हमारे
देश के पडोसी बांगला देश में, एक क्रांति हो रही है. 1971 में बांगला देश स्वतंत्र
हुआ, यह सर्वविदित है. उससे पूर्व वह पाकिस्तानका भाग था. उसका नाम पूर्व पाकिस्तान
था. लेकिन पश्चिम पाकिस्तान अपने इस पूर्व भाग को, मतलब वहाँ की जनता को कभी समज ही
नहीं पाया. दोनों भागों में एक ही समानता थी. और वह थी कि, दोनों ही भाग मुस्लिमबहुल
थे; और उसी आधार पर ही 14 अगस्त 1947 को भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान की निर्मिति
हुई थी.
इस्लाम और राष्ट्रभाव
लेकिन,
उस समय, दोनों ओर के मुस्लिम समाज के नेता यह वास्तविकता भूले थे कि, इस्लाम राष्ट्रत्व
का आधार नहीं हो सकता. इतिहास में बहुत पीछे न जाते भी, अब यह स्पष्ट हुआ है कि, इस्लाम
कबूल करने वाले लोग एक-दूसरे के साथ बंधु-भाव से छोड़ दे, स्नेह भाव से भी नहीं रह सकते.
वैसा होता तो इरान और इराक के बीच युद्ध ही नहीं होता. इराक कुवैत पर हमला ही नहीं
करता. अभी हाल ही में तालिबान, उनके हाथों से अफगानिस्तान की सत्ता निकलते ही, सत्ताधारी
मुसलमानों पर आत्मघाती हमले कर उन्हें जान से नहीं मारता. अभी-अभी मतलब गत फरवरी माह
में सुन्नी-पंथी बलुची लोगों ने, अपने देश में के शिया-पंथी मुसलमानों की हत्या नहीं
की होती. वह भी अन्य निधार्मिक स्थान पर नहीं, तो पवित्र मस्जिद के आहाते में. अर्थात
शियाओं की मस्जिद के आहाते में. यह हमला इतना भीषण था कि, उसमें करीब एक सौ शिया मुसलमान
मारे गए; और अभी हाल ही की उसके बाद की ताजी घटना बताए तो पाकिस्तान के कराची शहर में,
3 मार्च को, शिया-पंथीयों की बस्ती में बम विस्फोट कराकर कम से कम 50 शिया मुसलमानों
को मारा गया. इन सब घटनाओं से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि, इस्लाम, पराक्रम की, जिहाद
की, बलिदान की, या आत्यंतिक धर्म-निष्ठा की प्रेरणा दे भी सकता होगा, लेकिन वह बंधुता
की प्रेरणा नहीं दे सकता. और राष्ट्रभाव का आधार तो परस्पर बंधुभाव होता है, धर्म-संप्रदाय
नहीं होता. 70 हजार लोग जिसमें मारे गए, वह सीरिया में का गृहयुद्ध इसी बात का प्रमाण
प्रस्तुत करता है.
भाषा का महत्त्व
पूर्व
पाकिस्तान की मतलब आज के बांगला देश की कुल जनसंख्या पश्चिम पाकिस्तान में के चारों
प्रान्तों की कुल जनसंख्या से अधिक थी. लेकिन संपूर्ण पाकिस्तान के संसदीय चुनाव में
पूर्व पाकिस्तान के नेता शेख मुजीबुर रहमान को बहुमत प्राप्त होने के बाद भी, उन्हें
प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था. इस्लामी देशों में की सियासी पद्धति के अनुसार उन्हें
जेल भेजकर उनका मुँह बंद किया गया. विरोध का और भी एक मुद्दा था. और वह था पूर्व पाकिस्तान
की जनता पर उर्दू भाषा थोपने का. पूर्व पाकिस्तान के जनता की भाषा बंागला है. उन्हें
उर्दू की सक्ती पसंद नहीं आई. उर्दू मुसलमानों की धर्म-भाषा नहीं है. कुरान शरीफ अरबी
भाषा में है; उर्दू में नहीं. सौदी अरेबिया, इराक, इरान, अफगानिस्तान इन देशों की भाषा
उर्दू नहीं है. भारत में मुगलों का आक्रमण और उसके बाद उनका शासन आने के बाद उर्दू
का जन्म हुआ. वह मुख्यत: सैनिकों के छावनी की भाषा है. वह, दिल्ली और उसके समीपवर्ती
प्रदेशों में की उस समय की हिंदी और अरबी के मिश्रण से बनी भाषा है. वह उत्तर भारत
में ही चली-बढ़ी और वहीं चल रही है. हमारे भारत के तामिलनाडु, कर्नाटक और केरल, इन राज्यों
में रहने वाले मुसलमान क्रमश: तमिल, कानडी और मलियालम भाषा का उपयोग करते है. केरल
में मुस्लिम लीग का दबदबा है. भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार इस पार्टी का अस्तित्व,
भारत के अन्य भागों से करीब खत्म हो चुका है, लेकिन केरल में वह पार्टी आज भी कायम
है. फिलहाल उस पार्टी का एक गुट, काँग्रेस के नेतृत्व की सरकार में शामिल है. इस मुस्लिम
लीग के अधिकृत समाचारपत्र का नाम है ‘चंद्रिका’! मजहब एक रहते हुए भी भाषाएँ भिन्न
हो सकती है, यह सादा सहअस्तित्व का तत्त्व पश्चिम पाकिस्तान के उर्दू भाषिक मुसलमानों
को नहीं समझा और उन्होंने फौजी ताकत का उपयोग कर पूर्व पाकिस्तान में के, बांगला भाषी
लोगों का दमन करने की रणनीति अपनाई.
घृणास्पद अत्याचार
इस
रणनीति के विरोध में पूर्व पाकिस्तान की बांगला भाषी जनता ने विद्रोह किया. मुक्ति
वाहिनी की स्थापना हुई. सशस्त्र क्रांति आरंभ हुई. पाकिस्तान की फौज ने, इस क्षेत्र
के कट्टर मुसलमानों की सहायता से उस क्रांति को कुचलने के लिए, अन्यत्र के मुस्लिम
आक्रमक जिस अघोरी, मानवता के लिए लज्जाजनक वर्तन का अंगीकार करते है, वही प्रकार अपने
बांगला भाषी बंधुओं के बारे में किया. उन्होंने खून किए, सामूहिक हत्याएँ की और स्त्रियों
पर बलात्कार के घृणास्पद अत्याचार भी किए. हम ही हमारे मजहब की स्त्रियों पर बलात्कार
कर रहे है, इसका भी भान उन नराधमों को नहीं रहा.
स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद
भारत
की सक्रिय सहायता से, पूर्व पाकिस्तान ने, पश्चिम पाकिस्तान के अत्याचारी बंधन से
स्वयं को मुक्त कर लिया. जेल में ठूँसे गए शेख मुजीबुर रहमान को रिहा किया गया. वे
नए स्वतंत्र बांगला देश के सर्वाधिकारी बने. उन्होंने पंथ निरपेक्ष (सेक्युलर) राज्य
की घोषणा की. कट्टरपंथी जमाते इस्लामी, मुस्लिम लीग, निझाम-ए-इस्लामी और वैसी ही अन्य
संस्थाओं पर पाबंदी लगाई. यह घटनाक्रम 1972 का है. लेकिन वे कट्टरपंथी दबे नहीं.
1975 में शेख मुजीबुर रहमान की हत्या की गई और फौज ने सत्ता अपने हाथों में ली. उसके
बाद सत्ता में आए फौजी शासकों ने इन संस्थाओं के विरुद्ध की बंदी हटाई. फिर आगे चलकर
जनतंत्र की हवाएँ बहने लगी. शेख मुजीबुर रहमान की पार्टी का नाम था, ‘अवामी लीग.’ फिलहाल
बांगला देश में आज इस अवामी लीग की ही सत्ता है; और शेख मुजीबुर रहमान की कन्या शेख
हसीना प्रधानमंत्री है. इसके पहले भी वे प्रधानमंत्री रह चुकी है. लेकिन बीच के कुछ
समय में ‘बांगला देश नॅशनॅलिस्ट पार्टी’ भी सत्ता में थी. ‘बांगला देश नॅशनॅलिस्ट पार्टी’की
प्रमुख खालिदा झिया भी महिला ही है. उनकी पार्टी कट्टरवादियों के साथ है.
21 फरवरी
अवामी
लीग के राज्य में, जिन्होंने 1971 के स्वाधीनता संग्राम के समय, खून, महिलाओं पर बलात्कार,
जैसे जघन्य अपराध किए थे, उनके विरुद्ध मुकद्दमें भरने के लिए ‘बांगला देश आंतरराष्ट्रीय
अपराध न्यायालय’ (बांगला देश इंटरनॅशनल क्राईम ट्रिब्युनल) स्थापित किया गया. इस न्यायालय
ने, अत्यंत अधम अपराधों के आरोप लगे, जमाते इस्लामी का असिस्टंट सेक्रेटरी जनरल -अब्दुल
कादर मुल्ला- को फाँसी की सज़ा सुनाने के बदले आजीवन मतलब 15 वर्षों के कारावास की सज़ा
सुनाई. वह दिन था 4 फरवरी 2013. और दूसरे ही दिन से इस सज़ा के विरोध में बांगला देश
में के विद्यार्थींयों और अन्य युवकों ने प्रचंड विरोध आरंभ किया. इस विरोध का आकार
और तीव्रता इतनी बढ़ी कि, 21 फरवरी को, बांगला देश की राजधानी ढाका के शाहबाग चौक में
पचास लाख युवक एकत्र हुए; वे एक ही नारा लगा रहे थे, ‘कादर मोल्लार फाशी चाई’ (कादर
मुल्ला को फाँसी दो). 21 फरवरी इस दिन का एक भावोत्कट महत्त्व है. इसी दिन, इसी शाहबाग
में, ठीक साठ वर्ष पहले, बांगला भाषा को, राज्यभाषा का दर्जा देने की मांग के लिए,
एकत्र हुए विद्यार्थींयों पर उस समय की पूर्व पाकिस्तान की सरकार ने गोलियाँ चलाकर
अनेक विद्यार्थींयों को मार डाला था. उस ‘एकुशिये फेब्रुवारी’की वेदना आज भी बांगला
देशी विद्यार्थींयों के मन में कायम है. 21 फरवरी 2013 को वही प्रकट हुई.
जमाते इस्लामी का हिंसाचार
विद्यार्थींयों
की यह 21 फरवरी की शाहबाग चौक में की विशाल रॅली, मिस्त्र की राजधानी कैरो के तहरिर
चौक में की रॅली की याद दिलाती है. तहरिर चौक में की इस विशाल रॅली ने मिस्त्र के तत्कालीन
तानाशाह होस्नी मुबारक को पदच्युत किया था. उसके बाद अरब जगत में नया वसंतागम होने
का चित्र निर्माण किया गया था. यह बात अलग है कि, इस वसंतागम के परिणामस्वरूप वहाँ
वसंत की सुखद हवाएँ नहीं चली. परिवर्तन हुआ. लेकिन फिर शिशिर की कट्टरपंथी हवाएँ ही
वहाँ प्रभावी सिद्ध हुई. शाहबाग चौक में की क्रांतिकारी प्रचंडता अपना प्रभाव दिखा
गई. 5 फरवरी को कादर मुल्ला सौम्य सज़ा से छूट गया, लेकिन 28 फरवरी को इसी जमाते इस्लामी
का उपाध्यक्ष दिलवर हुसेन सईद को, उसी न्यायालय ने फाँसी की सज़ा सुनाई. उसके बाद जमाते
इस्लामी की ओर से इस सज़ा के विरोध में हिंसक आंदोलन शुरु हुआ. इस हिंसाचर में अब तक
करीब सौ लोगों ने जान गवाँई है.
यह
हिंसाचार और भी भडक सकता है. कारण, जमाते इस्लामी की ताकत नगण्य नहीं. खलिदा झिया के
राज्य में वह पार्टी भी सत्ता में भागीदार थी; और आज की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी खलिदा
झिया की ‘बांगला देश नॅशनॅलिस्ट पार्टी’, जमाते इस्लामी के समर्थन में मैदान में उतरी
है. खलिदा झिया ने, अपनी नाराजगी छुपाकर नहीं रखी है. भारत के राष्ट्रपति महामहिम प्रणव
मुखर्जी, बांगला देश कोअधिकृत भेट देने गए तब, खलिदा झिया ने, उनके साथ तय अपनी भेट
रद्द की. लेकिन, बांगला देश में के विद्यार्थी भी खामोश नहीं रहेंगे. न्यायालय ने अब्दुल
कादर मुल्ला को आजीवन कारावास की सज़ा दी है, लेकिन उसी अपराध के लिए, उसी के साथ के
और एक अपराधी को फाँसी की सज़ा भी सुनाई थी. उसका नाम है अब्दुल कलाम आझाद उर्फ बच्चू.
वह भागकर पाकिस्तान गया है. इस कारण उस सज़ा पर अमल नहीं हो पाएगा. लेकिन दिलावर हुसेन
सईद की सज़ा पर अमल हो सकता है. यह सईद कोई सामान्य आदमी नहीं. जमात की तिकट तर वह चुना
गया और 1996 से 2008 तक बाराह वर्ष बांगला देश पार्लमेंट का सदस्य था. उसके विरुद्ध
50 लोगों की हत्या, लूटमार, महिलाओं पर बलात्कार जैसे अपराध के आरोप है. उसे न्यायालय
ने फाँसी की सज़ा सुनाने पर नई पीढी के युवकों में आनंद है, लेकिन जिस दिन यह सज़ा अमल
में आएगी, उस दिन बांगला देश में बहुत बड़ा हो-हल्ला मचे बिना नहीं रहेगा. केवल फाँसी
की सज़ा सुनाते ही इतना हिंसाचार फँूटता है, तो वह सज़ा अमल में आने पर कितना तीव्र हिंसाचार
होगा, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं.
शुभसंकेत
इसलिए
कहा जा सकता है कि, बांगला देश को अपनी अस्मिता खोजनी है. आंदोलन करने वाले छात्र,
बांगला देश के स्वतंत्रता युद्ध के बाद जन्मे है. उन्होंने अपने आंदोलन का नाम ही
‘मुक्ति-जोद्धा प्रजन्म कमेटी’ मतलब ‘मुक्ति-योद्धा नई पिढ़ी’ रखा है. बांगला देश की
विद्यमान सरकार सेक्युलर राज्य व्यवस्था के लिए अनुकूल है. लेकिन आज के संविधान ने
बांगला देश का अधिकृत धर्म इस्लाम है, यह भी घोषित कर रखा है. क्या बांगला देश की सरकार
में यह हिंमत होगी, कि वह संविधान में संशोधन कर हमारा राज्य सेक्युलर रहेगा, ऐसा घोषित
करेगी? तुरंत तो यह बदल संभव नहीं लगता. कुछ माह बाद मतलब 2013 में बांगला देश की संसद
का चुनाव है. प्रमुख विरोधी पार्टी ‘बांगला देश नॅशनॅलिस्ट पार्टी’ और जमाते इस्लामी
का गठबंधन है. क्या इस गठबंधन को हराकर, शेख हसीना की अवामी लीग फिर सत्ता में आएगी,
यह प्रश्न है. आंदोलक विद्यार्थींयों की शक्ति पूर्णत: अवामी लीग के पीछे खड़ी रहेगी,
ऐसा मान भी ले, तो भी चुनाव का फैसला क्या रहेगा, यह आज कहा नहीं जा सकता. इसलिए कहना
है कि बांगला देश, अपनी अस्मिता की खोज में है. तहरिर चौक के आंदोलन के बाद भी मिस्त्र
में हुए चुनाव ने कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहूड को ही सत्ता दिलाई थी. बांगला देश में
भी वैसे ही तो नहीं होगा! सही समय पर ही इस प्रश्न का उत्तर मिल सकेगा. हाँ, यह सही
है कि बांगला देश में कट्टरपंथी इस्लामिस्ट राज्य के बदले, पंथनिरपेक्ष या सर्वपंथादर
रखने वाला, राज्य बनाने के लिए बड़ी युवा शक्ति, उस देश में खड़ी है. बांगला देश और भारत
की भी दृष्टि से यह शुभसंकेत है.
- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
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