श्री अण्णा हजारे ने, भ्रष्टाचार निर्मूलन के लिए शुरु किया अपना आंदोलन समाप्त करने की घोषणा की. इसी उद्दिष्ट की पूर्ति के लिए,
वे नई राजनीतिक पार्टी बना रहे है,
ऐसा भी बताया गया. स्वयं अण्णा को राजनीति मतलब सत्ताकारण में दिलचस्वी नहीं. लेकिन उनके करीब जो लोग जमा हुए थे,
उनकी वैसी स्थिति नहीं. उन्हें राजनीति में दिलचस्वी है और सत्ताकारण में भी.
लोकपाल प्रकरण
अण्णा के आंदोलन का प्रारंभ सशक्त लोकपाल की नियुक्ति के मुद्दे पर हुआ. यह मान्य करना चाहिए कि, इस आंदोलन को लोगों का अभूतपूर्व समर्थन मिला. लोकपाल कैसा हो,
उसकी नियुक्ति करने की रचना कैसी हो,
उसे कौनसे और कितने अधिकार हो, इसका सब ब्यौरा टीम अण्णा ने बनाए कानून के प्रारूप में समाविष्ट था. अण्णा के इस ओंदोलन का विशाल रूप देखकर सरकार भी घबरा गई;
फिर उन्होंने कूटनीति का अवलंब कर अण्णा को समझौते के चक्कर में लपेटा. सरकार ने ही लोकपाल विधेयक प्रस्तुत करना तय किया. वह लोकसभा में प्रस्तुत भी किया और लोकसभा ने वह मंजूर भी किया. लेकिन यह सरकारी विधेयक एकदम ही खोखला है. उसने अण्णा की घोर निराशा की;
और अण्णा फिर आंदोलन करने के लिए सिद्ध हुए. वह विधेयक अब राज्य सभा में मंजूरी के लिए अटका पड़ा है. सत्तारूढ संप्रमो को राज्य सभा में लोकसभा जैसा स्पष्ट बहुमत नहीं है. इसलिए वह तुरंत पारित नहीं हुआ,
या जैसा है वैसा ही पारित होगा,
इसकी गारंटी भी नहीं.
सियासी विकल्प
अण्णा ने फिर आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया. मुंबई में उसको परखा. लेकिन दिल्ली में जैसा प्रतिसाद मिला था,
वैसा मुंबई में नहीं मिला;
इसलिए कुछ समय जाने देने के बाद अण्णा ने फिर दिल्ली में आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया. टीम अण्णा में के कुछ लोगों ने अनिश्चितकालीन अनशन शुरु किया. तीन दिन बाद अण्णा भी उसमें शामिल हुए;
लेकिन कुछ समय में ही उनके ध्यान में आया कि, करीब सोलह माह पूर्व, जनता का जो अभूतपूर्व प्रतिसाद इस आंदोलन को मिला था, वैसा अब नहीं मिल रहा;
और मिलेगा भी नहीं; तब उन्होंने दि. ३ अगस्त को आंदोलन पीछे लिया. कुल दस दिनों में वह समाप्त हुआ. अण्णा का अनशन तो केवल छ: दिन चला. अनशन समाप्ती के समय जो भाषण हुए,
(उनमें अण्णा के भाषण का भी समावेश है) उनमें यह स्पष्ट किया गया कि, अनशन-आंदोलन करने में कोई मतलब नहीं. भ्रष्टाचार के निर्मूलन के लिए एक नया सियासी विकल्प ही चाहिए. अण्णा के एक अंतरंग सहयोगी अरविंद केजरिवाल ने तो अपनी नई पार्टी का नाम,
उसकी रचना आदि के बारे में सूचना करने की विनति भी जनता से की और आश्चर्य यह कि तीन दिन बाद ही टीम अण्णा और जनता को भी धक्का देने वाली एक घोषणा अण्णा ने अपने ब्लॉग पर की. वह थी, इस आंदोलन के समय जो उनकी मूल टीम थी,
वही उन्होंने बरखास्त कर दी! यह निर्णय,
अपने किसी साथी के साथ विचारविनिमय कर लिया या,
अण्णा ने स्वयं अकेले ही ऐसा तय किया, यह पता चलने का कोई रास्ता नहीं. इतना तो निश्चित है कि,
उनके अनेक सहयोगी इस घोषणा से अचंभित है.
एक अलग विचार
इस संपूर्ण आंदोलन का ब्यौरा लेने पर हमारे सामने क्या चित्र निर्माण होता है? पहले हुए आंदोलन को प्रसार माध्यमों ने अमार्याद प्रसिद्धि दी थी. अण्णा के समर्थकों को लगा होगा कि, केवल प्रसिद्धि के कारण ही वे बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित कर पाए. यह तर्क अकारण नहीं कहा जा सकता. क्योंकि दुसरे आंदोलनपर्व में,
अण्णा के कुछ अतिउत्साही समर्थकों ने, प्रसार माध्यमों के प्रतिनिधियों के साथ, आंदोलन को सही प्रसिद्धि नहीं देने के कारण से हाथापाई की थी. इसके लिए बाद में अण्णा ने माफी भी मॉंगी. लेकिन प्रश्न यह कि, क्या सही में प्रसार माध्यम आंदोलन सफल बनाते हैं?
यह सच है कि, प्रसार माध्यम नकारात्मक प्रसिद्धि दे सकते हैं. कुछ संदेह भी निर्माण कर सकते हैं. लेकिन वे न आंदोलन खड़ा कर सकते है, न ही उसे टिका कर रख सकते है. इसलिए कुछ हट के विचार किया जाना चाहिए,
ऐसा मुझे लगता है.
उसके लिए कुछ घटना ध्यान में लेना आवश्यक है. पहले आंदोलन के समय आंदोलन स्थल पर भारतमाता का चित्र था. वह बीच में ही हटा दिया गया. क्यों? कहा गया कि,
वह चित्र, यह आंदोलन रा. स्व. संघ पुरस्कृत है,
ऐसा सूचित करता था! आंदोलनकर्ता प्रमुख के मन में यह विचार क्यों नहीं आया कि,
भारतमाता यह क्या केवल संघ की ही आराध्य देवता है? ऐसा सूचित करने में संघ का गौरव ही है. लेकिन क्या संघ के बाहर के लोगों के लिए भारतमाता वंदनीय, पूजनीय नहीं है?
१६ माह पूर्व के आंदोलन में प्रचंड संख्या में लोग एकत्रित हुये थे. लेकिन कोई अपघात नहीं हुआ; चोरी-चपाटी भी नहीं हुई,
महिलाओं से छेडखानी भी नहीं हुई. क्यों?
९ अगस्त से शुरु हुए रामदेव बाबा के अनशन के पहले ही दिन अनेकों के भ्रमणध्वनियंत्र चोरी हुए. अण्णा के आंदोलन में ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसका का कुछ श्रेय तो संघ के स्वयंसेवकों को दिया जाना चाहिए था या नहीं? उस समय के उस जनसागर में संघ के ही स्वयंसेवक बड़ी संख्या में शामिल थे, यह कारण किसे भी क्यों नहीं समझ आया? बाद में स्वयं अण्णा और उनकी टीम के लोगों ने संघ के बारे में ऐसे कुछ उद्गार निकाले कि,
भ्रष्टाचार विरुद्ध के आंदोलन में स्वयंसेवकों का सक्रिय सहभाग हो,
ऐसा निर्देश पुत्तूर (कर्नाटक) में हुई संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने देने के बाद सक्रिय हुए स्वयंसेवक तटस्थ बने होगे तो दोष किसका?
ऐसा लगता है कि, यह बहुत बड़ा वर्ग मुंबई में के आंदोलन स्थल या अब जंतर मंतर गया ही नहीं होगा. अण्णा, लोगों के कम प्रतिसाद का कारण यह तो नहीं होगा?
कुछ कहा नहीं जा सकता. मुझे जो लगा वह मैंने बताया.
आंदोलन की व्यापकता
केवल सक्षम लोकपाल यंत्रणा की निर्मिति के लिए शुरु हुए इस आंदोलन ने संपूर्ण भ्रष्टाचार का विषय ही व्याप लिया. यह अच्छा ही हुआ. टीम अण्णा ने तो भ्रष्ट मंत्रियों के नाम ही सरकार को दिए है. सरकार उस बारे में कुछ भी करने वाली थी ही नहीं. जो बात आरोपित भ्रष्ट मंत्रियों के बारे में, वहीं विदेशी बँकों में जमा काले धन के बारे में. सत्ता की यंत्रणा चलाने वाले ही उसमें लिप्त होगे तो इससे अलग अनुभव क्या होगा?
ठीक है, अब अनशन-आंदोलन समाप्त हुआ है. ऐसे आंदोलन अमर्याद समय तक चलते भी नहीं. इस कारण, वह पीछे लिया गया इस पर आश्चर्य करने का कारण नहीं और उसके बारे में विषाद मानने का भी कारण नहीं.
स्थिर राजनीतिक पार्टी के लिए
अब हम नए राजनीतिक विकल्प का स्वागत करें. उस विकल्प का नाम अब तक निश्चित नहीं हुआ है. इस कारण,
उसकी रचना के स्वरूप के बारे में मतप्रदर्शन करना योग्य नहीं. लेकिन राजनीतिक पार्टी की स्थापना करना और उसे चलाना, आंदोलन खड़े करने और चलाने के जैसा आसान नहीं. आंदोलन के लिए किसी मंच की स्थापना काफी होती है. एक उद्दिष्ट मर्यादित हो तो, मंच बन सकता है. उसे उद्दिष्ट प्राप्ती के बाद बरखास्त भी किया जा सकता है. संयुक्त महाराष्ट्र समिति यह इसका एक ठोस उदाहरण है. मराठी भाषिकों का एक अखंड,
संपूर्ण, अलग राज्य बनते ही समिति का जीवनोद्दिष्ट ही समाप्त हुआ और समिति भी समाप्त हुई. लेकिन,
स्थिर राजनीतिक पार्टी को आधारभूत सिद्धांत का अधिष्ठान आवश्यक होता है. भ्रष्टाचार निर्मूलन एक कार्यक्रम हो सकता है, अधिष्ठान नहीं. और अधिष्ठान ही न रहा तो पार्टी भटक जाती है, व्यक्ति-केंद्रित बनती है; या परिवार केंद्रित कहे,
हो जाती है. कॉंग्रेस, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, जयललिता की पार्टियॉं और शिवसेना,
तृणमूल, राकॉं ऐसी अनेक पार्टियॉं हैं, जो व्यक्ति-केंद्रित या परिवार-केंद्रित हैं. अण्णा हजारे को निश्चित ही ऐसी पार्टी पसंद नहीं होगी. उन्हें अपने सकारात्मक आधारभूत तत्त्व बताने ही होगे.
पार्टी का स्वरूप
दूसरा यह कि, पार्टी कार्यकर्ता-आधारित (cadre
based) होगी कि नेतृत्व-आधारित (leader
based), इसका निर्णय लेना होगा और उसके अनुसार अपना संविधान बनाना होगा. कार्यकर्ता-आधारित पार्टी बनानी होगी, तो प्राथमिक सदस्य कौन और उसके लिए पात्रता-निकष निश्चित करने होगे. कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था निर्माण करनी होगी. अण्णा के आंदोलन को देखे तो, उन्हें जनाधारित (mass based) पार्टी अभिप्रेत होगी,
ऐसा तर्क किया जा सकता है. फिर पॉंच-दस रुपये वार्षिक चंदा निश्चित कर सदस्य बनाए जा सकेंगे. वे अपना प्रतिनिधि चुनेंगे. अर्थात् जो उन्हें सदस्य बनाएगा, वहीं उनका नेता बनेगा; और स्थानिक स्तर के ये नेता प्रांतिक और केंद्रिय स्तर के नेताओं का निर्वाचन करेंगे. यह हुआ रचना के संदर्भ में.
रचना का क्रम
फिर आते है पार्टी के कार्यक्रम. पहले उनका प्राधान्य क्रम निश्चित करना होगा. भ्रष्टाचारविरहित संपूर्ण राज्य कारोबार यह आधारभूत तत्त्व हो भी सकता है,
तो भ्रष्टाचार जड़ से उखाड फेकना और भ्रष्टाचारी कोई भी हो
उसे छोड़ा नहीं जाएगा, यह कार्यक्रम हो सकता है. लोगों को उत्साहित करने का सामर्थ्य इस कार्यक्रम में निश्चित ही है. लेकिन फिर,
इस पार्टी के छोटे-बड़े स्तर के नेताओं का नीजि और सार्वजनिक चारित्र्य निष्कलंक होना चाहिए. इसके लिए अंतर्गत समीक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए. कार्यक्रमों के साथ आते हैं उन कार्यक्रमों की सफलता के लिए करने के आंदोलन. ऐसा यह क्रम है. श्रीमद्भगवद् गीता के १८ वे अध्याय के १४ वे श्लोक में वह निर्देशित है. वह श्लोक है -
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्च पृथक् चेष्टा: दैवं चैवात्र पंचमम् ॥
इसमें पॉंचवे और अंतिम ‘दैव’ को हम फिलहाल छोड दे. पहले चार है (१) अधिष्ठान - मतलब आधारभूत तत्त्व. (२) कर्ता मतलब कार्यकर्ता और नेता. (३) करण मतलब साधन और (४) पृथक् चेष्टा: मतलब विभिन्न आंदोलन. इन सब का आलेख बनाकर ही कोई नई राजनीतिक पार्टी खड़ी की जा सकती है और चलाई भी जा सकती है.
धन की व्यवस्था
राजनीतिक पार्टी को और एक घटक का विचार करना पड़ता है. वह है पार्टी चलाने और चुनावों के लिए आवश्यक पैसा. वर्ष १९७७ का चुनाव अपवादभूत मानना चाहिए. उस समय न जनता दल के पैसा था, न उम्मीदवारों के पास. लेकिन वह आवश्यकता जनता ने ही पूरी की. कारण आपात्काल के विरुद्ध जनता के मन में प्रचंड रोष था. लेकिन यह अपवादात्मक उदाहरण है. अण्णा की पार्टी भी एखाद चुनाव इस पद्ध्रति से लड़ भी सकती है. लेकिन पार्टी के स्थायी संचालन के लिए निश्चित धन-संग्रह की योजना करनी ही पड़ेगी. अण्णा के सहयोगी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय अनुभव-संपन्न लोग हैं. वे सब बातों का विचार कर ही नई पार्टी स्थापन करेंगे. हम उन्हें शुभेच्छा दें. कारण जनतांत्रिक व्यवस्था में लोगों के सामने एक से अधिक अच्छे विकल्प उपलब्ध होना उपकारक ही होता है.
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com
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