केंद्र की भाजपा की सरकारने गणराज्यदिन के अवसर पर जो एक विज्ञापन प्रकाशित किया था, वह अपनी संविधान की प्रस्तावना (Preamble)का था। उस विज्ञापन में, प्रस्तावना में बाद में अन्तर्भूत किये गये ‘सोशॅलिस्ट’ और ‘सेक्युलर’ ये दो शब्द नहीं थे। इस बात को लेकर कुछ लोगों ने विनाकारण हंगामा खडा किया। हंगामा खडा करनेवाले भी जानते हैं कि जब अपना संविधान पारित हुआ और 26 जनवरी 1950 से उसका अमल शुरू हुआ तब ये दोनों शब्द प्रस्तावना में नहीं थे। 1976 के आपातकाल की असाधारण परिस्थिति में, जब कि श्रीमती इंदिरा गांधी की काँग्रेसी सरकारने, सारे देश को एक जेल के रूप में खडा किया था, एक संशोधन कर इन दो शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में समाविष्ट किया। यदि भाजपा की सरकारने जो प्रारम्भ से चली आयी प्रस्तावना को विज्ञापन में प्रकाशित है तो यह कोई अपराध हुआ ऐसा मानने का कारण नहीं।
डॉ. आंबेडकर का वक्तव्य
यह भी बात ध्यान में रखनी चाहिये कि जब संविधान तैयार हो रहा था, तब संविधान सभा के एक सदस्य ने- प्रो. के. टी. शहा ने- एक संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर, फेडरल, सोशॅलिस्ट’ इन शब्दों को शामिल करने का संशोधन प्रस्तुत किया था। उस पर चर्चा होने के बाद संविधान सभा ने प्रो. शहा का संशोधन नामंजूर किया। संविधान के निर्माता डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने उस समय, विशेषत: सोशॅलिस्ट शब्द का विरोध करते हुये जो तर्क दिया, उसे हम सबने आज भी ध्यान में लेना चाहिये। ‘सोशॅलिस्ट’ यह एक विशिष्ट प्रकार की आर्थिक व्यवस्था का परिचायक शब्द है। उस का अर्थ है उत्पादन के तथा वितरण के सभी साधनों पर सरकार का नियंत्रण। डॉ. आंबेडकर ने कहा था-
"It
is perfectly possible today, for the majority people to hold that the socialist
organisation of society is better than the capitalist organisation of society.
But it would be perfectly possible for thinking people to devise some other
form of social organisation which might be better than the socialist
organisation of today or of tomorrow. I do not see therefore why the
Constitution should tie down the people to live in a particular form and not
leave it to the people themselves to decide it for themselves. This is one
reason why the amendment should be opposed."
Then
Ambedkar remarked, "The second reason is that the amendment is purely
superfluous."
कालविसंगत
जब सोशॅलिझम् का बोलबाला था उस समय डॉ. आंबेडकरजी ने यह तर्क दिया था। 1976 में भी सोशॅलिझम् और सोशॅलिस्ट ये शब्द फॅशनेबल थे। किन्तु आज क्या स्थिति है। सोशॅलिस्ट व्यवस्था के पुरोधा रूस ने भी उस व्यवस्था को समाप्त किया है। उस देश का युनायटेड सोव्हियट सोशॅलिस्ट रिपब्लिक (युएसएसआर) यह नाम तक छोड दिया है। अपने देश में भी 1991 से,
जब पी. व्ही. नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने और डॉ. मनमोहन सिंग उनके अर्थमंत्री थे, तब से सोशॅलिस्ट पॅटर्न को समाप्त करने की आर्थिक नीति अपनायी गयी। आज तो कोई सोशॅलिस्ट अर्थव्यवस्था का नाम तक नहीं ले रहा है। इस लिये संविधान की प्रस्तावना में वह शब्द निरर्थक हो गया है। यदि संसद को प्रस्तावना में भी परिवर्तन करने का अधिकार है, ऐसा माना जाय, तो उसने तुरन्त उसे निकालने की पहल करनी चाहिये।
एक चिन्तन
मैंेने, उपरिनिर्दिष्ट वाक्य इस लिये लिखा है कि कुछ चिन्तकों का यह मत है कि संविधान की प्रस्तावना यह संविधान का भाग नहीं है। प्रस्तावना अपने संविधान की आधारभूमि है। अपने राजकीय व्यवस्था का मौलिक तत्त्वज्ञान है। संविधान की धारा 368 के द्वारा संसद को संविधान में परिवर्तन करने का जो अधिकार प्राप्त है, वह संविधान के प्रावधानों तक ही सीमित है। संविधान के आधारभूत दर्शन को वह नहीं बदल सकता। जैसे ‘जनतंत्रात्मक गणराज्य’ की व्यवस्था को संसद संशोधन द्वारा नहीं बदल सकती। श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की विशेष परिस्थिति का लाभ उठाकर यह परिवर्तन किया है। आज उसे मानने का कोई कारण नहीं है।
सारांश यह है कि संसद का, संविधान की प्रस्तावना में भी परिवर्तन करने का अधिकार है, यह मान्य किया, तो यह ‘सोशॅलिस्ट’ शब्द हटाया जाना चाहिये क्यौं कि वह अब कालविसंगत अत: निरर्थक हो गया है।
दूसरा शब्द
दूसरा शब्द हे ‘सेक्युलर’। यह शब्द कायम रखने से कुछ भी बिगडता नहीं, तथा उसे निकालने से भी संविधान के गुणात्मक अर्थ में यत्किंचित् भी बदल होता नहीं। यह शब्द भी आपात्काल में जो 42 वा संविधान संशोधन किया, उस के कारण समाविष्ट हुआ है। यह संशोधन 1976 में हुआ। यानी संविधान चालू होकर 26 वर्षों के बाद। तो क्या उन 26 वर्षों में अपना संविधान ‘सेक्युलर’ नहीं था। क्या अपना राज्य ‘थिओक्रेटिक’ यानी मजहबी राज्य था। संविधान की धाराएं 14, 15, 16 और 19 पूर्णतया स्पष्ट करती हैं कि राज्य, मजहब, वंश, जात, लिंग, इन में से किसी भी आधारपर नागरिकों से भेदभाव नहीं करेगा। कानून सबके लिये समान रहेगा। ‘सेक्युलर’ शब्द का समावेश करने से, ज्यादा से ज्यादा, इन मौलिक व्यवस्थाओं को शब्द रूप मिला है। कोई यह कह सकता है कि हमने हमारे संविधान में राज्य के स्वरूप की व्यवस्था जो अव्यक्त रूप में थी, वह शब्द में प्रकट की है। हमने इस अर्थ को मान्य करने में हिचकिचाहट नहीं करनी चाहिये ।
धारा 30
किन्तु ‘सेक्युलर’ शब्द को इतना महत्त्व देनेवाले लोगों ने, सेक्युलर राज्य की भावना और अर्थ के खिलाफ जानेवाली एक धारा का पुरजोर विरोध करना चाहिये। वह धारा है 30 वी धारा। जो अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद की शिक्षा संस्थाएं खोलने का तथा उनका संचालन करने का विशेष अधिकार देती है। संविधान में ऐसी कौनसी धारा है, जो अल्पसंख्यकों को शिक्षासंस्थाएं खोलने से रोकती है। फिर इस धारा क्रमांक 30 का औचित्य कौनसा? आज आवश्यकता है इस धारा को पूर्णत: हटाने की। ताकि अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्थाएं भी सरकारी कानून के पालन की जिम्मेदारी ग्रहण करें। वहाँ पर भी, उस आरक्षण का प्रावधान हो, जो अन्य शिक्षा संस्थाओं को लागू है। वहाँ पर भी शिक्षकों के वेतनमान आदि के सारे नियम लागू हो। धारा 30, अपने संविधान के सेक्युलर चरित्र के खिलाफ है।
हिंदुद्वेष्टा
वैसे ही अपने को ‘सेक्युलर’ माननेवालों ने तुरन्त धारा 44 को, जो बताती है कि संपूर्ण देश में समान नागरिक विधि संहिता याने समान नागरी कानून हो, कार्यान्वित करने हेतु आग्रहपूर्ण पहल करनी चाहिये। जब तक वे इस बारे में प्रयत्नशील नहीं होते, तब तक उनका ‘सेक्युलर’ प्रेम दिखावे की चीज है, यही माना जायेगा। लोग यही समझेंगे कि ये ‘सेक्युलर’ का बखान करनेवाले सारे लोग छद्मी हैं, पाखंडी है और हिंदुद्वेष्टा भी हैं।
-मा. गो. वैद्य
नागपुर
दि. 02-02-2015
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