Monday, 19 May 2014

भाजपा की अभूतपूर्व जीत और काँग्रेस का भवितव्य




16 वी लोकसभा के लिए हुए चुनाव के परिणाम घोषित हुए| भाजपा की अभूतपूर्व जीत हुई| अटलबिहारी बाजपेयी जी के नेतृत्व में हुए 1998 और 1999 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा को 182 सिटें मिली थी| स्थिर सरकार स्थापन करने के लिए और 90 सिटों की आवश्यकता थी जो उसके मित्रदलों ने पूर्ण की थी| इन मित्रदलों में महाराष्ट्र में शिवसेना और जम्मू-कश्मीर की नॅशनल कॉन्फरन्स जैसै दो छोर के दलों का समावेश था| 1998 में जब भाजपा चुनाव में उतरी, तब उसका अपना अलग घोषणापत्र था| लेकिन सरकार बनाते समय, अन्य कुछ दलों को साथ लेने के लिए सॉझा कार्यक्रमबनाना पड़ा| एक सहयोगी दल के असहयोग के कारण, वह सरकार 13 माह में ही गिर गई और 1999 में फिर चुनाव हुए| उस 1999 के चुनाव में, एक वर्ष पूर्व जो सॉझा कार्यक्रममान्य हुआ था, वही भाजपा का घोषणापत्र बना और सब दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा| लेकिन भाजपा के सांसदों की संख्या 182 का आँकड़ा पार नहीं कर पाई| मित्रदलों के सहयोग से अटलबिहारी बाजपेयी जी के नेतृत्व में वह सरकार अपना पाँच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण  पाई| 



विक्रमी जीत 

अब की बार भाजपा ने अपने बल पर 284 सिटें जीती है| यह पूर्ण बहुमत के लिए आवश्यक सिटों से बारह अधिक है| यह अभूतपूर्व जीत है| इसकी और एक विशेषता यह है कि, भाजपा का अपना स्वतंत्र घोषणापत्र था| 1999 के घोषणापत्र में परे रखे- अयोध्या में का राम-मंदिर, धारा 370, समान नागरी कानून यह विषय, इस घोषणापत्र में समाविष्ट थे| और इन तीन मुद्दों के साथ चुनाव में उतरी भाजपा के साथ शिवसेना और अकाली दल के साथ, पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, चंद्राबाबू नायडू की तेलगू देसम् पार्टी तथा दक्षिण भारत की अन्य कुछ पार्टियाँ भी थी| विकास और पारदर्शी प्रशासन यह मुद्दें तो थे ही| उनके बारे में किसी का भी अलग मत रहने का कारण नहीं| उपरोक्त उल्लेखित मुद्दों के संदर्भ में सब का एकमत नहीं भी होगा, तथापि, जब इन मुद्दों के साथ चुनाव के संग्राम में उतरी भाजपा के साथ अन्य दलों ने भी गठबंधन किया, तो इसका अर्थ यह है कि, इन तीन मुद्दों के संदर्भ में कानून या संविधान की मर्यादा लांघे बिना भाजपा ने कोई कदम उठाये, तो इन मित्रदलों का विरोध रहने का कारण नहीं| भाजपा की अगुवाई में इस गठबंधन मतलब राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा - एनडीए को - 334 सिटें मिली है| मतलब 61 प्रतिशत से अधिक सिटें मिली है| यह भी, राजीव गांधी के नेतृत्व में काँग्रेस पार्टी को 1984 में मिली सिटों का अपवाद छोड दे, तो गत 25 वर्षों में का एक रेकॉर्ड ही है|


मोदी का श्रेय

भाजपा को मिली इस अभूतपूर्व जीत का श्रेय किसी एक व्यक्ति को देना चाहे तो वह श्री नरेन्द्रभाई मोदी को ही देना पडेगा| उनके अथक प्रयास और जनता तथा उसमें भी युवा पिढी के साथ उन्होंने बनाया संवाद और उसके साथ उनके जुड़े मानसिक एवं वैचारिक तार के कारण ही यह अत्यंत प्रशंसनीय सफलता भाजपा को मिल पाई| इसका अर्थ पार्टी संगठन को कम आँकना कतई नहीं है| किन्तु यह संगठन तो 2004 और 2009 में भी था! लेकिन उस समय पार्टी को हार का मुँह देखना पड़ा था| श्री मोदी के नेतृत्व ने पार्टी में नई जान डाली और नया जोश भर दिया, यह सर्वमान्य है| 


संघ स्वयंसेवकों का योगदान 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का योगदान भी मान्य करना ही पडेगा| संघ राजनीति से अलिप्त रहता है| उसका जुडाव संपूर्ण समाजजीवन के साथ है| राजनीति भी संपूर्ण जीवन का एक घटक है| महत्त्व का घटक है| लेकिन एकमात्र घटक नहीं| इस कारण संघ का इस ओर भी ध्यान रहता है| धर्म, शिक्षा, उद्योग, कृषि आदि क्षेत्रों के समान इस क्षेत्र में भी संघ के कार्यकर्ता है| इस समय, लोकसभा का चुनाव घोषित होने के बहुत समय पूर्व, गत वर्ष के अक्टूबर माह में सरसंघचालक श्री मोहन जी भागवत ने विजयादशमी महोत्सव में किये उद्बोधन में सब मतदान करें और शतप्रतिशत मतदान हो ऐसा विचार रखा था| उस विचारानुरूप संघ के स्वयंसेवक घर-घर गये और लोगों से मतदान करने का आग्रह किया| मतदान किसे करना है यह उन्हें बताना ही नहीं पडा| नागरिकों के विवेक पर संघ का विश्‍वास है| संघ के इस प्रयास के कारण ही मतदान के प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि हुई| संपूर्ण देश में पहली बार 66 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है| भाजपाविरोधी पार्टियों और मुख्यत: काँग्रेस के संघविरोधी प्रचार ने, स्वयंसेवकों के प्रयासों को और गति, जिद दी| काँग्रेस तो ऐसे प्रचार कर रही थी कि मानों उनकी लडाई भाजपा से न होकर संघ के साथ ही है! संघ का भय दिखाकर मुसलमानों के इकठ्ठा मत हासिल करने की वह एक चाल थी| भाजपा के इस अभूतपूर्व विजय में भाजपाविरोधी पार्टियों के इस संघविरोध का भी बहुत बडा योगदान है|

जातीय राजनीति का पराभव

इस चुनाव की और एक विशेषता यह है कि मतदाता जाति, पंथ, भाषा आदि भेदों से उपर उठ गए| हिंदू यहाँ का बहुसंख्य समाज है| राष्ट्रमतलब लोग होते है -  People are the Nation यह जगत्मान्य सिद्धांत होने के कारण तथा समाज के जीवनमूल्य ही समाज के एकत्व एवं राष्ट्रीयत्व की कसौटी होने के कारण हम हिंदूयह एक राष्ट्र है, ऐसा मानते है| यह हिंदू समाज अनेक जातियों और उपजातियों में विभाजित है| यह विभक्तीकरण कम कर सबको जोडने के बदले, अनेक संकुचित विचारों के स्वार्थी सियासी लोग जाति के आधार पर अपने सत्ताप्राप्ती का जुगाड रचते है| उनकी पार्टियों के नाम दिखाने के लिए बहुत ही अच्छे होने पर भी, उनकी कृति जाति के - जो अब कालबाह्य हो चुकी है - अभिमान को बढावा देनेवाली रही है| इन जातिविशिष्ट पार्टियों को इस चुनाव में मतदाताओं ने सारी जिंदगी याद रहनेवाला करारा चाटा मारा है| दलितों की राजनीति करनेवाली मायावती के बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली है| 2009 के चुनाव में इस पार्टी ने केवल उत्तर प्रदेश में 20 सिटें हासिल की थी| इस बार उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सभी 17 सिटें भारतीय जनता पार्टी के खाते में गई है| समाजवादी पार्टी को 2009 में सबसे अधिक सफलता मिली थी| और उसके बाद दो वर्ष पूर्व हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में उसे पूर्ण बहुमत मिला था, वहाँ उस पार्टी की ही सरकार है| फिर भी अब की बार वह केवल पाँच सिटों पर ही सिमट गई| यह पाँचों सिटें, समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा श्री मुलायम सिंह और उनके करीबी रिश्तेदार ही जीत पाए है| दलित और मुस्लिम, यादव और मुस्लिम यह सब समीकरण उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने खोखले सिद्ध किये और राज्य में पहली बार भाजपा को 80 में से 71 सिटें दी| उत्तर प्रदेश में की इस जीत का श्रेय, वहाँ ताल ठोक कर बैठे श्री अमित शहा को ही है| जाति आधारित और मुसलमानों को समाज से अलग करने की राजनीति करनेवालों ने, इस चुनाव से सही सबक लेने की आवश्यकता है| 

काँग्रेस की तबाही
इस चुनाव में काँग्रेस पूरी तबाह हुई है| पाँच वर्ष पूर्व, अपने बल पर 206 सिटें जितनेवाली यह पार्टी, इस चुनाव में पचास का आँकडा भी नहीं छूं पाई| उसके खाते में केवल 46 सिटें आई| गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, गोवा, जम्मू-कश्मीर, ओडिसा और तामिलनाडु इन राज्यों में काँग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाया| इनमें से कुछ राज्यों में तो काँग्रेस पार्टी की ही सरकारें थी| इससे पहले इस पाटीं की ऐसी लज्जाजनक दुर्गती कभी नहीं हुई थी| 

चिंता की बात
मुझे यह गंभीर चिंता की बात लगती है| केवल पार्टी के लिए नहीं, संपूर्ण जनतांत्रिक व्यवस्था की दृष्टि से भी| देश में अनेक पार्टियाँ है| उनमें से कुछ विशिष्ट राज्यों तक ही सीमित है| जैसे तृणमूल काँग्रेस केवल पश्‍चिम बंगाल तक| अद्रमुक और द्रमुक तामिलनाडु तक| समाजवादी पार्टी केवल उत्तर प्रदेश तक, जनता दल (सेक्युलर) केवल कर्नाटक तक, शिवसेना केवल महाराष्ट्र तक| इन पार्टियों को न तो अखिल भारतीय दृष्टि है, न समझ, न कोई स्थान| अन्यत्र कही कोई कार्यकर्ता होगे भी लेकिन अखिल भारतीय नीति नही| किसी भी पार्टी के पास विदेश नीति नहीं| तृणमूल काँग्रेस के पास होगी, तो वह केवल बांगला देश तक और अद्रमुक या द्रमुक की केवल श्रीलंका तक सीमित| मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के गठबंधन को तीन राज्यों में स्थान है, और इस गठबंधन की एक विशिष्ट आर्थिक एवं विदेश नीति भी है| लेकिन उनका अखिल भारतीय स्तर पर विस्तार नहीं और कालबाह्य हुए साम्यवादी विचारों के प्रसार के लिए कोई संभावना भी नहीं है| कम या अधिक ही सही, लेकिन अस्तित्व और विस्तार की केवल दो ही अखिल भारतीय पार्टियाँ है| (1)  भाजपा और (2) काँग्रेस| जनतांत्रिक व्यवस्था की स्वस्थ प्रगति के लिए ऐसी दो पार्टियाँ रहना आवश्यक है, ऐसा मुझे लगता है| इंग्लंड में दो प्रमुख पार्टियाँ है| अमेरिका (युएसए) में भी दो प्रमुख पार्टियाँ है| वहाँ अन्य पार्टियाँ भी होगी| लेकिन प्रमुख दो पार्टियों में ही सत्तांतर होता रहा है| भारत में भी, ऐसी दो पार्टियों की आवश्यकता है| इसलिए काँग्रेस ने अपने आप को संभालना चाहिए| 

काँग्रेस मजबूत होने के लिए
काँग्रेस पुन: मजबूत बने ऐसा लगते समय ही, मेरे ध्यान में आता है कि, काँग्रेस का वर्तमान नेतृत्व जो सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी तक सीमित है (उसमें प्रियंका गांधी-वड्रा का भी समावेश कर ले), वह काँग्रेस में नई जान नहीं फूँक सकता| नई पीढी को परिवारवाद मान्य नहीं| और, व्यक्तिनुसार विचार करे तो, सोनिया गांधी का ऐसा क्या कर्तृत्व है, जो पार्टी को पुन: शक्ति प्रदान कर सके ? श्रीमती इंदिरा गांधी की बहू, इंदिरा जी के सुपुत्र राजीव गांधी की पत्नी इसके अतिरिक्त उनके पास क्या अर्हता है? गत कई वर्षों से वे संसद की सदस्य है| किसी एक भाषण में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा दिखाई है? जो बात सोनिया गांधी के बारे में है वही राहुल गांधी के बारे में भी है| संसदीय कामकाज में, उन्होंने अपनी कोई छाप छोडी हो, ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है| इसलिए मैं विचारपूर्वक कहता हूँ कि, काँग्रेस पार्टी को इस गांधी परिवार से परे विचार करना होगा| दिग्विजय सिंग या गहलोत, या अँटनी जैसे, साठ की आयु के ऊपर के लोगों को छोडकर, आमूलाग्र विचार करना होगा| ज्योतिरादित्य सिंदिया, अजय माकन, मिलिंद देवरा, दीपेन्द्र हुडा, मुकुल वासनिक, राजेन्द्र मुळक, सचिन पायलट, मीनाक्षी नटराजन जैसे पचास से कम आयु के नेताओं ने एक होकर विचार करना चाहिये| इनमें राहुल गांधी औ प्रियंका गांधी-वड्रा भी आ सकते है| इन युवा नेताओं ने संगठन की जड़ों को मजबूत करने का विचार करना चाहिए| सेक्युलरमतलब हिंदूविरोध या मुस्लिम तुष्टीकरण यह भ्रामक विचार परे रखकर अपने मूलभूत सिद्धांत निश्‍चित करने चाहिए| दृष्टि सकारात्मक होनी चाहिए| वृत्ति जाति - पाँति से उपर उठनेवाली, पंथ-संप्रदाय में भेद न करनेवाली होनी चाहिए| इन सबने या इनमें से कुछ ने ही सही प्रथम एक होकर काँग्रेस में पुन: जान डालने के लिए विचारविनिमय करना चाहिए| सोनिया गांधी तथा अन्य ज्येष्ठों का सम्मान रखा जाना चाहिए| उनका ऋण भी मान्य करना चाहिये| लेकिन पार्टी का नेतृत्व फिर पुराने नेताओं के हाथों में न जाने देकर, नए नेतृत्व और नए कार्यक्रम का विचार करना चाहिये| मेरे मतानुसार काँग्रेस में नवचैतन्य संचरित करने के लिए इससे हटकर अन्य कोई दूसरा मार्ग नही है| 

- मा. गो. वैद्य
नागपुर,
18-05-2014

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