Tuesday, 26 March 2013

एक मुख्यमंत्री ऐसा भी


घटना १८ मार्च की होगी. एक मुख्यमंत्री अपने राज्य की राजधानी से विमान से दिल्ली आ रहे थे. लेकिन आश्‍चर्य यह कि, उनके साथ कोई नौकर-चाकर नहीं थे. सुरक्षा गार्ड भी नहीं थे. कोई चपरासी भी नहीं दिखा. वे स्वयं ही अपना सामान संभाल रहे थे. विमान में उनका टिकट सादा इकॉनॉमी क्लास में था. सबके साथ कतार में खड़े रहकर आये.

हवाई अड्डे पर भी सामान्य यात्री की तरह प्रवेश किया. बस में बैठे. अपना नंबर आने के बाद विमान में प्रवेश किया. विमान में के कर्मचारियों की भी, कोई विशेष व्यक्ति के आने के बाद की भाग-दौड नहीं चल रही थी. वेे जाकर अपने आसन पर बैठै, बाद में एक अन्य यात्री उनके पडोस की सीट पर आकर बैठा.

दिल्ली हवाई अड्डे पर वे विमान से उतरे, तब भी सबसे पहले नहीं. कतार में खडे रहकर उतरे. स्वागत के लिए लाल दिये की गाडी भी नहीं आई थी. सब यात्री जिस बस में बैठे, उसी बस में बैठकर वे हवाई अड्डे की इमारत से बाहर निकले. वहाँ भी अपना सामान स्वयं लेकर चल रहे थे. पोशाख भी सादी थी. शर्ट और फूलपँट. कौन थे वे? वे थे गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर. रा. स्व. संघ के सहसरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले भी उसी विमान से यात्रा कर रहे थे. उन्होंने ही यह प्रसंग बताया.
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जिवंत शववाहिका
हाँ! उन्हें शववाहिका ही कहना चाहिए. वे सब महिला है. ग्यारह का समूह है. लावारिस शवों पर अंत्यसंस्कार करने का व्रत उन्होंने लिया है. शव, रेल दुर्घटना में छिन्नविच्छिन्न हुआ हो या पानी में डूबकर, सड-गल कर ऊपर आया हो, एड्स जैसे महाभयंकर रोग से दुनिया छोडकर जाने वाले का हो, या अनैतिक संबंधों से जन्म होने के कारण क्रूरता से मारे गए निष्पाप बालक का हो, ऐसे लावारिस, विरूप अवस्था के शवों पर अंतिम संस्कार करने में अच्छे-भले भी कतराते है, वहाँ ‘पंचशील महिला बचत समूह’की महिलाओं ने अब तक करीब डेढ हजार पार्थिवों पर अंत्यसंस्कार किए है. यह ‘पंचशील महिला बचत समूह’ महाराष्ट्र में के औरंगाबाद शहर का है.

बारिश हो या धूप, दिन हो या रात, पुलीस का फोन आते ही, दस मिनट में, ये महिलाएँ, शव मिलने के स्थान पर जा पहुँचती है. अंत्यविधि के लिए आवश्यक सब साहित्य; नया कपड़ा, फूल, अगरबत्ती, घासलेट, लकड़ियाँ खरीदती है; और आवश्यक विधि कर, पुलीस के सामने, उस पार्थिव को अग्नि देती है. इस अंत्यसंस्कार के लिए औरंगाबाद की महापालिका उन्हें तीन हजार रुपये देती है.

औरंगाबाद के भीमनगर क्षेत्र में वे रहती है. इस बचत समूह की अध्यक्ष है आशाताई मस्के. वे मराठी चौथी तक पढ़ी है. अपने क्षेत्र की महिलाओं के लिए कुछ अच्छा काम करे, इस उद्देश्य से २००५ में उन्होंेने ‘पंचशील महिला बचत समूह’की स्थापना की. इस बचत समूह की ओर से पोलिओ टीकाकरण, परिवार नियोजन शस्त्रक्रिया, ग्राम स्वच्छता अभियान, आदि उपक्रम चलाए जा रहे थे, २००७ में, महापालिका की लावारिस लाशों के निपटारे के बारे में नोटिस प्रकाशित हुई. इस नोटिस ने आशाताई को अस्वस्थ किया. क्या हम ये काम करे? महिलाएँ साथ देगी? हमसे ये काम हो सकेगा? - ऐसे अनेक प्रश्‍न उनके मन में उपस्थित हुए. करीब पंधरा दिन इसी मानसिक उधेडबुन में बीत गए. फिर उन्होंने तय किया कि, हमें यह काम करना ही है. उनके निर्धार को बचत समूह की अन्य महिलाओं का भी समर्थन मिला. आशाताई के पति ने भी उन्हें समर्थन दिया; और उन्होंने टेंडर भरा. और भी टेंडर आए थे. लेकिन महापालिका ने ‘पंचशील बचत समूह’का चुनाव किया.

काम मिलने के पाँच ही दिन बाद फोन आया. औरंगाबाद के फुलंब्री शिवार (मैदानी क्षेत्र) में एक शव मिला है. करीब १५ -२०  दिन का होगा. सडा-गला था. भयंकर दुर्गंध आ रही थी. शव से खून और पीप भी रिस रहा था. उसे देखते ही, पंचशील समूह की दो महिलाएँ चक्कर आकर गिर पड़ी. कुछ को उल्टियाँ हुई. लेकिन अब पीछे हटना संभव नहीं था. उन्होंने लाश को कोरे कपडे में लपेटा. स्मशानभूमि ले गये और उस पर अंत्यसंस्कार किए. आशाताई बताती है, ‘‘उसके बाद आठ दिन हम अलग ही दुनिया में थे. भोजन नहीं कर पाते थे. वही चित्र नज़रों के सामने रहता था. वह जानलेवा दुर्गंध, लाश की छिन्नविच्छिन्न अवस्था, सब भयंकर था! एक क्षण तो ऐसा लगा कि, क्यों ये काम करें? अन्य उद्योग कर भी बचत समूह पैसे कमा सकता है. लेकिन फिर मन का निश्‍चिय हुआ. और लोग जो नहीं कर सकते, वह हम करते है, इसका समाधान लगने लगा. कुछ भी हो, अब पीछे नहीं हटना.’’ आशाताई के निर्धार को उनकी सहयोगी महिलाओं ने भी साथ दिया, गत पाँच वर्षों से यह अनोखा सामाजिक काम यह बचत समूह कर रहा है. मानो इस बचत समूह की महिलाएँ शववाहिका ही बन गई है.
(‘अमेय’के ‘खरेखुरे लीडर्स’(सच्चे लीडर्स) के जनवरी २०१३ के अंक से साभार)                  

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पशुओं की कृतज्ञता
कुत्तों के स्वामी-निष्ठा की कहानियाँ हमने सुनी है. लेकिन दक्षिण आफी्रका के निवासी लॉरेन्स अँथनी हाथियों के कृतज्ञता की विलक्षण कहानी बताते है. श्री अँथनी लेखक भी है. उनकी तीन पुस्तकों में से एक ‘एलिफंट व्हिस्परर’ने बिक्री का रेकॉर्ड प्रस्थापित किया है. ७ मार्च २०१२ को अ‍ॅथनी का निधन हुआ. उनके अभाव का दु:ख भोग रहे है, उनकी पत्नी, उनके दो बच्चें, उनके दो नाति और अनेक हाथी!

हाँ, हाथी भी! हाथियों पर उनके अनंत उपकार है. मानव के अत्याचारों से उन्होंने अनेक जंगली हाथियों को बचाया है. सन् २००३ में अमेरिका ने इराक पर हमला किया, तब अँथनी ने अपनी जान जोखीम में डालकर, बगदाद  के चिड़ियाघर में हाथियों को बचाया था.

अँथनी की मृत्यु के दो दिन बाद ३१ हाथियों का झुंड, १२ मील दूर से उनके घर आया. उन हाथियों को कैसे पता चला कि, उनके उपकारकर्ता की मृत्यु हुई है. पता नहीं. लीला बर्नर नाम की ज्यू धर्मोपदेशिका बताती है कि, पता नहीं कैसे, हाथियों के दो झुंडों नेे, जान लिया कि, अपना सहृद चल बसा है. थुला थुला जंगल से निकलकर यह झुंड अँथनी के घर पहुँचा. अँथनी की पत्नी बताती है कि, गत तीन वर्षों में कभी भी हमने हमारे घर हाथी को आये हुए नहीं देखा था. लेकिन अब हाथियों को वह झुंड आया था. दो दिन और दो रात वही रुका. इस दौरान उन्होंने कुछ भी नहीं खाया; और तीसरे दिन सुबह, वह झुंड शांति के साथ लौट गया! हम पशु कहकर जिनकी अवहेलना करते है, वे भी कृतज्ञता जानते है, यह सच है!         
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डॉ. पुष्पा दीक्षित की पाणिनीय कार्यशाला
पाणिनी, विश्‍वविख्यात संस्कृत व्याकरणकार है. समृद्ध संस्कृत भाषा, पाणिनी ने अपनी असामान्य प्रतिभा से चार हजार सूत्रों में बांध दी है. पाणिनी के पहले भी अनेक व्याकरणकार हो चुके है. पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’में उनके उल्लेख है. लेकिन पाणिनी जैसा प्रभाव किसी का भी नहीं. जो पाणिनी को मान्य नहीं, वह अशुद्ध, ऐसी पाणिनी की प्रतिष्ठा है. पाणिनी के बाद भी अनेक व्याकरणकार हो गए. लेकिन उन सब ने पाणिनी के सूत्रों को केवल परिशिष्ट जोडे या उन सूत्रों का अर्थ विषद करने में धन्यता मानी.

जर्मनी के बॉन विश्‍वविद्यालय में संस्कृत और हिंदी इन दो विषयों के प्राध्यापक प्रतीक रुमडे ने २०१२ के मई माह में डॉ. पुष्पा दीक्षित की कार्यशाला में प्रशिक्षण लिया. उन्होंने ‘धर्मभास्कर’ मासिक के गत फरवरी माह के अंक में अपने अनुभवों का निवेदन किया है. उसी के आधार पर निम्न जानकारी दी है.

यह कार्यशाला छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में होती है. डॉ. पुष्पा दीक्षित राष्ट्रपति-पुरस्कार प्राप्त विद्वन्मान्य व्याकरण तज्ञ है. एम. ए., पीएच. डी. है. छत्तीसगढ़ शासन के महाविद्यालय में प्राध्यापक थी. अब सेवानिवृत्त है. ५ मई से ५ जून २०१२, एक माह यह कार्यशाला थी. इसमें करीब ५० विद्यार्थी सहभागी थी. वे महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश राज्यों से आये थे. नेपाल से भी कुछ विद्यार्थी आये थे. एक लघुभारत का ही दर्शन  वहाँ होता था. कार्यशाला में परस्पर संपर्क की भाषा अर्थात् संस्कृत ही थी.

रोज सुबह सात बजे अष्टाध्यायों के सूत्र पठन से अध्ययन की शुरुवात होती थी. दोपहर के भोजन की छुट्टी तक अध्ययन चलता था. भोजनोत्तर विश्रांती के बाद पुन: रात्री के भोजन तक विद्यार्थी एकत्र आते. सारे समय तक विद्यार्थी एक स्थान पर आसन लगाकर बैठते थे. यह एक प्रकार से ‘आसनविजय’ ही था.

कार्यशाला की सब व्यवस्था किसी गुरुकुल के समान थी. परिसर की सफाई, वर्ग में की बैठक व्यवस्था, पीने का पानी, रसोई में सहायता, भोजन परोसना, यह सब काम, निश्‍चित किए अनुसार विद्यार्थी ही करते थे. दिन भर अभ्यास का बौद्धिक श्रम होने के बाद विश्राम में, सायंकाल अलग-अलग भाषाओं में के भजन होते थे. रात्री के भोजन के बाद डॉ. पुष्पाताई (उन्हें विद्यार्थी माताजी कहते थे) भागवत सुनाती थी. उसके माध्यम से सामाजिक भान और शास्त्राध्ययन की लगन का स्मरण कराया जाता था.

माताजी का दिनक्रम विद्यार्थीयों के दिनक्रम से भी कठोर था. प्रात: पाँच बजे उठकर नित्यविधी निपटने के बाद वे कंप्युटर पर नित्य का ग्रंथ-लेखन करती. इस ग्रंथ-लेखन में कभी भी खंड नहीं हुआ. सात बजे अध्ययन शुरु होता. बीच-बीच में विद्यार्थीयों से प्रश्‍न पूछकर वे विद्यार्थीयों को जागरूक करती. इन करीब पचास विद्यार्थीयों के लिए भोजन बनाने, वे रसोईघर में भी काम करती. यह कार्यशाला, वे समाज में के संस्कृत प्रेमी सज्जनों से सहायता लेकर चलाती. विद्यार्थीयों से शुल्क नहीं लिया जाता. श्री रुमडे लिखते है, ‘‘मानों स्फूर्ति के झरने की इस कार्यशाला में भाग लेकर संस्कृत के विद्यार्थी हमारे ऊपर शास्त्राध्ययन के साथ कितनी बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी है, यह बात मन में पक्की करते है, माताजी के सहवास में इस तेज:पुंज से तेज के कुछ कण ले पाए, इससे आनंद की और क्या बात होती?’’
(‘धर्मभास्कर’ से साभार)

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मोटेल में भगवद्गीता
मोटेल मतलब मोटर कार से यात्रा करने वालो के लिए, रुकने की और अपनी कार रखने की व्यवस्था का होटल. ‘इस्कॉन’ मतलब ‘इंटरनॅशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कान्शस्नेस’. हम उसे ‘हरे कृष्ण’ संस्था कहते है. इस संस्था ने अमेरिका में विभिन्न मोटेल में भगवद्गीता की १६००० प्रतियाँ रखी है. इनमें हरेकृष्ण संप्रदाय के संस्थापक श्री प्रभुपाद महाराज का गीत पर का भाष्य है. सामान्यत: हर मोटेल में बायबल की एक प्रति रहती ही है. वहाँ बायबल की ऐसी एक लाख पैंतीस हजार प्रतियाँ रखी है. इसका अनुकरण कर ‘इस्कॉन’ने गीता की प्रतियाँ रखने का उपक्रम २००६ से शुरु किया. उनका गीता की दस लाख प्रतियाँ रखने का लक्ष्य है.

मोटेल में गीता की यह प्रतियाँ नि:शुल्क रखी जाती है. अमेरिका में के धनी भारतीय इसके लिए आवश्यक धन देते है. प्रभुपाद का भाष्य पढ़कर गीता से अनभिज्ञ लोग भी गीता का अर्थ समझ लेते है. वॉशिंग्टन डी. सी. में के मोटेल में निवास किए एक यात्री जॉन रॉड्रिग्ज, ने मोटेल के मालिक को आभार का पत्र लिखकर सूचित किया है कि, ‘‘मोटेल के मालिक के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ कि, उन्होंने मुझे यह अवसर उपलब्ध करा दिया. इससे मुझे, ‘मैं कौन हूँ?’, ‘यह जीवन मतलब क्या?’ - इसका ज्ञान हुआ. इस कारण मेरा जीवन अधिक सुखी और तनावरहित हुआ है. मेरा इस सौभाग्य पर विश्‍वास ही नहीं होता. धन्यवाद.’’

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कुछ विनोद
पुणे के यह फलक पढ़े -
१) हम कभी पढ़ाई नहीं करते. कारण पढ़ाई केवल दो ही बातों से संभव है. (अ) लगाव के कारण (आ) भय के कारण. फालतू लगाव हमने पाले नहीं. और हम डरते तो किसी के बाप से भी नहीं.

२) सिगारेट तस्तरी में न बुझाए अन्यथा चाय अ‍ॅश ट्रे से पीनी पडेगी.

३) जीवन में का पहला वस्त्र है लंगोट. उसे जेब नहीं होती. अंतिम वस्त्र (होता है) तन से लपेटी सफेद चादर. उसे जेब नहीं होती. फिर भी मनुष्य जीवन भर जेब भरने के लिए मरता है.

४) हमारे घर के बच्चें क्रांतिकारक है. इस कारण गेट के सामने रखी गाडी पर हमला होने पर हम जिम्मेदार नहीं. थोडे समय बाद गेट के सामने की गाडी भी दिखेगी नहीं, इसकी गारंटी. गाडी गेट के सामने लगाए और आकर्षक पुरस्कार जीते : (पुरस्कार)
            *पंक्चर टायर      * फटी हुई सीट   * टूटे हेडलाईट
            * पेट्रोल की टंकी खाली और बंपर इनाम गाडी पुलीस स्टेशन में.

५) रोज सुबह उठने के बाद अमीर और महान व्यक्तियों के नाम पढ़े. उसमें आपका नाम न हो, तो काम शुरु करे.

६) देखने वाला कोई हो तो दाढी करने में मतलब है. कोई देखने वाला ही नहीं होगा, तो नहाना भी व्यर्थ है. 
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सियासी क्षेत्र के कुछ सुभाषित
१) ‘‘हम छोटे चोरों को फाँसी पर लटकाते है और बड़े चोरों को सरकारी पद देते है’’ - इसाप
२ ) ‘‘सर्वत्र सियासी लोग एक जैसे ही होते है. जहाँ नदी नहीं, वहाँ पूल बनाने का आश्‍वासन देते है.’’ - निकिता क्रुश्चैव
३ ) राजनीति ऐसी एक कला है जो गरीबों से मत मिलाती है और अमीरों से पैसा. दोनों को एक-दूसरे से सुरक्षा देने का आश्‍वासन देती है. - ऑस्कर अमेरिंगर
४ ) ‘‘मेरे विरोधकों को मैंने एक समझौते का प्रस्ताव दिया. मैंने कहा, मेरे विरुद्ध की असत्य बातें प्रसारित करना, तुमने बंद किया, तो तुम्हारे बारे में की सच्ची बातें मैं बताऊँगा नहीं.’’ - अ‍ॅडलाय स्टीव्हन्सन
५ ) राजनीतिज्ञ ऐसा आदमी है कि जो देश के लिए तुम्हारे प्राण भी लेगा.
६ ) और एक विनोद.
            राजनीतिज्ञ नदी में डूबकर मर गया तो क्या होगा? अर्थात् पानी दूषित होगा. लेकिन सब राजनीतिज्ञ डूबकर मर गए तो? - तो सब प्रश्‍न हल हो जाएगे.

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सरदारजी
क्या आप जानते है कि,
१ ) आयकर में का ३३ प्रतिशत भाग सिक्ख देते है.
२ ) देश में कुल दान-धर्म में ६७ प्रतिशत हिस्सा सिक्खों का होता है.
३ ) सेना में सिक्खों की संख्या ४५ प्रतिशत है.
४ ) ५९ हजार गुरुद्वारों में के लंगर में रोज ५९ लाख लोगों को नि:शुल्क भोजन दिया जाता है.
५ ) हिंदुस्थान की जनसंख्या में सिक्खों का प्रमाण कितना है? केवल १.४ प्रतिशत.

और यह एक घटना
छुट्टी में कुछ मित्र दिल्ली आये. शहर में घूमने के लिए उन्होंने एक टॅक्सी किराए पर ली. चालक एक बूढ़े सरदारजी थे. युवा लड़कें, यात्रा में सरदारजी को चिढाने के लिए, सरदारजी से जुडे विनोद एक-दूसरे को सुनाने लगे. सरदारजी शांतता से सब सुन रहे थे.     

घूमना समाप्त होने के बाद उन्होंने सरदारजी को किराए के पैसे दिए. छुट्टे पैसे लौटाते समय सरदारजी ने हर एक को एक रुपया ज्यादा दिया. और उनसे कहा, ‘‘तुमने इतने समय तक सरदारजी का मजाक उडाने वाले किस्से सुनाए. उनमें के कुछ अभिरुचिहीन भी थे. लेकिन मैंने शांति के साथ सब सुन लिया. मेरी तुमसेे एक बिनति है. यह जो ज्यादा एक रुपया मैंने तुम्हें दिया है, वह इस शहर में या अन्यत्र भी कोई सिक्ख भिखारी मिला, तो उसे दे.’’ निवेदक सुमंत आमशेखर बताते है कि, दिल्ली घूमने गये उन लड़कों में मेरा एक मित्र भी था. वह कहता है, ‘‘अनेक वर्षों बाद भी वह एक रुपया मेरे पास पडा हुआ है.’’


- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com

1 comment:

  1. १ ) आयकर में का ३३ प्रतिशत भाग सिक्ख देते है.
    २ ) देश में कुल दान-धर्म में ६७ प्रतिशत हिस्सा सिक्खों का होता है.
    ३ ) सेना में सिक्खों की संख्या ४५ प्रतिशत है.

    इन तीन बिंदुओं की सत्यता पर शंका है|
    यदि संभव हो तो इनके सन्दर्भ उपलब्ध कराएँ|
    धन्यवाद!

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