अलविदा! यह मेरा आखरी साप्ताहिक भाष्य है. तरुण भारत के मुख्य संपादक का
दायित्व १९८३ को छोडने के बाद, गत तीस वर्ष
हर रविवार के अंक के लिए यह स्तंभ मैं लिखता रहा हूँ. अब यह लेखन रोक रहा हूँ.
अंग्रेजी पंचांग के अनुसार,
90 वर्ष की आयु हो चुकी है और हिंदू पंचांग के अनुसार भी, तीन-चार दिन बाद, वही अवस्था प्राप्त होनी है.
‘भाष्य’का आरंभ
तरुण भारत का मुख्य संपादक रहते समय अपने नाम से बहुत अधिक लिखा ऐसा स्मरण
नहीं. अपवाद पुस्तकों की समीक्षा का हो सकता है. अग्रलेख के अतिरिक्त कुछ लिखा
होगा तो वह ‘नीरद’ इस उपनाम से. ‘नीरद’ नाम से लेखन
कब शुरु किया और कब रोका,
यह अब स्मरण नहीं. संपादक पद से निवृत्त होने के बाद, सब लेखन अपने नाम से किया.
यह ‘भाष्य’ सब को पसंद आया ऐसा नहीं.
लोगों को जो पसंद हो वही लिखना, ऐसी वृत्ति भी
नहीं. मेरा नाम भी ‘गोडबोले’ (मीठा बोलनेवाला)
नहीं. लेकिन पसंद हो या न हो, लोग उस स्तंभ
की उत्सुकता से राह देखते है, इसका अहसास
होता था. उस लेखन की आलोचना करने वाले पत्र और लेख भी आते थे. मैं मुख्य संपादक था
उस समय,
प्रकाशित अग्रलेखों पर या अन्य लेखों की आलोचना करने वाला जो साहित्य आता
था,
वह अग्रक्रम से, प्रकाशित करने पर मेरा जोर होता था. मेरे साथ काम कर चुके सब लोगों को यह पता
है. उस साहित्य में कभी-कभी कुछ गाली-गलोच भी रहती थी. मैं उसे वैसे ही रखता था.
ऐसे साहित्य से अपना कुछ नहीं बिगडता, लिखने वाले का स्तर पता चलता है, ऐसा मेरा दृष्टिकोण था. मैं प्रबंध संचालक और मामासाहब घुमरे मुख्य संपादक थे, उस समय, मेरे लेख पर, प्रतिक्रिया स्वरूप आए एक लेख में ऐसे ही कुछ असभ्य शब्द
थे. वह पत्र श्री घुमरे ने मेरे पास भेजा. मैंने अवश्य छापे, ऐसा लिखकर उनके पास वापस भेजा. वह उन्होंने प्रकाशित किया
लेकिन उसमें का असभ्य अंश हटाकर. मैंने मामासाहब से कहा, ‘‘आपने वह शब्द क्यों हटाए? मैं तो वह वैसे ही रखता था.’’ मामासाहब का
उत्तर मार्मिक था. उन्होंने कहा, ‘‘तब, आप मुख्य संपादक थे; अब मैं हूँ!’’
हम दोनों के बीच ऐसे सख्यत्व के संबंध थे.
‘भाष्य’का सफर
एक व्रत मानकर ही तीन दशक मैंने यह ‘भाष्य-लेखन’
किया. कभी-कभी चलती रेल में भी लिखना पडा. जब गाँव में मुकाम होता था, वहाँ लेखन कर वर्धा में श्री हरिभाऊ वझूरकर के पास भेजता था; वे वर्धा से नागपुर भेजते थे. कुछ समय बाद ‘फॅक्स’की सुविधा
होने के बाद बाहर से भेजना बहुत आसान हुआ.
मैं मराठी में ही लिखता था. अर्थात् नागपुर के तरुण भारत के लिए, फिर आगे चलकर, औरंगाबाद,
मुंबई, सोलापुर आदि
स्थानों से प्रकाशित होने वाले तरुण भारत में वह प्रकाशित होता था. ‘तरुण भारत असोसिएट्स’ यह व्यवस्था,
इसके लिए काम करती थी. मेरे मित्र श्री पद्माकर भाटे, ‘युगधर्म’में कार्यरत
थे तब,
वे उसका हिंदी अनुवाद कर, दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ‘पाञ्चजन्य’
साप्ताहिक के लिए भेजते थे. युगधर्म से निवृत्त होने के बाद
भी वे अनुवाद का काम करते थे; और ‘पाञ्चजन्य’भी वह लेख
नियमित प्रसिद्ध करता था. श्री भाटे के देहावसान के बाद श्री शरद महाजन अनुवाद का
काम करते थे. लेकिन आगे चलकर ‘पाञ्चजन्य’का नियमित प्रतिसाद कम होने के बाद मैंने ही श्री महाजन को
अनुवाद का काम रोकने के लिए कहा. श्री महाजन भी ‘युगधर्म’
बंद होने तक उसमें कार्यरत थे. आज श्री भाटे और श्री महाजन
दोनों ही हमारे बीच नहीं है.
कुछ समय बाद पुणे के ‘तरुण भारत’का प्रकाशन
बंद हुआ. मुंबई ‘तरुण भारत’भी बंद हुआ.
लेकिन वह फिर शुरु हुआ. इस बीच मेरा लेखन जारी रहा. फिर एक घटना के बाद, २०१० के अगस्त में मैंने ही यह लेखन रोक दिया. मेरे एक ‘भाष्य’के कारण भारतीय
जनता पार्टी के एक बड़े नेता नाराज हुए, और उन्होंने संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी के पास अपनी नाराजगी व्यक्त की, यह जानकारी मिलने के बाद, मैं संघ के उस अधिकारी से मिला. वे नाराज नहीं दिखे. उन्होंने केवल इतना कहा
कि,
आपका ‘भाष्य’ लोगों को संघ का अधिकृत मत है, ऐसा लगता है. वस्तुत: ऐसा लगने का कोई कारण नहीं था. २०१०
में मेरे पास संघ का कोई अधिकार पद नहीं था. संघ का अधिकार पद होते हुए भी, मेरा भाष्य लेखन जारी था. तथापि, मैंने ही विचार किया कि, क्यों लिखे?
और क्यों बड़े लोगों को नाराज करे? - इसलिए मैंने लेखन बंद किया.
पुनरारंभ
दो सप्ताह ‘भाष्य’ प्राप्त न
होने के बाद,
औरंगाबाद से प्रकाशित होने वाले देवगिरी तरुण भारत के उस
समय के संपादक श्री दिलीप धारूरकर का मुझे दूरध्वनि आया. उन्होंने कहा, ‘‘हमें ‘भाष्य’ चाहिए.’’ मैंने पूछा, ‘‘मालिकों से पूछा है?’’ उनका उत्तर था,
‘‘उन्होंने ही कहा है कि, ‘भाष्य’
चाहिए. मेरी (मतलब संस्था के अध्यक्ष की) आलोचना हो तो भी, प्रकाशित करे. मैं उसे उत्तर दूंगा.’’ श्री धारूरकर ने उन्हें बताया कि, ‘‘महाराष्ट्र भाजपा के एक बड़े नेता, एक-दो भाष्य के कारण नाराज हुए थे.’’ इस पर मालिकों का उत्तर था, ‘‘उन्हें भी बताओ कि,
‘भाष्य’ आएगा. उसे वे
उत्तर दे हम वह भी छापेंगे. उन्हें समय नहीं होगा, तो उनके पास अपना प्रतिनिधि भेजकर उनकी प्रतिक्रिया ले.’’ पत्रकारिता के संदर्भ में संचालकों की यह निरामय भूमिका
मुझे अभिमान और सराहना के योग्य लगी.
दूरध्वनि पर के इस संवाद के बाद, मेरे स्मरणानुसार,
२०१० के सितंबर से ‘भाष्य’
लेखन फिर शुरु हुआ. श्री धारूरकर ने कहा, ‘‘मुंबई तरुण भारत को भी ‘भाष्य’
चाहिए. हम उन्हें भेज सकते है.’’ मैंने कहा, मेरी हरकत
नहीं. एक-दो माह बाद सोलापुर तरुण भारत के संपादक का भी पत्र आया कि, हमें भी ‘भाष्य’ चाहिए. उन्हें भी भेजना शरु हुआ. इस मराठी ‘भाष्य’ का हिंदी
अनुवाद ग्वालियर से प्रकाशित होने वाले ‘स्वदेश’
दैनिक में भी प्रकाशित होता था. अनुवाद की व्यवस्था नागपुर
में ही थी. ‘स्वदेश’ का भी पत्र
आया कि,
उन्हें भी ‘भाष्य’
चाहिए.
‘ब्लॉग’पर
इस प्रकार ‘भाष्य’ पुनश्च शुरु
हुआ. लेकिन पहले मुंबई तरुण भारत में प्रकाशित होना
बंद हुआ. एक ‘भाष्य’ के कारण दैनिक
के संपादक और व्यवस्थापक के बीच विवाद हुआ और संपादक को त्यागपत्र देना पड़ा. उस ‘भाष्य’ का जोरदार
प्रतिवाद भी किया गया. उस प्रतिवाद का शीर्षक था, ‘वैद्य की दवा रोग से भी भयंकर’. मुझे ठीक लगा. हर विषय का दूसरा पक्ष भी होता है और वह प्रकट होना ही चाहिए, ऐसा मुझे हरदम लगता है. तथापि नागपुर के तरुण भारत में ‘भाष्य’ नहीं आने की
बात अनेकों को अखरती थी. आश्चर्य तो यह कि पत्रकारिता में सक्रिय लोगों को भी यह
नहीं जचा. उनमें से एक कोलकाता से प्रकाशित होने वाले ‘टेलिग्राफ’ दैनिक के इस
क्षेत्र के प्रतिनिधि श्री जयदीप हर्डीकर एक बार घर आए और कहा कि, हमें भाष्य चाहिए. पीटीआय के श्री जोसेफ राव ने भी ऐसी ही
भावना व्यक्त की. मैंने अपना देसी उपाय बताया कि, ‘‘आप औरंगाबाद का तरुण भारत पढ़े.’’ तब,
श्री हर्डीकर ने नया रास्ता सुझाया कि, ‘‘आप ‘ब्लॉग’ निकाले और उस
पर ‘भाष्य’ डाले.’’ ‘ब्लॉग’ आदि आधुनिक
तंत्र मुझे पता ही नहीं था. मेरा लड़का श्रीनिवास इस नई पत्रकारिता में है. उसे
मैंने इस बारे में पूछा और उसकी ही पहल से ब्लॉग पर भाष्य आना शुरू हुआ.
भिन्न-भिन्न टीव्ही चॅनेल भी उसका उपयोग करने लगे. मा. गो. वैद्य, समाचार पत्र के स्तंभ से
सीधा दूरदर्शन के आकाश में उडने लगा. ‘भाष्य’
के बारे में तरुण भारत नागपुर के वाचकों के लगाव की जानकारी
थी. उन्हें भी पता चले कि,
विशिष्ट ब्लॉग पर ‘भाष्य’
उपलब्ध हो सकता है, इसलिए उसका एक विज्ञापन, नागपुर तरुण
भारत को भेजा. वह प्रकाशित हुआ लेकिन मैंने देखा नहीं. वह नागपुर से बाहर जाने
वाली आवृत्ति में प्रकाशित होने की जानकारी मिली. वह नागपुर आवृत्ति में न आने का
कारण,
प्रबंध संचालक ने रात को एक बजे फोन कर उसे निकालने के लिए
कहा था,
ऐसा मुझे बाद में पता चला.
मुझे आश्चर्य हुआ. लेकिन बाद में स्वयं प्रबंध संचालक ने ही घर आकर
स्पष्टीकरण दिया कि,
‘‘मैंने ही वह विज्ञापन निकालने के लिए कहा था. जो लेख हमारे
वाचक पढ़ेंगे नहीं,
उन्हें और लोग पढ़े, ऐसा हम कैसे सूचित करेंगे?’’ मैंने
कहा,
‘‘वह तो विज्ञापन है. क्या हम काँग्रेस पार्टी का विज्ञापन
नहीं छापते?
हमें काँग्रेस की नीतियाँ जचती है इसलिए थोडे हम वह छापते
है?
इसके अलावा, दवाईंयों के विज्ञापन भी तो रहते ही है. ऐसा तो नहीं कि हम उन दवाईंयों का
उपयोग करते है!’’
कृष्ण-धवल दोनों ही
बात वही समाप्त हो गई. उसके बाद हमारे बीच कुछ पत्रव्यवहार भी हुआ. उसमें
उन्होंने मुझ पर कुछ आरोप भी किए. यह संपूर्ण पत्रव्यवहार तरुण भारत में की यादों
के संबंध में के लेख ‘मी आणि माझे’ (मैं और मेरे) इस आत्मचरित्रात्मक लेखों की दूसरी संशोधित आवृत्ति में डाले ऐसा मुझे लगा. इस बारे में
मैंने मेरे दो मित्रों की सलाह ली. उनका मत था कि, यह दुभार्ग्यपूर्ण भाग पुस्तक में न डाले. मैंने उनकी सलाह मानी. और प्रबंध
संचालक जी ने घर आकर क्षमा मांगने के बाद अपने आप ही यह दुर्भाग्पूर्ण प्रकरण
समाप्त हुआ.
लेखन बंद नहीं
तात्पर्य यह कि,
अब साप्ताहिक ‘भाष्य’
बंद. लेकिन इसका अर्थ कलम बंद ऐसा नहीं. किसी ने विशिष्ट विषय पर लेख मांगा तो मैं
लिखूंगा. एक-दो पुस्तकों का विचार भी मन में है. चुने हुए भाष्य का संग्रह निकालने
का भी विचार है. वर्ष २००० से २००४ के बीच के चुने हुए भाष्य का संग्रह ‘ठेवणीतले संचित’ शीर्षक से पहले प्रसिद्ध हुआ ही है. इसके अलावा, किसी विषय के बारे में मत प्रदर्शित करे, ऐसा लगा तो ‘ब्लॉग’ है ही. मतलब
लेखन जारी रहेगा. केवल हर सप्ताह लिखने का बंधन नहीं होगा. इस ‘भाष्य’पर गत तीस
वर्ष जिन्होंने प्रेम किया और जिन्होंने उसकी आलोचना की, उनके मन:पूर्वक आभार मानता हूँ, और इस लेखनी को विराम देता हूँ.
अलविदा!
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com
ho yeh to bahut i dukhad hei, hamare jaise karykrta jo ki aapki lekhni se bahut prbhavit he,jisse hame marg-darshan milta thaa. iske baad hame yeh maarg darshan bhashy ke dwara nahi milenga iska hame bahut dukh hei, ummid hei aap is baare me phir se sochenge..jai shri ram
ReplyDeletechandangiri tulsigiti gowami.prasiddhi pramukh bhartiya janta party nagpur mahangar,
आपकी लेखनी याद रहेगी
ReplyDeleteYah aalekh to sundar hai kintu is kaa seershak upayukta naheen hai. Vah honaa chaahiye thaa BHAASHYA KO ALVIDAA. Aap ne 90 varsh kaa ullekh kiyaa, saayad paathakon ko yah sandesh dene ke liye ki aap vayovruddha hone vaale hain. Aapke sandarbh men yah baat sahee naheen. Aap kee Praana evam ichchhaa sakti kee jwaalaa anant hai. Aag kee bhee koi aayu hotee hai? Yadi aisaa hotaa to aadi kaal kee aag men tathaa vartmaan yug kee aag ke taapmaan men kaafee antar hotaa. Aisaa hai naheen. Vah baat alag hai ki aap blog likhnaa naheen chaahate.Jeewan ke tamaam preranaadaayee samsmaran hain, suvidhaa poorvak unhe likhen.Yadi aap swayam ko vruddh maanen ge to ham jaise sahsron ko kasht honaa swaabhaavik hai.
ReplyDelete