‘लोकमत’ के संपादक, मेरे मित्र, श्री सुरेश द्वादशीवार ने ‘प्रादेशिक पार्टिंयों का सामर्थ्य राष्ट्रीय एकात्मता के लिए प्रश्नचिह्न साबित होगा?’ ऐसा प्रश्न चर्चा के लिए उपस्थित किया है. प्रश्न कालोचित है. वैसे इसका उत्तर कठिन नहीं. अपनी प्रादेशिक अस्मिता संजोते हुए स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र मानकर, देश से विभक्त होने की आकांक्षा रखने का समय अब नहीं रहा. एक समय, यह खतरा था. सबसे बड़ा खतरा जम्मू-कश्मीर राज्य विभक्त होने का था. उस राज्य को विभक्त करने के लिए आंतरराष्ट्रीय कारस्थान भी रचे गए. स्वतंत्र राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा रखनेवालों को उकसाया भी गया. शेख अब्दुल्ला का चरित्र यहॉं फिर नए सिरे से दोहराने का कारण नहीं. लेकिन उन्हें भी वह शौक कहे या भ्रम, छोड़ना पड़ा. १९७५ के फरवरी माह में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और कश्मीर के मुख्यमंत्री (याद रहे मुख्यमंत्री! वजीर-ए-आझम नहीं. यह नाम कब का हटा दिया था. और ‘सदर-इ-रियासत’भी नहीं. वे सामान्य राज्यपाल बन गये थे), शेख अब्दुल्ला के बीच हुए समझौते से उनका स्वतंत्र राज्य का सपना समाप्त हुआ.
और भी कुछ सपने समाप्त हुए
नागालँड में भी कुछ तूफान उठा था. उस तूफान के पीछे ईसाई मिशनरी थे. वे भी शांत हुए. एक समय नागालँड के मुख्यमंत्री रहे एस. सी. जमीर महाराष्ट्र के राज्यपाल भी बने. मिझोराम में भी ऐसी ही गतिविधियॉं चली थी. ‘मिझो नॅशनल फ्रंट’ मतलब ‘मिझो का राष्ट्रीय गठबंधन’ यह नाम उस गतिविधि ने अपनाया था. कहते थे, मिझो स्वतंत्र राष्ट्र है! लेकिन अब वह एक छोटी सी पार्टी बनकर रह गई है. भारत में जो विविध राजनीतिक पार्टिंयॉं है, उनमें से एक, नगण्य पार्टी. तमिलनाडु में भी कुछ अतिरेक हुआ था. रामस्वामी नायकर के ‘द्रविड कळघम’ने यह उठापटक की थी. लेकिन उस ‘कळघम’के अब अनेक टुकड़े हुए है. द्रविड मुन्नेत्र और अण्णा द्रविड मुन्नेत्र कळघम यह उनमें के दो बड़े धडे है.
हडबडाने का कारण नहीं
मुझे यह कहना है कि, अब कोई भी भारत से विभक्त होने की महत्त्वाकांक्षा नहीं रख सकता. कुछ भाषाओं में ‘राष्ट्र’ शब्द रहता है. लेकिन वह शब्द ‘राज्य’ इस अर्थ में ही प्रयोग होता है. तेलगू भाषा में ‘राष्ट्र’ का अर्थ ‘राज्य’ ही है. ‘तेलंगना राष्ट्र समिति’ मतलब तेलंगना राज्य समिति. बंगला भाषा में भी ‘राष्ट्र’ मतलब ‘राज्य’ही होगा. कारण, उस भाषा में ‘राष्ट्र’ संकल्पना व्यक्त करने के लिए ‘जाति’ शब्द का प्रयोग होता है. बंगला देश की एक बड़ी सियासी पार्टी का नाम ‘बांगला जातीय पार्टी’ है. इस कारण किसी ने अपने नामाभिधान में ‘राष्ट्र’ शब्द अंतर्भूत करने पर हडबडाने का कोई कारण नहीं.
संविधान की बाधा
कोई भी राज्य विभक्त होने की मन:स्थिति या परिस्थिति में नहीं है. इतने से ही, राष्ट्रीय एकात्मता टिकी रहेगी और मजबूत होगी, ऐसा समझने का भी कारण नहीं. हमारा यह देश एक है, एकसंध है, हम सब ‘एक जन’ है और इस कारण हम एक राष्ट्र है, ऐसी भावना दिनोंदिन वृद्धिंगत होते जानी चाहिए. दुर्भाग्य से, हमारे संविधान की ही इस कार्य में बाधा है. हमारा संविधान देश की मौलिक एकता ही मान्य नहीं करता; और एकता ही मान्य नहीं होगी, तो एकात्मता कैसे निर्माण होगी. हमारे संविधान की पहली ही धारा की भाषा देखे. "India that is Bharat shall be a Union Of States." अनुवाद है ‘‘इंडिया अर्थात् भारत राज्यों का संघ होगा.’’ क्रियापद भी भविष्यकालीन है. 'Shall' ‘होगा’ इस प्रकार है. मतलब मौलिक एकक (basic Unit) ‘राज्य’ हुआ. संपूर्ण देश नहीं. अतिप्राचीन विष्णुपुराण में, यह एक देश है और महासागर के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण तक फैला है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है. पुराण के शब्द है,
‘‘उत्तरं यत् समद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् |
वर्षं तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति: ॥
संविधान के निर्माण के काम के लिए बड़े-बड़े लोग बैठे थे. विद्वान थे, अनुभव संपन्न थे. लेकिन उन्हें हमारे देश का ऐसा वर्णन करना नहीं सूझा की, India that is Bharat, is one country; we are one people and therefore we are one nation.
सर्वश्रेष्ठ कौन?
हम हमारे देह का वर्णन कैसे करेंगे? हाथ, पॉंव, नाक, कान, आँखें, इत्यादि इंद्रियों का संघ या समूह, ऐसा वर्णन किया तो चलेगा? ये सब इंद्रिय है. वह एकत्र भी है. लेकिन एक प्राण तत्त्व है, जो इन सब इंद्रियों को उनके काम करने के लिए शक्ति प्रदान करता है. उपनिषद में एक कहानी है. एक बार प्राण और इंद्रियों के बीच झगड़ा हुआ. मुद्दा था सर्वश्रेष्ठ कौन? वे सब ब्रह्मदेव के पास गये. ब्रह्मदेव ने कहा, ‘‘तुम में से क्रमश: एक, एक वर्ष के लिए देह छोड़कर जाय. तुम्हें तुम्हारें प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा.’’ सबसे पहले पॉंव गये. एक वर्ष बाद वे वापस लौटे; और पूछा, हमारे बिना तुम कैसे रहे? अन्य ने कहा, जैसे कोई लंगड़ा मनुष्य जीता है, वैसे हम जिये. फिर आँखें गई. एक वर्ष बाद लौटकर आई और पूछा, तुम मेरे बिना कैसे रहे? अन्य ने कहा, जैसे कोई अंधा रहता है, वैसे हम रहे. इसी प्रकार क्रमश: कान, वाणी ने भी एक वर्ष बाहर वास्तव्य किया. वापस आने पर उन्हें उत्तर मिला कि, बहरे, गूँगे जैसे रहते है, वैसे हम रहे. फिर प्राण ने जाने की तैयारी की. तब, सब इंद्रिय हडबडा गई. उन्होंने मान्य किया कि प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है.
राष्ट्र श्रेष्ठ
इसी प्रकार हमारे देश में मतलब हमारे देश के लोगों में यह भावना निर्माण होनी चाहिए कि, ‘राष्ट्र’ बड़ा है. ‘राज्य’ यह एक राजनीतिक व्यवस्था है. कानून के बल पर वह चलती है. राष्ट्र की सीमा में अनेक राज्य हो सकते है. होते भी है. उनमें बदल भी होते है. हमारे यहॉं भी हुए है. पहले पंजाब एक राज्य था. उब उसके तीन भाग हुए है. पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश. मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल, बिहार से झारखंड और एक असम से तो कई अन्य राज्य निर्माण हुए है. और भी नए राज्य बनेंगे. उससे कुछ नहीं बिगड़ेगा. इन सब राज्यों को अपने प्राणभूत तत्त्वों का स्मरण रहा, तो वे कितने ही बलवान् हुए, तो कुछ नहीं बिगड़ेगा. वह प्राणभूत तत्त्व ‘राष्ट्र’ है. वह व्यवस्था नहीं. वह हजारों वर्षों से स्थिरपद हुई एकत्व की भावना है. फ्रेंच ग्रंथकार अर्नेस्ट रेनॉं, के यह उद्गार ध्यान में ले - "It is not the soil any more than the race which makes a nation. The soil provides the substratum, the field for struggle and labour, man provides the soul. Man is everything in the formation of this sacred thing that we call a people. Nothing that is material suffices here. A nation is a spiritual principle, the result of the intricate workings of history, a spiritual family and not a group determined by the configuration of the earth."
(हिंदी अनुवाद : केवल भूमि या वंश से राष्ट्र नहीं बनता. भूमि आधार देती है. परिश्रम और संघर्ष भूमिपर होता है. लेकिन मनुष्य ही आत्मतत्त्व देता है. जिस पवित्र अस्तित्व को हम राष्ट्र कहते है, उसकी निर्मिति में मनुष्य ही सब-कुछ होता है. कोई भी भौतिक व्यवस्था राष्ट्र बनने के लिए काफी नहीं होती. राष्ट्र एक आध्यात्मिक अस्तित्व होता है. इतिहास की अनेक एक-दूसरे में जुड़ी घटनाओं का वह परिणाम होता है. राष्ट्र एक आध्यात्मिक परिवार होता है. केवल भूमि के आकार से मर्यादित जनसमूह नहीं होता.)
तात्पर्य यह कि, राष्ट्रभाव प्रखर रहा तो, राज्यों के सामर्थ्य से भयभीत होने का कारण नहीं.
हमारा देश बहुत विशाल है. राज्यकारोबार चलाने की सुविधा के लिए उसके भाग बनेगे ही. लेकिन उस प्रत्येक भाग ने स्वयं की मर्यादाए जाननी चाहिए. अन्यथा खलील जिब्रान इस लेबॅनीज ग्रंथकार के एक पात्र -अल् मुस्तफा ने - जो कहा है वह सही साबित होगा. अल् मुस्तफा कहता है, ‘‘वह देश दयनीय है, जो अनेक टुकड़ों में विभाजित है और हर टुकड़ा स्वयं को संपूर्ण देश मानता है.’’
नई राज्यरचना आवश्यक
हमने संसदीय जनतंत्र स्वीकार किया है. केन्द्र स्थान पर संसद है. राज्यों में विधानमंडल है. संविधान ने राज्यों को कुछ विशेष अधिकार दिये है. उन अधिकारों का उपभोग लेने के लिये सत्तातुर लोग उत्सुक रहेंगे ही. स्वाभाविक ही अनेक पार्टिंयॉं भी अस्तित्व में आएगी. और संकुचित एवं मर्यादित भावना भड़काना तुलना में आसान होने के कारण, प्रादेशिक पार्टिंयों की जड़ें जमेंगी. पंजाब में अकाली दल है. उसकी मर्यादा पंजाब तक ही है. तमिलनाडु में द्रमुक और अद्रमुक है. उनकी मर्यादा तमिलनाडु राज्य ही है. महाराष्ट्र में शिवसेना है. मराठी माणूस उसकी सीमा है. आंध्र में ‘तेलगू देशम्’ है. वह आंध्र तक ही है. अलग-अलग राज्यों के लिए आंदोलन करने वाले जो है, उनकी सीमा निश्चित है. तेलंगना राज्य समिति, तेलंगना तक. विदर्भ आंदोलन, विदर्भ तक. गोरखालँड, वही तक. इसमें अनुचित कुछ भी नहीं. मैं तो कहुंगा कि, फिर एक बार पुन: राज्यरचना हो. तीन करोड़ से अधिक और पच्चास लाख से कम किसी भी राज्य की जनसंख्या न हो. उत्तर प्रदेश नाम का राज्य अठाराह करोड़ का हो और मिझोराम में दस लाख भी जनसंख्या न हो, यह व्यवस्था नहीं. व्यवस्था का अभाव है. कहीं अन्याय हुआ है ऐसा महसूस हुआ, तो हर तीन जनगणना के बाद पुन: समायोजन किया जाना चाहिए. हमारा एक राष्ट्र है और सब भाषा हमारी राष्ट्रीय भाषा है, यह मन में बैठने के बाद भाषा के विवाद अपने आप ही समाप्त होगे या कम से कम उनका दंश तो निश्चित ही कम होगा.
अनेक विवाद समाप्त होगे
राष्ट्र श्रेष्ठ और राज्य उसकी राजनीतिक सुविधा के लिए की गई व्यवस्था यह मान्य किया तो फिर अनेक विवाद समाप्त होगे. कावेरी नदी न कर्नाटक की रहेगी न तमिलनाडु की. कृष्णा न केवल महाराष्ट्र की रहेगी न केवल आंध्र की. यमुना का उपयोग हरियाणा के समान ही दिल्ली के लिए भी होगा. कावेरी कर्नाटक से निकली है इस कारण वह केवल उस राज्य की नहीं होगी. देश की सब छोटी-बड़ी नदियॉं - गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी यह सब देश की नदियॉं होगी और उन पर किसी भी एक राज्य या वे जिस राज्य से बहती है, उन राज्यों का ही अधिकार नहीं होगा.
अखिल भारतीय पार्टिंयों का महत्त्व
इस प्रकार प्रादेशिक पार्टिंयों का महत्त्व होने पर भी, संपूर्ण देश का चित्र जिनके सामने है, ऐसी कम से कम दो पार्टिंयॉं अखिल भारतीय स्तर पर होनी ही चाहिए. आज इस प्रकार की कॉंग्रेस और भारतीय जनता पार्टी यह दो पार्टिंयॉं है. लेकिन वे एक पथ्य का पालन करें. संभव हो तो राज्य विधानमंडल के चुनाव न लड़े और यह चुनाव लड़ने की इच्छा हुई ही तो सत्ता ग्रहण करते समय प्रादेशिक सरकारो में दुय्यम भूमिका में न रहे. पंजाब में अकाली दल या बिहार में जदयु को सत्ता भोगने दे. चाहे तो ये राष्ट्रीय पार्टिंयॉं उन्हें बाहर से समर्थन दे सकती है. लेकिन सत्ता ग्रहण करनी होगी, तो प्रमुख सत्ताधारी पार्टी यह अखिल भारतीय पार्टी ही होनी चाहिए. वह अन्यों की सहायता ले सकती है. लेकिन जब वे स्वयं दुय्यम भूमिका स्वीकारना पसंद करती है, तब वह, एक प्रकार से, अपने अखिल भारतीय चरित्र्य को ही बाधित करती है. कम से कम अखिल भारतीय पार्टिंयों को सत्ता का मोह टालते आना चाहिए. इसलिए मेरी यह सूचना है कि, वे प्रादेशिक विधानमंडल के चुनाव ही न लड़े और अपना पूरा ध्यान और शक्ति केन्द्र की सत्ता की ओर उपयोजित रहने दे. सारांश यह कि, ऊपर दिये कुछ पथ्य पाले गए, तो प्रादेशिक पार्टियों का सामर्थ्य राष्ट्रीय एकात्मता के लिए बाधक सिद्ध होने का कारण नहीं. धावक के पॉंव या पहलवान की जांघे पुष्ट हुई, तो वह बलिष्ठ और पुष्ट अवयव पूरे शरीर की ही शक्ति बढ़ाते है.
(दैनिक ‘लोकमत’ के दीपावली अंक में प्रकाशित लेख, संपादक के सौजन्य से)
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी )
If Narendra Modi is made BJP president as soon as he comes to Delhi after his swearingin ceremony, given a warm welcome and declared in one stroke the PM candidate and asked to churn the whole country to tell masses why and how good governance and development must subordinate the divisive mundane ritualism of religion and muscle/money power, he will create automatically an unprecedented vote bank for BJP. In that case no support from any other party/section will be required.Choice of having NDA will be then optional. However, it would be beneficial for Bharat if Dr Subramaian Swami is made president of NDA.Then the stronger man Modi will earn more spats and criticism within and without, but all that will prove to be manure for the ideology symbolized by Modi.Strengthening the ideology symbolized and perpetuated by Modi will be of paramount importance for Bharat.
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