सरदार पटेल की महानता ऐसी है की, संपूर्ण देश उन्हें अपना माने। जो लोग उन्हें किसी एक सियासी पाटीं के बाडे में बंदिस्त करके रखना चाहते है, वे उनका अपमान करते है। इस लेख में सरदार पटेल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंधों के बारे में विचार प्रस्तुत है।
संघ की क़दर
मुझे निश्चयपूर्वक कहना है कि, सरदार पटेल को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके कार्य की क़दर थी। जिस समय काँग्रेस के कुछ नेता और विशेषतः तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु,
जब संघ को नेस्तनाबूत करने का विचार कर रहे थे, उस समय सरदार पटेल संघ की प्रशंसा कर रहे थे। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार में एक संसदीय सचिव श्री गोविंद सहाय ने एक पुस्तिका प्रकाशित कर, संघ फासिस्ट है और उसपर बंदी लगाए ऐसी मांग की थी। 29 जनवरी 1948 को, पंजाब प्रान्त में दिये अपने एक भाषण में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने संघ की तीखी आलोचना करते हुए, उसे हम जडमूल से उखाड फेकेंगे ऐसी गर्जना की थी। लेकिन सरदार पटेल उस समय भी संघ की वाहवा कर रहे थे। 1947 के दिसंबर माह में जयपुर और1948 के जनवरी में लखनऊ में किये भाषण में सरदार पटेल ने संघ के लोग देशभक्त हैं, ऐसा सार्वजनिक रूप में कहा था। संघ पर बंदी लगाने की मांग करनेवालों को लक्ष्य कर उन्होंने कहा था कि, दंडात्मक कानून की कारवाई गुंडों के विरुद्ध की जाती है, देशभक्तों के विरुद्ध नहीं;
संघ के स्वयंसेवक देशभक्त है।
अप्रस्तुत सवाल
उसी दरम्यान, मतलब 30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या की गई थी। हत्या करने वाला व्यक्ति हिंदुत्वनिष्ठ था। इस कारण, हिंदुत्ववादी संघ भी संदेह के घेरे में आया। 4 फरवरी को सरकार ने संघ पर पाबंदी लगाई। पाबंदी गृह विभाग की ओर से लगाई जाती है और उस समय गृह विभाग के मंत्री थे सरदार पटेल। इस कारण, सरदार पटेल ने पाबंदी लगाई थी, फिर यह पाबंदी लगानेवाले सरदार पटेल संघ के प्रशंसक कैसे हो सकते है और संघवाले सरदार को अपना कैसे मान सकते है, ऐसे प्रश्न, गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेन्द्र मोदी ने सरदार पटेल का विशाल पुतला बनाने का निश्चय करने के बाद काँग्रेस के कुछ नेताओं की ओर से उपस्थित किये गए। यह प्रश्न अप्रस्तुत है, ऐसा मुझे कहना है।
संदेह के बादल
गांधीजी की हत्या होने के बाद, उस साज़िश में संघ भी शामिल है, इस संदेह से उस समय का वातावरण इतना कलुषित हुआ था कि, उस समय के सरसंघचालक श्री गुरुजी को 2 फरवरी की मध्यरात्रि में गिरफ्तार किया गया, यह गिरफ्तारी फौजदारी कानून की धारा 302 के अंतर्गत थी। मानो गुरुजी स्वयं पिस्तौल लेकर दिल्ली गये थे और उन्होंने गांधीजी पर गोलियाँ दागी थी! यह नीरी बेवकूफी जल्द ही सरकार के ध्यान में आई और उसने वह धारा हटाकर गुरुजी की गिरफ्तारी प्रतिबंधक कानून के अंतर्गत की जाने की बात कही। उस समय, संघ के अनेक अधिकारियों को भी प्रतिबंधक कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर कारागृह में ठूँसा गया था। संघ के करीब बीस हजार कार्यकर्ताओं के घरों की भी तलाशी ली गई। लेकिन गांधीजी की हत्या की साजिश में संघ के सहभागी होने का रत्तिभर भी प्रमाण नहीं मिला। इस वस्तुस्थिति की दखल सरदार पटेल ने निश्चित ही ली होगी।
पटेल पर अविश्वास
सरदार पटेल का संघ के बारे में जो मत था वह पंडित नेहरु और उनके वामपंथी विचारधारा के अनुयायी जानते थे। गृहमंत्री सरदार पटेल, गांधी-हत्या के मामले की सही जाँच नहीं करेंगे, ऐसा भाव उनके मन में था। पंडित नेहरु ने सरदार पटेल को लिखे एक पत्र में वह व्यक्त भी हुआ है। पंडित नेहरु का यह पत्र 26 फरवरी 1948 मतलब संघ पर जिस माह बंदी लगाई गई, उसी माह का है। उस पत्र में के मुख्य मुद्दे इस प्रकार है :
1) गांधीजी की हत्या की व्यापक साज़िश की खोज करने में कुछ ढिलाई दिखाई दे रही है।
2) गांधीजी की हत्या यह एकाकी घटना नहीं। वह आरएसएस के व्यापक अभियान का एक हिस्सा है।
3) संघ के अनेक कार्यकर्ता अभी भी बाहर हैं। कुछ विदेशों में गये है, या भूमिगत है या खुलेआम बाहर घूम रहे है। उनमें से कुछ हमारे कार्यालय तथा पुलिस में भी है। इस कारण, कोई भी बात उनसे गुप्त रखना असंभव है।
4) मुझे ऐसा लगता है कि, पुलिस और अन्य स्थानीय अधिकारियों ने कडाई से काम करना चाहिए। उन्हें थोड़ी फुर्ती दिखाकर ढिला पडने की आदत है। सबसे अधिक खतरनाक बात यह है कि, उनमें से अनेकों को संघ के बारे में सहनुभूति है। इस कारण, ऐसी धारणा बन गई है कि, सरकार की ओर से कोई परिणामकारक कारवाई नहीं की जाती।
यह सरदार पटेल पर, अप्रत्यक्ष रूप में, अविश्वास प्रकट करने का ही प्रयास था।
पटेल का उत्तर
सरदार पटेल ने, तुरंत दूसरे दिन ही मतलब 27 फरवरी को विस्तृत उत्तर भेजा। उस प्रदीर्घ पत्र के मुख्य मुद्दे इस प्रकार हैं :
1) गांधीजी के हत्या के मामले की जाँच के संदर्भ में मैं प्रतिदिन जाँच के प्रगति का जायजा लेता हूँ।
2) जिन आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है, उनके निवेदन से यह स्पष्ट हुआ है कि, इस साज़िश के केन्द्र पुणे,
मुंबई, अहमदनगर और ग्वालियर थे। उसका केन्द्र दिल्ली नहीं था। ...... उन निवेदनों से यह भी स्पष्ट हुआ है कि इस साज़िश में संघ का हाथ नहीं था।
3) दिल्ली के संघ के बारे में कहें तो उनके वहाँ के प्रमुख कार्यकर्ताओं में से किसी के भी छूटने की जानकारी मुझे नहीं है।
4) मुझे पूरा भरोसा है कि, दिल्ली के सब प्रमुख संघ कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है।
5) दूसरे किसी भी स्थान या प्रान्त की तुलना में दिल्ली में गिरफ्तारी की संख्या अधिक है।
संघ की प्रशंसा
प्रतिबंधात्मक गिरफ्तारी में छ: माह बीतने के बाद 6 अगस्त 1948 को श्री गुरुजी कारागृह से मुक्त हुए। उसके बाद उन्होंने 11 अगस्त को सरदार पटेल को पत्र लिखकर, दिल्ली आकर उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। श्री गुरुजी को पंडित नेहरु से भी मिलना था और उन्होंने उन्हें पत्र भी लिखा था। लेकिन पंडित नेहरु ने मिलने से इंकार किया। कारागृह से मुक्त होने के बाद भी, श्री गुरुजी को नागपुर से बाहर जाने की पाबंदी थी। वह पाबंदी इस पत्र के बाद हटाई गई और वे दिल्ली गये।
श्री गुरुजी ने 11 अगस्त को लिखे पत्र को सरदार पटेल ने 11 सितंबर को उत्तर भेजा। उस उत्तर में सरदार पटेल लिखते है :
1) संघ के बारे में मेरे विचारों की आपको जानकारी होगी ही। मेरे यह विचार मैंने गत दिसंबर में जयपुर और जनवरी में लखनऊ में किए भाषण में प्रकट किये थे। लोगों ने इन विचारों का स्वागत किया था।
2) हिंदू समाज की संघ ने सेवा की है, इस बारे में कोई संदेह नहीं। जहाँ सहायता और संगठन की आवश्यकता थी, वहाँ संघ के युवकों ने महिलाओं और बच्चों की रक्षा की और उनके लिए बहुत परिश्रम भी किये।
3) मैं पुन: आपको बताता हूँ कि, आप मेरे जयपुर और लखनऊ के भाषणों का विचार करें और उन भाषणों में मैंने संघ को जो मार्ग दिखाया है उसका स्वीकार करें। मुझे विश्वास है की, इसमें ही संघ और देश का भी हित है। आपने यह मार्ग स्वीकार किया तो हमारे देश के कल्याण के लिये हम हाथ मिला सकते हैं।
4) मुझे पूरा विश्वास है कि,
संघ अपना देशभक्ति का कार्य काँग्रेस में आकर ही कर सकेगा। अलग रहकर या विरोध करके नहीं।
26 नवंबर 1948 को श्री गुरुजी को लिखे दूसरे पत्र में भी श्री पटेल यहीं भावना व्यक्त करते हैं। वे लिखते हैं, ‘‘सब बातों का विचार करने के बाद मेरी आपके लिए एक ही सूचना है, वह यह कि, संघ ने नया तंत्र और नई नीति अपनानी चाहिए। यह नया तंत्र और नीति काँग्रेस के नियमानुसार ही होनी चाहिए।’’
संघ का सत्याग्रह
यह ध्यान में रखना चाहिये कि, श्री पटेल के यह विचार संघ पर पाबंदी रहने के समय के हैं। श्री गुरुजी ने दिल्ली जाकर सरदार पटेल से भेंट की। संघ की भूमिका विशद की। लेकिन पाबंदी कायम ही रही। इतना ही नहीं तो श्री गुरुजी दिल्ली छोडकर नागपुर लौट जाय,
ऐसा हुक्म ही जारी किया गया। लेकिन न्याय मिलने तक दिल्ली न छोडने का निर्धार श्री गुरुजी ने प्रकट किया। तब 1818 के काले कानून के अंतर्गत उन्हें गिरफ्तार कर नागपुर भेजा गया और सिवनी के कारागृह में रखा गया।
अपने ऊपर हो रहा अन्याय दूर करने के लिए दूसरा कोई भी मार्ग शेष न रहने के कारण, बंदी उठाने के लिये 9 दिसंबर 1948 से संघ ने सत्याग्रह आरंभ किया। आरंभ में इस सत्याग्रह की हँसी उडाई गई। ‘हिंसा पर विश्वास रखनेवाले’
शांतिपूर्ण सत्याग्रह कर ही नहीं सकेंगे ऐसी उनकी कल्पना थी। और, एक-दो हजार लड़के ही इसमें भाग लेंगे, ऐसा भी उनका अनुमान था। लेकिन सत्याग्रह पूरी तरह से शांततापूर्ण हुआ। कुछ स्थानों पर पुलिस ने अत्याचार किये,
लेकिन स्वयंसेवकों की शांति भंग नहीं हुई और सत्याग्रह में 70 हजार से अधिक स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी दी।
विचारवंतों की मध्यस्थता
इस सत्याग्रह ने समाज के विचारवंतों को आकृष्ट किया और उन्होंने मध्यस्थता के लिए पहल की। प्रथम ‘केसरी’ के तत्कालीन संपादक श्री ग. वि. केतकर सामने आये। वे सरकार के प्रतिनिधियों से मिले; कारागृह में श्री गुरुजी से मिले और उन्होंने गुरुजी को बताया कि, जब तक सत्याग्रह समाप्त नहीं किया जाता, तब तक सरकार के साथ चर्चा नहीं हो सकती। श्री केतकर की सूचना के अनुसार 22 या 23 जनवरी 1949 को सत्याग्रह रोका गया। लेकिन पाबंदी कायम ही रही। फिर पुराने मद्रास क्षेत्र में एडव्होकेट जनरल इस महत्त्व के पद पर कार्य कर चुके श्री टी. आर. व्यंकटराम शास्त्री आगे आये। वे भी सरकारी अधिकारियों से मिले; फिर गुरुजी से भी मिले। उन्होंने श्री गुरुजी को बताया कि, ‘‘संघ अपना संविधान लिखित स्वरूप में दें, ऐसी सरकार की मांग है। उसके बाद ही पाबंदी हटाने का विचार होगा।’’ श्री गुरुजी ने प्रतिप्रश्न किया कि, ‘‘हमारे पास लिखित संविधान नहीं है, क्या इसलिए हमपर पाबंदी लगाई गई थी?’’ फिर भी, व्यंकटराम शास्त्री जैसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान रखने के लिए संघ ने लिखित स्वरूप में अपना संविधान सरकार के पास भेजा। उसके बाद सरकार ने तुरंत पाबंदी हटानी चाहिए थी। लेकिन सरकार को लगा कि, गुरुजी दबाव में आ रहे है, उन्हें और झुकाना चाहिए,
इसलिए सरकार ने उस संविधान में कमियों के बहाने खोजना शुरू किया। पाबंदी कायम ही रही। श्री व्यंकटराम शास्त्री भी नाराज हुए और अपनी मध्यस्थता असफल होने की, लेकिन संघ पर पाबंदी हटाने की आवश्यकता है ऐसी सूचना देनेवाला पत्रक उन्होंने निकाला। श्री गुरुजी और सरकार को सूचित किया कि इसके बाद वे सरकार से कोई पत्रव्यवहार नहीं करेंगे। अब सरकार फँस गई। वह पाबंदी कायम नहीं रख सकती थी। जनमत भी उस पाबंदी के विरोध में हो गया था। फिर सरकार ने श्री मौलिचन्द्र शर्मा के रूप में एक मध्यस्थ चुना। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि, श्री केतकर और श्री शास्त्री स्वयंप्रेरणा से मध्यस्थता के लिए सामने आये थे। पंडित मौलिचन्द्र शर्मा का चुनाव सरकार ने किया था।
पंडित मौलिचन्द्र शर्मा
पंडित मौलिचन्द्र ने पहले, कारागृह के बाहर के संघ के अधिकारियों से भेंट की। उन्होंने श्री शर्मा को स्पष्ट बताया कि,
श्री गुरुजी सरकार को कुछ लिखकर नहीं देंगे। शर्माजी खाली हाथ दिल्ली लौटे। लेकिन तुरंत दूसरे दिन वापस आये। श्री गुरुजी सरकार को कुछ भी लिखकर न दे, लेकिन मौलिचन्द्र शर्मा कुछ प्रश्न पूछेंगे,
उनका उत्तर, पत्र के रूप में गुरूजी लिखकर दें, ऐसा हल लेकर वे आये। और उन्होंने सिवनी के कारागृह में श्री गुरुजी से भेंट की। श्री गुरुजी ने, श्री मौलिचन्द्र शर्मा के नाम पत्र लिखकर अनेक मुद्दों पर संघ की भूमिका स्पष्ट की। पत्र ‘माय डिअर पंडित मौलिचन्द्र जी’ इस उद्बोधन से आरंभ होता है। इस पत्र में वहीं स्पष्टीकरण है, जो श्री गुरुजी ने दिल्ली में 2 नवंबर 1948 की पत्रपरिषद में दिया था। लेकिन तब सरकार का समाधान नहीं हुआ था। पर आश्चर्य यह कि अब पंडित मौलिचन्द्र शर्मा को लिखे पत्र से सरकार का समाधान हुआ। वह पत्र 10 जुलाई को सिवनी के कारागृह में लिखा गया है और 12 जुलाई 1949 को संघ पर की पाबंदी हटाई गई। एक संजोग यह भी था की, जिस दिन की सुबह के समाचारपत्रों में श्री व्यंकटराम शास्त्री की मध्यस्थता असफल होने का पत्रक प्रकाशित हुआ था, उसी दिन सायंकाल आकाशवाणी से सरकार ने संघ पर की पाबंदी हटाने की घोषणा हुई।
वर्किंग कमेटी का प्रस्ताव
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि काँग्रेस में एक प्रभावशाली समूह को संघ काँग्रेस के साथ सहयोग करें ऐसा लगता था। उसमें सरदार वल्लभभाई पटेल,
पुरुषोत्तमदास टंडन,
डॉ. राजेन्द्रप्रसाद का समावेश था। इस कारण ही, संघ पर की पाबंदी हटाने के कुछ समय बाद ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित कर, संघ के स्वयंसेवक काँग्रेस में प्रवेश कर सकते हैं, ऐसा घोषित किया। जिस समय वर्किंग कमेटी ने यह प्रस्ताव पारित किया, तब पंडित नेहरु कॉमनवेल्थ कॉन्फरन्स के लिए लंदन गये थे। इस प्रस्ताव से, वे स्वयं और उनके समर्थक चकित और हतबुद्ध हुए। पंडित नेहरु ने स्वदेश लौटते ही, वह प्रस्ताव पीछे लेने के लिये वर्किंग कमेटी को बाध्य किया। वह प्रस्ताव कायम होता, तो संघ में जिन लोगों का राजनीति की ओर झुकाव था, वे काँग्रेस में प्रवेश करते। वैसा होता, तो शायद भारतीय जनसंघ की स्थापना नहीं होती और काँग्रेस के बडबोले महासचिव दिग्विजय सिंह कहते है, वैसे भाजपा भी निर्माण नहीं होती। लेकिन यह निश्चित है कि, संघ चलता ही रहता। कारण, किसी सियासी पार्टी में विलीन होने के लिये वह निर्माण ही नहीं हुआ था। संघ का उद्दिष्ट बहुत व्यापक है, संपूर्ण समाजजीवन को अपनी परिधि में लेनेवाला है। वह दिग्विजय सिंह जैसे हल्की सोच रखनेवाले, बेताल और बडबोले लोगों की आकलनशक्ति से परे है।
सरदार पटेल की मुंबई में निकली अंतिम यात्रा में उपस्थित रहने की श्री गुरुजी की इच्छा थी और तत्कालीन मध्य प्रान्त वर्हाड के मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल श्री गुरुजी को हवाई जहाज में अपने साथ ले गये थे, यह घटना भी यहाँ ध्यान में लेनी चाहिए।
- मा. गो. वैद्य
नागपुर, दि. 08 - 11 -2013
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