Sunday, 11 December 2011

सरकार बची, लेकिन इज्जत गई

   भाष्य १४ दिसंबर के लिए   ....................................

आखिर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने खुदरा वस्तुओं के व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश (एफडीआय) का निर्णय वापस लिया| प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जनता के लाभ में है, किसानों के हित मे है, ऐसा दावा यह सरकार कर रही थी| तो विरोधी पार्टियॉं सरकार के इस निर्णय का विरोध कर रही थी| विरोधकों ने इसके लिए करीब डेढ सप्ताह संसद का काम नहीं चलने दिया|

कार्यक्षम उपाय?

व्यक्तिगत रूप में, मेरा अभी भी मत है कि, संसद में हो या विधिमंडल में, विरोध करने के शस्त्र अलग है| नारे लगाना, सभापति के आसन के सामने की खुली जगह में आना, सभापति का दंड हथियाना या धरने जैसे हंगामा करने के प्रकार करना, और संसद या विधिमंडल का काम नहीं चलने देना आक्षेपार्ह है| विरोध प्रकट करने के यह प्रकार एक समय सदन केबाहर चलने भी दिए जा सकते है| लेकिन सभागृह में वे चलने नहीं देने चाहिए| यह केवल सभापति का अपमान नहीं; संपूर्ण संसद का विधिमंडल मतलब संसदीय जनतंत्र का अपमान है; और सभापति ने यह चलने नहीं देना चाहिए| लेकिन अब ऐसा लगता है कि, युपीए के जैसी निगोडी सरकार को सीधा करने का यही एकमात्र कार्यक्षम मार्ग है|

सरकार ही जिम्मेदार

केवल, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश के मुद्दे का ही अपना ‘दृढ’ निश्‍चय सरकार को बदलना पड़ा ऐसा नहीं| २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जॉंच करने के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करे, विरोधकों की औचित्यपूर्ण मांग भी मनमोहन सिंह की सरकार ने मग्रुरी के साथ अमान्य कर दी थी और संसद का करीब एक सत्र व्यर्थ गवाया| सतही स्तर पर लगता है कि, विरोधकों की आक्रमकता इसके लिए कारण है| लेकिन अब विचारान्त ऐसा लगता है कि, इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार है| २ जी स्पेक्ट्रम प्रकरण, संयुक्त संसदीय समिति को सौपने की मांग में गलत क्या था? और अगर वह गलत था तो सरकार ने, देर से ही सही, वह मान्य क्यों किया?

इज्जत गवाई

किसी भी स्वाभिमानी सरकार ने त्यागपत्र दिया होता, लेकिन स्वयं को अयोग्य लगनेवाली बात मान्य नहीं करती| लेकिन इस सरकार में स्वाभिमान ही नहीं| केवल कुर्सी बचाए रखना यही उसकी एकमात्र नीति दिखाई देती है| ऐसा केवल तर्क करने का भी अब कारण नहीं बचा है| अर्थमंत्री प्रणव मुखर्जी ने स्वयं ही मान्य किया| उन्होंने अपनी पार्टी के सांसदों के सामने भाषण करते समय स्पष्ट कहा कि, लोकसभा का मध्यावधि चुनाव टालने के लिए सरकार को यह निर्णय लेना पड़ा| प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा इतना देश के हित में था और उससे किसान और सामान्य जनता का भी हित साध्य होनेवाला था, तो सरकार अपने निर्णय पर कायम रहती| होता सरकार का पराभव और मध्यावधि चुनाव| उससे सरकार का क्या बिगडता? क्या इसके पूर्व मध्यावधि चुनाव हुए नहीं? १९८९ के बाद केवल दो वर्ष मतलब १९९१ में चुनाव हुआ| १९९६ के बाद पुन: १९९८ में चुनाव हुआ. और उसके बाद केवल डेढ वर्ष बाद १९९९ में फिर चुनाव हुआ| किसान और जनता के हितों के लिए प्रतिबद्ध इस सरकार को पुन: चुनाव का सामना करना पडता, तो वह भी तीन वर्ष सत्ता भोगने के बाद| और इसके लिए सरकार को कोई दोष भी नहीं देता| विपरीत, अपने ‘न्याय्य और जनहितैषी’ निर्णय के लिए सरकार ने अपनी सत्ता का बलिदान दिया, ऐसा लोगों को बताने का उसे मौका मिलता| लेकिन ये लाचार सरकार यह कर नहीं सकी| उसने अपनी सत्ता कायम रखी; लेकिन इज्जत गवाई|

गठबंधन का धर्म

सब जानते है कि , यह अकेली कॉंग्रेस पार्टी की सरकार नहीं है| बहुमत के लिए आवश्यक कम से कम २७३ सिटों में से कॉंग्रेस पार्टी के पास केवल २०६ सिटें ही है| राष्ट्रवादी कॉंग्रेस, तृणमूल कॉंग्रेस और द्रमुक की मदद से यह सरकार चल रही है| ऐसी संमिश्र सरकार होना यह कोई अनोखी बात नहीं| आज का समय ही ऐसा नहीं है कि किसी एक पार्टी की सरकार सदा रहेगी| अन्य देशों में भी, उदाहराणार्थ इंग्लंड या जर्मनी में भी, संमिश्र सरकारे हैं| लेकिन सरकार में जो पार्टी सबसे बड़ी होती है, वह अपनी सहयोगी पार्टियों की भूमिका समझकर निर्णय लेती है| लेकिन युपीए - २ की सरकार को यह समझदारी नहीं सूझी| यह अनेक पार्टियों का गठबंधन है, इस कारण अन्य सहयोगी पर्टियों की राय क्या है, यह जान लेने की आवश्यकता सरकार में की सबसे बडी पार्टी कॉंग्रेस को महसूस नहीं हुई| वे अपनी ही मस्ती में निर्णय लेते रहे| प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश जैसे, देश की आर्थिक व्यवस्था पर गहरा परिणाम करनेवाला निर्णय लेने के पूर्व, सरकार ने, विरोधी पार्टियों, कम से कम प्रमुख विरोधी पार्टियों से चर्चा करनी चाहिए थी| कारण, यह केवल पार्टी के हित का प्रश्‍न नहीं था| संपूर्ण देश की आर्थिक व्यवस्था का प्रश्‍न था| सरकार ने यह तो किया ही नहीं| लेकिन अपने मित्र पार्टियों का भी मत नहीं जान लिया| सरकार की मित्रपार्टियों में से प्रमुख दो -तृणमूल कॉंग्रेस और द्रमुक  - ने इस प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का विरोध किया था| लेकिन सरकार ने उसे भी नहीं माना| द्रमुक, थोडा समझाने के बाद झुकी, लेकिन तृणमूल की बबता बॅनर्जी दृढ रही; और एक प्रकार से विरोधी पार्टियों ने रखे काम रोको प्रस्ताव को समर्थन दिया| काम रोको प्रस्ताव देना यह वैध संसदीय शस्त्र है| वह मंजूर होता तो सरकार को त्यागपत्र नहीं देना पड़ता|  काम रोको प्रस्ताव मतलब अविश्‍वास प्रस्ताव नहीं| इस कारण, उसका समाना कर सरकार शक्तिपरिक्षण हो जाने देती| लेकिन सरकार ने यह सम्मानजनक मार्ग नहीं अपनाया| उसने सत्ता की लालच में, अपने ‘दृढ’ निर्णय को ही स्थगिति दी| इसमें  सरकार तो बची, लेकिन इज्जत गई|

विचारविनिमय आवश्यक

संमिश्र सरकार चलानी हो तो कुछ आवश्यक व्यवस्थाऐं करनी पड़ती है| मित्रों के साथ विचारविनिमय करने के लिए कोई यंत्रणा बनानी पड़ती है| ऐसी यंत्रणा होती तो सरकार को ऐसी लज्जाजनक स्तिति का सामना नहीं करना पड़ता| ऐसी जानकारी है कि, सरकार ऐसी कोई समिति निर्माण करनेवाली है| अच्छी बात है| कारण, संमिश्र सरकार के निर्णय, केवल एक पार्टी के निर्णय नहीं हो सकते| और, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश केवल केन्द्र तक ही सीमित मुद्दा नहीं था| वह संपूर्ण देशव्यापी मुद्दा था| अपने देश में अनेक राज्य है| सब राज्यों में कॉंग्रेस पार्टी या कॉंग्रेस के मित्र पार्टीयों की सरकारें नहीं है| पश्‍चिम बंगाल का एक अपवाद छोड दे तो भी, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, त्रिपुरा, ओरिसा, तामिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ - इन राज्यों में कॉंग्रेस के विरोधियों की सरकारें हैं| देश की ६० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या के भाग में कॉंग्रेस की अपनी सत्ता नहीं या मित्र पार्टियों के साथ भी कॉंग्रेस सत्ता में भी नहीं| सब मित्र पार्टियॉं मिलकर, तृणमूल कॉंग्रेस भी कॉंग्रेस पार्टी के साथ है, ऐसी कल्पना कर भी, कॉंग्रेस और मित्र पार्टियों की सत्ता रहनेवाले राज्यों की जनसंख्या संपूर्ण देश की जनसंख्या के ३८ प्रतिशत से अधिक नहीं होती| इस स्थिति में संपूर्ण देश की अर्थव्यवस्था का विचार करते समय, जहॉं विरोधी पार्टियों की सरकारे है, वहॉं के मुख्यमंत्रियों के साथ चर्चा करना आवश्यक नहीं था? प्रधानमंत्री ने बाद में स्पष्ट किया कि, राज्यों को, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा मानना या नहीं इसकी स्वतंत्रता है| लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी| सब मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई होती, तो केन्द्र सरकार को सही स्थिति समझ आती| पूर्वोत्तर भारत में जो छोटे-छोटे राज्य है और वहॉं अधिकांश राज्यों में कॉंग्रेस पार्टी की सरकारे है, उनका भी प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश को विरोध था| वह क्यों? उनका मनमोहनकृत स्पष्टीकरण से समाधान क्यों नहीं हुआ? केन्द्र में सत्ता है इस कारण किसी परवाह नहीं करना यह नीति ना समझदारी की है, ना देश के विस्तार का ध्यान रखने की और ना जनमत जान लेने की| केवल अहंकार और उसमें से निर्माण हुए मग्रुरी की यह नीति है|

मीठी बातें निरर्थक

इस फजिहत पर भाष्य करते हुए कॉंग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि, ‘‘सरकार जनता की इच्छा के सामने झुकी; और जनता के सामने झुकना, यह पराभव नहीं है|’’ लेकिन यह लिपापोती भी बहुत विलंब से हुई| २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या अभी का प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा, संसद का कामकाज अनेक दिन बंद पड़ा, इसके लिए कॉंग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है, ऐसा ही लोग मानेेगे| और उनके मन सदैव यह प्रश्‍न बना रहेगा कि, इसमें कॉंग्रेस ने क्या हासिल किया? लोग अभी ही संदेह व्यत कर रहे है कि, तेलंगना या महँगाई अथवा किसानों की आत्महत्या के मुद्दों पर मुश्किल में ना फंसे, इसीलिए कॉंग्रेस ने यह नाटक किया| उसे, संसद का शीतकालीन अधिवेशन शुरू होने के पहले दिन ही इसका अहसास हो जाना चाहिए था| इस कारण, कॉंग्रसाध्यक्ष कितनी ही मीठी बातें क्यों ना करें, लोग यही समझेगे कि, और दो-सवा दो वर्ष सत्ता भोगने के लिए ही सरकार ने अपनी बेइज्जति होने दी| निर्णय लेने की यह अस्थिरता किसी भी सरकार की प्रतिष्ठा और गौरव बढ़ानेवाली नहीं|
सरकार ने बताया है कि, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा उसने छोडा नहीं, केवल स्थगित किया है| लेकिन विरोधी पार्टियों के सदस्यों को यह मान्य नहीं और सरकार के इस भाष्य में कोई दम भी नहीं| दक्षिणपंथी कम्यनिस्ट पार्टी के सांसद गुरुदास दासगुप्त ने स्पष्ट कहा है कि, ‘‘वास्तव में यह पूरी से पीछे हटना है| सरकार केवल अहंकार में बहाने बना रही है|’’ वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने कहा कि, संसद का संपूर्ण सत्र बेकार गवाने के बदले सरकार झुकी इसका हमें आनंद है| उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि, इस बारे में राज्य सरकारों का मत भी जान लेना चाहिए| सरकार कहती है कि, वह सबकी सहमति प्राप्त करने का प्रयत्न करेगी और बाद में ही निर्णय लेगी| यह अच्छा विचार है| लेकिन सबकी सहमति मिलना संभव नहीं, यह सूर्यप्रकाश के समान स्पष्ट है| इस कारण, सरकार इस मुद्दे पर तो, सब मुख्यमंत्रियों और सब विरोधी पार्टी के नेताओं को बुलाकर सहमती के लिए प्रयास करने की कतई संभावना नहीं| हम यहीं माने कि, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा अब पीछे छूट गया है| २०१४ के चुनाव के बाद ही, वह फिर उठाया जा सकता है या सदा के लिए खत्म किया जा सकता है|


- मा. गो. वैद्य

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

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