राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार| संघ विश्वविख्यात हो गया है, अपनी अद्वितीय संघटनशैली के कारण| उसके साथ ही उसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार का भी नाम विश्वविख्यात हुआ है| कम से कम 35 देशों
में संघ का कार्य प्रचलित है|
अभिजात देशभक्त
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा डॉक्टर जी का जन्मदिन है| अंग्रेजी पंचांग के अनुसार तारीख थी 1 अप्रेल 1889| बाल हेडगेवार
अभिजात देशभक्त था|
9-10 साल की आयु वैसी क्या होती है| किन्तु उस आयु में भी केशव हेडगेवार की सोच और मानसिकता कुछ
और ही थी|
वह प्राथमिक तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था| इंग्लैंड की रानी, जो हिंदुस्थान की भी साम्राज्ञी हुआ करती थी, व्हिक्टोरिया के राज्यारोहण को साठ वर्ष पूरे हुये थे| उस उपलक्ष्य में इंग्लैंड में तथा जहॉं जहॉं इंग्लैंड का
साम्राज्य था वहॉं वहॉं उस राज्यारोहण का हीरक महोत्सव आयोजित किया गया था| भारत में भी वह मनाया गया| उस के निमित्त प्रत्येक स्कूल में मिठाई बॉंटी गयी| केशव हेडगेवार को भी वह मिली| किन्तु केशव ने उसका भक्षण नहीं किया| कूडादान में उसे फेंक दिया| कारण एक
विदेशी आक्रान्ता शासन की पुरोधा के उत्सव का वह प्रतीक था|
वन्दे मातरम् प्रकरण
कैसा वर्णन करे इस अबोध बालक के सोच का| मुझे लगता है कि यह अबोध या आकस्मिक प्रतिक्रिया नहीं थी| उसके पीछे एक विशेष सोच थी, जिसका प्रकटीकरण फिर बारह वर्षों के बाद हुआ| केशव हेडगेवार मॅट्रिक के वर्ग में यानी उस समय के 11 वी में पढ रहा था| एक शाला निरीक्षक (School
Inspector) उनके स्कूल को देखने के लिये आनेवाला था| मुख्याध्यापक ने सब विद्यार्थिओं को उसकी सूचना दी| और ठीक ढंगसे, अच्छे कपडे पहन कर अनुशासन से बर्ताव करने की हिदायत दी| किन्तु केशव हेडगेवार के दिमाग में दूसरी ही योजना बनी| उन्होंने अपने वर्ग के सब विद्यार्थियों को इकठ्ठा किया और
उनको मनवा लिया कि ‘वन्दे मातरम्’ की उद्घोषणा से उस शिक्षा अधिकारी का स्वागत करेंगे| वह साल था 1908| 1905 में उस समय के अंग्रेज व्हाईसरॉय लॉर्ड कर्झन ने बंगाल
प्रान्त का विभाजन किया था|
उसके खिलाफ भारत की सारी देशभक्त जनता इकठ्ठा हो गई थी| इस विभाजन विरोधी आंदोलन का मंत्र था ‘वन्दे मातरम्’| उस मंत्र के प्रभाव से सम्पूर्ण देश उत्तेजित था| अंग्रेज सरकारने ‘वन्दे मातरम्’
की उद्घोषणा पर पाबंदी लगाई थी|
विद्यालय से निष्कासित
विद्यालय के मुख्याध्यापक के साथ निरीक्षक महोदय केशव के वर्ग में जब आये तब
सम्पूर्ण वर्ग ने खडे होकर ‘वन्दे मातरम्’ की जोरदार उद्घोषणा कर उनका स्वागत किया| निरीक्षक महोदय आग बबूला हो गये| वर्ग के बाहर आये और मुख्याध्यापक को डॉंटफटकार कर गुस्से
में स्कूल से चले गये|
फिर मुख्याध्यापक 11 वी कक्षा के कमरे में आये| विद्यार्थियों से पूछा कि किसने यह षडयंत्र रचा था| कोई बोलने को तैयार नहीं था| अत: वर्ग के समूचे विद्यार्थियों को विद्यालय से निष्कासित किया|
कुछ ही दिनों में इस घटना का पता अभिभावकों को लगा| वे मुख्याध्यापक महोदय से मिले| मुख्याध्यापक ने कडा रूख अपनाकर कहा कि विद्यार्थियों को
लिखित रूप में माफी मांगनी पडेगी| तभी उनको
प्रवेश मिलेगा|
विद्यार्थी इस के लिये तैयार नहीं हुये| तब मध्यम रास्ता निकाला गया कि मुख्याध्यापक कक्षा के
द्वारपर खडे रहेंगे|
एकेक विद्यार्थी से पूछेंगे कि तुमसे गलती हुई ना और
विद्यार्थी सम्मतिदर्शक मुंडी हिलायेगा और कक्षा में प्रवेश करेगा| इस रीति से अन्य सारे विद्यार्थियोंने पुन: प्रवेश प्राप्त
किया|
किन्तु केशव ने यह समझोता भी नहीं माना| वह अकेला विद्यार्थी निष्कासित रहा| फिर नागपुर से करीब 150 कि. मी. दूरी पर स्थित यवतमाल नगर में स्थापित और सब शासकीय बन्धनों से
मुक्त एक विद्यालय में प्रवेश कर उसने मॅट्रिक की परीक्षा दी और वह उसने उत्तीर्ण
भी की|
इस परीक्षा उत्तीर्णता के दाखिले पर ‘द नॅशनल कौन्सिल ऑफ बेंगाल’ इस संस्था के अध्यक्ष तथा सुविख्यात क्रांतिकारक डॉ. रासबिहारी घोष के
हस्ताक्षर थे|
कोलकाटा में
केशव आगे की पढाई के लिये इच्छुक था| उसने कोलकाटा का चयन किया| इस के लिये दो
कारण थे|
पहिला यह कि मॅट्रिक का दाखिला बंगाल का था| और दूसरा यह कि कोलकाटा क्रांतिकारियों का गढ था| केशव की आयु 19 हो गई थी|
मन से वह क्रांतिकारक बन गया था| कोलकाटा जाते ही उसने अपने शरीर को भी उस में झोंक दिया| क्रांतिकारियों की सब गतिविधियों का ज्ञान उसने प्राप्त
किया|
क्रांतिकारियों की केन्द्रीय समिती जो ‘अनुशीलन समिति’ के नाम से प्रसिद्ध थी,
उसका भी वह सदस्य बना| साथ साथ डॉक्टरी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की| डॉक्टरी की प्रात्यक्षिक शिक्षा का कार्यकाल पूरा कर केशव 1925 में नागपुर आया| अब वे डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार बन गये थे|
मर्यादाओं का ध्यान
शासकीय सेवा में प्रवेश के लिये या अपना अस्पताल खोलकर पैसा कमाने के लिये वे
डॉक्टर बने ही नहीं थे|
भारत का स्वातंत्र्य यही उनके जीवन का ध्येय था| उस ध्येय का विचार करते करते उनके ध्यान में स्वतंत्रता
हासील करने हेतु क्रांतिकारी क्रियारीतियों की मर्यादाएं ध्यान में आ गई| दो-चार अंग्रेज अधिकारियों की हत्या होने के कारण अंग्रेज
यहॉं से भागनेवाले नहीं थे|
किसी भी बडे आंदोलन के सफलता के लिये व्यापक जनसमर्थन की
आवश्यकता होती है|
क्रांतिकारियों की क्रियाकलापों में उसका अभाव था| सामान्य जनता में जब तक स्वतंत्रता की प्रखर चाह निर्माण
नहीं होती,
तब तक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी और मिली तो भी टिकेगी
नहीं,
यह बात अब उनके मनपर अंकित हो गई थी| अत: नागपुर लौटने के बाद गहन विचार कर थोडे ही समय में
उन्होंने उस क्रियाविधि से अपने को दूर किया और कॉंग्रेस के जन-आंदोलन में पूरी
ताकत से शामील हुये|
यह वर्ष था 1936| लोकमान्य तिलक जी मंडाले का छ: वर्षों का कारावास समाप्त कर
मु़क़्त हो गये थे|
‘‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे मैं प्राप्त
करके ही रहूँगा’’
उनकी इस घोषणा से जनमानस में चेतना की एक प्रबल लहर निर्माण
हुई थी|
डॉ. केशवराव हेडगेवार भी उस लहर के अंग बन गये| उससे एकरूप हो गये| अंग्रेज सरकार के खिलाफ उग्र भाषण भी देने लगे| अंग्रेज सरकारने उनपर भाषणबंदी का नियम लागू किया| किन्तु डॉक्टर जी ने उसे माना नहीं| और अपना भाषणक्रम चालूही रखा| फिर अंग्रेज सरकारने उनपर मामला दर्ज किया और उनको एक वर्ष की सश्रम कारावास
की सजा दी|
12 जुलाई 1932 को
कारागृह से वे मुक्त हुये|
संघ का जन्म
एक वर्ष के कारावास में उनके मन में विचारमंथन अवश्य ही चला होगा| उनके मन में अवश्य यह विचार आया होगा कि क्या जनमानस में
स्वतंत्रता की चाह मात्र से स्वतंत्रता प्राप्त होगी| वे इस निष्कर्षपर आये कि स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों से
प्रदीर्घ संघर्ष करना होगा|
उस हेतु जनता में से ही किसी एक अंश को संगठित होकर नेतृत्व
करना होगा|
जनता साथ तो देगी किन्तु केवल जनभावना पर्याप्त नहीं होगी| स्वतंत्रता की आकांक्षा से ओतप्रोत एक संगठन खडा होना
आवश्यक है,
जो जनता का नेतृत्व करेगा, तभी संघर्ष दीर्घ काल तक चल सकेगा| जल्दबाजी से कुछ मिलनेवाला नहीं है| अत: कारावास से मुक्त होनेपर इस दिशा में उनका विचारचक्र चला और उसके
परिणामस्वरूप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ|
संघ की कार्यरीति
यह संगठन हिन्दुओं का ही होगा, यह भी निश्चय उनका हो गया था| क्यौं कि इस देश का भाग्य और भवितव्य हिन्दु समाज से निगडित है| अन्य समाजों का साथ मिल सकता है| किन्तु संगठन की अभेद्यता के लिये केवल हिन्दुओं का ही
संगठन हो इस निष्कर्षपर वे आये| अंग्रेज चालाख
है|
फूट डालने की नीति में कुशल है और सफल भी थे| यह डॉक्टर जी ने भलीभॉंति जान लिया| इस लिये उन्होंने हिन्दुओं का ही संगठन खडा करने का निश्चय
किया|
हिन्दु की परिभाषा उनकी व्यापक थी| उस में सिक्ख, जैन और बौद्ध भी अन्तर्भूत थे| वे यह भी जानते थे कि हिन्दु एक जमात (community) नहीं है|
वह ‘राष्ट्र’ है| अत: उन्होंने, अनेक सहयोगियों से विचार कर उसका नाम ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ रखा|
हिन्दुओं का संगठन खडा करना यह आसान बात नहीं थी| अनेक जातियों में, अनेक भाषाओं में,
अनेक संप्रदायों में हिन्दु समाज विभक्त था| इतनाही नहीं तो अपनी अपनी जाति के, भाषा के और संप्रदाय के अभिमान भी उत्कट थे| साथ ही जातिप्रथा के कारण उच्चनीच भाव भी था| अस्पृश्यता का भी प्रचलन था| इन सब बाधाओं का विचारकर, उन्होंने अपनी
अलोकसामान्य प्रतिभा से एक अभिनव कार्यपद्धति का निर्माण किया| वह पद्धति यानी संघ की दैनंदिन शाखा की प्रद्धति| हम अपने समाज के लिये, अपने देश के लिये कार्य करना चाहते हैं ना, तो अपने २४ घण्टों के समय में से कम से कम एक घण्टा संघ के लिये देने का
उन्होंने आग्रह रखा|
और उनकी दूसरी विशेषता यह थी, समाज में के भेदों का जिक्र ही नहीं करना| बस् एकता की बात करना|
अन्य समाजसुधारक भी उस समय थे| उनको भी जातिप्रथा के कारण आया उच्चनीच भाव तथा अस्पृश्यता
को मिटाना था| किन्तु वे जाति का उल्लेख कर उसपर प्रहार करते थे| डॉक्टर जी ने एक नये मार्ग को चुना| उन्होंने तय किया कि व्यक्ति की जाति ध्यान में नहीं लेंगे| केवल सब में विराजमान एकत्व की यानी हिन्दुत्व की ही भाषा
बोलेंगे|
इस कार्यपद्धति द्वारा उन्होंने शाखा में सब को एक पंक्ति
में खडा किया|
एक पंक्ति में कंधे से कंधा मिलाकर चलने को सिखाया और
क्रांतिकारी बात यह थी एक पंक्ति में सबको भोजन के लिये बिठाया| ‘एकश: सम्पत्’ यह जो संघ शाखापद्धति की विशिष्टतापूर्ण आज्ञा है वह डॉक्टर जी की मौलिक
विचारसरणी का प्रतीक है|
मैं तो कहूँगा कि वह एक क्रांतिकारी आज्ञा है| सारा संघ उस आज्ञा के भाव से आज तक अनुप्राणित है|
खास तरीका
इसका एक उदाहरण मेरे स्मरण में है| बात 1932 की है| प्रथम बार नागपुर में संघ के शीत शिबिर में जिनको समाज
अस्पृश्य मानता था,
उस समाज से स्वयंसेवक आये| उनके ही पडोस के मुहल्ले से आये हुये अन्य जाति के स्वयंसेवकों ने डॉक्टर जी
से कहा कि,
हम इनके साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करेंगे| डॉक्टर जी ने उनको यह तो नहीं कहा कि आप शिबिर से चले जाइये| उन्होंने उनसे कहा ‘ठीक है,
आप अलग पंक्ति बना कर भोजन कीजिये| मैं तो उनके साथ ही भोजन करूँगा|’’ उस दिन उस विशिष्ट जाति के 10-12 स्वयंसेवकों ने अलग पंक्ति में बैठकर भोजन किया| अन्य करीब तीनसौ स्वयंसेवकोंने, डॉक्टर जी समेत, समान पंक्तियों में बैठकर अपना भोजन किया| दूसरे दिन चमत्कार हुआ|
उन 10-12 स्वयंसेवकों ने भी सब के साथ पंक्ति
में बैठकर भोजन किया| बोर्डपर
विद्यमान किसी रेषा को छोटी करनी हो तो उसके लिये दो तरीके हैं| एक यह कि डस्टर लेकर उस रेषा को किसी एक छोर से मिटाये| और दूसरा यह कि उस रेषा के ऊपर एक बडी रेषा खींचे| वह मूल रेषा आपही आप छोटी हो जाती है| डॉक्टर जी ने दूसरे तरीके को अपनाया| सब के ऊपर हिन्दुत्व की बडी रेषा खींची| बाकी सब रेषाएं आप ही आप छोटी हो गई| इस पद्धति की सफलता यह है कि संघ में किसी व्यक्ति की जाती
पूछी ही जाती नहीं|
इस तरीके से संघ में जातिभेद मिट गया| छुआछूत समाप्त हुई| 1934 में महात्मा जी ने भी संघ की इस विशेषता का, उनके आश्रम के समीप जो संघ का शिबिर लगा था, उस में जाकर स्वयं अनुभव किया| संघ जातिनिरपेक्ष,
भाषानिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष बना|
और बिखरे हुये हिन्दुओं का संगठन करने में सफल बना|
गुरुदक्षिणा
संघ की कार्यशैली की दूसरी विशेषत: यह है कि संघ की जो भी आवश्यकताएं र्है वे
संघ के स्वयंसेवक ही पूर्ण करेंगे| संस्था चलाने के लिये धन चाहये ही| वह कौन देगा|
अर्थात् स्वयंसेवक देंगे| संघ किसी से दान नहीं लेता| जो भी देना है
वह स्वयंसेवक देंगे|
और वह भी समर्पण भावना से, दान की भावना से नहीं|
दान की भावना अहंकार को जन्म देती है| देनेवालो का हाथ हमेशा ऊपर रहता है| संघ की गुरुदक्षिणा की पद्धति के कारण संघ पूर्णत: स्वतंत्र
है|
किसी का भी दबेल नहीं है|
गुरु कौन?
गुरुदक्षिणा तो प्रारंभ हुई| किन्तु गुरु
कौन?
डॉक्टर जी ने बताया कि कोई व्यक्ति संघ में गुरु नहीं| भगवा ध्वज अपना गुरु| वह ध्वज त्याग का,
पवित्रता का, तथा पराक्रम का प्रतीक है| गुरुदक्षिका
में उसका पूजन तथा उसी को समर्पण| इस पद्धति के
कारण संघ में व्यक्तिमाहात्म्य नहीं| किसी भी व्यक्ति का जयघोष नहीं| ‘डॉ. हेडगेवार की जय’
यह भी घोष नहीं तो औरों की बात ही क्या? संघ में केवल एकमात्र जयघोष है ‘भारत माता की जय’|
कार्यकर्ता
किसी भी संस्था चलाने के लिये कार्यकर्ता चाहिये| वे कहॉ से आयेंगे| डॉक्टर जी ने वे संघ से ही निर्माण किये| उत्कट देशभक्ति और निरपेक्ष समाजनिष्ठा की भावना से डॉक्टर जी ने तरुणों को
अनुप्राणित किया|
और 18-20 वर्ष की आयुवाले तरुण, अननुभवी होते हुये भी, रावलपिंडी,
लाहोर, देहली, लखनौं, चेन्नई, कालिकत, बेंगलूर ऐसे
सुदूर स्थित अपरिचित शहरों में गये| प्राय:,
शिक्षा का हेतु लेकर ये तरुण गये| किन्तु मुख्य उद्देश्य था वहॉं संघ की शाखा स्थापन करना| इन तरुणों ने अपने समवयस्क तरुणों को अपने साथ यानी संघ के
साथ जोडा|
और शिक्षा समाप्ति के पश्चात् भी वे वहीं कार्य करते रहे| उनके परिश्रम से संघ आसेतु हिमाचल विस्तृत हुआ| उस समय ‘प्रचारक’ यह संज्ञा रूढ नहीं हुई थी| किन्तु ये सारे प्रचारक ही थे| आज भी उच्चविद्याविभूषित तरुण, ‘प्रचारक’
बनकर अपना सारा जीवन संघ के लिये समर्पित करते दिखाई देते
हैं|
इन कार्यकर्ताओं के प्रयत्नों को अभूतपूर्व यश मिला और 1940 के नागपुर में हुये संघ शिक्षा वर्ग में एक असम का अपवाद
छोडकर उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक के सब प्रान्तों से
शिक्षार्थी स्वयंसेवक उपस्थित थे| डॉक्टर जी अपनी आँखों में हिंदुस्थान का लघुरूप देख सके| उस शिक्षा वर्ग के समाप्ति के पश्चात् केवल 11 दिनों के बाद ही यानी 21 जून 1940 को डॉक्टर जी ने इहलोक की जीवनयात्रा समाप्त की| 51 वर्षों का उनका जीवन कृतार्थ हुआ|
आज डॉक्टर जी ने स्थापन किया हुआ संघ भारत के सभी जिलों में फैला है| और भारत के बाहर ३५ देशों में उसका विस्तार हुआ है| अंतर इतना ही कि विदेश स्थित संघ का नाम हिंदू स्वयंसेवक
संघ है|
आज की बिगडी हुई सामाजिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में संघ ही
एकमात्र जनता की आशा का स्थान है| डॉक्टर जी के
जन्मदिन के शुभ अवसर पर उनको सादर प्रणाम|
मा. गो. वैद्य
नागपुर
10-04-2013
babujivaidya@rediffmail.com
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