Wednesday, 22 April 2015

डॉ. हेडगेवार : भारत के भाग्योदय के उद्गाता


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम अब दुनियाभर में विख्यात है। किन्तु इस का अर्थ यह नहीं है कि संघ को सही मायने में सब लोग समझते हैं। संघ के यथार्थरूप में समझना वैसे आसान भी नहीं है। कारण विद्यमान या प्राचीन संस्थाओं या संगठनों के किसी भी नमूने में संघ बैठता नहीं। संघ कैसा है इसका सही उत्तर है संघ, संघ जैसा ही है। संस्कृत काव्यशास्त्र में अनन्वयनाम का अलंकार है। उसके उदाहरण के रूप में एक श्‍लोक बताया जाता है। वह है-
गगनं गगनकारं सागर: सागरोपम: ।
रामरावणयोर्युद्धं रामरामवणयोरिव ॥
अर्थ है : आकाश का आकार आकाश के समानही। समुद्र, समुद्र जैसाही। और राम-रावण युद्ध राम-रावण युद्ध के समान ही। संघ भी केवल संघ के समान ही है। संघ के लिये कोई भी उपयुक्त उपमान नहीं है।
अभिजात देशभक्त
इस संघ के संस्थापक है डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार। जन्म से ही देशभक्त, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं है। पूर्वसंचित के कारण, अनेक लोग जन्म से ही असाधारण कर्तुत्त्ववाले होते हैं। जैसे विख्यात गणिती रामानुजम्। आद्य शंकराचार्य के बारे में किसी ने अपने गुरु से पूछा था कि केवल आठ वर्षों की आयु में शंकराचार्य को चारों वेदों का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ होगा। गुरु का उत्तर था, ‘सम्भवत:, बचपन में शंकराचार्य की प्रतिभा पर्याप्त विकसित नहीं थी, इस लिये उनको चार वेदों का ज्ञान होने में आठ साल लगे। डॉ. हेडगेवार भी ऐसे ही एक बचपन से देशभक्त व्यक्तित्व के धनी थे। प्राथमिक तीसरी कक्षा का छात्र। 8-9 साल की उमर। इंग्लैंड की रानी और हिंदुस्थान की साम्राज्ञी व्हिक्टोरिया के राज्यारोहण को साठ वर्ष पूरे होने का प्रसंग था। सभी स्कूलों में मिठाईयाँ बाँटी गयी। बाल केशव हेडगेवार को भी वह मिली। किन्तु उसने उसे मूँह में न डालते हुये, उसे कूडादान में फेंक दिया। कारण, अपने देश पर राज्य करनेवाले विदेशी शासक का गौरव उसे मान्य नहीं था।
वन्दे मातरम्
यह देशभक्ति निरन्तर रही। मॅट्रिक के क्लास का निरीक्षण करने के लिये, केशव के क्लास में मुख्याध्यापक और एक सरकारी इन्स्पेक्टर आनेवाले थे। केशव के अगुवाई में सभी छात्रों ने निश्‍चय किया कि वन्दे मातरम्की घोषणा से उसका स्वागत करेंगे। यह उस जमाने की बात है, जब वन्दे मातरम्कहना एक अपराध माना गया था। इन्स्पेक्टर का वर्ग में प्रवेश होते ही सभी छात्रों ने वन्दे मातरम्की घोषणाएं कर उनका स्वागत किया। इन्स्पेक्टर आगबबूला हुये और लौट गये। मुख्याध्यापक की डाँट फटकार की और इस अपराध को करनेवाले को कडी सजा दीजिये यह आदेश दिया। इन्स्पेक्टर के चले जाने के बाद मुख्याध्यापक वर्ग में आये और पूछताछ की इस विद्रोह का नेता कौन? कोई भी मूँह खोलने को तैयार नहीं। आखिर पूरे क्लास को स्कूल से निकाल दिया गया। कुछ दिन बीत गये। तब अभिभावक चिन्तित हो गये। वे मुख्याध्यापक से मिले और मुख्याध्यापक ने बताया कि छात्रों ने क्षमायाचना करनी चाहिये, तभी उनको प्रवेश मिलेगा। किन्तु कोई भी छात्र क्षमायाचना के लिये तैयार नहीं था। फिर एक मध्यम मार्ग निकाला गया कि, मुख्याध्यापक एकेक छात्र को पूछेंगे कि तुमसे गलती हुई ना। जो छात्र केवल मुंडी हिलाकर हाँका संकेत देगा उस छात्र को फिरसे प्रवेश मिलेगा। सभी छात्रों ने ऐसा किया और फिरसे प्रवेश प्राप्त किया। एकमात्र अपवाद था केशव का। केशव हेडगेवार को स्कूल से निकाला गया। फिर यवतमाल और पुणे में जाकर केशव ने मॅट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की।
कोलकाटा में
मॅट्रिक के बाद डॉक्टरी शिक्षा ग्रहण करने की उनकी इच्छा हुई। इस हेतु केशव ने कोलकाटा को चुना। मुंबई नागपुर से नजदीक थी। किन्तु केशव ने कोलकाटा पसन्द किया। क्यौं? क्यौं कि वह क्रांतिकारियों का गढ था। उस गढ में क्रान्तिप्रवण केशवने प्रवेश किया और यहाँ तक प्रगति की कि क्रान्तिकारियों कि जो अनुशीलन समितीनाम की सर्वोच्च केंद्रीय समिति थी, उस का केशव अन्तरंग सदस्य बना। क्रान्तिकारियों की सारी गतिविधियों में उन्होंने भाग लिया। उनकी शिक्षा भी प्राप्त की। 1914 मे केशव ने एल एम अँड एस (LM&S) यह पदवी प्राप्त की और 1916 के प्रारम्भ में वे डॉ. केशवराव हेडगेवार बनकर नागपुर आये।
राष्ट्रीय काँग्रेस
विदेशी शासकों को हटाना और अपने देश को स्वतन्त्र करना यह तो बचपन से उनका प्रण था। उनके ध्यान में आया कि केवल क्रान्तिकारियों के क्रियाकलाप से डरकर अंग्रेज यहाँ से भागनेवाले नहीं है। जब तक स्वतन्त्रता के लिये सामान्य जनमानस में आकांक्षा निर्माण नहीं होगी तब तक क्रान्तिकारकों की बहादुरी का परिणाम नहीं दिखेगा यह विचार उन के मन में प्रतिष्ठित हुआ और वे राष्ट्रीय काँग्रेस के आन्दोलन में शामील हुये। उस समय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक काँग्रेस के मूर्धन्य नेता थे। उनकी स्फूर्तिप्रद घोषणा थी कि स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और वह मैं प्राप्त करूँगा। डॉक्टरी पास करने के बाद दवाखाना खोलना यह उनका उद्देश ही नहीं था। अत: जीजान से वे काँग्रेस के आन्दोलन में कूद पडे। गाँव गाँव जाकर बडे उत्तेजक भाषण देते गये। तब अंग्रेज सरकार ने उनपर  भाषणबन्दी का आदेश लागू किया।  किन्तु डॉक्टर जी ने उस को माना ही नहीं। वे वैसेही अंग्रेजविरोधी भाषण देते गये। अन्त में उनपर मामला चला। और अंग्रेज न्यायाधीश ने उन्हें एक साल की सश्रम कारावास की सजा सुनायी। एक साल की सजा काटकर जब डॉक्टरजी मुक्त हुये तब उनका भव्य सत्कार हुआ। उनके अभिनन्दन सभा में स्वयं पं. मोतीलालजी नेहरू भी उपस्थित थे। यह 1922 की बात है।
संघ की स्थापना
ऐसा लगता है कि एक साल के कारावास में उनके मन में विचारमंथन चला होगा कि जनता में केवल स्वराज की आकांक्षा निर्माण करने से काम नहीं चलेगा। जनता की आकांक्षा को पूर्ण करने के लिये कोई ठोस कदम उठाना आवश्यक है। जनभावना को प्रत्यक्ष रूप में  प्रकट करनेवाला संगठन हो, जो रेल के इंजिन के समान अगुवाई का काम करेगा और जनता का प्रेम और विश्‍वास प्राप्त कर जनता के सहयोग से उग्र आंदोलन करेगा।  इसी विचार का परिणाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना में हुआ। 1925 के विजयादशमी के शुभ मुहूर्त पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई।
पहले ही दिन उसका नाम तय नहीं हुआ था। उस के लिये अलग विचार बैठक हुई। यह बात तय हुई कि यह संगठन हिन्दुओं का होगा। कारण स्पष्ट था। वह यह कि इस देश का भाग्य और भवितव्य हिन्दु समाज से निगडित है। अपने देश की पराधीनता के लिये डॉक्टरजीने कभी भी पराये आक्रान्ताओं को दोष नहीं दिया। उनका प्रतिपादन रहता था कि हमारी गुलामी के लिये, तथा अध:पतन के लिये हमही जिम्मेदार हैं। एक हिन्दू ने ही (जयचन्द) महमद घोरी को आक्रमण के लिये आमंत्रित किया। महाराणा प्रताप के विरुद्ध लडाई में अकबर का सेनापति मानसिंग हिंन्दू ही था।  और छत्रपति शिवाजी महाराज को परास्त करने के लिये औरंगजेब ने मिर्झा राजा जयसिंग को ही भेजा था। हम हिन्दू ही भूल गये थे कि अपने कौन और पराये कौन। अत: देश की स्वतन्त्रता की और उन्नति की जिम्मेदारी हम हिन्दुओं की ही है।
धर्मकी  अवधारणा
हिंदूयह कोई मजहब या रिलिजन नहीं है। हम कह सकते हैं कि हिन्दू’ ‘धर्महै। धर्मयह व्यापक अर्थवाला शब्द है। अंग्रेजी भाषा में धर्मके लिये उचित पर्याय नहीं है। रिलिजन या मजहब धर्मका केवल एक अंग है, सम्पूर्ण धर्म नहीं। अपनी भाषा के ही कुछ शब्द लीजिये। धर्मशाला। क्या यह रिलिजस स्कूल है? ‘धर्मार्थ अस्पताल। क्या यह हॉस्पिटल ङ्गॉर रिलिजनहै? ‘धर्मकांटाइस पर क्या रिलिजन का तोल होता है? ‘राजधर्म। क्या यह राजा का रिलिजन है, जो प्रजा का नहीं है । धर्मकी समुचित व्याख्या करने के लिये स्वतन्त्र लेख लिखना पडेगा। मैं यहाँ केवल इतना स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि धर्म और रिलिजन या मजहब समकक्ष नहीं है। डॉ. राधाकृष्णन ने भी कहा है कि, Hinduism is not a religion, it is a common-wealth of many religions. किन्तु मजहबों के समूह के परे भी धर्मकी व्यापकता है। धर्मजैसा पारमार्थिक है, वैसा ऐहिक भी है। वैशेषिकों की परिभाषा यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि  स धर्म:। यह धर्म की व्यापकता को स्पष्ट करती है । संघ की विद्यमान प्रार्थना में भी समुत्कर्ष’ (याने अभ्युदय) और नि:श्रेयस (याने पारमार्थिक कल्याण) दोनों का समावेश है। और एकवचन का प्रयोग कर यह सूचित किया गया है कि अभ्युदय और नि:श्रेयस परस्पर से जुडे रहेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघइस व्यापक अर्थ में धर्मको ग्रहण करता है। फिर भी समाज की मानसिकता को देखकर, उस सभा ने अपना नाम हिंदू स्वयंसेवक संघनहीं रखा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रखा और यह स्पष्ट किया कि हिन्दूशब्द ही राष्ट्र का बोधक शब्द है।
राष्ट्रका अर्थ
अपने देश में और सम्भवत: दुनिया में भी राष्ट्रऔर राज्यकी अवधारणाओं के बारे में संभ्रम हैं। राज्यराजकीय व्यवस्था को संकेतित करता है। राष्ट्रसमाज को। अंग्रेजी में भी कहा गया है कि People are the nation. ‘नेशनयाने लोग होते हैं। लोगों का राष्ट्र बनने के लिये साधारणत: तीन शर्ते हैं। (1) अपना देश उनको अपनी मातृभूमि लगना चाहिये। (2) अपने पुरखों से भावनिक सम्बन्ध होना चाहिये और (3) जो सबसे महत्त्व की शर्त है, वह है हमारे जीवनमूल्य । हमारे अच्छा और बुरा तय करने के मानदंड यानी हमारी संस्कृतिसमान है, यह भाव होना चाहिये। इन तीनों शर्तों को पूरा करनेवाले समाज का नाम हिंदू है, इस लिये यह हिंदू राष्ट्र है। इसके सम्बन्ध में डॉक्टरजी के मन में तनिक भी संशय या संभ्रम नहीं था। अत: हिन्दुओं के संगठन का नाम उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघरखा और हम हिन्दू राष्ट्र हैं, यह सत्य उद्घोषित किया।
संघ की जो अनेक विशेषताएं हैं वे डॉक्टरजी के कारण ही हैं। संघ में व्यक्तिपूजा नहीं। डॉ. हेडगेवार की जययह नारा कभी नहीं था, ना आज है और ना आगे रहेगा। संघ में एक ही नारा है भारत माता की जय
स्वयंपूर्ण संघ
संघ की जो भी आवश्यकताएं हैं, वे स्वयंसेवकही पूर्ण करेंगे, यह संघ का विचार है और आचार भी है। किसी भी संस्था को चलाने के लिये धन की आवश्यकता रहती ही है। यह धन कौन देगा? अर्थात स्वयंसेवकही। संघ ने कभी चंदा नहीं मांगा। संघ के स्वयंसेवकों ने ही धन की आवश्यकता पूर्ण की। वह भी समर्पण भाव से, त्याग भाव से। अपनी संस्कृति में गुरुपूजा और गुरुदक्षिणा की प्रथा अत्यंत प्राचीन काल से चलती आ रहीं है। संघ ने उसी पद्धति को अपनाया। किन्तु गरु कौन? डॉ. हेडगेवार नहीं, अन्य कोई व्यक्ति भी नहीं। संघ में गुरु है भगवा ध्वज, जो त्याग, शुचिता और पराक्रम का प्रतीक है। उस के सामने वर्ष में एक बार संघ के स्वयंसेवक समर्पण करते हैं। समर्पण, त्याग, यही दक्षिणा के अर्थ हैं। यह दान नहीं। दान में देनेवाले का अहंकार रहता है। देनेवाले का हाथ हमेशा ऊपरही रहेगा। दक्षिणा यानी अहंकाररहित दान। वही त्याग है। पहली गुरुदक्षिणा में, बताते हैं कि, केवल 86 रुपया एकत्रित हुआ था। अभी एक लाख रुपया दक्षिणा देनेवाले भी स्वयंसेवक हैं। किन्तु उनके नाम प्रकाशित नहीं होते। यज्ञ में आहुति अर्पण करते समय मंत्र कहा जाता हैं कि, अग्नये स्वाहा- अग्नि को अर्पण! किन्तु मंत्र पूरा नहीं हुआ। आगे बोलना पडता है- अग्नये इदम्- अर्थ है यह अग्नि का हो गया। फिर भी मंत्र अधूरा ही रहा। अन्त में कहना पडता है- न मम यानी मेरा कुछ भी नहीं बचा। संघ में भी गुरुदक्षिणा न ममइस भाव से ही दी जाती है। है क्या दुनिया में ऐसी कोई संस्था या संगठन जो इस प्रकार अपनी धन की आवश्यकता पूर्ण करता होगा।
संघ का विस्तार
संघ का कार्य कौन बढायेगा? अर्थात् स्वयंसेवकही। विज्ञापन के द्वारा या मानधन देकर प्राप्त किये हुये वेतनभोगी कार्यकर्ताओं द्वारा नहीं। स्वयंसेवक ही वह कार्य करेगा। डॉक्टरजी ने तरुणों में यह आदर्श भाव जगाया । और अनेक स्वयंसेवकों ने अपना सम्पूर्ण जीवन संघ कार्य के लिये समर्पित किया। प्रारम्भ में कुछ अच्छे परिवार के तरुणों को, जिन के माता-पिता अन्य प्रांतो में जाने पर भी, उनकी शिक्षा का व्यय वहन कर सकते थे, उनको अन्य प्रांतो में शिक्षा हेतु जाने के लिये प्रेरित किया। भैयाजी दाणी काशी में, राजाभाऊ पातुरकर लाहोर में, बाबा कल्याणी रावलपिंडी में, भाऊराव देवरस कानपुर में पढने के लिये गये। उनकी विश्‍वविद्यालयीन शिक्षा नागपुर में भी हो सकती थी। किन्तु वे डॉक्टर जी की प्रेरणा से अन्य अन्य प्रांतो में गये। और पढाई करते करते संघ शाखाएं भी प्रारम्भ की। मुझे भाऊराव देवरस के बारे में अधिक जानकारी है। वे नागपुर विश्‍व विद्यालय के कला विभाग के स्नातक थे। उन्होंने वाणिज्य विषय का अध्ययन करने के लिये अपने पिताजी से आग्रह किया। उस समय नागपुर विद्यापीठ में वाणिज्य विद्याशाखा नहीं थी। तो भाऊराव कानपुर गये। वहाँ वाणिज्य और विधि शाखा की परीक्षाओं में अच्छे अंक पाकर पदवीयाँ (डिग्रीज्) प्राप्त की और साथ ही पं. दीनदयाल उपाध्याय, श्री अटलबिहारी वाजपेयी, सुन्दरसिंह भण्डारी जैसे प्रतिभाशाली छात्रों को संघ के स्वयंसेवक-कार्यकर्ता के रूप में खडा किया। संघ इस प्रक़ार अपने कार्यकर्ताओं द्वारा सारे देश में फैला।
प्रचारक
संघ में प्रचारकयह एक विशेष संज्ञा है। प्रचारकयाने वह व्यक्ति जो गृहस्थ जीवन का स्वीकार नहीं करता। जिस को कोई मानधन नहीं मिलता और जो, जहाँ संघ बताये वहाँ जाकर संघ का कार्य करने के लिये प्रस्तुत होता है। प्रचारकयह संज्ञा बाद में प्रचलित हुई किन्तु डॉक्टरजी द्वारा प्रेरित अनेक कार्यकर्ता घरबार छोडकर, योजना के अनुसार, भिन्न भिन्न प्रांतो में गये और अपनी प्रतिभा और परिश्रम से उन्होंने संघ कार्य का विस्तार किया। प्रारम्भ में सारे प्रचारक नागपुर से ही गये। यह स्वाभाविक ही था। किन्तु जो अन्य प्रांतो में गये, उन्होंने वहाँ के समाज से अपने जैसे अनेक प्रचारक निर्माण किये। डॉ. हेडगेवार के कर्तृत्व की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने जैसे राष्ट्र समर्पित जीवन को स्वीकार करनेवाले अनेक डॉ. हेडगेवार निर्माण किये।
स्वयंसेवकका आशय
डॉ. हेडगेवार ने स्वयंसेवकइस शब्द की व्याख्या कहिये, आशय कहिये, बदल दिया। स्वयंसेवक यानी व्हालंटिअर। उनका क्या काम रहता था। बस् खुर्सियाँ लगाना, दरीयाँ बिछाना, नेताओं की जयकार बोलना, सीनेपर बिल्ला लगा कर अपना रौब दिखाना। हमारे बचपन में एक कहावत बहुत प्रचलित थी। न मांका डर, न बाप का डर, बेटा निकला व्हालंटर डॉक्टर जी ने स्वयंसेवक यानी नि:स्वार्थ भाव से समाज की सेवा करनेवाला जिम्मेदार व्यक्ति यह परिभाषा स्थिरपद की, जो आज तक चालू है।
शाखा का महत्त्व
संघ की कार्यप्रणाली में दैनंदिन शाखा का विशेष महत्त्व है। चौबीस घण्टों का दिन होता है। डॉक्टर जी ने समझाया कि उस में एक घण्टा समाज के लिये दो। अर्थात् संघ शाखा के लिये दो। इस को व्रत मानों। इस व्रत के साथ अपने सारे क्रियाकलापों को अविरोध भाव से जोडो। दैनंदिन के शाखा आग्रह के कारण, लाखों जीवनव्रती स्वयंसेवक बने। वे अपना गृहस्थ जीवन भी बिताते हैं। अपना कारोबार भी चलाते हैं। लेकिन वे सब कार्य संघानुकूल हों, इस का भी ध्यान रखते हैं। दैनंदिन शाखा का यह फल है। जीवन ध्येयनिष्ठ बनता है।
सामाजिक एकात्मता
शाखा के द्वारा और एक बात सिद्ध हुई है। सब स्वयंसेवकों में एकात्मभाव का सृजन हुआ। जिस हिन्दू समाज का संगठन संघ को अभिप्रेत है, वह समाज अनेक जातियों में, भाषाओं में, पंथों और सम्प्रदायों में बंटा हुआ है। उन सब को एक पंक्ति में खडा करने का महान् कार्य संघ की शाखा ने किया है। शाखा में एक विशेष आज्ञा है। संघ के उद्देश्य को प्रकट करनेवाली वह है। एकश: सम्पत्’- यानी एक पंक्ति में खडे रहो। पढे लिखे हो या अनपढ, इस जाति के हो, या उस जाति के, धनी हो या गरीब, यह भाषा बोलनेवाले हो, या वह भाषा बोलनेवाले हो, इन सबको इस एकश: सम्पत्की आज्ञा में एक पंक्ति में खडा किया। एक पंक्ति में चलने को सिखाया और विशेष यानी एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने लगाया। संघ ने अन्य समाजासुधारकों के समान जातिभेद को मिटाने के लिये कडे भाषण नहीं दिये। जातिप्रथा माननेवालों को उग्र शब्दों में कभी प्रताडित नहीं दिया। फिर भी सभी को जाति के अभिमान से ऊपर उठाया। यह एक अलग ढंग का तरीका है। किसी फलक पर खींची गयी किसी रेषा को छोटी करना है, तो उसके दो तरीके होते हैं। एक तरीका यह है कि डस्टर से उस रेखा को मिटाते जाना। और दूसरा तरीका है, उस के ऊपर एक बडी रेखा खींचना, ताकि, पहली रेखा आपही आप छोटी हो जाय। संघ ने यह दूसरा तरीका अपनाया। जाति की रेखा के ऊपर हिंदूकी बडी रेखा खींची। जाति की रेखा आपही आप छोटी हो गयी। आखिर यह जातिभी उनको क्यौं मिली। कारण एक ही है। और वह है कि वे हिन्दू है। जाति का ध्यान रखना और हिन्दूपन को भूलना यह महान् प्रमाद है। आज जातिव्यवस्था नहीं रही है। वह कालविसंगत हुई है। कोई भी अपने जाति से प्राप्त व्यवसाय करता नहीं। किन्तु ओछी राजनीति ने उसे जिन्दा रखा है। आश्‍चर्य इस बात का है कि संघ से शिक्षा और संस्कार पानेवाले भी राजनीति के क्षेत्र में जाति के आधारपर आरक्षण की व्यवस्था को बनाये रखने में संकोच नहीं करते। राजनीति राष्ट्रनीति पर हावी हुई है। आवश्यकता है कि आरक्षण का आधार आर्थिक हो न कि जातिगत।
एक उदाहरण
एक उदाहरण मैंने मा. बालासाहब  देवरस जी से सुना है। वर्ष 1932 था। उस वर्ष के शीतकालीन शिबिर में पहली बार जिनको पहले अछूत बोलते थे, उस जाति के 8-10 स्वयंसेवक उपस्थित थे। पडोसवाले मुहल्ले के भी स्वयंसेवक आये थे। वे डॉक्टर जी के पास गये और उनसे कहा कि हम लोग इन के साथ भोजन नहीं करेंगे। डॉक्टर जी ने उनको यह नहीं कहा कि शिबिर में अनुशासन का पालन करना पडता है, आप को एक पंक्ति में बैठकर भोजन करना पडेगा। अन्यथा शिबिर से निकल जावो।डॉक्टर जी ने उनसे कहा, ‘आप अलग पंक्ति बनाकर भोजन कर सकते हैं। लेकिन मैं उन्हीं के साथ भोजन करूँगा।उस दिन उन 10-12 स्वयंसेवकों ने अलग पंक्ति बनाकर भोजन किया। डॉक्टर जी ने सामान्य पंक्ति में बैठकर भोजन किया  दृश्य यह देखा गया कि वे 10-12 ही अस्पृश्य जैसे अलग से दीखने लगे। दूसरे दिन से बिना किसी के कहे वे भी सामान्य पंक्ति में बैठकर भोजन करने लगे। ये शाखा के कार्यक्रम के संस्कार है। अत: श्रीगुरुजी बताते थे कि संघ यानी संघ की दैनंदिन शाखा।
राष्ट्र का लघु रूप
डॉक्टर जी ने इस प्रकार संघ कार्य की नींव रखी। हिन्दू समाज में एकता का और एकरसता की भावना निर्माण की। उनके ही जीवन काल में उन्हें सफलता का दर्शन करने का अहोभाग्य प्राप्त हुआ। 10 जून 1940 को, याने उनके देहान्त के केवल 11 दिन पूर्व, उस वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग के समारोप में, प्रकृति के अस्वास्थ्य की पर्वाह न करते हुये, डॉक्टर जी आये। और अपने भाषण में उन्होंने कहा कि, आज मैं सम्पूर्ण हिन्दुराष्ट्र का लघु रूप देख रहा हूँ, इस का मुझे गर्व है। कारण सचमुच उस वर्ग में आसेतुहिमाचल भारत के सभी प्रांतो से शिक्षार्थी उपस्थित थे।
आशाभरा दृश्य
डॉक्टर जी के  जीवनकाल में देश परतंत्र था। उन की मृत्यु के करीब सात साल बाद देश स्वतंत्र हुआ। हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिये मैं संघ का घटक बना हूँयह प्रतिज्ञा का वाक्य बदला गया और हिंदू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिये मैं संघ का घटक बना हूँ’, यह नया वचन आया। और सर्वांगीण उन्नति के हेतु संघ समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में फैलता गया। समाज एक व्यामिश्र अस्तित्व होता है। यानी उसके जीवन के अनेक क्षेत्र होते हैं। जैसे राजनीति, धर्मकारण, शिक्षा, उद्योग, व्यापार, कृषि आदि। समाजजीवन के अनेक घटक भी होते हैं, जैसे महिला, छात्र, शिक्षक, वनवासी, नगरवासी, ग्रामवासी, कामगार, डॉक्टर, अधिवक्ता आदि। इन सभी क्षेत्रों में तथा घटक संगठनों में संघ, अपना राष्ट्रभाव और चरित्रसम्पन्न आचरणशैली को लेकर फैला है। सम्पूर्ण भारत के भाग्योदय की आशा जगानेवाला यह दृश्य आज उपलब्ध है। इस भाग्योदय की कल्पना के प्रथम उद्गाता डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार र्ह। आज का विशाल संघ उनके द्वारा प्राप्त प्रेरणा का आविष्कार है।
वन्दे मातरम्।

दि. 09-03-2015

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