोगों का काम की खोज में बाहर जाना बंद हुआ| ‘सुयश’ के और भी कुछ पषशंसनीय उपक्रम है| विस्तृत जानकारी के लिए, सांगली से प्रकाशित होनेवाले ‘विजयन्त’ साप्ताहिक का २५ अक्टूबर २०११ का अंक देखें|
‘विजयंन्त’ का पता है : ‘विजयन्त’, २५५, खणभाग, सांगली| दूरध्वनि क्रमांक : २३७६४११.

वंगारी माथाई

वंगारी माथाई यह एक महिला का नाम है| वह आफ्रीका में के केनिया देश की निवासी है| आफ्रीका में से नोबेल पारितोषिक प्राप्त करनेवली वे एकमात्र महिला है| २००४ में उन्हें शान्ति का नोबेल पारितोषिक मिला था| ८ अक्टूबर को उनकी मृत्यु हुई| ईसाई होने के बावजूद उन्होंने, मेरा दाह संस्कार ही होना चाहिए, ऐसी इच्छा व्यक्त की थी| महंगे कॉफीन में अपना देह रखा जाना उन्हें मान्य नहीं था| उनकी इच्छा का सबने मान रखा, और नैरोबी की कारिओकर स्मशानभूमि में की दाहवाहिनी में उनका शव आग के स्वाधीन किया गया|
वे पर्यावरणवादी थी| पेड़ों की कटाई उन्हें पूर्णत: अमान्य थी| कॉफीन बनाकर, उसमें देह रखकर उसका दफन करने के विरोध के लिए भी उनका वृक्षप्रेम ही कारण होगा| उन्हें ‘आफ्रीका की वृक्षमाता’ (Tree Mother of Africa) कहा जाता है|
अनेक बारे में उन्होंने प्रथम क्रमांक प्राप्त किए थे| पूर्व आफ्रीका में की वे पहली महिला पीएच. डी. थी| एक पार्क में ६० मंजिला इमारत बननी थी| उन्होंने असके विरुद्ध तीव्र आंदोलन किया और सरकार को अपना प्रकल्प पिछे लेने के लिए बाध्य किया| १९९० के दशक में, मोई इस तानाशाह के सत्ता के काल में, राजनयिक कैदियों की मुक्तता के लिए उन्होंने उन कैदियों की माताओं का विवस्त्र मोर्चा निकाला था| अंत में तानाशाह की वह सरकार झुकी और उसने सब राजनयिक कैदियों को मुक्त किया|
महंगे साग कीलकडी की कॉफीन ना बनाए| शव ढोने के लिए सीडी भी सस्ते पॅपीरस के लकडी की बनाए, ऐसी अपनी इच्छा उन्होंने मृत्यु के पूर्व ही बताई थी| उसने रिश्तेदार और मित्रों ने उसकी इच्छा का सम्मान किया और उसका दाह संस्कार किया|

रूढीग्रस्त चर्च

पश्‍चिम के प्रगतिशीलता की हम खूब प्रशंसा करते है| लेकिन वहॉं चर्च अभी भी रूढीग्रस्त ही है| रोमन कॅथॉलिक पंथीयों को सर्वाधिक रुढिप्रिय माना जाता है| तुलना में प्रॉटेस्टंट चर्च सुधारवादी है, ऐसा माना जाता है| लेकिन यह धारणा प्रॉटेस्टंट पंथ के, प्रेस्बिटेरियन इस उपपंथ ने गलत साबित की है| हमारे मिझोराम में भी यह एक चर्च है| इस चर्च ने निश्‍चित किया है कि, कोई भी महिला पॅस्टर मतलब पाद्री या चर्च की अधिकारी नहीं बनेगी| १९७० के दशक में एक महिला पॅस्टर चुनी गई थी| लेकिन उसे वह पद नहीं दिया गया| ईसाई लोगों में इसके विरुद्ध असंतोष था| लोगों ने इस बार जोरदार मांग की कि, चर्च की सेवा के कार्य में लिंगभेद ना करें| लेकिन, यह मांग चर्च के कार्यकारी मंडल (सायनॉड) ने खारीज की| मिझोराम के बॅप्टिस्ट चर्च का भी महिला पुरोहितों को विरोध है|
दुनिया में हिंदूओं को रूढीवादी कहकर उनकी अवहेलना की जाती है| लेकिन हिंदूओं में शांततापूर्वक इष्ट परिवर्तन हुआ है| इतिहास इसका साक्षी है और वर्तमान ने भी इसके उदाहरण प्रस्तुत किए है| अब महिला पुरोहित यह वास्तविकता बन चुकी है| वे केवल पुराणोक्त मंत्र ही पढ़ती नहीं, तो वेदोक्त मंत्रों से धार्मिक कार्य भी करती है| इस वर्ष मुंबई में हुए गणेशोत्सव में पूजा करने के लिए करीब तीन सौ शालेय छात्राओं को प्रशिक्षित किया गया| तुलना में शालेय छात्रों की संख्या केवल ७० थी| ये छात्र शिवाजी विद्यालय, अहल्या विद्यालय और किंग जॉर्ज स्कूल में पढ़नेवालें थे| बताया जाता है कि, मुंबई में दो लाख से अधिक गणेश मूर्तिंयों की स्थापना होती है; और शहर में केवल तीन हजार पुरोहित है| अनेकों को काफी समय तक पुरोहितों की बाट जोहनी पडती है| इस पर उपाय के लिए नरेश दहीबावकर इस उत्साही व्यक्ति ने, छात्रों को पौरोहित्य सिखाना तय किया और अपना वह निश्‍चय पूरा भी कर दिखाया| श्री दहीबावकर बृहन्मुंबई गणेशोत्सव समन्वय समिति के अध्यक्ष है| किसी ने भी इन युवा महिला पुरोहितों का विरोध नहीं किया| समयानुसार जो चलते हैं वे ही टिकते हैं| जो विशिष्ट कालबिंदु के पास रुक जाते हैं, वे समाप्त हो जाते हैं, यह त्रिकालाबाधित नियम है|

- मा. गो. वैद्य
नागपुर
babujaivaidy@gmail.com

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

Monday 21 November 2011

उ. प्र. का विभाजन और छोटे राज्यों की निर्मिति

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने. उ. प्र. का विभाजन कर, उसके चार राज्य बनाने का प्रस्ताव रखा है| यह प्रस्ताव, वे शीघ्र ही विधानसभा में प्रस्तुत करेगी; उसके पारित होने की भरपूर संभावना है| कारण, मुलायम सिंह यादव के एक समाजवादी का पार्टी के अलावा अन्य किसी विरोधी पार्टी जैसे : भाजपा, कॉंग्रेस या अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल का इसे विरोध होने की संभावना नहीं है| भाजपा ने सदैव ही छोटे राज्यों का पुरस्कार किया है| इसी नीति के अनुसार उत्तराखंड के राज्य की निर्मिती में इस पार्टी की मुख्य भूमिका थी और उसी नीति के अनुसार अलग तेलंगना और विदर्भ के अलग राज्य के बारे में भी उसकी अनुकूलता है| कॉंग्रेस ने, उत्तर प्रदेश के ही एक भाग बुंदेलखंड के पिछड़ेपन का मुद्दा उठाकर, उसका अलग राज्य बनाने को अपनी सहमति सूचित की थी| अब उत्तर प्रदेश कॉंग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती ऋता बहुगुणा जोशी ने कॉंग्रेस का छोटे राज्यों की निर्मिती को समर्थन है, लेकिन किसी एक प्रदेश का ही विभाजन करने के बदले राज्य पुनर्रचना आयोग गठित करना चाहिए, ऐसी सूचना की है| अजित सिंह के रालोद ने तो विद्यमान राज्य के पश्‍चिम भाग से ‘हरित प्रदेश’ नाम का एक अलग राज्य निर्माण करने की मांग की है| सारांश यह की, एक समाजवादी पार्टी छोड़ दे तो, अन्य प्रमुख राजनीतिक पार्टियों का उत्तर प्रदेश के विभाजन को तत्त्वत: विरोध नहीं है|

आश्‍चर्य का धक्का

मायावती ने राज्य के विभाजन का मुद्दा प्रकट करते ही, सबको आश्‍चर्य का धक्का लगा| कॉंग्रेस के एक नेता प्रमोद तिवारी ने कहा कि, कॉंग्रेस ने पूर्वांचल (उ. प्र. के पूर्व का भाग) और बुंदेलखंड के अलग राज्यों का पुरस्कार किया, तब मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उसे विरोध किया था| इस कारण, बसपा की, एकाएक यह घोषणा करने में कुछ राज छुपा है| भाजपा की उमा भारती ने, यह एक स्टंट है, ऐसा कहकर इसे अर्थहीन करार दिया है, और भाजपा के प्रवक्ता सांसद प्रकाश जावडेकर ने कहा है कि, साडेचार वर्ष बसपा खामोश थी; और अब एकदम उसका छोटे राज्यों के बारे में प्रेम उमड पड़ा है| राज्य आकाश से नहीं टपकते|

मायावती की राजनीति

यह प्रातिनिधिक प्रतिक्रियाएँ, यहीं दर्शाती है की, मायावती की इस घोषणा से उन्हें धक्का लगा है| उनका इस विभाजन को तात्त्विक रूप से विरोध नहीं| हॉं, समाजवादी पार्टी ने अपने विरोध का कारण देते हुए कहा है कि, उ. प्र. का विभाजन हुआ, तो राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में मतलब सत्ताकारण में उ. प्र. का महत्त्व समाप्त होगा| लेकिन यह कारण एकदम निराधार है| किसी भी विशिष्ठ राज्य का ही दबदबा राष्ट्रीय राजनीति में क्यों रहें? इस बारे में भी मतभिन्नता होने का कारण नहीं की, मायावती का उद्देश्य निर्मल नहीं है| उसके पीछे राजनीति है और क्यों ना रहे? क्या मायावती पारमार्थिक क्षेत्र में की कोई साध्वी है? वे अंतर्बाह्य राजनेता है और अपनी राजनीति की सुविधा के लिए वे कोई भी नया कदम उठाएगी| उनके सामने २०१२ के मार्च-अप्रेल में होने जा रहे विधानसभा के संभाव्य चुनाव है, उसका विचार होना ही चाहिए| राजनीति के दावों की जानकार इस महिला को यह निश्‍चित ही पता है की, चुनाव के लिए केवल चार-पॉंच माह ही शेष है, इस अत्यल्प अवधि में केन्द्र सरकार की ओर से राज्य विभाजन के प्रस्ताव के बारे में कोई भी निर्णय लिया जाने की संभावना नहीं है| राज्य विधानसभा ने प्रस्ताव पारित किया तो भी अमल करने की दृष्टि से, उसे महत्त्व नहीं| इस कारण, विधानसभा के चुनावों पर नजर रखकर ही मायावती ने उ. प्र. के विभाजन का मुद्दा उपस्थित किया है| लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की, उ. प्र. के विभाजन की आवश्यकता नहीं| इसकी आवश्यकता है और आगे, २०१७ के विधानसभा के चुनाव के पूर्व या संभव हुआ तो २०१४ के लोकसभा के चुनाव के पूर्व राज्य का विभाजन होना चाहिए|

ध्यान देने योग्य बात

उ. प्र. के विभाजन के बारे में ध्यान देने योग्य बात यह है की, एक बुंदेलखंड का अपवाद छोड दे तो, पिछड़ापन या आर्थिक क्षेत्र में अन्याय होने का मुद्दा इस विभाजन की जड़ में नहीं है| उसी प्रकार, मायावती ने सुझाएँ चार राज्यों की अलग अस्मिता या इतिहास भी नहीं है| तेलंगना या विदर्भ इन राज्यों की मांग की जड़ में जैसे आर्थिक विकास में अन्याय यह एक महत्त्व का कारण है, वैसे ही उनका अलग इतिहास यह भी कारण है| उ. प्र. में के संभाव्य घटक राज्यों के बारे में ये कारण नहीं है| जिस पश्‍चिम प्रदेश और पूर्वांचल का, संकल्पित विभाजन में उल्लेख है, वह दोनों भाग आर्थिक दृष्टि से समृद्ध है| पश्‍चिम प्रदेश तो सर्वाधिक संपन्न है| इस कारण, भावनात्मक मुद्दा यहॉं लागू नहीं होता| राज्य के कामकाज की सुविधा का विचार कर ही उ. प्र. का विभाजन हो सकता है और राज्य के कामकाज की सुविधा यही राज्य पुनर्रचना के संदर्भ में एकमात्र ना सही, लेकिन अत्यंत महत्त्व का निकष होना चाहिए|

एक सूत्र

व्यक्तिश: मैं छोटे राज्यों का पुरस्कर्ता हूँ| इस स्तंभ में अनेक बार मैंने इस मुद्दे की चर्चा भी की है| केन्द्र सरकार अलग-अलग विचार ना कर, पुन: एक बार राज्य पुनर्रचना आयोग गठित करे और वह अपनी सिफारिसें दे| इस संबंध में एक सूत्र का भी मैंने उल्लेख किया था| वह सूत्र इस प्रकार है : किसी भी राज्य की जनसंख्या तीन करोड से अधिक और पचास लाख से कम ना हो| आज उ. प्र. की जनसंख्या १९ करोड से अधिक हो चुकी है| २००१ कीजनगणना के अनुसार वह १६ करोड ६० लाख थी| तो मिझोराम, मेघालय, नागालॅण्ड इन पूर्व के ओर के राज्यों की और गोवा इस दक्षिण के ओर के राज्य की जनसंख्या प्रत्येकी २५ लाख से अधिक नहीं| मिझोराम की जनसंख्या तो वर्ष २००१ में ९ लाख भी नहीं थी| आज वह अधिक से अधिक १२ लाख के करीब होगी| फिर भी वह एक राज्य है| उसे अगल राज्य बनाने का कारण ईसाई लोगों ने किया विद्रोह है| उन्हें खुश करने के लिए, असम का एक जिला रहा मिझोराम एक स्वतंत्र राज्य बना| कम से कम ५० लाख जनसंख्या वहॉं होगी, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए| संभव हो तो, पडोस के छोटे-छोटे राज्य एक करें या पडोस के बड़े राज्य में उसका विलयन करें| जैसे गोवा का विलयन महाराष्ट्र में सहज संभव है| किसी अस्मिता के अहंकार में उसका जन्म होने के कारण वह अहंकार संजोते रहने की वहॉं की जनता को - सही में सत्ताकांक्षी राजनेताओं को -आदत हो गई होगी तो, उनका अलग अस्तित्व कायम रहने दे, लेकिन उसका दर्जा केन्द्रशासित प्रदेश के समान होना चाहिए| इससे जनता के, केवल उस प्रदेश में की जनता के ही नहीं, संपूर्ण भारतीय जनता के पैसों की काफी बचत होगी| इस सूत्र के अनुसार विचार किया तो उ. प्र. का विभाजन ६ या ७ राज्यों में होगा| केवल उ. प्र. ही नहीं, तो महाराष्ट्र, आंध्र, तामिलनाडू, बिहार, पश्‍चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राज्यस्थान इन राज्यों का भी विभाजन करना होगा| महाराष्ट्र, आंध्र और प. बंगाल में इस दृष्टि से आंदोलन शुरू भी हुए है|

विषम विभाजन ना हो

उ. प्र. राज्य को चार नए राज्यों में विभाजित करने का सुझाव मायावती ने दिया है| वह योग्य नहीं| सब जानते है की, इस राज्य में लोकसभा की ८० या ८१ सिटें है और राज्य विधानसभा की ४०३| यह एकमात्र राज्य है जहॉं एक लोकसभा क्षेत्र में केवल पॉंच विधानसभा क्षेत्रों का समावेश होता है| महाराष्ट्र में छ:, आंध्र, तामिलनाडु. प. बंगाल आदि राज्यों में सात; मध्य प्रदेश और राज्यस्थान में आठ तो हरियाणा और पंजाब में नौ विधानसभा क्षेत्र एक लोकसभा क्षेत्र में समाविष्ट है| लोकसभा के क्षेत्र में बदल करने का कारण नहीं, लेकिन, उत्तर प्रेदेश मे, नई रचना में, हर विधानसभा में के सदस्यों की संख्या बढ़ सकती है| मायावती की संकल्पित योजना के अनुसार विद्यमान व्यवस्था में पश्‍चिम प्रदेश के हिस्से ३१ लोकसभा क्षेत्र आते है| तो, बुंदेलखंड के हिस्से केवल ४ लोकसभा क्षेत्र आते है| पूर्वांचल के हिस्से भी ३२ लोकसभाक्षेत्र आते है, तो अवध राज्य के हिस्से केवल १३ | चार ही राज्य बनाने हो तो, हर एक के हिस्से में २० के करीब लोकसभा क्षेत्र आने चाहिए| विधानसभा क्षेत्रों के बारे में भी ऐसी ही विषमता दिखाई देती है| पश्‍चिम प्रदेश में १५० और पूर्वांचल में १५९ विधानसभा क्षेत्र आते है, तो बुंदेलखंड में केलव २१ | यह विभाजन व्यवस्था योग्य नहीं| प्रत्येक संकल्पित राज्य में, आज की व्यवस्था के अनुसार कम से कम ९० से १०० विधानसभा क्षेत्र आने चाहिए| इस प्रकार ही विभाजन की योजना होनी चाहिए| मेरे सूत्र के अनुसार विभाजन किया और छ: राज्य बनाए तो प्रत्येक के हिस्से १३ - १४ लोकसभा क्षेत्र आएगे| इसमें कुछ भी अनुचित नहीं| अलग विदर्भ की मांग मान्य हुई तो उसके हिस्से में केवल ११ लोकसभा क्षेत्र आते है| तेलगंना के बारे में मुझे निश्‍चित कल्पना नहीं है| लेकिन वहॉं भी १४ या १५ लोकसभाक्षेत्र समाविष्ट होंगे| तात्पर्य यह की, उ. प्र. के विभाजन का गंभीरता से और विशिष्ट तत्त्व निश्‍चित कर विचार होना चाहिए| मायावती के मन में आया, इसलिए राज्यरचना की, ऐसा नहीं होना चाहिए| सौभाग्य की बात यह है की, उ. प्र. के विद्यमान प्रदेश में या संकल्पित पुनर्रचना में भावना का उद्रेक नहीं है| जहॉं कहीं होगा तो वह बुहत सौम्य है|   

समझदारी आवश्यक

अलग राज्यों की निर्मिती केलिए, स्वातंत्र्योत्तर काल में उग्र आंदोलन करने पड़े, यह दु:ख की बात है| पुराने मद्रास प्रांत में से आंध्र अलग करने के लिए श्रीरामलू को अनशन कर अपने प्राणों की आहुती देनी पड़ी| उसके पश्‍चात् हुए हिंसाचार के बाद आंध्र प्रदेश अलग हुआ| द्विभाषिक से अलग होने के लिए महाराष्ट्र में भी उग्र आंदोलन हुआ| १०९ शहिदों को आहुति देनी पड़ी और १९५७ के चुनाव में कॉंग्रेस को पटकनी भी देनी पड़ी| उसके बाद महाराष्ट्र और गुजरात यह दो राज्य बने| पंजाब के अलग राज्य के लिए भी उग्र आंदोलन करना पड़ा| उत्तराखंड के लिए बहुत बड़ा आंदोलन नहीं हुआ| लेकिन थोड़ी उग्रता लानी ही पड़ी| अपवाद छत्तीसगढ़ और झारखंड इन राज्यों का है| ये राज्य समझदारी से बने| यही समझदारी तेलंगना और विदर्भ कोभी नसीब हो, और समझदारी से उ. प्र. का भी सही और व्यवस्थित विभाजन हो|

जम्मू-काश्मीर का भी विभाजन

इस निमित्त मुझे जम्मू-काश्मीर राज्य के विभाजन का भी विचार रखना है| विद्यमान जम्मू-काश्मीर राज्य के तीन स्वतंत्र भौगालिक भाग है| (१) लद्दाख (२) काश्मीर की घाटी और (३) जम्मू प्रदेश| रणजित सिंह के सरदार गुलाब सिंह के पराक्रम के कारण यह सब प्रदेश रणजित सिंह के राज्य से जोडा गया| उनकी मृत्यु के बाद केवल सात-आठ वर्ष में अंग्रेजों ने वह राज्य जीत लिया| गुलाब सिंह ने चुतराई से ७५ लाख रुपये देकर और अंग्रेजों की मांडलिकता मान्य कर, संपूर्ण जम्मू-काश्मीर पर (पाकव्याप्त काश्मीर के प्रदेश सहित) अपनी सत्ता स्थापन की| १९४७ के अक्टूबर माह में, तत्कालीन संस्थानिक (राजा) हरिसिंह ने विलीनीकरण के अनुबंध पर स्वाक्षरी कर उस भाग को भारत का अविभाज्य भाग बना दिया| उसके बाद वहॉं शेख अब्दुला की सत्ता स्थापन हुई और सर्वसामान्य मुस्लिम सत्ताधारियों के अनुसार उन्होंने अपनी अलग जड़ें जमाने के षड्यंत्र किये| काश्मीर का वह सारा इतिहास यहॉं बताने की आवश्यकता नहीं| इतना बताया तो भी काफी है कि, १९४७ से २०११ इन ६४ इन वर्षों की अवधि में जम्मू में का एक भी हिंदू काश्मीर का मुख्यमंत्री नहीं बन सका| इतना ही नहीं, विभाजन के समय जो हिंदू पाकिस्थान में से भारत में आए और जम्मू में बसे, उन चार-पॉंच लाख हिंदुओं को जम्मू-काश्मीर राज्य की नागरिकता अभी तक नहीं मिल सकी है| वे लोग, लोकसभा के चुनाव में मतदान कर सकते है, मतलब वे भारत के नागरिक है, यह केन्द्र सरकार को मान्य है, लेकिन राज्य विधानसभा या स्थानिक स्वराज्य संस्था के चुनाव लिए उन्हें मताधिकार नहीं है| नकली सेक्युलॅरिझम् का चष्मा पहने लोगों को यह अन्याय दिखाई नहीं देता| जम्मू प्रदेश और काश्मीर के घाटी की जनसंख्या समान है| लेकिन जम्मू प्रदेश के हिस्से में लोकसभा की केवल दो सिटें है, तो घाटी के हिस्से में ३ | राज्य विधानसभा में जम्मू के हिस्से ३७ सिंटे है तो घाटी के हिस्से में ४६ ! आर्थिक क्षेत्र में भी अत्यंत विषम व्यवहार है| केन्द्र से प्राप्त अनुदान की केवल १० प्रतिशत राशि जम्मू प्रदेश के हिस्से आती है| काश्मीर कीघाटी में हिंदूओं की संख्या केवल चार-पॉंच लाख थी| मतलब घाटी की कुल जनसंख्या के दस प्रतिशत भी नहीं| लेकिन वे हिंदू वहॉं रह नहीं सके| उन्हें, योजनापूर्वक हकाला गया| उनके लिए कोई दो आँसू भी बहाता| और घाटी में के मुसलमानों को तो इसके बारे में शर्म भी अनुभव नहीं होती| हाल ही में केन्द्र सरकार ने पत्रकार दिलीप पाडगॉंवकर के नेतृत्व में वार्ताकारों के तीन सदस्यों की एक टीम, जम्मू-काश्मीर के विघटनवादियों से चर्चा करने के लिए भेजी थी| उस समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की| पता नही क्यों, प्रसार माध्यमों में उसकी अधिक चर्चा नहीं हुई| ऐसी जानकारी है की, इस समिति ने जम्मू, घाटी, और लदाख यह तीन विभाग मान्य किए है, उनके विकास की ओर ध्यान देने के लिए, इन तीन प्रदेशों के लिए अलग-अलग परिषदें स्थापन करें, ऐसा सुझाव दिया है| लेकिन इस मलमपट्टी से कुछ साध्य नहीं होगा| आवश्यकता राज्य के त्रिभाजन की ही है| कारण तीनों विभाग केवल भौगोलिक दृष्टि से ही अलग नहीं, सांस्कृतिक एवं भावनिक दृष्टि से भी उनके बीच कोई मेल नहीं| जम्मू का अलग राज्य बन सकता है| काश्मीर घाटी का अलग, और लदाख केन्द्रशासित प्रदेश| उ. प्र. का विभाजन करने की अपेक्षा भी इस राज्य के विभाजन की आवश्यकता अधिक है| जम्मू प्रदेश और घाटी की जनसंख्या निश्‍चित ही अब प्रत्येकी ६० लाख से अधिक होगी|

सारांश

सारांश यह कि, राज्यरचना का मूलभूत विचार किया जाना चाहिए| इसके लिए राज्य पुनर्रचना आयोग की स्थापना की जानी चाहिए| उ. प्र. की कॉंग्रेस पार्टी ने भी, मायावती की योजना के काट में ही सही, इस मांग का उच्चार किया है| यह अच्छी बात है| आशा करें की, केन्द्र सरकार अपनी पार्टी की मांग का सहानुभूति से विचार करेगी और उ. प्र. के विधानसभा के चुनाव होने के बाद नए पुनर्रचना आयोग के नियुक्ति की घोेषणा करेगी| २०१४ और उसके बाद के चुनाव इस नई रचना के अनुसार ही हो|

- मा. गो. वैद्य, नागपुर
babujaivaiday@gmail.com

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)             

Wednesday 16 November 2011

निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार आवश्यक और संभव भी

रविवार का भाष्य दि. १६ नवम्बर २०११ के लिए

चुनाव आयोग ने, निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने केअधिकार के कारण, अस्थिरता निर्माण होगी और विकास कार्यों को बाधा पहुँचेगी, यह कारण बताकर इस अधिकार को विरोध किया है| आयोग का कहना है की, चुनाव हारनेवाले उम्मीदवार, परिणाम घोषित होने के दुसरे दिन से ही, निर्वाचित उम्मीदवार को वापस बुलाने की कारवाई शुरू करेगे और इस कारण अस्थिरता निर्माण होगी तथा बारबार चुनाव लेने पडेगे| भाजपा के वरिष्ठ नेता अडवाणी जी ने भी चुनाव आयोग के इस मत को समर्थन दिया है|

ढूलमूल रवैया ना रखे
चुनाव पद्धति में सुधार हो, ऐसा प्राय: सभी को लगता है| इन सुधारों में निर्वाचित व्यक्ति को वापस बुलाने के अधिकार का समावेश है| यह सच है की, टीम अण्णा ने इस अधिकार का पुरस्कार किया है| इस कारण, इस विषय पर चर्चा शुरू हुई है| लेकिन मेरे स्मरण अनुसार ७ सितंबर २०११ के मेरे ‘भाष्य’में चुनाव सुधारों के अनेक मुद्दों की चर्चा करते समय, मैंने अत्यंत संक्षेप में निर्वाचित को वापस बुलाने के अधिकार का भी निर्देश किया था|(मेरा वह मराठी लेख जिज्ञासू  http://www.mgvaidya.blogspot.com/ पर में पढ़ सकते है|)
टीम अण्णा ने, जिसमें, शांतिभूषण, प्रशंातभूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष शिसोदिया और किरण बेदी का अंतर्भाव था, चुनाव आयोग के साथ की चर्चा में मान्य किया की, इस मांग का पुनर्विचार करना पडेगा, ऐसा प्रकाशित समाचार में कहा गया है| इसका अर्थ टीम अण्णा और स्वयं अण्णा हजारे भी इस बारे में आग्रही नहीं, ऐसा हो सकता है| लेकिन इस बारे में ढूलमूल रवैया उपयोगी नहीं| टीम अण्णा ने इस बारे में भी दृढ रहना चाहिए|

सजा क्यों नहीं?
मेरा मत है की, यह अधिकार आवश्यक है और उसपर अमल करना भी संभव है| उम्मीदवार चुनकर आया हो तो भी, उसने वह चुनाव भ्रष्टाचार कर और / या चुनाव के कानून का भंग कर जीता होगा, तो उसके निर्वाचन के विरुद्ध याचिका की जा सकती है| ऐसी अनेक याचिकाएँ दाखिल होती है| कुछ याचिकाओं को अनुकूल निर्णय प्राप्त होता है| उस समय उस निर्वाचित उम्मीदवार का चुनाव रद्द होता है और पुन: चुनाव लेना पड़ता है| आज तक चुनाव आयोग ने ऐसे कई चुनाव लिये है| चुनाव जितने के लिए झूठा आचरण करने के लिए सजा हो सकती है तो चुनाव जितने के बाद झूठा आचरण करनेवाले को सजा क्यों नहीं होनी चाहिए?

दो ठोस उदाहरण
हाल ही दो उदाहरण बताता हूँ| एक उदाहरण नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे उस समय का है| मतलब १९९१ ते १९९६ इन पॉंच वर्षों में का| सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के निर्वाचित सांसदों ने सरकार पक्ष से धूस लेकर मतदान किया| झामुमों के प्रमुख शिबू सोरेन को इसके लिए सजा भी हुई| लेकिन क्या उनकी संसद की सदस्यता गई? या उनके पार्टी के जिन सदस्यों ने घूस लेकर मतदान किया, उनका संसद सदस्यत्व गया? अपनी निष्ठा बेचनेवाले इस बिकाऊ माल को लोग अपना प्रतिनिधि क्यों स्वीकार करे? उन्हें क्यों हटाया नहीं जाना चाहिए? 
दूसरा उदाहरण अभी अभी का मतलब केवल तीन वर्ष पूर्व का है| २००८ के जुलै माह में का है| मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए कुछ सांसदों को घूस देकर फोडा गया| कुछ ने सरकार के पक्ष में मतदान किया, तो कुछ ने बीमारी का बहाना बनाकर अनुपस्थित रहने का विक्रम किया| इन घूसखोर, बिकाऊ माल में भाजपा के भी छ: सांसद थे| उन्हें क्या सजा मिली? उन्हें किसने और कितने पैसे दिये इसकी सीबीआय ने या अन्य किसी केन्द्रीय अपराध अन्वेषण यंत्रणा ने जॉंच की? अब यह मामला न्यायप्रविष्ठ है| जिन्हें घूस दी गई या जिन्होंने भ्रष्टाचार का भंडाफोड करने की व्यूहरचना की, वे जेल में है; और स्वयं का आसन बचाने के लिए जिन्होंने यह भ्रष्ट खरेदी-व्यापार किया, वे सरे आम खुले घूम रहे है| यह सच है की, २००८ के कुछ माह बाद तुरंत ही २००९ में लोकसभा के चुनाव हुए| इस कारण, उन्हें वापस बुलाने से भी कुछ विशेष परिणाम नहीं होता| किंतु, इस प्रकरण में के कितने सांसद २००९ के चुनाव में खड़े हुए और कितने चुनकर आए, इसका भी हिसाब रखा जाना चाहिए| हमारे विदर्भ में के सांसद को २००९ के चुनाव में मतदाताओं ने घर बिठाया| इस प्रकरण के एक मुख्य सूत्रधार अमरसिंह कहते है की उन्हें इस प्रकरण की पूरी जानकारी है| सरकार उनका भी साक्ष दर्ज करे|

एक उपाय
मेरा मुद्दा यह है की, अपना इमान बेचनेवाले का, लोग, अपने प्रतिनिधि के रूप में बोझ क्यों ढोए?  यह सही है की निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने की प्रक्रिया आसान नहीं होगी| लेकिन वह निश्‍चित करना असंभव नहीं| मैं यहॉं एक उपाय सुझाता हूँ| उसे अंतिम या परिपूर्ण मानने का कारण नहीं| उसमें संशोधन हो सकता है| बदल भी हो सकता है| मैं विधानसभा क्षेत्र का उदाहरण ले रहा हूँ| लोकसभा का क्षेत्र बड़ा होने के कारण उसमें कुछ बदल भी किया जा सकता है|
निर्वाचित विधायक को वापस बुलाना हो, तो उस मतदारसंघ में हुए कुल मतदान के कम से कम दस प्रतिशत मतदाता कारण बताकर, यह प्रतिनिधि हमें नहीं चाहिए, ऐसा आवेदन चुनाव आयोग के पास भेजे| कल्पना करे की, उस मतदान क्षेत्र में एक लाख मतदान हुआ, तो १० हजार या उससे अधिक मतदाताओं की स्वाक्षरी का आवेदन चुनाव आयोग के पास जाना चाहिए| इस आवेदन के साथ २५ हजार रुपये अनामत चुनाव आयोग के पास जमा करानी होगी| इसके बाद चुनाव आयोग जनमत जान लेने की व्यवस्था करेगा| इसके लिए मतदार संघ में के सब मतदाताओं को मतदान करने की आवश्यकता नहीं होगी| इसके लिए एक विशेष छोटा मतदारसंघ  (Special Electoral College) होगा| उस मतदारसंघ के क्षेत्र में की ग्रामपंचायतों, पंचायत समितियों, उसी प्रकार जिला परिषदों के सब सदस्य इस विशेष मतदार संघ में मतदाता होगे| उसी प्रकार इस क्षेत्र में की नगर परिषदों और महापालिका हो तो, उस महापालिका के सदस्य भी मतदार होगे| ये सब लोगों द्वारा निर्वाचित ही होते है| मतलब एक प्रकार से वे जनता का ही प्रतिनिधित्व करते है| इस मतदारसंघ में सुबुद्ध नागरिकों का भी अंतर्भाव हो सकता है| इसके लिए उस क्षेत्र में की सब मान्यताप्राप्त प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों के मुख्याध्यापकों को भी मतादान का अधिकार होना चाहिए| मतदान सब के लिए अनिवार्य होना चाहिए| जिन्हें मतदान नहीं करना है, उन्हें पहले से ही इसके लिए, चुनाव आयोग से अनुमती लेनी होगी| हुए मतदान के ६० प्रतिशत या उससे अधिक मत, निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के प्रस्ताव के पक्ष में पड़ने पर ही, उसकी सदस्यता रद्द होगी| अन्यथा वह कायम रहेगी| दस प्रतिशत स्वाक्षरियॉं जमा करने के लिए जिस व्यक्ति या गुट की पहल होगी, उसने जमा की अनामत राशि, उस प्रस्ताव के पक्ष में ४० प्रतिशत से कम मत मिलनेपर जप्त होगी| इस कारण फालतू आरोप करनेवालों पर धाक बैठेगी| लेकिन ४० प्रतिशत या उससे अधिक मत वापस बुलाने के प्रस्ताव के पक्ष में पड़ने पर वह राशि संबंधितों को लौटा दी जाएगी|

सांसदों के लिए
लोकसभा का मतदासंघ बड़ा होता है| वहॉं पुन: मतदान कराने के लिए बनाए जानेवाले मतदारसंघ की रचना भिन्न हो सकती है| ग्रामपंचातें, पंचायत समितियॉं या जिला परिषदों के सब सदस्यों को मताधिकार देने के बदले, उस क्षेत्र में आनेवाली ग्रामपंचायतों के सरपंच और पंचायत समितियों के तथा जिला परिषदों के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तक यह अधिकार मर्यादित किया जा सकता है| नगर परिषदों और महापालिकाओं के सब सदस्यों को मताधिकार रहेगा| सुबुद्ध जनों में, उस क्षेत्र में के सब महाविद्यालयों के प्राचार्य, उसी प्रकार विश्‍वविद्यालय की सेवा में रत सब रीडर्स और प्रोफेसर्स को भी इस विशेष मतदारसंघ में समाविष्ट किया जा सकता है| अन्य नियम एवं शर्ते उसी प्रकार होगी| अनामत राशि का आँकड़ा बढ़ाया जा सकता है; और जो दस प्रतिशत स्वाक्षरी देंगे, वे मतदार, लोकसभा के क्षेत्रांतर्गत आनेवाले सब विधानसभा क्षेत्रों में से कम से कम आधे मतदारसंघों में के होने चाहिए, ऐसा निर्बंध होगा| इस कारण केवल एक-दो मतदारसंघों में के मतदाताओं की मांग होने से नहीं चलेगा| उद्देश्य यह की वापस बुलाने की प्रक्रिया में अधिकांश मतदारसंघों का प्रतिनिधित्व रहे|

भय ना रखे
६० प्रतिशत या उससे अधिक मतदान प्रस्ताव के पक्ष में हुआ, तो पुन: चुनाव होगा| इस चुनाव में, जिसके विरुद्ध प्रस्ताव पारित हुआ है, वह खड़ा नहीं रह सकेगा| यह या इस प्रकार की अन्य शर्ते रहेगी, इससे सहज या अकारण निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के प्रयत्नों पर प्रतिबध लगेगा| चुनाव आयोग ने पुन: मतदान का भय पालने की आवश्यकता नहीं| १९८९ से १९९९ इन केवल दस वर्षों के कालखंड में संपूर्ण लोकसभा के पॉंच आम चुनाव हुए| १९८९, फिर १९९१, फिर १९९६, फिर १९९८, फिर १९९९| मतलब जिस कालावधि में १९९४ और १९९९ ऐसे दो ही चुनाव होने चाहिए थे, उस कालावधि में पॉंच चुनाव हुए और उसकी सब व्यवस्था चुनाव आयोग ने की| उस तुलना में विशेष मतदारसंघ बनाकर, उसके द्वारा चुनाव लेना कई गुना आसान है| इस प्रक्रिया में अस्थिरता का प्रश्‍न ही नहीं और विकास कार्य में बाधा, यह मुद्दा तो पूर्णत: निरर्थक है|
उपर उल्लेख किये अनुसार यह एक उपाय मैंने सुझाया है| उसके विकल्प हो सकते है| मेरे विकल्प पर साधक-बाधक चर्चा हुई, तो मुझे निश्‍चित ही अच्छा लगेगा|

- मा. गो. वैद्यनागपुर
 (अनुवाद : विकास कुलकर्णी)   
       

Thursday 10 November 2011

भाजपा का कॉंग्रेसीकरण हो रहा है?

लेख का शीर्षक प्रश्‍नात्मक है और मेरा उत्तर ‘हॉं’ है| कॉंग्रेसीकरण की राह पर भाजपा की ‘प्रगति’ हो रही है| लेकिन कॉंग्रेस ने इस ‘प्रगति’ में जो मुक्काम हासिल किया है, वह भाजपा ने हासिल नहीं किया है; शायद हासिल कर भी नहीं पाएगी|

परिवारवाद

इस दृष्टि से कुछ मुद्दों का हम इस लेख में विचार करेगे| पहला मुद्दा ‘परिवारवाद’ का है| कॉंग्रेस पार्टी ने इस बारे में जो शिखर पार किया है, भाजपा अभी तक वहॉं पहुँच नहीं पाई है; और शायद कभी पहुँच भी नहीं सकेगी| लेकिन, अपने रिश्तेदारों को लाभ और प्रतिष्ठा के पदों पर आरूढ करने की प्रक्रिया भाजपा में भी शुरू हुई है| भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के एक उपाध्यक्ष और हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री शांताकुमार ने इस बारे में सार्वजनिक रूप से खेद भी व्यक्त किया है| शांताकुमार के उद्गारों का आशय है : ‘‘परिवारवाद राजनीति की ओर (भाजपा) पार्टी की प्रवृत्ति बढ़ रही है| पार्टी के सामने बहुत बड़ा संकट है| हिमाचल प्रदेश से कर्नाटक तक भाजपा, लड़के, लड़कियॉं और परिवाजनों की पार्टी बन रही है, ऐसा दिखता है|’’ शांताकुमार अखिल भारतीय स्तर के भाजपा के अधिकारी है| वे कुछ भी बोलनेवाले नेता के प्रवृत्ति के नहीं है| मेरा उनसे कुछ परिचय है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ| हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री धुमल के पुत्र सांसद है, यह तो उन्हें निश्‍चित ही पता होगा| लेकिन उन्होंने जिस प्रकार यह सार्वजनिक विधान किया है, उससे लगता है की उनके पास बहुत कुछ मसाला होना चाहिए| हमें केवल महाराष्ट्र में की ही घटनाएँ पता है| लेकिन वह भी बहुत कुछ स्पष्ट करनेवाली है| गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र में के भाजपा के श्रेष्ठ नेता है| वे सांसद है ही| लेकिन उनकी लड़की और दामाद भी विधायक है| उनकी भांजी भी चुनाव में खड़ी थी| वह दुर्भाग्य से पराजित हुई| एकनाथ खडसे ये भाजपा के नेता आज महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता है| उनका लड़का विधान परिषद के चुनाव में खड़ा था| वह पराभूत हुआ| यही प्रवृत्ति सर्वत्र होगी, इस कारण ही शांताकुमार जैसा नेता ऐसा बोल सका|

संघ की रीत

नेताओं के रिश्तेदारों की गुणवत्ता के बारे में मुझे प्रश्‍न नहीं उपस्थित करना है| वे कभी संघ में आए भी होगे| लेकिन उन्होंने संघ जीवन में उतारा नहीं | मुझे एक सामान्य कार्यकर्ता की जानकारी है| वह एक शिक्षा संस्था का पाव शतक से अधिक समय अध्यक्ष था| उसने निश्‍चय किया था की अपने करीबी रिश्तेदारों को संस्था की ओर से चलाई जानेवाली शाला में नौकरी नहीं देना| वह अध्यक्ष था उस समय, एक शाला में की शिक्षिका प्रसूति और वैद्यकीय छुट्टी पर गई| तीन माह के लिए वह जगह रिक्त हुई थी| अध्यक्ष की लड़की बी. ए., बी. एड. थी| मतलब आवश्यक आर्हता उसके पास थी| किसी ने उसे बताया की, तू आवेदन दे| उसने अपने पिता से पूँछा| उन्होंने कहा, ‘तू आवेदन मत दे| तुझे नौकरी नहीं मिलेगी|’ उसने पूँछा, ‘क्यों?’ पिता ने कहा, ‘कारण तू अध्यक्ष की लड़की है|’ मैं तरुण भारत में कार्यकारी संपादक था उस समय, हमने परीक्षा लेकर तीन संपादकों को नौकरी दी| परीक्षा के लिए आए उम्मीदवारों में तरुण भारत का संचालन करनेवाली संस्था के अध्यक्ष श्री बाळासाहब देवरस का सगा ममेरा भाई भी था| बाळासाहब ने बुलाकर मुझे बताया कि, ‘‘तुम्हें योग्य लगा तो ही उसे ले| मेरा रिश्तेदार है इस कारण उसका विचार ना करे|’’ और उस परीक्षा में गुणानुक्रमानुसार हमने प्रभाकर सिरास, शशिकुमार भगत और बाळासाहब बिनीवाले का चुनाव किया| बाळासाबह देवरस ने मुझे एक शब्द भी नहीं पूँछा| यह संघ की रीत है| द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने ‘‘मैं नहीं, तू ही’’ इस आशयगर्भ संक्षेप में उसे व्यक्त किया है| संघ के स्वयंसेवक को प्रथम औरों का विचार करते आना चाहिए|

कॉंग्रेस की रीत

कॉंग्रेस का क्या कहना! पंडित जवाहरलाल के बाद उनकी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी| उनके बाद कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी ही प्रधानमंत्री बनते| लेकिन एक अपघात में उनकी मृत्यु हुई इसलिए उनके वैमानिक पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने| उनके बाद श्रीमती सोनिया गांधी, उनके बाद राहुल गांधी यह परिवारवाद कहे या राजशाही कहे परंपरा चल रही है| लेकिन कॉंग्रेसजनों को इसके बारे में कुछ नहीं लगता| उनकी पार्टी में निकला कोई शांताकुमार? जो परंपरा उपर चल रही है वही नीचे भी चालू रही तो आश्‍चर्य कैसा! भुजबळ का पुत्र और भतीजा सांसद-विधायक नहीं बनेगे तो कौन बनेगा? सुशीलकुमार शिंदे की लड़की विधायक नहीं बनेगी तो कौन बनेगा? श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने ही कहा है कि, ‘‘यद् यदाचरति श्रेष्ठ: तत् तदेवेतरो जन:| स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते’’ (अध्याय ३, श्‍लोक २१) - अर्थ बिल्कुल आसान है : श्रेष्ठ व्यक्ति जिस प्रकार आरचण करती है, वैसा ही आरचण अन्य लोग करते है| वे जो प्रमाणभूत करती है, उसका ही अनुसरण लोग करते है| इस कारण इनमें कौन भला और कौन बुरा, यह बताना कठिन है| हम इतना ही कह सकते है की, कॉंग्रेस और भाजपा में अंतर होगा ही तो वह अनुपात का है, प्रकार का नहीं|

गुटबाजी

दुसरा मुद्दा गुटबाजी का है| वह दोनों पार्टियों में है| लेकिन हाल ही में, पुणे शहर भाजपा के अध्यक्ष की नियुक्ति के संदर्भ में गोपीनाथ जी की नाराजी समाचारपत्रों एवं प्रसारमाध्यमों में प्रमुखता से प्रकट हुई, उस समय उन्होंने, वे स्वयं अपनी नाराजी नहीं व्यक्त कर रहे, कार्यकर्ताओं की नाराजी व्यक्त कर रहे है, यह जोर देकर बताया था| मेरा उस समय भी प्रश्‍न था और आज भी है की, यह कार्यकर्ता किसके? गोपीनाथ जी के या भाजपा के? उनपर अन्याय हुआ तो उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष के पास जाना चाहिए या नहीं? मान ले वहॉं भी न्याय नहीं मिला तो केन्द्र से शिकायत करनी चाहिए या नहीं? गोपीनाथ जी ने उनकी पैरवी पार्टी स्तर पर करने के बारे में कोई आक्षेप नहीं लेता| लेकिन उन्होंने जो सार्वजनिक हो हल्ला मचाया उसका कारण क्या है?  कारण एक ही हो सकता है, वह है नेता का अहंकार और उसका पोषण करनेवाले अनुयायी| केवल महाराष्ट्र में ही ऐसे गुट होंगे ऐसा नहीं| राजस्थान में, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का पराभव करने की योजना में भैरोसिंह शेखावत, जसवंत सिंह, प्रदेशाध्यक्ष माथुर जैसे बड़े बड़े लोग शामिल थे, ऐसे समाचार थे और वह झूठ थे ऐसा किसी ने नहीं कहा| कॉंग्रेस में तो गुटबाजी का कहर ही है| उस पार्टी के सौभाग्य से वह केन्द्रीय स्तर पर प्रकट नहीं हुई, लेकिन प्रदेश स्तर पर वह खूब है| केन्द्रीय नेताओं को, सारे सूत्र अपने हाथों में रखने के लिए यह गुटबाजी लाभदायक ही होती है| इससे उन्हें छोटे नेताओं को एक के विरुद्ध दूसरे संघर्ष में लगा देना संभव होता है, जिससे किसे भी वरिष्ठ को आव्हान देने की शक्ति प्राप्त नहीं होती| श्रीमती इंदिरा गांधी ने महाराष्ट्र में यशवंतराव चव्हाण के समर्थ नेतृत्व को लगाम लगाने के लिए यही चाल चली थी| भाजपा में, सौभाग्य से, केन्द्रीय नेताओं का गुटबाजी को आशीर्वाद नही और पार्टी को कमजोर करने की साजिश भी नहीं होती, यह सच है|

पार्टी संगठन

गुटबाजी निर्माण होने अनेक कारण हो सकते है लेकिन, मेरे मतानुसार, एक महत्त्व का कारण - वैधानिक (लेजिस्लेटिव विंग) पक्ष, संगठनात्मक पक्ष (ऑर्गनायझेशनल विंग) से शक्तिशाली होना है| वैधानिक पक्ष का आकर्षण होना बिल्कुल स्वाभाविक है| कारण उससे ही मंत्री, विधायक, सांसद जैसे लाभ और प्रतिष्ठा के पद प्राप्त होते है| संगठन शास्त्र का जो थोड़ा बहुत ज्ञान और अनुभव मेरे पास संग्रहीत है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ की संगठनात्मक पक्ष वैधानिक पक्ष से शक्तिशाली होना चाहिए| कम से कम समतुल्य होना चाहिए| कॉंग्रेस ने पार्टी संगठन करीब समाप्त ही कर डाला है| एक औपचारिकता मात्र दिखाई देती है| मतलब वह दिखावटी है| इस संदर्भ में थोडा इतिहास देखनेलायक है| पंडित जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री थे उस समय, उनके जैसे ही वयोज्येष्ठ अनुभवी नेता पुरुषोत्तमआस टंडन कॉंग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे| पंडित जी और उनके बीच किसी बात को लेकर विवाद हुआ| तब टंडन जी को अध्यक्षपद छोडना पड़ा; और पंडित नेहरु ही प्रधानमंत्री और पक्षाध्यक्ष भी बने| वे पुरानी विचारधारा के थे, इसलिए यह व्यवस्था उन्हें जची नहीं और जल्द ही उन्होंने पक्षाध्यक्ष का पद छोड दिया| लेकिन उस पद पर अपने अनुकूल, तुलना में बौना, अध्यक्ष चुना| श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी वहीं परंपरा जारी रखी| कामराज जैसे जनसामान्य से उभरे समर्थ व्यक्ति के अध्यक्ष बनते ही, इंदिरा जी ने पार्टी तोडी और फिर देवकांत बरुआ, देवराज अर्स, शंकरदयाल शर्मा जैसे उनकी नजर से नजर मिलाने की हिंमत ना रखनेवाले अध्यक्ष बनाए| आगे चलकर यह उपचार भी उन्होंने बंद कर दिया| अपने ही पास प्रधानमंत्रीपद और अध्यक्षपद भी रखा| वहीं प्रथा राजीव गांधी ने चालू रखी| नरसिंहराव ने भी उसी का अनुसरण किया| सोनिया जी भी वहीं परंपरा चलाती, लेकिन वे कुछ तकनीकी कारणों से प्रधानमंत्री नहीं बन सकी| वे पार्टी की अध्यक्ष है और उनके पास कोई भी सरकारी अधिकारपद नहीं है, इसलिए उनका दबदबा है| इसी कारण संगठन में उपरी स्तर पर गुटबाजी नहीं| भाजपा में भी अटलबिहारी बाजपेयी ने संगठन के पक्ष की भरपूर उपेक्षा की थी| एक बार मंत्रिमंडल में बदल होतेसमय, नए मंत्री बने एक विशिष्ट व्यक्ति के बारे में कुछ बातें मेरे सुनने में आई थी| सहज मैंने राष्ट्रीय अध्यक्ष को दूरध्वनि कर पूँछा कि, मंत्रिमंडल के नए बदल के बारे में आपसे कुछ चर्चा हुई थी? उनका उत्तर था, मंत्रिमंडल में हुए बदल मैंने समाचार पत्रों में पढ़े!

कम्युनिस्ट पार्टी में

कम्युनिस्ट पार्टी में स्थिति इससे भिन्न है| वहॉं संगठन पक्ष अधिक शक्तिशाली है| प्रकाश कारत या अर्धेन्दुभूषण बर्धन, पार्टी संगठन में सर्वोच्च पद पर है; लेकिन वे ना सांसद है, ना विधायक| राज्य स्तर भी ऐसी ही स्थिति होगी, ऐसा मेरा तर्क है| केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंद और पार्टी के महासचिव विजयन् के बीच बेवनाव की चर्चा हमने पढ़ी है| ये विजयन् विधायक नहीं थे| ऐसी ही परिस्थिति बंगाल में भी थी| बुद्धदेव भट्टाचार्य के समान या संभवत: उनसे भी अधिक दबदबा बिमान सेन इस पार्टी के महासचिव का था और अभी भी है| मेरे मतानुसार पार्टी अनुशासन के लिए, गुटबाजी निर्माण नहीं होनी चाहिए इसलिए यह पद्धति अधिक उपयुक्त है| राज्य स्तरपर और उसी प्रकार केन्द्र स्तरपर कम से कम एक श्रेष्ठ पद ऐसा होना चाहिए की जिस पद पर की व्यक्ति लाभार्थी पद के बारे में निरपेक्ष होगी| संगठन में के पद का उपयोग लाभार्थी पद पर चढने की एक पायदान जैसा नहीं होना चाहिए| राज्यस्थान में पार्टी के अध्यक्ष को ही मुख्यमंत्री बनने की इच्छा हुई और वे चुनाव में खडे हुए| क्यों? मुख्यमंत्री बनने के लिए| परिणाम सबके सामने है| मैं पॉंच वर्ष भारतीय जनसंघ के नागपुर शहर और जिले का संगठनमंत्री था| मैं किसी भी लाभार्थी पद के लिए इच्छुक नहीं होने के कारण, व्यक्तिनिरपेक्ष विचार कर सकता था और मेरे शब्द को मान भी था| कॉंग्रेस और भाजपा इन दोनों पार्टिंयों के नीतिनिर्धारकों को अभी तक पार्टी संगठन का सही महत्त्व समझ आया है, ऐसा दिखता नहीं| इतना सही है की, कॉंग्रेस के समान भाजपा में गिरावट नहीं हुई है| लेकिन राह वही है, ऐसा दिखाई देता है|

सैद्धांतिक अधिष्ठान

राजनीतिक पार्टिंयों का उद्दिष्ट सत्ता प्राप्त करना, और बनाए रखना होने में अनुचित कुछ भी नहीं है| विपरित वह स्वाभाविक ही है| लेकिन सत्ता किसलिए, इस बारे में पार्टी का उद्दिष्ट स्पष्ट और निस्संदिग्ध होना चाहिए| यह स्पष्टता और निस्संदिग्धता पार्टी को आधारभूत सिद्धांतों से मिलती है| कॉंग्रेस के पास कोई सिद्धांत ही नहीं बचा है| वहॉं गांधीजी का नाम लिया जाता है, लेकिन कॉंग्रेस गांधीतत्त्वज्ञान कोे सौ प्रतिशत छोड चुकी है| यह अहेतुकता से नहीं हुआ है| पंडित नेहरु के जमाने में समाजवाद यह लक्ष्य था| श्रीमती इंदिरा गांधी ने वही उद्दिष्ट सामने रखा था| राजेरजवाड़ों की प्रिव्ही पर्स उन्होंने रद्द की| बँकों का राष्ट्रीयकरण किया| अनेक मूलभूत उद्योगों में सरकार ने पूँजी लगाई| आपात्काल की विशेष परिस्थिति का उनचित लाभ उठाकर संविधान की आस्थापना में (प्रिऍम्बल) बदल कर उन्होंने ‘सोशॅलिस्ट’ शब्द घुसेडा| अनाज का व्यापार भी अल्प समय के लिए ही सही, सरकार ने अपने अधिकार में लिया| लेकिन, समाजवाद के साफल्य के लिए जनतांत्रिक प्रणाली उपयुक्त नहीं| समाजवाद में आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति का एकत्रीकरण अभिप्रेत है| वह तानाशाही को जन्म देता है| इसलिए समाजवाद के पीछे उसे सौम्य बनानेवाला कोई विशेषण लगाना पड़ता है| वह उसकी सर्वंकषता मर्यादित करता है : जैसे जनतांत्रिक समाजवाद (डेमोक्रेटिक सोशॅलिझम्), गांधीवादी समाजवाद, फेबियन सोशॅलिझम् इत्यादि| इस समाजवादी आर्थिक नीति के कारण देश की अर्थव्यवस्था तहसनहस हुई| फिर १९९१ से नए मुक्त व्यापार का तत्त्व स्वीकारा गया| उसके अवश्य ही कुछ लाभ हुए है| लेकिन अब उनका भी पुनर्विचार आरंभ हुआ है| अर्थात यह हुई आर्थिक नीति| कॉंग्रेस के पास तात्त्विक आधार नहीं होने के कारण, उसका स्वरूप किसी सत्ताकांक्षी विशाल टोली के समान हो गया है| उनकी राजनीति को नैतिक अधिष्ठान यत्किंचित भी नहीं बचा है| स्वाभाविक ही राजनीतिक क्षेत्र में प्रचंड भ्रष्टाचार बढ़ा है|

भाजपा की स्थिति

भाजपा को उसके पूर्वावतार में - जनसंघ को - आधारभूत सैद्धांतिक अधिष्ठान था| उसका स्थूल नाम ‘हिंदुत्व’ है| उस सर्वव्यापक हिंदुत्व के प्रकाश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ का सिद्धांत रखा| अब वह शब्द पीछे छूट गया है| भाजपा में उसका उच्चार भी नहीं होता होगा| संघ में विशेषत: संघ शिक्षा वर्ग में, प्रतिवर्ष दो-तीन बौद्धिक वर्ग होते है| १९७७ में जनसंघ जनता पार्टी में विलीन हुआ| तीन वर्ष के भीतर ही उसे, उसमें से बाहर निकलना पड़ा| उसने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नाम धारण किया| पुराना भारतीय जनसंघ यह नाम क्यो छोड़ा? कारण एक ही दिखता है की, वह नाम लोकप्रिय नहीं होगा, ऐसा उस समय के पार्टी नीतिनिर्धारकों को लगा| लेकिन यह नाम का बदल वैसे खटकनेशवाला मुद्दा नहीं था| किंतु मूल अधिष्ठान ही बदला| ‘गांधीवादी समाजवाद’ यह सिद्धांत स्वीकारा गया| क्यों? कारण समाजवाद का बहुत आकर्षण लगा| उस दशक में सारी दुनिया में ही समाजवाद का आकर्षण था| १९८४ के आम चुनाव में हुए सफाए के बाद भाजपा का समाजवाद भी गया और गांधीवाद भी खत्म हुआ| फिर पुन: हिंदुत्व अपनाया गया; लेकिन ढूलमूल तरीके से, एक औपचारिकता के रूप में| ऐसी अनिशचितता से शायद मत मिल सकेंगे| लेकिन इभ्रत नहीं मिलती| फिर अयोध्या में की राम जन्मभूमि का मुद्दा स्वीकारा गया| अच्छी बात थी| अयोध्या में राममंदिर बनाना मतलब समग्र हिंदुत्व नहीं; लेकिन वह हिंदुत्व को पोषक था| अडवाणी ने रथयात्रा निकाली| लोग फिर भाजपा के साथ आए| वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुनकर आया| लेकिन सत्ता के मोह में उसने अपनी अस्मिता ही धूमिल कर डाली| सत्ताग्रहण के लिए जो पार्टियॉं भाजपा की सहायता में आई, उनकी नीतियॉं भाजपा ने स्वीकार की| धारा ३७० के निराकरण का आग्रह छोडा, हरकत नहीं, लेकिन कम से कम काश्मीरी हिंदुओं के पुनवर्सन को महत्त्व था या नहीं? ‘साझा’ कार्यक्रम में इस मुद्दे को स्थान क्यों नहीं? संपूर्ण ‘समान नागरी संहिता’ का मुद्दा बाजू में रख दिया| ठीक है| लेकिन कम से कम ‘विवाह और तलाक’ का समान कायदा क्यों नहीं? राम मंदिर नहीं बना सके तो वह भी समझा जा सकता है| लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की सूचना के अनुसार अविवादित अधिगृहित जमीन पहले के मालिकों को वापस लौटाने का क्यों नहीं सुझा? कारण एक ही सिद्धांतनिष्ठा छूटी| फिर स्वाभाविक ही भटकना आरंभ हुआ| जो अपना था उससे दूर हो गए, और नया कुछ भी नहीं मिला| अधोगति इतनी हुई कि, ६ दिसंबर का बाबरी ढ़ांचा उद्ध्वस्त करने का दिन, कुछ महान नेताओं के जीवन में का सर्वाधिक ‘क्लेशदायक’ और ‘दु:खदायक’ दिन बन गया! यह प्रश्‍न भी मन में नहीं आया कि, रथयात्रा क्यों निकाली थी? ढ़ांचा गिरता नहीं तो उसके नीचे दबे सबूत मिलते? और अलाहबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही जो निर्णय दिया, क्या वह निर्णय भी न्यायालय दे पाता? २००४ और २००९ के चुनावों के परिणाम अस्थिर राजनीति के फल है|

‘बी टीम’

सिद्धांत ना होने पर, सही में उससे निष्ठा, प्रतिबधता, और उसका स्मरण नहीं रहने से स्वार्थ बलवान होता है; अहंकार बढता है| फिर पार्टी हित ताक पर रख दिया जाता है और भ्रष्टाचार पनपता है| येदियुपरप्पा का उदाहरण ताजा है| शांताकुमार कर्नाटक के ही प्रभारी थे| उन्होंने वहॉं के अनुचित प्रकार की जानकारी निश्‍चित ही श्रेष्ठियों को दी होगी| लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया| ऐसा बताते है कि, येदियुरप्पा को पद छोडने केलिए कहने का निर्णय हो चुका था| लेकिन येदियुरप्पा ने विधानसभा बरखास्त करने की धमकी दी और श्रेष्ठि झुक गए| लोकायुक्त ने ही उन्हें दोषी बताने के बाद पद छोडना पड़ा| आज वे जेल में है| प्रश्‍न यह है की, सत्ता का मोह इतना प्रखर बने या इतना होने दे कि सारे पार्टी की ही बदनामी हो? कॉंग्रेस के पास सिद्धांत नहीं है| इसलिए कलमाडी, हसनअली और अभी भी उनके जो मित्र है वे राजा, मारन और कनीमोळी के कांड हुए| भाजपा को कॉंग्रेस का विकल्प बनना है| लेकिन क्या उसका अर्थ यह है कि, वह कॉंग्रेस के समान ही हो? अनेक लोग अब खुलेआम कहते है कि भाजपा कॉंग्रेस की ‘बी टीम’ बन गई है|

अस्मिता को ग्रहण

तात्पर्य यह कि, कॉंग्रेस का विकल्प चाहिए| वह भाजपा ही दे सकती है| लेकिन भ्रष्टाचारियों को पनाह देनेवाली, बाबरी ढ़ांचा गिरने का शोक मनानेवाली, बॅ. जिना की आरती उतारनेवाली, गुटबाजी से लिप्त और नेताओं के अहंकार का पोषण करनेवाली - भाजपा सही अर्थ में विकल्प नहीं बन सकती है| राजनीति की दलदल में, एक शुद्ध, प्रखर राष्ट्रवादी प्रवाह रहना चाहिए - ऐसा प्रवाह की जो दलदल में की गंदगी साफ करेगा - इसके लिए ही जनसंघ बना था| इसके लिए संघ ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख जैसे अनेक श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं को, उनकी राजनीति के कीचड में उतरने की इच्छा ना होते हुए भी उस क्षेत्र में काम करने के लिए प्रेरित किया| ‘अ’ या ‘ब’ को सत्ता प्राप्त हो, वह और उसके रिश्तेदार करोडपति बनकर शान से घूमे, इसके लिए नहीं| मेरा विचारपूर्वक मत बना है कि, १९९८ को जिस घोेषणापत्र के आधार पर भाजपा ने चुनाव लढ़ा था, और जिसके आधार पर उसे १८० सिटें मिली और वह सबसे बड़ी पार्टी बनी, वह घोषणापत्र बाजू में ना रखकर भाजपा खड़ी रहती, तो शायद उस वर्ष उसे सत्ता नहीं मिलती| लेकिन दूसरी कोई भी पार्टी स्थिर सरकार नहीं पाती और शीघ्र ही फिर चुनाव होता| वैसे भी १९९९ में फिर चुनाव हुआ ही| उस चुनाव में, भाजपा ने अपनी अस्मिता का परिचय देनेवाला घोषणापत्र ही बाजू में रख दिया| कितना लाभ हुआ? १८० से १८२! लेकिन अपने सिद्धांत और नीति पर वह कायम रहती तो २०० से आगे निकल जाती|
तात्पर्य यह कि, भाजपा अपने मूल ‘हिंदुत्व’ के सिद्धांतभूमि पर खड़ी रहे; ‘हिंदुत्व’ मतलब राष्ट्रीयत्व यह जनता को समझाकर बताते आना चाहिए| ‘हिंदू’ कोई पंथ नहीं, रिलिजन नहीं, मजहब नहीं, वह धर्म है मतलब वैश्‍विक सामंजस्य का सूत्र है| हिंदुत्व मतलब आध्यात्मिकता और भौतिकता का संगम, चारित्र्य और पराक्रम का समन्वय, निष्कलंक सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत चारित्र्य का आदर्श, विविधता का सम्मान, सर्व संप्रदाय का समादर और इसी कारण पंथनिरपेक्ष राज्यरचना का भरोसा, यह आत्मविश्‍वास से बताते आना चाहिए| अटलबिहारी जी ने, गुजरात दंगों के संदर्भ में वहॉं के मुख्यमंत्री को ‘राजधर्म’ की याद दिलाई थी| क्या अर्थ है उस शब्द का? क्या ‘राजधर्म’ मतलब राजा का रिलिजन हुआ? या राजा ने पालने का उपासना का कर्मकांड? धर्म का व्यापक अर्थ बताते आना चाहिए| ‘राष्ट्र’ और ‘राज्य’ इन दो संकल्पनाओं के बीच का अंतर स्पष्ट करते आना चाहिए| राज्य, राजनीति, सरकार यह सब राष्ट्रानुकूल होने चाहिए| राष्ट्र मतलब लोग होते है, Peoele are the Nation   यह मन में धारण कर और जनता की भाव-भावनाओं का विचार कर सारी राजनीति चलनी चाहिए| भाजपा ऐसा करना तय करेगी तब ही वह सही मायने में अलग प्रकार की पार्टी  (Party with a difference) बनेगी| ऐसी पार्टी कॉंग्रेस का विकल्प बनकर आगे आनी चाहिए| कॉंग्रेस में भ्रष्टाचार बड़ी मात्रा में है, हममें थोड़ा रहा तो क्या बिगड़ा, ऐसी मनोधारणा रखनेवाली पार्टी भारतीय जनता को नहीं चाहिए| कॉंग्रेस पार्टी के रास्ते से भाजपा वापस लौटी तो ही उसकी अलग पहेचान सिद्ध होगी| बहुसंख्य जनता की यहीं इच्छा है, अपेक्षा है|

         ('दैनिक देशोन्नती' के दीपावली अंक से साभार)
- मा. गो. वैद्यनागपुर
e-mail: babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)