Tuesday, 11 September 2012

प्रजातंत्र की प्राणशक्ति के बचाव के लिए


राम बहादुर राय एक निर्भीड एवं निर्भय पत्रकार है. जयपुर से प्रकाशित होने वाले पाथेय कणपाक्षिक के १ अगस्त के अंक में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ है. शीर्षक पर दिए संख्या से ध्यान में आता है कि, इस विषय पर उनका यह तीसरा लेख है; मतलब उनके प्रदीर्घ लेख का तीसरा भाग है. पाथेय कणमेरे घर नियमित आता है. लेकिन पहले दो लेख मैंने पढ़े नहीं. यह तीसरा पढ़ा और मुझे वह परिपूर्ण लगा. यह भाष्यउसी लेख का सार है.

पहला प्रेस आयोग
मीडिया की दयनीय स्थितिउस लेखमाला का शीर्षक है. श्री राय लिखते है -
पहले प्रेस आयोग में आचार्य नरेन्द्र देव एवं डॉ. जाकीर हुसैन (जो आगे चलकर राष्ट्रपति बने) जैसी हस्तियॉं थीं. तीन वर्ष अध्ययन कर इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी. उस रिपोर्ट में अनेक मुद्दे हैं. लेकिन मैं यहॉं केवल दो मुद्दों का निर्देश कर रहा हूँ. पहला मुद्दा यह कि, प्रेस आयोग से तीन संस्थाएँ निकली. (१) पत्रकारों के लिए वेत मंडल (वेज बोर्ड) (२) अखबारों के नियमन के लिए प्रेस कौन्सिल ऑफ इंडियाऔर (३) अखबारों के रजिस्ट्रेशन के लिए रजिस्ट्रार, न्यूज पेपर्स’.

अखबार और विदेशी पूँजी
दूसरी महत्त्व की बात यह कि, इस पहले प्रेस आयोग ने, यह स्पष्ट किया कि एक स्वतंत्र देश के अखबारों में विदेशी पूँजी को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. केवल एक अपवाद बनाया गया रिडर्स डाइजेस्टको. क्योंकि इसमें विदेशी पूँजी पहले ही आ चुकी थी. लेकिन, अब ऐसी स्थिति नहीं है. आपने शायद सुना होगा, और नहीं सुना होगा तो मैं बता देता हूँ, ‘‘गत २९ मार्च को इन्दौर से प्रकाशित होने वाले नई दुनियाअखबार जो अंक प्रकाशित हुआ, वह उस अखबार का अंतिम अंक था. उसे खरीदा किसने? २२५ करोड़ रुपये देकर दैनिक जागरणअखबार ने ही उसे खरीदा. बताया जाता है कि, ‘नई दुनियाको ७० करोड़ कुल घाटा हुआ था.

पैसा अमेरिकी कम्पनी का
लेकिन, ‘नई दुनियाबिका और जागरणने वह खरीदा, यह चिंता का प्रश्‍न नहीं. इस खरीद-बिक्री में जो पैसा लगा है, वह अमेरिका के ब्लॅकस्टोनकंपनी का है. ब्लॅकस्टोन कंपनी केवल बीस वर्ष पूर्व स्थापित हुई है. मैं पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ कि, इस ब्लॅकस्टोन कंपनी में अंबानी का काला पैसा लगा है. इस कंपनी की आज की पूँजी १० लाख करोड़ रुपये है. अब किसी के भी मन में यह प्रश्‍न निर्माण होगा कि, यह ब्लॅकस्टोन कंपनी दैनिक जागरणमें पैसा क्यों लगा रही है और दै. जागरण’ ‘नई दुनियाक्यों खरीद रहा है?
इस प्रश्‍न का उत्तर जान लेने के पहले हम यह समझ ले कि, अखबार क्या होता है? अखबार की परिभाषा क्या है? एक दार्शनिक ने अखबार की परिभाषा की है कि : सही मायने में अखबार वह है जिसमें देश खुद से बात करता है. पाथेय कणकी लाख-डेढ़ लाख प्रतियॉं छपती है. लेकिन उसमें कोई विदेशी पूँजी नहीं है. इस कारण मैं कह सकता हूँ कि, ‘पाथेय कणमें लोग अपना प्रतिबिंब देखते हैं, अपना चेहरा देखते हैं, अपनी बुद्धि परखते हैं. किसी भी अखबार के लिए यह आईना है कि अखबार का वाचक स्वयं से वार्तालाप करते नजर आता है या नहीं. आज सब नहीं, लेकिन अधिकांश अखबार केवल अपने मुनाफे की बात करते हैं.

एकाधिकार का षड्यंत्र
हमने देखा है कि, एक अमेरिकी कंपनी खरीद रही है और हम बिक रहे है. प्रश्‍न यह है कि, यह खरीदी-बिक्री क्यों हो रही है? आजादी के शुरुआत के दिनों में नरेन्द्र तिवारी, रामबाबू, लाभचंद छजनानी जैसे लोगों ने मिलकर एक सपने के साथ नई दुनियाशुरू किया था. सपना यह था कि, इस देश के नवनिर्माण में मेरे इस अखबार का भी हिस्सा हो और अब देश की नवनिर्मिति का दूसरा अध्याय लिखा जाना है तो उस सपने का अन्त हुआ. यह कितनी भीषण शोकांतिका है! नई दुनियाघाटे में था, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है. सच बात यह है कि, ‘नई दुनियाको घाटे में दिखाया गया.
अमेरिका की एक कंपनी ने यह व्यवहार किया है. वहॉं अमेरिका में, एक अखबार को, एक ही शहर में, तीन संस्करण निकालने की अनुमति नहीं. दूरदर्शन के किसी चॅनेल को यह अनुमति नहीं कि, वह रेडिओ भी शुरू करे या किसी रेडिओ को अखबार शुरू करने की अनुमति नहीं. लेकिन हमारे देश में इंडिया टुडे ग्रुप’ ‘आज तकचॅनेल भी चलाता है, एक नियतकालिक भी चलाता है पता नहीं और क्या क्या चलाता है? इससे एकाधिकारशाही निर्माण होगी, यह हम पक्का समझ ले. एक घटना बताकर मैं मेरा कथन स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ.

बॉंह मरोडने की ताकत
पॉंच वर्ष पहले की घटना है. वाय. एस. राजशेखर रेड्डी उस समय आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. रामोजी राव का इनाडूअखबार समूह उनकी कड़ी आलोचना करता था. उस समय ब्लॅकस्टोन कंपनी से पैसे लेकर मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी ने साक्षी ग्रुपखड़ा किया और अब जेल की हवा खा रहे अपने पुत्र जगमोहन रेड्डी को उसकी बागडौर सौंपी. नई दुनियाके व्यवहार में इसी ब्लॅकस्टोन कंपनी की २६ प्रतिशत पूँजी है. फिर उस साक्षी ग्रुपमें अंबानी कूदे. साक्षी ग्रुपमें उनका भी पैसा लगा. तब इनाडूटीव्ही में २५ हजार करोड रुपये लगाकर उस टीव्ही पर कब्जा किया. उसी पैसे से विभिन्न राज्यों में ई टीव्ही के १८ चॅनेल शुरू हुए. ये सब ब्लॅकस्टोन कंपनी के माध्यम से अंबानी के पैसों पर चल रहे हैं. ऐसी भी जानकारी है कि, ई टीव्ही भी नेटवर्क १८ने खरीदा है. नेटवर्क १८ राघव बहल की कंपनी है और राघव बहल की कंपनी में किसका पैसा लगा यह मैंने बताने की आवश्यकता नहीं. हर पत्रकार जानता है. 
क्या इसे संयोग माने? नहीं, यह संयोग नहीं. यह भारत के पत्रकारिता की शोकांतिका है. इस खरेदी-बिक्री के पीछे दो हेतु है; और हमें उसके विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए. इस खरीदी-बिक्री में सामान्य आदमी कहीं भी नहीं है; उसमें जनतंत्र का भी मुद्दा नहीं; आर्थिक सुधार का भी भाग नहीं; स्वदेशी की चिंता नहीं और गांधीजी के सपनों का तो संबंध ही नहीं. इस खरीदी-बिक्री में दो ही बातें है. (१) मुनाफा और (२) बॉंह मरोडने की ताकत अर्जित करना. किसका गला घोटने के लिए यह सब चल रहा है?
प्रसारमाध्यमों की ताकत मैं जानता हूँ. मैंने अपने अनुभवों से इसे जाना है. लेकिन इस समय इतना ही बताना चाहता हूँ कि, प्रसारमाध्यमों का यह ऍक्विझिशन-रिक्विझिशन (ग्रहण-विसर्जन), विलीनीकरण और कुल मिलाकर एकाधिकारी घरानों का जो बनना और बिगड़ना हो रहा है, वह देश के लिए शुभ लक्षण नहीं है.

जनतंत्र पर बड़ा खतरा
जनतंत्र को सबसे बड़ा खतरा है, एकाधिकारी घरानों से. यह जो पैसा लगाया जा रहा है, वह देश की नीतियॉं बनाने वालों पर दबाव बनाकर अपनी बातें मनवा लेने के लिए. यदि वाजपेयी जैसा, प्रदीर्घ समय राजनीतिक क्षेत्र में व्यतीत करने वाला, राष्ट्रीयता का प्रखर प्रतीक, जिसके दामन पर कोई दाग नहीं था और जिसकी देशभक्ति पर कोई संदेह भी नहीं कर सकता था, ऐसा व्यक्ति इन लोगों के दबाव में आता है, तो आज भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे, अमेरिका का एजंट रहे व्यक्ति को झुकाने के लिए उन्हें कितना समय लगेगा?
मनमोहन सिंह के बारे में मैंने ऊपर जो कहा, उसके मेरे पास प्रमाण है. सबसे बड़ा प्रमाण यह कि, १९९१ में, हमारे देश ने, दिवालियेपन से बचने के लिए, सोना गिरवी रखा था. उस निर्णय के पीछे इसी व्यक्ति की करतूत थी. वह निर्णय तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने लिया था. चन्द्रशेखर जी ने लोकसभा का चुनाव लड़ते समय मुझे यह सब बताया था. समय आने पर मैं भी वह सब बताऊँगा.
अब एकाधिकारवादी घराने सत्य-असत्य का फैसला करेंगे. वे हमारी स्वतंत्रता को लगाम लगाएगे और सियासी सत्ता का स्वयं के स्वार्थ के लिए उपयोग लेंगे. ये घराने ही छोटे अखबारों को मारेंगे. जनतंत्र विकेन्द्रीकरण का नाम है; और तानाशाही एकाधिकार से निर्माण होती है. २५ जून २००२ को हमने एक अघोषित इमरजंसी स्वीकार कर ली. घोषित इमरजंसी समाप्त करने के लिए हमें १८-१९ माह लड़ना पड़ा था. लेकिन इस अघोषित इमरजंसी के विरुद्ध की लड़ाई प्रदीर्घ काल चलने वाली है, और उसके लिए हमें कमर कसनी होगी.

तीसरा प्रेस आयोग
प्रभाष जोशी का ७४ वा जन्मदिन हमने इन्दौर प्रेस क्लब की सहायता से मनाया. उस समय हुए विचार-विनिमय के बाद हमारे ध्यान में आया कि, तीसरे प्रेस आयोग का गठन होना चाहिए. ऐसा प्रेस आयोग बनेगा, तो उसके द्वारा आज के प्रसारमाध्यमों के स्वरूप का सही चित्र भारतीय नागरिकों के सामने आ सकेगा. पहला प्रेस आयोग, स्वतंत्रता के बाद तुरंत बना था. दूसरा आयोग मुरारजी देसाई की सरकार में बना था. लेकिन, उस आयोग का कार्य पूर्ण होने के पूर्व ही वह सरकार गई. फिर इंदिरा गांधी की सरकार आई. उस सरकार ने प्रेस आयोग भंग नहीं किया, लेकिन उसका पुनर्गठन किया. इस आयोग की रिपोर्ट १९८२ में आई.
इसे ३० वर्ष हो चुके है. इन तीस वर्षों में प्रसारमाध्यमों में बहुत बदल हुए है. इन माध्यमों की सही स्थिति समझने के लिए अन्य विकल्प नहीं. इस आयोग के सामने यह भी एक मुद्दा होना चाहिए कि, आज प्रसारमाध्यमों में कितनी विदेशी पूँजी लगी है और किस कंपनी की कितनी पूँजी है. इसी प्रकार, प्रसारमाध्यम उनका दायित्व निभा रहे या नहीं, इसकी भी जॉंच होनी चाहिए. ऊपर एकाधिकारशाही के खतरे का उल्लेख किया गया है. वास्तव में वह खतरा है या नहीं, यह भी देखा जाना चाहिए. इसके लिए हमने एक प्रस्ताव पारित किया. प्रस्ताव जानबुझकर संक्षिप्त किया. १५-१६ पंक्तियों का. ताकि, प्रधानमंत्री या उनके किसी सहयोगी को उसे पढ़ने में कष्ट न हो. वैसे, तीसरे प्रेस आयोग के बारे में हमने विस्तार से एक निवेदन तैयार किया ही है. वह अलग है.

समय नहीं
प्रधानमंत्री के कार्यालय में हरीश खरे प्रेस सलाहगार का काम कर रहे थे उस समय की बात है. हरीश खरे मेरे पुराने मित्र है. मैंने उनसे कहा, प्रधानमंत्री को देने के लिए मुझे आपको एक पत्र देना है. उन्होंने तुरंत मुझे बुला लिया. उन्हें मैंने प्रभाष जोशी के संस्मरणों की पुस्तक भेट दी और वह पत्र भी दिया. हम कुछ पत्रकार प्रधानमंत्री से मिलना चाहते है, ऐसा एस पत्र में लिखा था. उसमें कुछ बड़े पत्रकारों के भी नाम थे. उसके बाद छह-सात माह मैं बार-बार हरीश खरे को फोन करता रहा और उनका एक ही उत्तर रहता था कि, प्रधानमंत्री से समय लेकर मैं आपको सूचित करता हूँ! आखिर हरीश खरे ने प्रधानमंत्री का कार्यालय छोड़ा लेकिन भेट के लिए समय नहीं मिला.
जिस दिन हरिश खरे ने प्रधानमंत्री का कार्यालय छोड़ा, उसी दिन उन्होंने मुझे फोन कर पीएमओ छोड़ने की बात बताई. दो-तीन दिन बाद इंडिया इंटरनॅशनल की ऍनेक्सी में उनकी मुझसे भेट हुई. मैंने हरीश खरे से कहा, आपने पीएमओ क्यों छोड़ा, यह मैं बाद में पूछंगा, पहले मैं एक बात जानना चाहता हूँ कि, प्रधानमंत्री से आपकी रोज कई बार भेट होती होगी, अन्य अधिकारियों से भी आपका वार्तालाप होता होगा, कभी-कभी आप अकेले भी उनसे मिलते होगे, तब आपने उनके समक्ष प्रेस आयोग का विषय निश्‍चित ही निकाला होगा. फिर उस विषय पर चर्चा करने के लिए हमारे प्रतिनिधि मंडल को समय क्यों नहीं मिला? हरीश खरे ने बहुत विस्तारपूर्वक बात की. उसका सार यह कि, प्रधानमंत्री एकाधिकारी प्रसारमाध्यमों के इतने दबाव में है कि वे इस विषय पर बात ही नहीं करना चाहते.

संघर्ष की आवश्यकता
हरीश खरे ने आगे बताया कि, ‘‘तीसरे प्रेस आयोग का गठन होना बहुत कठिन काम है. लेकिन इस मुद्दे पर मैं आपके साथ हूँ.’’ मुझे अंत में यही कहना है कि, जनतंत्र की प्राणशक्ति जिंदा रखने के लिए, जनतंत्र पर आ रहे खतरे को जमीन में गाडने के लिए, और हमारे इस देश में जनतंत्र के फलने-फूलने के लिए, प्रसारमाध्यमों की स्वतंत्रता अनिवार्य है. इसके लिए जनतंत्र की चेतना आवश्यक है और इस चेतना के लिए, आवश्यक हो तो प्राणों का बलिदान देकर संघर्ष करने की आवश्यकता है.


- मा. गो. वैद्य     
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)  
babujivaidya@gmail.com    

    
           

1 comment:

  1. This write up is certainly one of the most important contributions of Vaidya ji.It would be in the interest of our true freedom , and honourable survival,if the rulers and the public funds-managers of our country review our press policy.Vaidya ji deserves congratulations from common and faceless masses of India, who are used as fodder by the media barons.

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