Thursday 16 May 2013

मेरी टिप्पणी : अश्‍विनी कुमार : बलि का बकरा?

शुक्रवार दि. १० मई को, डॉ. मनमोहन सिंह सरकार के दो मंत्रियों ने त्यागपत्र दिए. उनमें से एक है कानून मंत्री अश्‍विनी कुमार, और दूसरे है रेल मंत्री पवन कुमार बन्सल. बन्सल के त्यागपत्र का कारण समझा जा सकता है. उनके भांजे पर, रेल बोर्ड में सम्मान का पद प्राप्त करने के इच्छुक महेश कुमार से ९० लाख रुपये घूस लेने का आरोप है. उच्च पद प्राप्ति और घूस की राशि के बारे का सौदा रेल मंत्री बन्सल के बंगले पर ही होने का समाचार है. 

लेकिन, कानू मंत्री अश्‍विनी कुमार ने त्यागपत्र देने का क्या कारण? कोयला खदान बटँवारा घोटाले की जाँच करनेवाली सीबीआय इस स्वायत्त संस्था ने, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की परवाह न कर, अपनी रिपोर्ट, न्यायालय में प्रस्तुत करने के पूर्व; अश्‍विनी कुमार को दिखाई; और उसमें कानून मंत्री ने कुछ बदल किए. यह आरोप गंभीर नहीं, ऐसा नहीं. इसके लिए अश्‍विनी कुमार ने अपनी गलती मानकर पदत्याग करना योग्य ही था. लेकिन त्यागपत्र देने के बाद भी वे कहते है कि, मैं निर्दौष हूँ. इसका अर्थ यह की, उन्होंने स्वयं त्यागपत्र नहीं दिया. किसी के दबाव में त्यागपत्र दिया है.           


इस संदर्भ में कुछ प्रश्‍न निर्माण होते है. पहला यह कि, अश्‍विनी कुमार ने सीबीआय के अधिकारी को, रिपोर्ट लेकर अपने पास बुलाने का क्या कारण था? उस रिपोर्ट में उनका नाम होने की संभावना तो थी ही नहीं. कारण कोयला खदान बटँवारा घोटाला हुआ, तब वे मंत्री नहीं थे. इस कारण, उनके पास वह या अन्य कोई विभाग होने की संभावना ही नहीं थी. फिर उन्हें उस रिपोर्ट के बारे में उत्सुकता होने का क्या कारण? 


दूसरा प्रश्‍न यह कि, सीबीआय के अधिकारी को अपने पास बुलाते समय प्रधानमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी को भी बुलाने का क्या कारण? उसी अधिकारी को अश्‍विनी कुमार ने क्यों बुलाया? उसका चुनाव किसने किया? निश्‍चित ही वह प्रधानमंत्री ने ही किया होगा या प्रधानमंत्री के विभाग में हस्तक्षेप करने की आदात रहे अन्य किसे ने किया होगा. ऐसा समाचार प्रकाशित हुआ है कि, डॉ. मनमोहन सिंह, अश्‍विनी कुमार का त्यागपत्र मांगने के लिए तैयार नहीं थे. इस मामले में अश्‍विनी कुमार का आरोपित हस्तक्षेपस्पष्ट दिखाई देते हुए और संसद में विपक्ष ने उनके त्यागपत्र के लिए हंगामा करने के बाद भी, प्रधानमंत्री, कानून मंत्री के समर्थन में खडे रहे थे. संसद का यह अधिवेशन संस्थगित होने के बाद केवल दो दिन में, ऐसा क्या हुआ कि अश्‍विनी कुमार को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया गया?

 
प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों की उपस्थिति की आवश्यकता कानून मंत्री को क्यों महसूस हुई? वह अधिकारी कानून का विशेषज्ञ तो था नहीं; और कानून मंत्री को कानून का पर्याप्त ज्ञान है. फिर उन्होंने यह बेकायदा कृति क्यों की? इस प्रश्‍न का उत्तर खोजते समय, अपरिहार्य रूप से संदेह की सुई, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ओर मुडती है. वह प्रचंड घोटाला हुआ, उस समय कोयला खदान बटँवारे का विभाग उन्ही के पास था. इस कारण त्यागपत्र, उन्होंने ही देना चाहिए था. अपनी चमडी बचाने के लिए कानून मंत्री की बलि देना, कभी भी समर्थनीय नहीं होगा. और मनमोहन सिंह ऐसा क्यों करेगे?


भूतपूर्व दूरसंचार मंत्री श्री राजा ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि, 2 जी स्पैक्ट्रम बटँवारा करते समय, उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ विचारविनिमय किया था. लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि उन्होंने विचारविनिमय प्रत्यक्ष प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ किया था, या उनके अंतर्गत काम करनेवाले उनके विभाग के किसी अधिकारी के साथ किया था? यह वही तो अधिकारी नहीं, जिसे अश्‍विनी कुमार ने बुलाया था?


और एक समाचार ऐसा भी प्रकाशित हुआ है कि, काँग्रेस पार्टी की सर्वेसर्वा श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहगार अहमद पटेल के निर्देश पर कोयला खदानों का बटँवारा हुआ. यह समाचार सच होगा तो संदेह की सुई श्रीमती सोनिया गांधी की ओर मुडती है; और जब तक डॉ. मनमोहन सिंह इस बारे में अपना मौनव्रत नहीं तोडते, तब तक इसका खुलासा होना संभव नहीं.

तथापि, इतना सच है कि, कानून मंत्री अश्‍विनी कुमार के हाथों औचित्य-भंग हुआ है. वह उन्होंने किसके कहने से किया, यह वे जब तक नहीं बताते, तब तक इस बारे में समाचार चलते ही रहेगे; और लोग यही समझेंगे कि, किसी को बचाने के लिए अश्‍विनी कुमार की बलि ली गई है.
मा. गो. वैद्य
नागपुर,
दि. १३-०५-२०१३

Saturday 11 May 2013

कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिणाम



कर्नाटक विधानसभा का पंचवार्षिक चुनाव ५ मई को हुआ. ८ मई को उसका परिणाम घोषित हुआ. वह कुछ अनपेक्षित है. इसलिए नहीं की भाजपा की हार हुई. वह तो अपेक्षित ही थी. लेकिन पार्टी कम से कम ६० सिटें जीत पाएगी, ऐसा मुझे लगता था. और किसी भी पाटीं को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा, त्रिशंकू विधानसभा अस्तित्व में आएगी, ऐसा मेरा अनुमान था. मेरे यह दोनों अनुमान गलत साबित हुए.

पराभव की मीमांसा
येदीयुरप्पा को भाजपा से हकालने के बाद और उन्होंने अपनी अलग पाटीं बनाने के बाद, भाजपा के समर्थकों में फूट पडेगी यह तो स्पष्ट था. २००८ में ११० सिटें जितनेवाली भाजपा से फूटकर दो पार्टियाँ बनी. एक येदीयुरप्पा की ‘कर्नाटक जनता पार्टी’ (कजपा) और दूसरी रेड्डी ब्रदर्स के प्रभावक्षेत्र में निर्माण हुई ‘बीएसआर काँग्रेस पाटीं’ (बीकाँपा). इन दोनों पार्टियों ने अपने लिए अधिक सिटें तो नहीं जीती. लेकिन भाजपा को बहुत हानि पहुँचाई. पहले मुंबई क्षेत्र का हिस्सा रहे उत्तर कर्नाटक में सन् २००८ में भाजपा को ३३ सिंटें मिली थी. इस बार वह १३ पर ही लटक गई. इस क्षेत्र में लिंगायत समाज की जनसंख्या करीब एक तिहाई है. येदीयुरप्पा की कजपा यहाँ केवल २ सिटें जीत पाई. लेकिन उसने भाजपा को २० सिटों की हानि पहुँचाई. इस क्षेत्र में पिछली बार काँग्रेस केवल १२ सिटें जीत पाई थी. अबकी बार यह आँकड़ा ३१ तक जा पहुँचा. हैद्राबाद रियासत का जो हिस्सा कर्नाटक में शामिल हुआ है, उस क्षेत्र में भी भाजपा को ऐसा ही झटका लगा. यहाँ २००८ में भाजपा ने १९ सिटें जीती थी. २०१३ में उसे केवल ४ सिटें मिली, तो काँग्रेस १७ से २० पर पहुँची. बीकाँपा एक भी सीट नहीं जीत पाई. भाजपा की इस हार के लिए येदीयुरप्पा ही जिम्मेदार है, इसमें कोई संदेह नहीं. समुद्र के किनारे का मंगलोर क्षेत्र भाजपा का गढ़ था. लेकिन वहाँ भी भाजपा २००८ की स्थिति कायम नहीं रख पाई. किनारे से सटे प्रदेश में भाजपा ने २००८ में १५ सिटें जीती थी. इस बार वह आँकड़ा ४ तक नीचे आया. कर्नाटक में मुसलमानों की संख्या करीब १३ प्रतिशत है. उसमें के सबसे अधिक इस समुद्र किनारे के क्षेत्र में है. उन्होंने एकजूट काँग्रेस को मतदान किया; और २००८ में ७  सिटें जीतने वाली काँग्रेस ने इस बार यहाँ १२ सिटें जीती. 

लक्षणीय जीत
काँग्रेस की जीत सही में लक्षणीय है. मेरा अनुमान था कि, उसे १०० के करीब सिटें मिलेगी, विधानसभा त्रिशंकू होगी और काँग्रेस किसी पाटीं को साथ लेकर सत्ता हासिल कर पाएगी. लेकिन मेरा अनुमान गलत हुआ. २२४ सदस्यों की विधानसभा में काँग्रेसने १२१ सिटें जीती है. चुनाव २२३ सिटों के लिए ही हुआ था. भाजपा के एक उम्मीदवार की प्रचार की कालावधि में मृत्यु होने के कारण, वहाँ चुनाव स्थगित हुआ है. २२३ में से १२१ सिटें जीतना तो सराहनीय ही माना जाएगा. काँग्रेस ने यह सफलता हासिल की है, इसके लिए उन्हें बधाई. २००८ में काँग्रेस को ८० सिटें मिली थी. अब उस पार्टी को देड गुना से अधिक सिटें मिली है. कर्नाटक की जनता का भी अभिनंदन करना चाहिए. लोगों ने एक पार्टी स्पष्ट बहुमत देकर, किसी सहयोगी पार्टी के दबाव में न झुकने और ऐसा बहाना खोजने का अवसर न देते हुए स्वतंत्र रूप से राज्य का कारोबार चलाने का मौका काँग्रेस को अर्पण किया है. किसी भी प्रादेशिक पाटीं की अपेक्षा अखिल भारतीय स्तर की पार्टी, राज्य में सत्तारूढ होना, देश की एकात्मता के लिए उपयुक्त होता है. तामिलनाडु या पश्‍चिम बंगाल को देखें. वहाँ की सरकारों का बर्ताव ऐसा होता है कि, मानों उनकी अलग परराष्ट्र नीति है. उनकी योग्यायोग्यता का मुद्दा मुझे उपस्थित नहीं करना है. शायद उनकी नीति योग्य ही होगी. मुझे तो इतना ही अधोरेखित करना है कि, श्रीलंका और बांगला देश के बारे में उन राज्यों की सरकार का दृष्टिकोण केन्द्र सरकार के दृष्टिकोण से भिन्न है और उस दृष्टिकोण पर वे सरकारे दृढ है. 

काँग्रेस का चरित्र
काँग्रेस के बडे बडे नेता अपने पार्टी के इस अनेपक्षित जीत का सेहरा राहुल गांधी के सिर पर बांधना चाहते है, यह उनके स्वभावधर्म के अनुरूप ही है. व्यक्तिपूजा और परिवारवाद काँग्रेस के चरित्र का अभिन्न हिस्सा बन गए है. लेकिन सोनिया गांधी ने इस जीत का श्रेय सब के प्रयत्नों को दिया है. राहुल गांधी के नाम से काँग्रेस के नेता ढोल पीटे, इसके लिए अन्य किसी ने आक्षेप लेने का वैसे तो कारण नहीं. लेकिन, गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश में भी राहुल गांधी ने प्रचार किया था, वहाँ क्यों काँग्रेस ने धूल चाटी? उस समय हार की जिम्मेदारी पार्टी पर डाली गई थी. मतलब जीते तो राहुलजी के कारण और हारे, तो पार्टी संगठन के कारण, ऐसा काँग्रेस का अजीब तर्कशास्त्र है. वास्तव में काँग्रेस ने अपनी जीत का कुछ श्रेय तो येदीयुरप्पा को देना ही चाहिए और उन्हें धन्यवाद भी देना चाहिए. भाजपा की इस निराशाजनक हार और परिणामत: काँग्रेस की भारी जीत में येदीयुरप्पा की भूमिका सर्वाधिक महत्त्व की रही है. (दिनांक ९ मई के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की नागपुर आवृत्ति में पृष्ठ ९ पर, कर्नाटक के चुनाव परिणाम पर मेरी प्रतिक्रिया प्रकाशित हुई है. उसमें, मैंने भाजपा की स्थिति ''disgusting'' कहने का वृत्त प्रकाशित हुआ है. उन्होंने मेरी टिप्पणी कहाँ से ली इसकी मुझे जानकारी नहीं है. शायद टी. व्ही. के चॅनेल से ली होगी. उन चॅनेल के प्रतिनिधियों के साथ मेरी मुलाकात मराठी और हिंदी में हुई थी. मैंने भाजपा की हार के लिए  ‘निराशाजनक’ विशेषण का प्रयोग किया था. ‘निराशाजनक’ का अनुवाद ''disgusting'' होगा? वस्तुत: उसका अनुवाद  ''disappointing'' ऐसा होना चाहिए. इस बारे में मैं उन्हें पत्र भेज रहा हूँ.)

मतों का प्रतिशत
२००८ के चुनाव में भाजपा को ३४ प्रतिशत मत मिले थे. भाजपा को मिले मतों का प्रतिशत उस समय काँग्रेस से कुछ कम था. लेकिन सिटें काँग्रेस से अधिक मिली थी. एक सूत्र ने बताया कि अब काँग्रेस को ४२ प्रतिशत मत मिले है. मैंने इस बारे में अधिक जाँच की तो पता चला कि, इस बार काँग्रेस के मतों के प्रतिशत में केवल ३ प्रतिशत की वृद्धि होकर वह ३७ प्रतिशत हो गए. लेकिन भाजपा के मतों का प्रतिशत करीब १३ से घटा है. इसके लिए येदीयुरप्पा की ‘कजपा’ कारण है, इस बारे में संदेह नहीं. काँग्रेस के मताधिक्य में मुस्लिम मतों का आँकड़ा बहुत बड़ा है. पहले बताया ही है कि, कर्नाटक में मुसलमानों की संख्या १३ प्रतिशत है. वह समाज इस बार ताकत के साथ काँग्रेस के समर्थन में खडा हुआ. मंगलोर क्षेत्र की जानकारी रखने वाले व्यक्ति ने मुझे बताया कि, उस क्षेत्र के मुसलमानों ने पूरी तरह से एकजूट होकर काँग्रेस को मतदान किया. इस कारण भाजपा का वह गढ़ दुर्बल सिद्ध हुआ. हो सकता है की, पूरे कर्नाटक में भी ऐसा ही हुआ होगा.  

संदेह की गुंजाइश
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्रभाई मोदी कर्नाटक में प्रचारार्थ गये थे. चालाक काँग्रेस ने मोदी को सामने कर मुस्लिम समुदाय में भयगंड निर्माण करने की संभावना नकारी नहीं जा सकती. मानों राष्ट्रीय स्तर पर मोदी भाजपा के अधिकृत भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार है, ऐसा चित्र टी. व्ही के कुछ चॅनेल निर्माण करते है. भाजपा ने ऐसा कहा नहीं. सही समय पर हम हमारा उम्मीदवार घोषित करेंगे ऐसी उस पार्टी की भूमिका है और वह योग्य भी है. लेकिन कुछ टी. व्ही. चॅनेल ऐसा वातावरण निर्माण कर रहे है कि, मोदी ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार है. फिर संदेह निर्माण होता है कि, इस प्रचार के पीछे काँग्रेस की चाल तो नहीं है? मुस्लिम समाज के गठ्ठा मत हमें ही मिले, वह सपा, बसपा, वामपंथीयों के हिस्से में न जाए, यह दाव तो इसके पीछे नहीं होगा? मतों के लिए काँग्रेस और तथाकथित सेक्युलर मीडिया के बीच कोई साठ-गाँठ तो नहीं? राहुल गांधी और नरेन्द्रभाई मोदी की तुलना भी प्रसारमाध्यमों ने शुरु की है. क्यों? राहुल गांधी जैसे काँग्रेस के भावी अलिखित उम्मीदवार हे, क्या वैसे मोदी है? फिर दोनों के बीच तुलना का क्या प्रयोजन?

लोकसभा चुनाव पर परिणाम
इस चुनाव में भाजपा की हार हुई, इस कारण कर्नाटक में वह पार्टी समाप्त ही हो गई ऐसा मानने का कोई कारण नहीं. येदीयुरप्पा को फिर पार्टी में लाए, ऐसा कुछ लोगों का मत दिखता है. लेकिन वह भाजपा के हित में नहीं होगा. पार्टी का संगठन पुन: सही तरीके से खडा करने, सब जनसमूहों को साथ लेकर जाने और भ्रष्टाचारियों को हमारी पार्टी में कोई स्थान नहीं, यह दृढता के साथ बताने और उसके अनुसार पुन: पार्टी के संगठन की रचना करने का अवसर भाजपा को इस चुनाव ने दिया है. टी. व्ही. चॅनेल के कुछ प्रतिनिधि मुझसे मिलने आये थे. उनका प्रश्‍न था कि, कर्नाटक के इस चुनाव का २०१४ के लोकसभा के चुनाव पर क्या परिणाम होगा? मैंने उत्तर दिया, कोई परिणाम नहीं होगा. आगामी नवंबर में दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र जैसे अनेक राज्यों में विधानसभा के चुनाव है. उन चुनाव परिणामों के बाद ही लोकसभा के चुनाव के बारे में कुछ कहा जा सकता है. काँग्रेस पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप होते हुए भी, कर्नाटक में काँग्रेस जीती, इस ओर भी उन प्रतिनिधियों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. मैंने कहा, केन्द्र में का भ्रष्टाचार यह कर्नाटक के चुनाव में मुद्दा ही नहीं था. काँग्रेस भी ऐसा मानने की भूल नहीं करेगी कि, कर्नाटक की जनता ने उन्हें भ्रष्टाचार के लिए जनादेश दिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने, कोयला घोटाला और सीबीआय की जाँच बारे में जो कोडे बरसाए है, उससे केवल सीबीआय की ही बदनामी नहीं हुई, तो काँग्रेस और केन्द्र सरकार की भी बदनामी हुई है. यह भ्रष्टाचार और स्वायत्त संस्थाओं के काम में अवैध घूसपैंठ करने का मुद्दा लोकसभा के चुनाव में महत्त्व का रहेगा. मेरी दृष्टि से कर्नाटक विधानसभा का चुनाव किसी एक राज्य के चुनाव के समान ही है. उसे अवास्तव अखिल भारतीय स्तर का महत्त्व देना मुझे उचित नहीं लगता.


- मा. गो. वैद्य

नागपुर
babujivaidya@gmail.com

Thursday 9 May 2013

बहुसंख्य-अल्पसंख्य : रूस का आदर्श



दुनिया में ऐसा एक भी देश नहीं होगा,  जहाँ कोई जनसमूह अल्पसंख्य नहीं होगा. अमेरिका के संयुक्त संस्थान में (यु. एस. ए.) काले वर्ण के लोग अल्पसंख्य है. ज्यू भी अल्पसंख्य है. वहाँ कॅथॉलिकों की संख्या २४ प्रतिशत है. ग्रेट ब्रिटन में भी कॅथॉलिक अल्पसंख्य है, तो आर्यलँड में प्रॉटेस्टंट अल्पसंख्य है. लेकिन किसी भी देश में अल्पसंख्यकों को पुचकारा नहीं जाता. किसी भी देश में अल्पसंख्यकों के लिए अलग कानून नहीं है. यह दुर्भाग्य केवल हमारे भारत के ही हिस्से आया होगा; और इसके लिए केवल अल्पसंख्य समूह ही जिम्मेदार है, ऐसा निश्‍चित रूप में नहीं कहा जा सकता. इस बीमारी में बहुसंख्यकों का भी हिस्सा है. 

थोडा इतिहास
इस दुर्भाग्य का थोडा इतिहास भी है. अंग्रेजों का हमारे देश में राज था, उस समय उन्होंने १८५७ में बहुसंख्य हिंदू और अल्पसंख्य मुसलमानों की एकजूट देखी. दोनों जनसमुदाय, अंग्रेजों का राज हटाने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे. इस एकजूट से धूर्त अंग्रेज भयभीत हुए और इससे उन्होंने सीख भी ली. उन्होंने मुसलमानों के मन में अलगाव के बीज बोए और उन बीजों को खाद-पानी देकर अंकुरित किया. काँग्रेस, स्वराज की मांग करती है? - उसके जबाब में उन्होंने मुस्लिम लीग को खड़ा किया. काँग्रेस के नेताओं ने अंग्रेजों की यह चाल नहीं पहचानी. अंग्रेजों ने कहा कि, हिंदू-मुसलमान एक हो, हम यहाँ से चले जाएगे; और काँग्रेस के नेता उस एकता के मृगमरीचिका के पीछे दौड पड़े. हमारी उपासना पद्धति, भाषा भिन्न होते हुए भी, हम एक राष्ट्र है, ऐसा चित्र निर्माण करने के बदले हमने उनकी खुशामद का रास्ता अपनाकर उनकी अलगाव की वृत्ति और अधिक मजबूत की. घूस या खुशामद से सौदा हो सकता है; निष्ठा नहीं निर्माण होती. १९१६ में जनसंख्या की मात्रा में सिटों के बटँवारे का मुद्दा सामने आया. १९२०-२१ में खिलाफत की पुन:स्थापना के लिए काँग्रेस ने आंदोलन किया. ‘खलिफा’का पद, हमने मतलब भारत ने समाप्त नहीं किया था. तुर्कस्थान के बादशाह को खलिफा मतलब दुनिया के सब मुसलमानों का गुरु माना जाता था. पहले महायुद्ध के बाद तुर्कस्थान में केमालपाशा की सत्ता आई और उसने खलिफा का पद समाप्त किया. इन बातों से भारत का कोई संबंध नहीं था. केमालपाशा के निर्णय के कारण मुस्लिम मानस आहत हुआ होगा, तो तुर्कस्थान या अन्य देशों के मुसलमानों ने यह विषय उठाना था. कारण वह उनकी धर्मश्रद्धा का विषय था. राजनीति के लिए, हमने उसे नहीं उठाना चाहिए था. लेकिन गांधीजी ने, ब्रिटिशों के विरुद्ध की लड़ाई में मुसलमानों का साथ हासिल करने के लिए खिलाफत की पुन:स्थापना का आंदोलन किया. इसका परिणाम यह हुआ कि, मुसलमानों के कट्टरवाद को और अधिक बल मिला, वह अधिक प्रखर हुआ और मुसलमान स्वतंत्रता आंदोलन के समीप आने के बदले और दूर हो गए.  उस समय गांधीजी ही काँग्रेस के सर्वेसर्वा नेता थे. हिंदूओं ने उनकी बात मानी. मुसलमानों ने नहीं. वे काँग्रेस के समीप नहीं आए. विपरित, राष्ट्रीय जीवत प्रवाह से और दूर गए. 

जनादेश ठुकराया
लेकिन, हमारा दुर्भाग्य यह कि, गांधीजी ने इससे कोई सबक नहीं लिया. मुसलमानों की खुशामद करने की नीति जारी रही. इतनी कि, उसके लिए उन्होंने देश का विभाजन भी मान्य किया. १९४६ में हुए असेम्बली के चुनाव में, प्राप्त जनादेश का अपमान कर उन्होंने विभाजन को मान्यता दी. इस चुनाव के लिए काँग्रेस की घोषणा अखंड भारत की थी, तो मुस्लिम लीग की घोषणा थी, पाकिस्तान की निर्मिति. जिन प्रदेशों का पाकिस्तान बनना था, वहाँ के मुसलमानों ने, विभाजन की मांग मान्य करने वाले मुस्लिम लीग को जितने मत नहीं दिये, उससे कई अधिक मात्रा में, जो मुसलमान पाकिस्तान में नहीं जाने वाले थे, भारत में रहने वाले थे, उन्होंने विभाजन के पक्ष में मतदान किया. उस समय मुसलमानों के लिए आरक्षित मतदार संघ थे. मतलब मतदाता भी मुसलमान और उम्मीदवार भी मुसलमान ऐसी पद्धति थी. इन मतदार संघों में ८५ प्रतिशत मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को मतदान किया. केवल १५ प्रतिशत ने काँग्रेस के मतलब अखंड भारत के पक्ष में मतदान किया. ९५ प्रतिशत मुसलमानों की संख्या के वायव्य सीमावर्ती प्रान्त में, काँग्रेस को बहुमत मिला, लेकिन सर्वत्र भारत में काँग्रेस का पराभव हुआ और आश्‍चर्य यह कि एक वर्ष से भी कम समय में काँग्रेस इस जनादेश को भूल गई; और १९४७ में विभाजन को मान्यता दी. 

मुसलमानों को उनका राज मिला, वह अंग्रेजों की कृपा से. उसके लिए उन्होंने बलिदान देने की जानकारी नहीं. कई लोगों को ऐसा लगता है कि, मुसलमानों की झंझट तो समाप्त हुई. लेकिन वह समाप्त नहीं हुई. कारण वह समाप्त हो, ऐसी हमारी मतलब हमारे सियासी नेताओं की इच्छाही नहीं. वैसा होता, तो सब नीतियाँ उन्हें मुख्य राष्ट्रीय प्रवाह से जोडने की बनाई गई होती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. विपरित उनकी अलग पहचान बनाए रखने की ही नीति अपनाई गई. जिन १५ प्रतिशत मुसलमानों ने अखंड भारत के पक्ष में मतदान किया, उनकी शक्ति और संख्या बढाने के बदले, विभाजन के लिए अनुकूल मानसिकता के बहुसंख्य मुसलमानों के गठ्ठा मतों के लिए स्वार्थी और संकुचित राजनीति से अलगाव की भावना को संजोना शुरु किया गया. यहाँ तक कि, सबके लिए समान फौजदारी कानून है, फिर भी समान नागरी कानून नहीं है. हमारे संविधान का निर्देशक तत्त्व होने के बावजूद, आज ६५ वर्ष बाद भी, नहीं. यह हमारे संविधान का मार्गदर्शक तत्त्व है. वह संविधान की धारा ४४ में बताया है. वह धारा बताती है. 

"The State shall endeavour to secure for the citizens a uniform civil code, throughout the territory of India."

अर्थ स्पष्ट है कि, भारत के प्रदेश में रहने वाले सब नागरिकों के लिए समान नागरी कानून बनाने के लिए सरकार प्रयत्नशील रहे.  यह सच है कि, इस धारा को अमल में लाने के लिए नागरिक न्यायालय में नहीं जा सकते. लेकिन इसका अर्थ उसकी उपेक्षा करे ऐसा नहीं होता. संविधान में का शब्द 'Shall' है. उसमें निश्‍चितता अभिप्रेत है. संविधान की धारा ३७ भी यही बताती है. वह इस प्रकार है. 

"The provisions contained in this Part shall not be enforceable by any court, but the principles therein laid down are nevertheless fundamental in the governance of the country and it shall be the duty of the State to apply these principles in making laws."

अर्थ : इनमें के तत्त्व न्यायालय द्वारा अमल में लाने के नहीं, फिर भी वे हमारे प्रशासन के लिए मूलभूत है; और कानून बनाते समय उन तत्त्वों का विनियोग किया ही जाना चाहिए. 

धारा ४४ में राज्य ने समान नागरी कानून बनाने की दृष्टि से प्रयत्न करना चाहिए ऐसा बताया गया है. लेकिन इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढाया गया. संपूर्ण नागरी कानून की बात छोड दे, विवाह और तलाक के लिए समान कानून हो, ऐसा भी किसी को मतलब राज्य करने वालों में से किसी को भी नहीं लगता. बहुपत्नीकत्व अच्छी बात होगी, तो वह सब के लिए होनी चाहिए. कुछ के लिए अच्छी, तो अन्य के लिए अपराध, यह कैसा न्याय है? 

धारा ३०
इस खुशामद की नीति का और एक नमुना देखने लायक है. यह धारा ३० हमारे नागरिकों को एक स्तर पर लाने में बाधक है. धारा २९ भी इसी प्रकार की है. संविधान की धारा १४, १५ और १६ ने सब नागरिकों को समान अधिकार की गारंटी दी है. संविधान ने अल्पसंख्यकत्व निश्‍चित करने के लिए दो मानक तय किये है. १) भाषा और २) धर्म या उपासना पंथ. भाषिक अल्पसंख्यकों द्वारा कोई देशव्यापी समस्या निर्माण नहीं हुई है. कहीं होगी भी तो स्थानिक स्तर पर होगी. लेकिन धार्मिक या पंथीय आधार पर अल्पसंख्यकों ने समस्या निर्माण की है. धारा 30 ने उन्हें अपनी शिक्षा संस्था स्थापन करने का विशेष अधिकार दिया है. यह धारा नही होती, तो धार्मिक अल्पसंख्य समुदाय अपनी शिक्षा संस्था स्थापन नहीं कर पाते? निश्‍चित ही कर पाते. लेकिन इस विशेष धारा से उन्हें विशेष अधिकार मिलने के कारण, सर्वसामान्य शिक्षा संस्थाओं को लागू होने वाले नियम और निर्बंध इन संस्थाओं को लागू नहीं होते. ये संस्थाएँ अपने पंथ या धर्म की रक्षा या प्रचार के लिए स्थापन हुई है ऐसा कहे, तो उनमें के अधिकांश विद्यार्थी अन्य पंथ-संप्रदाय के होते है. नागपुर के हिस्लॉप कॉलेज या सेंट फ्रान्सिस डिसेल्स कॉलेज के उदाहरण ध्यान देने योग्य है. हिस्लॉप कॉलेज प्रॉटेस्टंट पंथीय ‘चर्च ऑफ स्कॉटलँड’ने स्थापन किया है. इसमें के ९० प्रतिशत विद्यार्थी ईसाई नहीं है. ‘सेंट फ्रान्सिस’ कॉलेज रोमन कॉथॉलिकों ने स्थापन किया है. लेकिन वहाँ भी अधिकांश विद्यार्थी कॉथॉलिक नहीं है. फिर इन संस्थाओं को किस मानक पर अल्पसंख्यकों की संस्थाएँ कहे? फिर उन्हें अन्य शिक्षा संथाओं को लागू होने वाले नियम, उदाहरण सेवाज्येष्ठता का आदर, प्रवेश या नौकरी में आरक्षण के नियम क्यों लागू नहीं? इन दोनों शिक्षा संस्थाओं में कभी भी ईसाई के सिवा अन्य कोई आज तक प्राचार्य के पद पर नहीं बैठ सका है. 

हम सब ‘एक जन’
मुसलमानों की वोट बँक बडी होने के कारण, उनकी विशेष खुशामद की जाती है. सच्चर समिति की रिपोर्ट उसका एक उदाहरण है. अब मुसलमान अपराधियों के लिये अलग न्यायालय का प्रस्ताव सामने आया है. सही मायने में हमारे देश में पारसी यह सबसे छोटा अल्पसंख्य समूह है. उन्हें, अपने अस्तित्व, भविष्य और उनके विशेष धर्म के अनुसार आचरण के संदर्भ में, बहुसंख्यकों की ओर से खतरा अनुभव होना चाहिए. लेकिन उनकी कोई मांग नहीं होती. वे तो विदेश से आये है. मुसलमान और ईसाई तो मूल यही के है. आवश्यकता इस बात की है कि, राज्यकर्ता और सब सियासी पार्टियों को, देश एकात्म, एकरस और एकसंध रहे ऐसा मन से लगता होगा तो, उन्होंने बहुसंख्य-अल्पसंख्य यह भेदभाव की भावना अपने विचार और मानसिकता से निकाल देनी चाहिए. स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कहने वाली पार्टियाँ भी अल्पसंख्य मोर्चा, दलित मोर्चा जैसे अलग अलग मोर्चे बनाकर, जनता की एकात्मता के मार्ग में अडंगे निर्माण करती है. हमारे संविधान में सही स्थानों पर संशोधन कर हमें यह घोषित करते आना चाहिए कि ‘‘यह भारत देश एक है. यहाँ रहने वाले सब एक जन है, यहाँ एक संस्कृति मतलब एक मूल्यव्यवस्था है और इस कारण यह एक राष्ट्र है.’’ हमारा संविधान मूल अंग्रेजी में लिखा है. इसलिए यही विचार मैं अंग्रेजी में प्रस्तुत करता हूँ.  "India that is Bharat is one country, with one people, one culture i.e. one value-system and therefore one Nation."

रूस का आदर्श
यह करना कठिन नहीं है. रूस के चेचन्या प्रान्त के मुसलमानों की कुछ अलगाववादी मांगे है. हालही में अमेरिका के बोस्टन नगर में जो बम विस्फोट हुए, वह कराने वाले चेचन्या के ही मुसलमान थे. रूस के मुस्लिमों और उस माध्यम से सभी अल्पसंख्यकों को रूस के राष्ट्रपति श्री पुटीन ने जो इशारा दिया है, वैसी दृढ भूमिका हमें भी अपनाते आनी चाहिए. श्री पुटीन ने ४ फरवरी २०१३ को रूस के पार्लमेंट में, मतलब ड्यूमा में दिए भाषण में कहा कि, 

"In Russia live Russians. Any minority, from anywhere, if it wants to live in Russia, to work and eat in Russia, should speak Russian, and should respect the Russian laws. If they prefer Sharia Law, then we advise them to go to those places where that's the state law. Russia does not need minorities. Minorities need Russia, and we will not grant them special privileges, or try to change our laws to fit their desires, no matter how loud they yell 'discrimination". The politicians in the Duma gave Putin a standing ovation for five minutes!

भावानुवाद :  ‘‘रूस में रूसी रहते है. कोई भी अल्पसंख्य समुदाय, यदि रूस में रहना चाहता होगा, रूस में काम करने की उसकी इच्छा होगी और रूस का अन्न भक्षण करता होगा, तो उसे रूसियों के समान ही बोलना होगा; और रूस के कानून का आदर करना होगा. उन्हें शरीयत का कानून पसंद होगा, तो हमारी उनसे बिनति है कि, वे जहाँ वह कानून लागू है उस स्थान पर जाए. रूस को अल्पसंख्यकों की आवश्यकता नहीं. अल्पसंख्यकों को रूस की आवश्यकता है. हम उन्हें कोई विषेशाधिकार नहीं देंगे, या उनकी इच्छा के अनुरूप कानून नहीं बनाऐंगे. फिर वे ‘भेदभाव’के नाम से कितना ही शोर क्यों न मचाए.’’ पुटीन का भाषण समाप्त होने के बाद ड्यूमा में उपस्थित सब सियासी पार्टियों के नेताओं ने खडे होकर करीब पाँच मिनट तक तालियाँ बजाई. 

भाषा, पंथ, संप्रदाय ऐसे अनेक भेद होते हुए भी हम सब भारतीयों को एकात्म, एकरस और एकसंध राष्ट्रजीवन जीते आना चाहिए. यहाँ हिंदू बहुसंख्य है और उन्हें अनेकता में एकत्व देखने की बहुत पुरानी आदत है. अर्थात् इस कार्य के लिए भी उनकी ही पहल होनी चाहिए.


- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी) 

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