भारत के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (भाक्रिबो) ने,
पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (पाक्रिबो) को सूचित किया है कि, भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तानी टीम के साथ क्रिकेट खेलने के लिए तैयार है और
उसके अनुसार भाक्रिबो ने पाक्रिबो को निमंत्रण भी दिया है. हमारा मत है कि
भाक्रिबो की यह कृति,
देशभक्ति का विचार क्षणभर परे छोड़ दे तो भी, निर्लज्जता की द्योतक है. गत पॉंच वर्ष भारत और पाकिस्तान
के टीम के बीच क्रिकेट खेलना बंद था. भारत का क्या बिगड़ा? ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका,
दक्षिण आफ्रिका, इंग्लैंड आदि देशों की टीम के साथ भारत ने क्रिकेट खेला ही! फिर, पाकिस्तान के साथ क्रिकेट नहीं खेले तो क्या बिगड़ता है? क्रिकेट का क्या नुकसान है?
मुख्य प्रश्न
पहला प्रश्न यह है कि, गत पॉंच वर्ष इन दो देशों के बीच क्रिकेट क्यों नहीं खेला
गया?
क्या कारण था? निश्चित ही कारण था और वह एक महागंभीर कारण था. वह था, पाकिस्तानी आतंकवादीयों ने मुंबई पर हमले कर अनेक निरपराध
लोगों की जान ली थी. इन हिंसक हमलावरों को पाकिस्तान सरकार का केवल समर्थन ही नहीं
था,
तो उस हमले की संपूर्ण रणनीति में पाकिस्तान की सेना का
सहभाग था. उन हमलावरों में से जिंदा पकड़ा गया आरोपी अजमल कसाब ने तो यह सब बताया
ही है. लेकिन हाल ही में पकड़ा गया झैयबुद्दीन अंसारी उर्फ अबू जुन्दाल ने भी ऐसी
ही कबुली दी है. उसने अपने कबुलनामें में बताया है कि, लष्कर-ए-तय्यबा के अगुआ इस हमले की पीछे थे. उन्हें
पाकिस्तान की सेना का मागदर्शन मिल रहा था. लष्कर-ए-तय्यबा का एक सदस्य डेविड
कोलमन हेडली ने भी इसे पुष्टी दी है. कोई कहेगा कि इसमें पाकिस्तान सरकार का क्या
दोष है?
फिर मुंबई हमले के पीछे का सूत्रधार हफीज सईद अभी तक आजाद
क्यों है?
पाकिस्तान सरकार उस क्रूरकर्मा को निर्दोष मानती है. भारत
ने उसके विरुद्ध अनेक ठोस सबूत देने के बाद भी पाकिस्तान की वृत्ति में कोई अतंर
नहीं आया है. २६ नवंबर के मुंबई हमले की जॉंच अभी भी चल ही रही है. इस कारण
प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी सुनील गावस्कर ने जो कहा है, वह बिल्कुल सही है. उन्होंने कहा है, ‘‘मैं मुंबई का निवासी होने के कारण, मुझे लगता है कि, मुंबई पर के हमले की जॉंच के संदर्भ में दूसरी ओर से सहयोग नहीं मिल रहा है, इस स्थिति में इस आयोजन की क्या आवश्यकता आ पड़ी है?’’ गावस्कर का प्रश्न समयोजित है.
संपूर्ण देश पर का हमला
और कुछ होशियार प्रश्न करेंगे कि, पाकिस्तान और भारत के संबंध सामान्य और मित्रतापूर्ण हो, ऐसा आपको नहीं लगता? मेरा उन्हे प्रतिप्रश्न है कि, इन दो देशों में के संबंध सामान्य बनाने की जिम्मेदारी क्रिकेट कंट्रोल बार्ड
पर कब से आई है?
संबंध सामान्य कैसे करना है, यह दोनों देशों की सरकारें देखेंगी. क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने उसमें दखल देने
का क्या कारण है?
गावस्कर ने मुंबई निवासी होने के नाते यह प्रश्न पूँछा है.
कारण हमला मुंबई पर हुआ था और भाक्रिबो का मुख्यालय मुंबई में ही है. उसी मुख्यालय
ने फिर क्रिकेट मॅच खेलना शुरु करने का उपद्व्याप किया है, तथापि आतंकवादीयों का यह हमला केवल मुंबई के ऊपर नही; वह संपूर्ण देश पर हुआ
हमला है. वह मुंबई के बदले दिल्ली या श्रीनगर पर हुआ होता, तो भी संपूर्ण देश पर हुआ हमला ही माना जाता.
मुख्य विषय
क्रिकेट का विषय छोड़ दे, तो भी
भारत-पाक संबंधों का विषय छूट नहीं जाता; छूटना भी नहीं चाहिए. यह संबंध अच्छे नहीं है. वह अच्छे हो ऐसा पाकिस्तान को
उसके जन्म के बाद से कभी भी नहीं लगा. वह कुछ सामान्य हुए ऐसा ऊपरी तैर पर दिखता
हो,
तो उसका कारण यह नहीं की पाकिस्तान का हृदय परिवर्तन हुआ
है. यह तो अमेरिका के दबाव में, पाकिस्तान का
दिखावा है. एक समय ऐसा भी था कि, भारत को नीचा
दिखाने की नीति अँग्लो-अमेरिकनों ने अपनाई थी; और इसके लिए वे माध्यम के रूप में पाकिस्तान का उपयोग कर रहे थे. उनके इस
समर्थन के भरोसे ही पाकिस्तान की सरकारें बार-बार भारत विरोधी कारवाईयॉं करने की
हिंमत करती थी. हमने एक मूलभूत बात पक्की समझ लेनी चाहिए कि, पाकिस्तान का जन्म ही भारत-द्वेष, सही में, हिंदू-द्वेष, से हुआ है. भारत में की सरकारें स्वयं को कितनी ही ‘सेक्युलर’ माने, पाकिस्तान उन्हें हिंदुओ की सरकार मानती है. उनकी इस जन्म-दोषविकृति में से
पाकिस्तान की सरकार और पाकिस्तानी सेना अभी बाहर नहीं निकली है.
थोड़ा इतिहास
थोड़ा इतिहास देखें. बहुत पुराना नहीं. बिल्कुल अभी-अभी का. ६०-६५ वर्ष पूर्व
का. जम्मू-कश्मीर के महाराज ने, अपनी रियासत, भारत या पाकिस्तान में से कहीं भी विलीन न कर उसे स्वतंत्र
रखना तय किया था. भारत पर राज करने वाली अंग्रेज सरकार ने, भारत को स्वतंत्रता का दान करते समय, जिस प्रकार मुस्लिमबहुल और हिंदूबहुल इस प्रकार दो राज्यों
की योजना बनाई,
उसी प्रकार दोनों देशों में जो रियासतें थी और जिन्होंने
अंग्रेज सरकार का सार्वभौमत्व मान्य कर, उनकी मांडलिकता स्वीकार कर, अंतर्गत
कारोबार में स्वायत्तता प्राप्त की थी, उन रियासतों को,
पाकिस्तान या भारत में विलीन होने के विकल्प के साथ ही
स्वतंत्र रहने का भी विकल्प दिया था. इस तिसरे विकल्प का लाभ लेकर कश्मीर के नरेश
ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया और अपनी स्वतंत्रता को भारत और पाकिस्तान इन
देशों की सरकारें मान्यता दें, इस आशय का
प्रस्ताव दोनों देशों को भेजा. भारत ने इस प्रस्ताव का कोई उत्तर नहीं दिया. लेकिन
पाकिस्तान के गव्हर्नर जनरल बॅरिस्टर जिना ने तुरंत पत्र भेजकर जम्मू-कश्मीर राज्य
के स्वतंत्र अस्तित्व को मान्यता दी; और उस पर विश्वास रखकर, मुसलमान
शासकों के गत एक हजार वर्षों के वर्तन की अनदेखी कर, कश्मीर के महाराजा ग़ाफिल रहे और पाकिस्तान ने टोलीवालों की आड में इस राज्य पर
आक्रमण किया. उसे अँग्लो-अमेरिकियों की छुपी मान्यता थी. आखिर कश्मीर के महाराजा
ने अपनी रियासत भारत में विलीन की. उसके बाद भारतीय सेना वहॉं गयी और उसने पाकी
आक्रमकों को खदेड दिया. सेना संपूर्ण कश्मीर ही मुक्त करती लेकिन राज्यकर्ताओं को
दुर्बुद्धि सूझी और उन्होंने बीच में ही सेना की विजय-यात्रा रोक दी तथा अकारण, मामला राष्ट्रसंघ में ले गए. वह वहॉं ६५ वर्षों से पड़ा है.
कश्मीर का,
न्याय्य प्रक्रिया से भारत में विलीन हुआ एक तिहाई हिस्सा, अभी भी पाकिस्तान के ही कब्जे में है.
पाकिस्तान के आक्रमण
लेकिन क्या पाकिस्तान चुपचाप रहा? १९६२ में चीन से भारत पूर्णत: पराभूत होने के बाद, भारत एक दुर्बल देश है, ऐसा मानकर,
पाकिस्तान ने भारत पर पुन: आक्रमण करने का दु:साहस किया.
बात १९६५ की है. पाकिस्तान के फौजी तानाशाह अयूब खान ने तो श्रीनगर की मस्जिद में
नमाज पढ़ने की घोषणा भी कर दी थी. लेकिन भारत की सेना ने पाकिस्तान के सब मनसूबें
धूल में मिटा दिए. फिर छह वर्ष बाद वैसा ही प्रसंग आया. वैसे यह युद्ध पूर्व
पाकिस्तान मतलब आज के बांगला देश की जनता के विरुद्ध था. दोनों ही मुस्लिमबहुल
प्रदेश. पश्चिम पाकिस्तान भी मुस्लिमबहुल और पूर्व पाकिस्तान भी मुस्लिमबहुल. फिर भी, पूर्व पाकिस्तान के नेता, इस्लामाबाद में आकर राज न करें इसलिए, वहॉं के नेताओं को पाकिस्तान सरकार ने जेल में ठूँसकर, वैश्विक मुस्लिम चरित्र के अनुसार फौजी शासन के ताकत का
प्रयोग और जनता पर अत्याचार कर विद्रोह को कुचलने का पूरा प्रयास किया. इस कठिन
समय में,
भारत हिंमत के साथ बंगलाभाषीय मुसलमानों के समर्थन में खड़ा
हुआ. भारत की सेना ने पश्चिम पाकिस्तान की सेना का पूर्ण पराभव किया. वे शरण आये.
९० हजार पाकिस्तानी युद्ध-कैदी बनें. फिर १९७२ में सिमला समझौता हुआ. पाकिस्तान को
उसके सब युद्ध-कैदी सुरक्षित वापस मिलें. फिर भी पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने आई? अमेरिका का पाकिस्तान को समर्थन देना रुका? नहीं. अफगाणिस्तान में से रूस का वर्चस्व समाप्त करने के
लिए उसे पाकिस्तान की सहायता चाहिए थी. वह पाकिस्तान ने दी. अमेरिका की इस सहायता
के कारण,
अफगाणिस्तान रूस से मुक्त हुआ, लेकिन इस फौजी और आर्थिक मदद से उन्मत तालिबान और अधिक
ताकतवर हुआ. अफगाणिस्तान में उसकी सत्ता स्थापन हुई. २००१ में अमेरिका पर जिहादी
हमला होने के बाद अमेरिका जागी.
पाकिस्तान का जीवनाधार
लेकिन वह दूसरा विषय है. मुझे दृढता से यह बताना है कि, १९७१ के निर्णायक पराभव के बाद भी पाकिस्तान की वृत्ति में
कोई बदलाव नहीं हुआ है और वह होना संभव भी नहीं. अटलबिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री
थे उस समय,
उन्होंने पाकिस्तान के साथ मित्रता करने के प्रयास किए. एक
बस से वे लाहोर भी गये. मित्रता के इस संकेत को पाकिस्तान ने कारगिल पर हमला कर
उत्तर दिया. यह बात बहुत पुरानी नहीं. केवल दस वर्ष पूर्व की है.
ऊपर बताए अनुसार अमेरिका के दबाव में पाकिस्तान की सरकार को मित्रता का नाटक
करना पड़ रहा है. पाकिस्तान की सरकार, पाकिस्तान की सेना और पाकिस्तान में के धार्मिक नेता भारत-द्वेष मिटा नहीं
सकते. कारण,
उनके मतानुसार, भारत-द्वेष ही पाकिस्तान के जीवित का आधार है. इसमें इस्लाम या मुसलमानों के
बारे में प्रेम यह भाग कम है. इस्लाम की सीख के कारण मुसलमानों में असहिष्णुता का
विष संचरित हुआ है या जिस अरबस्थान में इस्लाम का जन्म हुआ उस अरबस्थान में के
लोगों के हिंसक चरित्र का यह प्रभाव है, यह संशोधन का विषय है. आज इस्लामी देशों में क्या परिस्थिति है? सिरिया में मुसलमान ही मुसलमानों की जान ले रहें हैं. वही
स्थिति येमेन में है. इराक में भी ऐसा ही चल रहा है और अफगाणिस्तान में भी वही.
पराक्रम का स्वभाव
इस्लाम की सीख के कारण पराक्रम स्वभाव बनता होगा; उसके प्रभाव से ही धर्म के लिए आत्मबलिदान देने के लिए लोग
प्रवृत्त होते होंगे,
ऐसा मान्य करना पड़ेगा. पराक्रमी लोगों का एक स्वभाव बन जाता
है. पराक्रम प्रकट करने के लिए उन्हें कोई शत्रु चाहिए. कारण शत्रु होगा, तब ही पराक्रम दिखाने के लिए क्षेत्र उपलब्ध होगा. और पारंपरिक
शत्रु उपलब्ध नहीं होगा,
तो अपनों में ही शत्रु खोजा जाता है. फिर कादियानी, सूफी, शिया ये
सुन्नीयों के शत्रु बनते है, और सुन्नी
शियाओं के. इराक और इराण के बीच का झगड़ा शिया विरुद्ध सुन्नी का है. अफगाणिस्तान
में झगड़ा तालिबान विरुद्ध अमेरिका-अनुकूल करजाई की सत्ता है. पूर्व पाकिस्तान-पश्चिम
पाकिस्तान की कलह बंगालीभाषी विरुद्ध पंजाबीभाषी का था. दोनों पक्ष मुसलमान ही है. हिंदू भारत पर पाकिस्तान सीधे
आक्रमण नहीं कर सकता कारण उसने उन आक्रमणों का कटु अनुभव लिया है. इसलिए वह छिपे
आतंकवाद का सहारा ले रहा है. लेकिन पाकिस्तान पर फिलहाल अमेरिका का दबाव होने के
कारण,
पाकिस्तान खुल्लमखुला, आतंकी कारवाईयों को समर्थन नहीं दे सकता. फिर वहॉं की लड़ाकू जनता आपस में ही
लड़ेंगी. कभी भाषा,
तो कभी पंथ भेद पर. लेकिन लड़ेंगे यह निश्चित. वैसे भी
पाकिस्तान असफल राज्य (failed
state) सिद्ध हुआ है. उसे बचाने के लिए हमने मतलब भारत ने प्रयास
करने का कारण नहीं. पश्चिम पाकिस्तान में के घटक प्रान्त ही उसे मिटाएंगे. शायद
वे बांगलादेश की तरह भारत की सहायता भी मांगेगे. पाकव्याप्त काश्मीर में के लोगों
ने तो अपनी भावना सीधे दिल्ली आकर प्रगट की थी. बहुत दिन नहीं हुए. केवल तीन वर्ष
पूर्व,
२००९ में.
तात्पर्य यह कि,
पाकिस्तान को उसकी रीति-गति से चलने दे. नियति को उसका
कार्य करने दे. हमें संबंध सामान्य बनाने के लिए बढ़-चढ़कर अकारण उठापटक करने का
कारण नहीं. क्रिकेट खेलनेवालों ने इस उठापटक में पड़ना तो बिल्कुल अनावश्यक है.
उनमें देशभक्ति की भावना की बहुत ही न्यूनता है, इसका यह परिचायक है. पाकिस्तान के साथ बात बनानी ही होगी, तो भारत की दो शर्ते होनी चाहिए- (१) पाकिस्तान ने अपने देश में के आतंकवादीयों के शिबिर
नष्ट करने चाहिए. भारत को होने वाली आतंकवादीयों की निर्यात कठोरता से रोकनी होगी.
दाऊद इब्राहिम,
हफीज सईद, आदि
आतंकवादीयों के पुरस्कर्ताओं को स्वयं दंडित करना चाहिए और (२) कश्मीर का जो भाग
उसके अवैध कब्जे में है,
वहॉं से उसने चले जाना चाहिए. संपूर्ण जम्मू-कश्मीर राज्य
भारत में विलीन हुआ है. भारत की यह मौलिक भूमिका है. वह उसने राष्ट्रसंघ में भी
प्रस्तुत की है और पुन: भारत की सार्वभौम संसद ने एकमत से २२ फरवरी १९९४ में
प्रस्ताव पारित कर उसे अधोरेखित किया है. यह दो शर्ते मान्य करने तक पाकिस्तान ने
मित्रता का फालतू दिखावा करने का कारण नहीं.
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com
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