Sunday 25 December 2011

‘लोकपाल’का पेच कायम

    २८ दिसंबर के लिए भाष्य

लोकपाल विधेयक संसद में रखा गया, लेकिन उसके बारे में पेच अभी भी कायम है| इस त्रिशंकु अवस्था के लिए, कारण डॉ. मनमोहन सिंह के संप्रमो सरकार की नियत साफ नहीं, यह है| सरकार की नियत साफ होती, तो उसने सीधे अधिकारसंपन्न लोकपाल व्यवस्था स्थापन होगी, इस दृष्टि से विधेयक की रचना की होती| उसने यह किया नहीं| विपरीत, उसमें से भी राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए अल्पसंख्यक मतलब मुस्लिम, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जमाति और महिलाओं के लिए कम
से कम ५० प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा है |

आरक्षण क्यों?

इस आरक्षण की क्या आवश्यकता है? ‘लोकपाल’ कोई शिक्षा संस्था नहीं; वह एक विशिष्ट अधिकार युक्त, भ्र्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए स्थापन की जानेवाली संस्था है| इस संस्था को कार्यकारित्व (एक्झिक्युटिव) और न्यायदान के भी अधिकार रहेगे| वह रहने चाहिए, ऐसी केवल अण्णा हजारे और टीम अण्णा की मांग नहीं; १२० करोड भारतीयों में से बहुसंख्यकों की मांग है| विद्यमान न्यायपालिका में, क्या इन चार समाज गुटों के लिए आरक्षण है? नहीं! क्यों नहीं? आरक्षण नहीं इसलिए क्या कोई
मुस्लिम या अनुसूचित जाति या जमाति का व्यक्ति, अथवा महिला न्यायाधीश नहीं बनी? न्यायाधीश किस जाति या किस पंथ का है, इस पचड़े में पड़ने की हमें आवश्यकता प्रतीत नहीं होती| लेकिन समाचार पत्रों में के समाचार क्या बताते है? यही कि, सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश न्या. मू. बालकृष्णन् अनुसूचित जाति से है| क्या वे आरक्षणपात्र समूह की सूची (रोस्टर) से आए थे? एक मुस्लिम न्या. मू. अहमदी ने भी इस पद की शोभा बढ़ाई थी| उनके पूर्व न्या. मू. हिदायतुल्ला मुख्य न्यायाधीश थे| क्या वे मुस्लिमों के लिए आरक्षण था इसलिए इस सर्वोच्च पर पहुँचे थे? हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपतियों की सूची देखे| डॉ. झाकिर हुसैन, हिदायतुल्ला, फक्रुद्दीन अली अहमद, अब्दुल कलाम इन चार महान् व्यक्तियों को वह सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ था| वह किस आरक्षण व्यवस्था के कारण? पद के लिए आरक्षण ना होते हुए भी प्रतिभा पाटिल आज उस पद पर आरूढ है| श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थी| श्रीमती सोनिया गांधी को भी तांत्रिक अडचन ना होती तो वह पद मिल सकता था| यह आरक्षण के प्रावधान के कारण नहीं हुआ| यह सच है कि, अभी तक कोई महिला मुख्य न्यायाधीश नहीं बनी| लेकिन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में भी महिला न्यायाधीश है| प्रधानमंत्री पद किसी मुस्लिम को नहीं मिला इसलिए क्या वह अन्याय हुआ? और आगे वह मिलेगा ही नहीं, क्या ऐसी कोई व्यवस्था हमारे संविधान में है? फिर लोकपाल व्यवस्था में आरक्षण का प्रावधान क्यों?

उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए

इसके लिए कारण है| अनुसूचित जाति या अनुसूचित जमाति या महिलाओं की चिंता यह वो कारण नहीं| मुस्लिम मतों की चिंता यह सही कारण है| और आरक्षण की श्रेणी में केवल मुस्लिमों का ही अंतर्भाव किया, तो उस पर पक्षपात का आरोप होगा, यह भय कॉंग्रेस को लगा इसलिए मुस्लिमों के साथ महिला और अनुसूचित जाति एवं जमाति को भी जोड़ा गया| कॉंग्रेस को चिंता दो-तीन माह बाद होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव की है| इस चुनाव की संपूर्ण जिम्मेदारी युवराज राहुल गांधी ने स्वीकारी है| एक वर्ष पूर्व, बिहार विधानसभा के चुनाव में उनके नेतृत्व की जैसी धज्जियॉं उड़ी थी, वैसा उत्तर प्रदेश के चुनाव में ना हो, इसके लिए सर्वत्र जॉंच-फूककर रणनीति बनाई जा रही है| इस रणनीति के तहत ही, अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण में साडे चार प्रतिशत मुस्लिमों को देना सरकार ने तय किया है| इस कारण ओबीसी मतदाता नाराज होगे, लेकिन कॉंग्रेस को उसकी चिंता नहीं| कारण, उ. प्र. में ओबीसी कॉंग्रेस के साथ नहीं और आने की भी सम्भावना नहीं| मुस्लिम मतदाता किसी समय कॉंग्रेस के साथ था| बाबरी ढ़ॉंचा ढहने के बाद वह कॉंग्रेस से टूट चुका है| उसे फिर अपने साथ जोड़ने के लिए यह चाल है| उ. प्र. विधानसभा के करीब १०० मतदार संघों में मुस्लिम चुनाव के परिणाम पर प्रभाव डाल सकते है| इसलिये कॉंग्रेस को चिंता है| इस चिंता के कारण ही, यह साडे चार प्रतिशत आरक्षण है, इस कारण ही लोकपाल विधेयक में भी वैसा प्रावधान है|

सेक्युलर!

मुस्लिमों के लिए ‘कोटा’ यह पहली पायदान होगी| आगे चलकर स्वतंत्र मतदार संघों की मांग आएगी और सत्ताकांक्षी, अदूरदर्शी, स्वार्थी राजनेता वह भी मान्य करेगे| भारत का विभाजन क्यों हुआ, इसका विचार भी ये घटिया वृत्ति के नेता नहीं करेगे| इस संबंध में और एक मुद्दा ध्यान में लेना आवश्यक है| विद्यमान ओबीसी में कुछ पिछड़ी मुस्लिम जातियों का समावेश है| उन्हें ओबीसी में आरक्षण प्राप्त है| लेकिन उनकी मुस्लिम के रूप में स्वतंत्र पहेचान नहीं| सरकार को वह स्वतंत्र पहेचान करानी और
कायम रखनी है, ऐसा दिखता है| राष्ट्रजीवन के प्रवाह के साथ वे कभी एकरूप ना हो, इसके लिए यह सब कवायत चल रही है| और यह सरकार स्वयं को ‘सेक्युलर’ कहती है| पंथ और जाति का विचार कर निर्णय लेनेवाली सरकार ‘सेक्युलर’ कैसे हो सकती है, यह तो वे ही बता सकते है!मुस्लिमों के लिए आरक्षण संविधान के विरुद्ध है, यह कॉंग्रेस जानती है| भाजपा और अन्य कुछ पार्टियॉं इसका विरोध करेगी यह भी कॉंग्रेस जानती है| इतना ही नहीं तो न्यायालय में जाकर, अन्य कोई भी इसे रद्द करा ले सकता है, यह भी कॉंग्रेस को पता है| फिर भी, कॉंग्रेस लोकपाल संस्था में सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों का अंतर्भाव करने का आग्रह क्यों कर रही है? इसका भी कारण उत्तर प्रदेश के चुनाव ही है| सर्वोच्च न्यायालय, मुस्लिमों के लिए रखा यह आरक्षण संविधान विरोधी घोषित करेगा, इस
बारे में शायद किसी के मन में संदेह नहीं होगा| लेकिन, इससे कॉंग्रेस की कोई हानि नहीं होगी| हमने आपके लिए प्रावधान किया था| भाजपा और अन्य पार्टियों ने उसे नहीं माना, इसमें हमारा क्या दोष है, यह कॉंग्रेस का युक्तिवाद रहेगा| अर्थमंत्री प्रणव मुखर्जी ने उसका संसूचन भी किया है| चीत भी मेरी पट भी मेरी- यह कॉंग्रेस की चालाकी है|

चिंता की बात

आरक्षण के प्रावधान ने एक और बात स्पष्ट की है| सरकार का प्रारूप कहता है कि, आरक्षण पचास प्रतिशत से कम नहीं रहेगा|  लोकपाल संस्था में नौ सदस्य रहेगे| उसका पचास प्रतिशत मतलब साडे चार होता है| मतलब व्यवहार में नौ में से पॉंच सदस्य आरक्षित समूह से होगे| फिर गुणवत्ता का क्या होगा? गुणवत्ता अल्पसंख्य सिद्ध होगी; और इस गुणवान अल्पसंख्यत्व की किसे भी चिंता नहीं, यह इस सरकारी विधेयक  में का चिंता का विषय है|

एक अच्छा प्रावधान

प्रस्तावित सरकारी विधेयक में लोकपाल की कक्षा में प्रधानमंत्री को लाया गया है, यह अच्छी बात है| टीम अण्णा की यही एक मांग संप्रमो सरकार ने मान्य की है| शेष मांगों को अंगूठा दिखाया है| प्रधानमंत्री के बारे में कुछ विषयों का अपवाद किया गया यह सही हुआ| इसी प्रकार, न्यायपालिका को लोकपाल की कक्षा के बाहर रखा गया, इस बारे में भी सर्वसाधारण सहमति ही रहेगी| इसका अर्थ न्यायापालिका में भ्रष्टाचार ही नहीं, ऐसा करने का कारण नहीं| न्या. मू. रामस्वामी और न्या. मू. सौमित्र सेन को महाभियोग के मुकद्दमें का सामना करना पड़ा था| पंजाब-हरियाना न्यायालय में के निर्मल यादव इस न्यायाधीश पर मुकद्दमा चल रहा है| निलचे स्तर पर क्या चलता है या क्या चला लिया जाता है, इसकी न्यायालय से संबंध आनेवालों को पूरी कल्पना है| लेकिन उसके लिए एक अलग कायदा उचित होगा ऐसा मेरे समान अनेकों का मत है| इसी प्रकार नागरिक अधिकार संहिता (सिटिझन चार्टर)  सरकार ने बनाई है| सरकार का यह निर्णय भी योग्य लगता है|

सरकारी कर्मचारी

परन्तु ‘क’ और ‘ड’ श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल से बाहर रखा गया, यह गलत है| सबसे अधिक भ्रष्टाचार इन्हीं दो वर्ग के सरकारी कर्मचारियों द्वारा होता है| यह केवल तर्क नहीं या पूर्वग्रहाधारित धारणा नहीं| ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ इस अंग्रेजी दैनिक के २२ दिसंबर के अंक में कर्नाटक के लोकायुक्त के काम का ब्यौरा लेनेवाला लेख प्रसिद्ध हुआ है| बंगलोर में के अझीम प्रेमजी विश्‍वविद्यालय में के ए. नारायण, सुधीर कृष्णस्वामी और विकास कुमार इन संशोधकों ने, छ: माह परिश्रम कर जो संशोधन किया, उसके आधार पर ऐसा निश्‍चित कहा जा सकता है| इन संशोधकों ने १९९५ से २०११ इन सोलह वर्षों की कालावधि का कर्नाटक के लोकायुक्त के कार्य का ब्यौरा लिया है| अब तक सबको यह पता चल चुका होगा कि, कर्नाटक में का लोकायुक्त कानून, अन्य राज्यों के कानून की तुलना में कड़ा और धाक निर्माण करनेवाला है| इसके लिए और एक राज्य का अपवाद करना होगा, वह है उत्तराखंड| उत्तराखंड की सरकार ने हाल ही में लोकायुक्त का कानून पारित किया है| उस कानून की प्रशंसा स्वयं अण्णा हजारे ने भी की है| लेकिन उसके अमल के निष्कर्ष सामने आने के लिए और कुछ समय लगेगा| कर्नाटक में जो कानून सोलह वर्ष से चल रहा है और उसके अच्छे परिणाम भी दिखाई दिए है|

सरकार की नियत

हमारा विषय था कर्नाटक के लोकायुक्त के काम का ब्यौरा| उसमें ऐसा पाया गया है कि वरिष्ठ श्रेणी में के सरकारी नौकरों में भ्रष्टाचार का प्रमाण, कुल भ्रष्टाचार के केवल दस प्रतिशत है| आयएएस, आयपीएस आदि केन्द्र स्तर की परीक्षा में से आए अधिकारियों में भ्रष्टाचार का प्रमाण तो पूरा एक प्रतिशत भी नहीं| वह केवल ०.८ प्रतिशत है| मतलब कर्नाटक के लोकायुक्त ने देखे भ्रष्टाचार के मामलों में के ९० प्रतिशत सरकारी कर्मचारी ‘क’ और ‘ड’ श्रेणी के थे| और संप्रमो सरकार ने लाए प्रस्तावित विधेयक में, इन दोनों श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल/लोकायुक्त से बाहर रखा गया है| भ्रष्टाचार समाप्त करने के संदर्भ में इस सरकार की नियत इस प्रकार की है|

सीबीआय

और एक महत्त्व का मुद्दा यह कि सीबीआय इस अपराध जॉंच विभाग को लोकपाल से बाहर रखा गया है| टीम अण्णा को यह पसंद नहीं| यह यंत्रणा लोकपाल की कक्षा में ही रहे यह उनकी मांग है| कर्नाटक के लोकायुक्त के बारे में संशोधकों ने ब्यौरा लिया है उससे अण्णा और टीम अण्णा की मांग कैसे योग्य है, यह समझ आता है| कर्नाटक के लोकायुक्त को, भ्रष्टाचार के अपराध के जॉंच के अधिकार है| इतना ही नहीं, एक नए संशोधन के अनुसार वह, किसी ने शिकायत ना की हो तो भी (सुओ मोटो) फौजदारी जॉंच कर सकता है, ऐसे अधिकार उसे दिए गए है| वैसे देखा जाय तो स्वयं अपनी ओर से जॉंच किए मामलों की संख्या बहुत अधिक नहीं, केवल ३५७ है| विपरित अन्यों की शिकायत पर जॉंच किए गए मुक द्दमों की संख्या २६८१ है| इस प्रावधान ऐसी धाक निर्माण हुई है कि, गत कुछ वर्षों में अकस्मात छापे मारने के मामलों में लक्षणीय कमी हुई है| टीम अण्णा के एक सदस्य भूतपूर्व न्या. मू. संतोष हेगडे है, यह हम सब जानते है| वे २००६ से २०११ तक कर्नाटक के लोकायुक्त थे; और उन्होंने ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री को भी त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया था| लोकपाल तथा लोकायुक्त की धाक होनी ही चाहिए| ऊपर लोकायुक्त की ओर से संभावित भ्रष्टाचारीयों के ठिकानों पर मारे गए छापों की जो संख्या दी गई है उसमें से ६६ प्रतिशत छापे, संतोष हेगडे के लोकायुक्त काल के है|

धाक आवश्यक

तात्पर्य यह कि, प्रस्तावित सरकारी विधेयक में के लोकपाल एक दिखावा (जोकपाल) है| यह अण्णा हजारे को ठगना है| कम से कम कर्नाटक में जैसा सक्षम लोकायुक्त कानून है, वैसा केन्द्र में लोकपाल का होना चाहिए| लोकायुक्त की नियुक्ति हर राज्य ने करनी चाहिए ऐसा इस विधेयक में कहा गया है, वह योग्य है| यह देश की संघीय रचना को बाधक है, आदि जो युक्तिवाद किया जा रहा है, वह निरर्थक है| कर्नाटक के समान अनेक राज्यों ने कम-अधिक सक्षम लोकायुक्त पहले ही नियुक्त किए है| वैसा कानून उन राज्यों में है| कहा जाता हे कि महाराष्ट्र में भी, लोकायुक्त कानून है| लोकायुक्त भी है| लेकिन उसे कोई मूलभूत अधिकार ही नहीं है| कर्नाटक के समान ही उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त को भी सक्षम अधिकार होगे, ऐसा दिखता है| उस लोकायुक्त ने भी पॉंच-छ: मंत्रियों को जेल की राह दिखाई है|

लोग सर्वश्रेष्ठ

जो एक मुद्दा, इस प्रस्तावित लोकपाल विधेयक की चर्चा में आया नहीं और जिसकी चर्चा संसद में की चर्चा में भी नहीं होगी और जो मुझे महत्त्व का लगता है, उसका उल्लेख मैं यहॉं करनेवाला हूँ| वह है संसद सदस्यों द्वारा होनवाले भ्रष्टाचार का| चुनाव के दौरान, उम्मीदवारों ने किए भ्रष्टाचार की दखल चुनाव आयोग लेता है, यह अच्छा ही है| लेकिन जो लोकप्रतिनिधि चुनकर आते है और उस नाते शान से घूमते है, उनके भ्रष्टाचार की दखल कौन लेगा? इस बारे में संसद निष्प्रभ साबित हुई है, यह सब को महसूस हुआ है| पी. व्ही. नरसिंहराव के कार्यकाल में के झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को खरीदने का मामला, झामुमो के नेता शिबु सोरेन की मूर्खता के कारण, स्पष्ट हुआ, इसलिए उस भ्रष्टाचार का हमें पता चला| लेकिन, २००८ में मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए सांसदों की खेरदी-बिक्री हुई, उसका क्या हुआ, यह सब को पता है| जिन्होंने खरेदी-बिक्री के व्यवहार की जानकारी दी  उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी| लेकिन यह लज्जास्पद व्यवहार जिन्होंने कराया, वे तो आज़ाद है| और संसद उनके बारे में कुछ भी नहीं कर सकेगी| फिर उनके ऊपर किसका अंकुश रहेगा? इसलिए निर्वाचित लोकप्रतिनिधियों को भी लोकपाल में लाना चाहिए| ‘संसद सार्वभौम है’, आदि बातें अर्थवादात्मक है| स्वप्रशंसापर है| कानून बनाने का अधिकार संसद का है, यह कोई भी अमान्य नहीं करेगा| लेकिन संसद से श्रेष्ठ संविधान है| संसद संविधान की निर्मिति है| संसद ने कोई कानून पारित किया और वह संविधान के शब्द और भावना से सुसंगत ना रहा, तो न्यायालय वह कानून रद्द करता है| इसके पूर्व ऐसा अनेक बार हुआ है| इस कारण संसद की सार्वभौमिकता का अकारणढ़िंढोरा पिटने की आवश्यकता नहीं, और संविधान से भी श्रेष्ठ लोग है| We, the People of India इन शब्दों से संविधान का प्रारंभ होता है| हम मतलब भारत के लोगों ने, न्याय, स्वातंत्र्य, समानता, बंधुता इन नैतिक गुणों के आविष्कार के लिए यह संविधान बनाया, यह हमारी मतलब हम भारतीयों की घोषणा है, अभिवचन है; और वह पाला जाता है या नहीं, इसकी जॉंच करने का जनता को अधिकार है|

दबाव आवश्यक

टीम अण्णा ने जनता की आवाज बुलंद की यह सच है| उस आवाज का दबाव सरकार पर पडा यह भी सच है| लेकिन इस दबाव के कारण ही - लोकपाल को नाममात्र अधिकार देनेवाले ही सही - कानून का प्रारूप सरकार प्रस्तुत कर सकी| लेकिन इस सरकारी प्रारूप ने, लोगों को निराश किया| इस कारण टीम अण्णा के सामने आंदोलन के अतिरिक्त दुसरा विकल्प नहीं बचा| निर्वाचित लोकप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का प्रावधान चुनाव के नियमों में होता, तो कॉंग्रेस और उसके मित्रपार्टियों के आधे से अधिक सांसद घर बैठ चुके होते| मनमोहन सिंह की इस सरकार ने, २००९ में उसे मिला जनादेश खो दिया है| उसने यथासत्त्वर जनता के सामने पुनर्निर्वाचन के लिए आना यह जनतांत्रिक व्यवस्था के तत्त्व और भावना के अनुरूप होगा|

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)     
                       

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