११ नवंबर को मैंने ‘भाजपा की अ-स्वस्थता’ शीर्षक का भाष्य लिखा. वह मराठी में था. उसके प्रकाशित होते ही खूब खलबली मची.
१२ नवंबर को,
कहीं उसका समाचार आया होगा. इस कारण, सब प्रसारमाध्यम खूब सक्रिय हुए. सब को लगा कि, एक मसालेदार समाचार मिला है. दि. १२ को ही, नागपुर में, मेरे घर छ:-सात टीव्ही चॅनेल के प्रतिनिधि आये. मैंने उन सब को एक साथ आने के
लिए कहा.
मेरा निवेदन
मैंने उन्हें बताये निवेदन का सार यह था कि,
(१) यह मेरा व्यक्तिगत मत है. राम जेठमलानी को जैसे उनका मत व्यक्त करने का
अधिकार है,
वैसे मुझे भी है.
(२) मेरे इस मत का संघ से कोई संबंध नहीं. गत नौ वर्षों से मेरे पास संघ का कोई
पद नहीं. इतना ही नहीं,
गत चार-पॉंच वर्षों से अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की
बैठकों में मैं अधिकृत निमंत्रित भी नहीं. इसके अलावा, ऐसे मामलों की संघ में चर्चा नहीं होती, यह मेरा अनुभव है.
(३) मेरा लक्ष्य जेठमलानी थे. उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीन गडकरी
के त्यागपत्र की मॉंग कर उसी वक्तव्य में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का
उम्मीदवार करें ऐसा कहने के कारण, गडकरी के
विरुद्ध के अभियान की सुई (अंगुली) गुजरात की ओर मुडती है, ऐसा मैंने कहा. उसी प्रकार राम जेठमलानी के पुत्र महेश जेठमलानी ने नीतीन
गडकरी को कलंकित (टेण्टेड) संबोधित कर भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्यता
का त्यागपत्र देने का पत्रक प्रसिद्ध करने के कारण,
इसके पीछे कुछ षडयंत्र होगा, ऐसा भी मुझे लगा.
(४) २०१४ के लोकसभा के चुनाव में भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन
होगा,
इसकी आज चर्चा करना मुझे अकालिक और अप्रस्तुत लगता है.
संवाददाताओं की करामात
उसके बाद,
उस दिन, दिन भर अनेक
चॅनेल ने यह समाचार अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रसारित किया. इन चॅनेल के जो
प्रतिनिधि आये थे,
उनमें अधिकांश हिंदी भाषी थे. उन्होंने मेरे ब्लॉग पर का
मराठी लेख पढ़ा होने की संभावना ही नहीं थी. मेरे ‘भाष्य’
के हिंदी अनुवाद की नागपुर में ही व्यवस्था है, वह लेख ग्वालियर से प्रकाशित होने वाले ‘स्वदेश’ दैनिक में
प्रकाशित होता है. चॅनेल के प्रतिनिधि जाने के बाद उस मराठी लेख का हिंदी अनुवाद
हुआ या नहीं,
इसकी जानकारी लेने पर, अनुवाद हुआ है लेकिन भेजा नहीं ऐसा मुझे बताया गया. अनुवाद में त्रुटि न रहें
इसलिए मैंने उसे जॉंचा और फिर ‘स्वदेश’को भेजा तथा ब्लॉग पर भी डाला. यह सब बताने का कारण यह कि, मेरे घर आये किसी भी चॅनेल के प्रतिनिधि ने समग्र ‘भाष्य’ पढ़ा नहीं था.
उन्होंने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उसे भडकाऊ रूप (सेन्सेशनॅलिझम्) देकर प्रकाशित
करना, हमने स्वाभाविक ही मानना
चाहिए. समाचारपत्रों के संवाददाता किसी घटना को कैसे विचित्र मोड दे सकते है, इसका एक एकदम सही उदारहण मैंने पढ़ा है.
सही उदाहरण
वह एक कॅथॉलिक धर्मगुरु की (कार्डिनल) कहानी है. वे समाचारपत्रों के
प्रतिनिधियों को अपने पास भी फटकने नहीं देते थे. वे न्यूयॉर्क आये उस समय
हवाईअड्डे पर ही ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ के संवाददाता ने उनसे
भेट की. उन्हें,
चर्च के, गर्भपात विरोध
की नीति से लेकर अनेक विषयों पर प्रश्न पूछे, लेकिन धर्मगुरु ने एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. आखिर उस संवाददाता ने पूछा, ‘‘न्यूयार्क के मुकाम में आप नाईट क्लब को भेट देंगे?’’ इस पर धर्मगुरु ने पूछा ,‘‘न्यूयार्क में नाईट क्लब है?’’ संवाददाता की खूब
फजिहत की इस आनंद में वे चले गये. दूसरे दिन ‘न्यूयार्क टाईम्स’
में समाचार प्रकाशित हुआ. ‘‘फलाने धर्मगुरु न्यूयॉर्क आये. आते ही उन्होंने जानकारी ली कि, क्या न्यूयॉर्क में नाईट क्लब है?’’
समाचार इतना तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है. दि. १२ को करीब सब चॅनेल ने वैद्य विरुद्ध
मोदी ऐसा चित्र निर्माण किया. मैंने ‘संदेह की सुई’
इतना ही कहा था. उन्होंने वह मेरा ‘आरोप’ है, ऐसा आभास निर्माण किया.
दो स्पष्टीकरण
स्वाभाविक ही इस पर काफी संख्या में प्रतिक्रियाए आई. जो प्रतिक्रियाए
दूरध्वनि से आई उन्हें मैंने संपूर्ण ‘भाष्य’
पढ़ने के लिए कहा. एक दिलचस्प बात ध्यान में आई कि, भाजपा के समर्थकों की और कुछ पदाधिकारियों की जो
प्रतिक्रियाए आई,
उससे ऐसा लगा कि उन्हें इस भाष्य के कारण क्रोध नहीं आया.
विपरीत ठीक ही लगा होगा. लेकिन, संघ
स्वयंसेवकों की जो प्रतिक्रियाए आई, वे मिश्रित थी और उनकी मानसिक अस्वस्थता दर्शाने वाली थी. संघ की ओर से अधिकृत
रूप में बताया गया कि,
‘‘यह वैद्य जी का व्यक्तिगत मत है. संघ उससे सहमत नहीं.’’ भाजपा के ज्येष्ठ प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने भी नि:संदिग्ध
रूप में बताया कि,
‘‘वह वैद्य जी का व्यक्तिगत मत है. भाजपा में फूट नहीं. पूरी
भाजपा और सब मुख्यमंत्री एकजूट है.’’ यह अच्छी बात है. यह सच है कि भाजपा में फूट है ऐसा मुझे लगा. ऐसा लगना और दिखना मुझे जचा
नहीं,
इसलिए ही मैंने वह ‘भाष्य’
लिखा. उस भाष्य का अंत इस प्रकार है : ‘‘वह (भाजपा) एकजूट है, वह एकरस है,
उसके नेताओं के बीच परस्पर सद्भाव है, उनके बीच मत्सर नहीं, ऐसा चित्र निर्माण होना चाहिए, ऐसी भाजपा के असंख्य कार्यकर्ताओं की और सहानुभूतिधारकों की भी अपेक्षा है.
इसमें ही पार्टी की भलाई है; और उसके
वर्धिष्णुता का भरोसा भी है.’’
दो अच्छी घटनाए
मुझे आनंद है कि,
पार्टी एकजूट होकर गडकरी के समर्थन में खड़ी हुई. गडकरी के
विरुद्ध भ्रष्टाचार और अनियमितता के जो आरोप है, उन आरोपों की सरकार की ओर से जॉंच चल रही है. सरकार भाजपा की नहीं है; कॉंग्रेस की है. इस कारण, गडकरी के हित में पक्षपात होने की कोई संभावना नहीं. इसलिए, मैंने आग्रह से प्रतिपादित किया है और अब भी करता हूँ कि, सरकार की जॉंच के निष्कर्ष सामने आने दे और बाद में गडकरी
के बारे में निर्णय ले. इन दो दिनों में दो अच्छी घटनाए घटित हुई. पहली यह कि, विख्यात चार्टर्ड अकाऊंटंट एस. गुरुमूर्ति ने गडकरी के
कंपनी के कागजपत्रों की जॉंच की. उसमें उन्हें गडकरी का दोष दिखाई नहीं दिया.
तथापि उन्होंने यह भी कहा है कि, मैंने गडकरी
को ‘क्लीन चिट’ नहीं दी. इसका
क्या अर्थ ले यह वे ही जाने और दूसरी यह कि, गडकरी गुजरात में चुनाव के प्रचार के लिए जा रहे है. इस घटना से मोदी ने स्वयं
को जेठमलानी पिता-पुत्र के अभिप्राय से दूर किया, यह स्पष्ट होता है. यह अच्छा हुआ.
प्रतिक्रियाओं की विविधता
मेरे ई-मेल पर करीब १६ प्रतिक्रियाए आयी. इसके अलावा चार-पॉंच दूरध्वनि पर
आयी. पांढरकवडा (जि. यवतमाल, महाराष्ट्र) से ‘कट्टर भाजपा’ कार्यकर्ता ने दूरध्वनि पर कहा, ‘‘आपने हमारे मन की बात कही.’’ हरयाणा की भाजपा के एक जिला समिति के अध्यक्ष ने दूरध्वनि पर मेरा अभिनंदन
किया;
तो सिमला से ‘हिमालय परिवार’
के एक ज्येष्ठ कार्यकर्ता ने कहा, ‘‘आपने बहुत अच्छा लेख लिखा.’’ दिल्ली भाजपा के एक ज्येष्ठ नेता, जो आज भी भाजपा में उच्च पद पर है, उन्होंने हिंदी ब्लॉग पढ़कर मुझे बताया कि, ‘‘आपने बिल्कुल निरपेक्ष भावना से लिखा है.’’ इसके विपरीत नागपुर के एक स्वयंसेवक ने कहा कि, ‘‘स्वयंसेवक के रूप में आप अनुत्तीर्ण (नापास)
हुए है. आप महामूर्ख है. आपने सब स्वयंसेवकों का अपमान किया
है.’’
मैंने पूछा, क्या आपने ब्लॉग पढ़ा है? उन्होंने कहा
मुझे उसकी आवश्यकता नहीं;
और दूरध्वनि रख दिया.
ई-मेल पर मिली प्रतिक्रियाओं में भी ऐसी ही संमिश्रता है. कोचीन (केरल) से एक स्वयंसेवक की
प्रतिक्रिया ‘अनवसरे यत् कथितम्’ मतलब अयोग्य समय किया कथन, इस शीर्षक से
है. गुरुमूर्ति के रिपोर्ट की प्रशंसा कर यह स्वयंसेवक कहता है कि, ‘‘आपके कथन के कारण, अपना कहना लोगों तक पहुँचाने का मौका गडकरी के हाथ से निकल गया है.’’ लखनऊ के एक लेखक कहते है कि, ‘‘वैद्य जी ने संघ और भाजपा को आत्मचिंतन का मौका दिया है. संघ और भाजपा में
श्रेष्ठ क्या है?
तत्त्वनिष्ठा या व्यक्तिनिष्ठा?’’ तीसरी प्रतिक्रिया कहती है, ‘‘यह सच है कि शरारत तो जेठमलानी ने की. लेकिन मा. गो. ने भी मोदी के साथ उसका
संबंध जोडकर एक अनचाहा मुद्दा निर्माण किया है. जेठमलानी की उपेक्षा करना ही योग्य
होता.’’
एक ने तो कमाल ही कर दी. वह कहता है कि, ‘‘गडकरी की निंदा के पीछे मोदी नहीं, जेटली है. उन्होंने ने ही प्रशांत भूषण को गडकरी के विरुद्ध
का साहित्य दिया.’’
और एक ने पूछा है, ‘‘जेठमलानी अपना मत पार्टी की सभा में रखे, ऐसा आप बताते है,
फिर आप आपका मत परिवार की बैठक में क्यों नहीं रखते?’’ एक महिला का अभिप्राय है, ‘‘संघ की प्रतिमा को ठेस लगने जैसा मत सार्वजनिक रूप से व्यक्त करना अयोग्य है.’’ और एक प्रतिक्रिया है, ‘‘भाजपा के सैकड़ों समर्थकों का मत ही आपने प्रस्तुत किया है. भाजपा कॉंग्रेस से
अलग दिखनी चाहिए.’’
नागपुर के एक मुस्लिम कार्यकर्ता कहते है, ‘‘मोदी आज भाजपा से बड़े हो गए है. यह सूर्यप्रकाश के समान
स्पष्ट है.’’
उन्होंने भाजपा के अनेक नेताओं के नाम लेकर पूछा है कि, ‘‘इन नेताओं ने क्या दिये जलाए? मोदी ही भाजपा को विजय दिलाएगे.’’ एक पूछता है,
‘‘सबूत न होते हुए भी भाजपा के विरुद्ध शोर मचाने की ताक में
बैठे मीडिया वालों को मुद्दे देना कितना उचित है?’’ एक प्रतिक्रिया कहती है कि, ‘‘मोदी का कोई विकल्प नहीं. भाजपा के अन्य सब नेता (उन्होंने कुछ नाम लिए है) उनसे बौने है. इसलिये
वे हम प्रधानमंत्री की दौड़ में नहीं, ऐसा बताते है.’’
एक ने सूचना की है कि, ‘‘श्रीमती इंदिरा गांधी की तरह मोदी नई पार्टी निकाले.’’ और एक ने कहा है. ‘‘ॠषिसत्ता भाजपा को सही रास्ते पर लाए.’’ अन्य दो ने,
ब्लॉग पढ़कर ‘‘वह हमारी भावना प्रकट करता है,’’ ऐसा कहा,
तो एक ने प्रश्न किया कि, ‘‘यह लेख लिखने के लिए कॉंग्रेस ने तुम्हें कितने पैसे दिये?’’
अकालिक चर्चा
कितने प्रकार की प्रतिक्रियाए हो सकती है, इसका यह निदर्शक है. इससे एक गलतफहमी प्रकट होती है कि, मैं नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध हूँ. यह गलतफहमी प्रकट होने का एक कारण, इन लोगों ने यह ‘भाष्य’
अच्छी तरह से नहीं पढ़ा होगा, यह हो सकता है. मेरे भाष्य की सुई जेठमलानी की ओर है. करीब आठ दिनों से वे
खामोश है,
यह अच्छा ही है. मेरा मोदी या उनकी प्रधानमंत्री बनाने की
महत्त्वाकांक्षा को विरोध होने का कोई कारण ही नहीं. मैं उस स्पर्धा में
प्रतिस्पर्धी नहीं हूँ. लेकिन यह सच है कि, इस पद के संभाव्य व्यक्ति की चर्चा आज करना मुझे अप्रस्तुत लगता है. श्री बाळासाहब ठाकरे ने सुषमा
स्वराज को प्रधानमंत्री बनाए, ऐसा कहा था.
तब भी मैंने यही कहा था. २०१४ में होने वाले होने वाले प्रधानमंत्री की चर्चा इस
समय अकालिक है,
ऐसा मेरा दृढ मत है. हमारा नेता कौन यह चुनकर आये लोकसभा के
सदस्य तय करेंगे.
‘लोकसत्ता’ का संपादकीय
मेरे इस ‘भाष्य’ पर मराठी
दैनिक ‘लोकसत्ता’ ने (एक्स्प्रेस ग्रुप) एक विस्तृत
संपादकीय लिखा है. उसका शीर्षक है ‘वैद्य की कसाई’
(वैद्य या कसाई). इस संपादकीय के प्रकाशन के बाद ‘लोकसत्ता’ कार्यालय से
मुझे दूरध्वनि आया और पूछा कि, ‘‘इस
संपादकीय के बारे में आपका मत क्या है?’’ संपादकीय के लेखक गिरीश कुबेर (व्यवस्थापकीय संपादक) है,
यह भी उन्होंने मुझे बताया. संपूर्ण लेख पढ़ने के बाद मुझे
मज़ा आया. मैं अखबार व्यवसाय में
था. मैं संपादक था उस समय कम से कम दो मोर्चे ‘वैद्य मुर्दाबाद’
के नारे लगाते ‘तरुण भारत’ कार्यालय पर आये थे. खून की धमकी के दो बेनामी पत्र भी
मिले थे. तब भी मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया था. मैंने वह पत्र पुलीस को नहीं
दिए. एक ने स्वयंसेवक ऐसी पहचान बताकर मुझे ‘अनुत्तीर्ण’
और ‘महामूर्ख’ कहा, उस तुलना में गिरीश कुबेर का लेख बहुत ही सौम्य है. मैं
मुख्य संपादक था तब,
वाचकों का पत्रव्यवहार प्रकाशित करते समय, ‘तरुण भारत’ के संपादकीय पर आक्षेप लेने वाले, उसके प्रतिपादन का विरोध करने वाले और अलग मत व्यक्त करने वाले पत्र प्राथम्य
क्रम से प्रकाशित करे,
ऐसा स्पष्ट निर्देश मैंने दिया था. उन पत्रों के अशिष्ट शब्द, कभी-कभी गालीयुक्त शब्द, वैसे ही कायम रखे,
ऐसा मेरा आग्रह होता था. इस बारे में संबंधित सहायक संपादक
ने प्रश्न किया,
तब मैंने कहा था, ‘‘वह शब्द रहने दो. उससे पत्रलेखक का बौद्धिक और सांस्कृतिक स्तर स्पष्ट होता
है.’’
उपमान का चयन
इसलिए गिरीश कुबेर के लेख से मैं क्रोधित नहीं हुआ. मुझे ‘कसाई’ कहा, क्या यह सही नहीं है? कसाई भी चाकू चलाता है और वैद्य भी (मतलब शस्त्रक्रिया करने वाला डॉक्टर ऐसा
मैं मानता हूँ) रुग्ण के पेट पर या अन्य दोषयुक्त इंद्रियों पर चाकू चलाता है.
दोनों स्थानों पर चाकू का उपयोग होने के कारण वैद्य और कसाई की तुलना करने का मोह
होना असंभाव्य नहीं. लेकिन वैद्य का चाकू रुग्ण के प्राण बचाने के लिए होता है, तो कसाई का प्राण लेने के लिए होता है, यह अंतर जोशपूर्ण मानसिक अवस्था में ध्यान में नहीं लिया
गया होगा,
तो क्या वह भी स्वाभाविक नहीं? कौन किस उपमान का प्रयोग करे यह तो प्रयोग करने वाले के
बौद्धिक एवं सांस्कृतिक संस्कार पर ही निर्भर होगा? कुबेर ने मुझे लेखन रोकने की सलाह दी है, उस पर मैं अवश्य विचार करूंगा. लेकिन एक बात स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ. ‘ब्लॉग’ आदि की मुझे
जानकारी ही नहीं थी. कोलकाता से प्रसिद्ध होने वाले ‘टेलिग्राफ’ के इस क्षेत्र के प्रतिनिधि ने ‘भाष्य’ पढ़ने नहीं
मिलने की शिकायत की और उन्होंने ही ब्लॉग शुरु करने के लिए कहा. मेरा एक लड़का
ई-न्यूज भारती में काम करता है. उसे इस तकनीक की जानकारी है. उसने ब्लॉग पर ‘भाष्य’ डालना शुरु
किया. लेकिन इससे पहले भी ‘भाष्य’ औरंगाबाद और
सोलापुर से प्रकाशित होने वाले तरुण भारत में प्रकाशित होता था; और आज भी होता है. उसका हिंदी अनुवाद ग्वालियर से प्रकाशित
होने वाले ‘स्वदेश’ में आता है.
मैंने तो ‘भाष्य’ लिखना बंद ही
किया था. लेकिन इन तीनों की ओर से बिनति किए जाने पर फिर लेखन शुरु किया. कुबेर जी
देवगिरी तरुण भारत के भूतपूर्व संपादक दिलीप धारूरकर से वस्तुस्थिति जान ले सकते
है. उन्हें लेख पसंद नहीं होगा, तो वे न पढ़े.
उनके नागपुर कार्यालय को भी मुझे लेख न मॉंगने की सूचना दे.
इस लेख की एक बात मुझे अखरी. वह यह कि, संघ की प्रचारक व्यवस्था के बारे में कुबेर इतना अज्ञान कैसे प्रदर्शित करते
है. मैं प्रवक्ता था उस समय ‘प्रचारक’ मतलब क्या, यह विदेशी पत्रकारों को
समझाना मेरे लिए कठिन साबित होता था. कुबेर तो इस देश और महाराष्ट्र के ही है.
क्या उन्हें यह पता नहीं कि, प्रचारक
वंशपरंपरा से नहीं आता. उसने स्वीकार किये जीवनव्रत से ही, वह,
‘प्रचारक’ श्रेणी में
दाखिल होने के लिए पात्र बनता है. एक मजेदार बात बताता हूँ. मेरे बाद २००३ में राम
माधव संघ के प्रवक्ता बने थे. एक सज्जन ने मुझसे कहा, ‘आपका जो लड़का प्रवक्ता बना है वह भी अच्छे उत्तर देता है.’ मैंने उत्तर दिया, ‘अच्छे उत्तर देता है न! लेकिन वह मेरा लड़का नहीं है.’ उन सज्जन की गलतफहमी होना स्वाभाविक था. कारण मेरे एक लड़के का नाम ‘राम’
है;
और मैं माधव. वह राम माधव हुआ की नहीं! यह राम, सांप्रत इंग्लैंड में प्रचारक है. मतलब वहॉं उसका मुख्यालय
है. प्रचारक का कार्यक्षेत्र, स्थान और पद
उसके पिता निश्चित नहीं करते. लेकिन गिरीश कुबेर जोश में आए है. मैं जानबुझकर ‘नशे में’ नहीं कहता.
ऐसा लगता है कि उन्होंने संघ-भाजपा के बीच की उलझन समाप्त करने की ठानी है. लेकिन
इसके लिए क्या उचित और क्या अनुचित इसका विवेक रखे. जोश में आकर इस प्रकार विवेक
खोना उचित नहीं. तथापि मैं उन्हें दोष नहीं देता. अधूरी जानकारी रही तो ऐसे दोष
होना स्वाभाविक ही कहा जाना चाहिए. मैंने निश्चित किया है कि मेरे लिए अब यह विषय यहीं
समाप्त हुआ है.
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com
This write up shows the great dimensions of Sri M.G. vaidya.Let us hope that all types of comments from readers that he has mentioned in his bhaashya will only strengthen his resolve to keep on expressing his views frankly, mainly for the guidance of those who feel that their career making is more important than the voice of their Conscience, which they ignore,in fact quite often crush without any compunction or shame.Vyakti Nishthaa for him has no meaning as he is above all career-making exercises of tongue and pen.
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