Monday 3 September 2012

संसद ठप्प कर भाजपा क्या हासिल करेगी?



एक सप्ताह से अधिक समय हो चुका है, हमारी सार्वभौम संसद ठप्प है; और उसके ठप्प होने का श्रेय कहे, या अपश्रे, भारतीय जनता पार्टी इस हमारे जैसे अनेकों के आस्था या अभिमान का विषय रही राजनीतिक पार्टी को जाता है. मुझसे अनेकों के पूछॉं कि, इससे भाजपा क्या हासिल कर रही है? मैं उस प्रश्‍न का उत्तर नहीं दे पाया. तीन दिन पूर्व हिंदुस्थान टाईम्सइस विख्यात अंग्रेजी समाचारपत्र में काम करने वाले पत्रकार मित्र ने मुझे यही प्रश्‍न पूछॉं था. तब, ‘‘इस विषय पर मैं भाष्य लिखूंगा’’, ऐसा उत्तर देकर मैंने बात टाल दी थी. उसने मुझसे यह भी पूछॉं कि, देश में इस प्रकार आपत्काल सदृ स्थिति होते हुए भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष विदेश क्यों गये? मेरा उत्तर था, ‘‘मुझे पता नहीं.’’

प्रयोजन क्या?
बात सही है. किसी भी सियासी पार्टी के ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कार्यकर्ता कहे या नेताओं के वर्तन को अर्थ और प्रयोजन होना ही चाहिए और सामान्य जनों को उसका आकलन भी होना चाहिए. महाकवि कालिदास ने भगवान शंकर के संबंध में कहा है कि,
                                                अलोकसामान्यम् अचिन्त्यहेतुकम् |
                                                द्विषन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम् ॥
मतलब, महात्माओं के अलौकिक और असामान्य वर्तन का, और उनकी कृति के पीछे के अचिंतनीय कारणों का मंदबुद्धि के लोग द्वेष करते हैं. लेकिन यह राजनीतिक स्तर पर कार्य करने वाले नेताओं के बारे में लागू नहीं होगा. ३१ अगस्त के इंडियन एक्स्प्रेसमें प्रकाशित, भाजपा के एक वरिष्ठ नेता, भूतपूर्व मंत्री, मुख्तार अब्बास नकवी का इसी विषय पर का लेख ध्यान से पढ़ा. लेकिन उससे भी, संसद ठप्प करने की राजनीति का खुलासा नहीं हुआ. अपने ही मतदाताओं के और सहानुभूतिधारकों के मन में संभ्रम निर्माण करने से क्या साध्य होगा, यह अनाकलनीय है.

मांग समर्थनीय
इसका अर्थ यह नहीं कि, कोयले के ब्लॉक्स की सत्तारूढ कॉंग्रेस पार्टी ने जिस प्रकार से बंदरबॉंट कर, करोड़ों रुपयों का (सीएजी के अनुसार करीब पौने दो लाख करोड़ रुपयों का) भ्रष्टाचार किया है, वह समर्थनीय है. भ्रष्टाचारियों को सज़ा मिलनी ही चाहिए. इमानदारी का बुरखा ओढकर बेईमानी की करतूतें करने वालों को बेनकाब करना ही चाहिए. उनकी पोल खोलनी ही चाहिए. उनका काला चरित्र जनता के सामने आना ही चाहिए. यह स्पष्ट है कि, जिस कोयला विभाग में भ्रष्टाचार हुआ, उसके प्रभारी स्वयं प्रधानमंत्री थे. इस कारण उस भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी उन्हीं की है और स्वयं प्रधानमंत्री ने भी, भ्रष्टाचार होने की बात अमान्य की; लेकिन कोयले के ब्लॉक्स बॉंटने की जिम्मेदारी स्वीकार की है. जनलज्जा का थोड़ा भी अंश उनमें होता, तो जिस दिन संसद में निवेदन करते हुए उन्होंने यह जिम्मेदारी मान्य की, उसी निवेदन के अं में मैं पदत्याग कर रहा हूँ, ऐसी घोषणा भी उन्होंने की होती. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसका अर्थ निगोडेपन की उन्हें कोई शर्म नहीं, ऐसा कोई करे तो उसे दोष नहीं दिया जा सकता. इसी कारण भाजपा, प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की जो मांग कर रही है, वह बिल्कुल यर्थार्थ है, ऐसा ही कहना चाहिए.
लेकिन, अब तक यह स्पष्ट हो चुका है कि, वे त्यागपत्र नहीं देंगे. इस स्थिति में जन-आंदोलन का ही मार्ग शेष रहता है; और यह मान्सून सत्र समाप्त होने के बाद भाजपा ने, देश भर इस मुद्दे पर आंदोलन करने का जो निर्णय लिया है वह भी सही है.

संसदीय आयुध भिन्न
लेकिन इसके लिए संसद का काम ही न चलने देने का प्रयोजन क्या? हमने संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार की है. इस व्यवस्था में, संसद हो या विधानमंड़ल, वहॉं सरकारी पार्टी से लड़ने के हथियार अलग है. वह अलग होने ही चाहिए. धरना, माईक तोड़ना, सभापति के आसन पर बैठना, उनका दंड हथियाना, कुर्सियॉं फेकना, खुली जगह में उतरकर नारे लगाना ये वह शस्त्र नहीं हैं. भाजपा ने इन शस्त्रों का उपयोग किया ऐसा मुझे सूचित भी नहीं करना है. भाजपा के सांसद केवल खुली जगह में जाकर नारे लगाते रहे और उन्होंने संसद का काम नहीं चलने दिया, इस मर्यादा तक ही उनका मौखिक विरोध मर्यादित था. लेकिन यह भी संसदीय आयुध नहीं हैं. काम रोको की सूचना, विशिष्ट धारा का आधार लेकर मतदान के लिए बाध्य करने वाली चर्चा, और अंतिम, अविश्‍वास प्रस्ताव यह मुख्य शस्त्र हैं. संसदीय प्रणाली माननी होगी, तो यह मर्यादाए पाली ही जानी चाहिए. संसद में चर्चा होनी ही चाहिए और उस चर्चा द्वारा ही अपने मुद्दे दृढता से रखने चाहिए. संसदीय जनतंत्र मान्य है ऐसा निश्‍चित करने के बाद, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं. संसद ही नहीं चलने देना यह संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली के अनुरूप कैसे हो सकता है?

दो घटनाए
एक पुरानी बात याद आई. शायद १९७८ की होगी. कुछ ही समय पूर्व मैं महाराष्ट्र विधान परिषद का सदस्य बना था. श्री रा. सू. गवई विधान परिषद के सभापति थे. राजनीति में वे रिपब्लिकन पार्टी के एक श्रेष्ठ नेता भी थे. सभापति रहते हुए, उन्होंने बाहर, सड़क पर उतरकर सरकारविरोधी एक मोर्चे का नेतृत्व किया था. इस पर मैंने तरुण भारतमें एक अग्रलेखलिखा था. उसका शीर्षक होगा, ‘गवई : सभागृहातले आणि सभागृहाबाहेरचे’ (‘गवई : सभागृह के भीतर के और सभागृह के बाहर के’). सभागृह का कामकाज चलाने की उनकी शैली की मैंने प्रशंसा की थी. लेकिन अंत में प्रश्‍न उपस्थित किया था कि, सभागृह में निष्पक्षता की गारंटी देने वाले गवई सभागृह के बाहर अपनी पार्टी के संदर्भ में पराकोटी का सीमित दृष्टिकोण कैसे रख सकते है? क्या मनुष्य ऐसी द्विधा भग्न मानसिकता का हो सकता है? इस लेख पर बबाल हुआ. एक कॉंग्रेसी सदस्य ने सभापति की निंदा करने के लिए मेरे विरुद्ध विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव रखा. श्री गवई ने वह निरस्त किया; और कारण दिया कि, ‘‘उस लेख में सभापति के रूप में मेरी प्रशंसा ही है. सभागृह के बाहर के मेरे क्रियाकलापों की आलोचना करने का उन्हें अधिकार है.’’
उसके पूर्व की और एक घटना. श्री वसंतराव नाईक मुख्यमंत्री थे. श्री रामभाऊ म्हाळगी, श्री उत्तमराव पाटील आदि नेता विपक्ष में थे. उन लोगों ने, मुख्यमंत्री का विधान सभागृह में जाने का रास्ता रोक रखा था. मैंने उसपर तरुण भारतमें लिखा कि, म्हाळगी और अन्य नेताओं का यह वर्तन संसदीय प्रणाली के अनुरूप नहीं है. रामभाऊ म्हाळगी मेरे अच्छे मित्र थे. पश्‍चात हमारे बीच इस विषय पर काफी चर्चा भी हुई.

रास्ते पर के आंदोलन
रास्ते पर आंदोलन कैसे करे, इसके वैसे तो कोई नियम नहीं. हम मोर्चे निकाल सकते है. पोस्टर्स छाप सकते है. धरना दे सकते है. जिसका विरोध करना है उस व्यक्ति का - आज डॉ. मनमोहन सिंह का - पुतला भी जला सकते है. बंद रख सकते है. कानून और व्यवस्था भंग कर, सार्वजनिक और नीजि वाहनों तथा संपत्ति की हानि कर स्वयं के विरुद्ध पुलीस कारवाई आमंत्रित करवा सकते है. अर्थात् उसके परिणाम भुगतने की तैयारी भी आप रख सकते है. हमारे देश में रास्ते पर विरोध प्रकट करने के ऐसे अनेक आकार-प्रकार अब निश्‍चित हो गए है. मुझे उनके बारे में यहॉं चर्चा नहीं करनी. लेकिन संसद के परिसर में हमने संसदीय आयुधों से ही लड़ना चाहिए.

भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा
करीब आठ दिन संसद ठप्प करने के बाद भी यह स्पष्ट हो चुका है कि, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह त्यागपत्र नहीं देंगे. चुनाव के लिए अभी देड-पौने दो वर्ष बाकी है. अब मान्सून सत्र समाप्त होने जा रहा है. दो माह बाद शीतकालीन सत्र आएगा. उस समय भाजपा क्या करेगी? क्या भाजपा, वह और उसके बाद के सत्र भी ठप्प करेगी? सरकार चलाने वाले संप्रमो के पास बहुमत है. इस कारण यह सरकार त्यागपत्र नहीं देगी. मध्यावधि चुनाव की संभावना मुझे नहीं लगती. ममता बॅनर्जी, मुलायम सिंह, करुणानिधि, मायावती ये संप्रमो के मित्र चाहेंगे तो ही मध्यावधि चुनाव होगे. उससे पहले, इसी वर्ष के अंत में, गुजरात विधानसभा का चुनाव है. आगामी वर्ष के पूर्वार्ध में हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, रास्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक आदि कुछ छोटे-बड़े राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव है. भाजपा की दृष्टि से इनमें से अधिकांश राज्य महत्त्वपूर्ण हैं. उन चुनावों का महत्त्व ध्यान में लेकर, सितंबर से भ्रष्टाचार विरोधी संकल्पित जनआंदोलन अधिकाधिक प्रखर करना चाहिए. सरकारी भ्रष्टाचार यह एक अत्यंत महत्त्व का मुद्दा बन चुका है. अण्णा हजारे के गत वर्ष के आंदोलन ने उसकी विशालता, व्यापकता और लोकप्रियता अधोरेखित की है. सांप्रत अण्णा का आंदोलन भटक गया है. बाबा रामदेव का भी आंदोलन चल रहा है. इन आंदोलनों से जनमानस उद्वेलित हुआ है. इसका सियासी लाभ केवल जन-आक्रोश (Mass-hysteria) नहीं उठा सकता. कोई सुसंगठित व्यवस्था ही इस स्थिति का लाभ उठा सकती है. सौभाग्य से ऐसी व्यवस्था भाजपा के पास है. उसने इस दृष्टि से, अपनी रणनीति तैयार करने की आवश्यकता है. संसदीय काम ठप्प करना यह विपरीत फल देने वाली नीति सिद्ध होगी, ऐसा मुझे भय लगता है.
भाजपा में सार्वजनिक जीवन का, विशेष रूप से सियासी जीवन का अच्छा-खासा अनुभव रखने वाले बुद्धिमान नेता हैं. उन्हें संसदीय प्रणाली के संचालन का भी अनुभव है. मुझे आशा है कि, इस प्रकार की नकारात्मक गतिविधियों से, अत्यंत अनुकूल हो रही परिस्थिति को वे बाधित नहीं करेंगे. कल्पना करे कि, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, झारखंड, गुजरात आदि राज्यों में वहॉं की विरोधी पार्टिंयॉं, ऐसा ही कुछ रास्ता निकालकर विधिमंडलका काम नहीं चलने देंगी, तो क्या वह भाजपा को मान्य होगा? किस मुँह से भाजपा उन्हें दोष दे सकेगी? इसलिए, जो हुआ वह बहुत हुआ, कुछ ज्यादती ही हुई, ऐसा मानकर अलग मार्ग स्वीकारना, हित में होगा, ऐसा मेरी अल्पमति को लगता है. वाम पार्टिंयों ने, इस सारे घोटाले की जॉंच सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश से कराने की जो मांग की है, वह मुझे समर्थनीय लगती है. दिए गए परमिट रद्द करने, और कोयला ब्लॉक्स नई पद्धति से वितरित करने की मांग भी की जा सकती है. लेकिन इसके लिए संसद चलनी चाहिए. वह सही तरीके से चलनी चाहिए और सरकार को अपनी बात रखने का मौका मिलना चाहिए. तब ही उसपर साधक-बाधक चर्चा हो सकती है. सरकार के जिस प्रकार के वक्तव्य समाचारपत्रों में प्रकाशित हो रहे हैं, उससे स्पष्ट होता है कि, उसका पक्ष कमजोर है. सरकार को संसद के सभागृह में अपनी बात रखने दे. करने दे सीएजी के हेतु पर आरोप. इससे कॉंग्रेसवालों की ही हँसी होगी. भाजपा, संसद का काम ठप्प करने का आरोप स्वयं पर ओढकर, कॉंग्रेस को बचाव का एक साधन क्यों दें?

- मा. गो. वैद्य  
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com 
                         

1 comment:

  1. A very good and enlightening analysis.Let us hope that BJP will use the Parliamentarian tools, as Vaidya ji has suggested,to fight the Congress in Parliament, which can not be kept defunct.Salutes to Vaidya ji.

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