Wednesday, 16 November 2011

निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार आवश्यक और संभव भी

रविवार का भाष्य दि. १६ नवम्बर २०११ के लिए

चुनाव आयोग ने, निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने केअधिकार के कारण, अस्थिरता निर्माण होगी और विकास कार्यों को बाधा पहुँचेगी, यह कारण बताकर इस अधिकार को विरोध किया है| आयोग का कहना है की, चुनाव हारनेवाले उम्मीदवार, परिणाम घोषित होने के दुसरे दिन से ही, निर्वाचित उम्मीदवार को वापस बुलाने की कारवाई शुरू करेगे और इस कारण अस्थिरता निर्माण होगी तथा बारबार चुनाव लेने पडेगे| भाजपा के वरिष्ठ नेता अडवाणी जी ने भी चुनाव आयोग के इस मत को समर्थन दिया है|

ढूलमूल रवैया ना रखे
चुनाव पद्धति में सुधार हो, ऐसा प्राय: सभी को लगता है| इन सुधारों में निर्वाचित व्यक्ति को वापस बुलाने के अधिकार का समावेश है| यह सच है की, टीम अण्णा ने इस अधिकार का पुरस्कार किया है| इस कारण, इस विषय पर चर्चा शुरू हुई है| लेकिन मेरे स्मरण अनुसार ७ सितंबर २०११ के मेरे ‘भाष्य’में चुनाव सुधारों के अनेक मुद्दों की चर्चा करते समय, मैंने अत्यंत संक्षेप में निर्वाचित को वापस बुलाने के अधिकार का भी निर्देश किया था|(मेरा वह मराठी लेख जिज्ञासू  http://www.mgvaidya.blogspot.com/ पर में पढ़ सकते है|)
टीम अण्णा ने, जिसमें, शांतिभूषण, प्रशंातभूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष शिसोदिया और किरण बेदी का अंतर्भाव था, चुनाव आयोग के साथ की चर्चा में मान्य किया की, इस मांग का पुनर्विचार करना पडेगा, ऐसा प्रकाशित समाचार में कहा गया है| इसका अर्थ टीम अण्णा और स्वयं अण्णा हजारे भी इस बारे में आग्रही नहीं, ऐसा हो सकता है| लेकिन इस बारे में ढूलमूल रवैया उपयोगी नहीं| टीम अण्णा ने इस बारे में भी दृढ रहना चाहिए|

सजा क्यों नहीं?
मेरा मत है की, यह अधिकार आवश्यक है और उसपर अमल करना भी संभव है| उम्मीदवार चुनकर आया हो तो भी, उसने वह चुनाव भ्रष्टाचार कर और / या चुनाव के कानून का भंग कर जीता होगा, तो उसके निर्वाचन के विरुद्ध याचिका की जा सकती है| ऐसी अनेक याचिकाएँ दाखिल होती है| कुछ याचिकाओं को अनुकूल निर्णय प्राप्त होता है| उस समय उस निर्वाचित उम्मीदवार का चुनाव रद्द होता है और पुन: चुनाव लेना पड़ता है| आज तक चुनाव आयोग ने ऐसे कई चुनाव लिये है| चुनाव जितने के लिए झूठा आचरण करने के लिए सजा हो सकती है तो चुनाव जितने के बाद झूठा आचरण करनेवाले को सजा क्यों नहीं होनी चाहिए?

दो ठोस उदाहरण
हाल ही दो उदाहरण बताता हूँ| एक उदाहरण नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे उस समय का है| मतलब १९९१ ते १९९६ इन पॉंच वर्षों में का| सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के निर्वाचित सांसदों ने सरकार पक्ष से धूस लेकर मतदान किया| झामुमों के प्रमुख शिबू सोरेन को इसके लिए सजा भी हुई| लेकिन क्या उनकी संसद की सदस्यता गई? या उनके पार्टी के जिन सदस्यों ने घूस लेकर मतदान किया, उनका संसद सदस्यत्व गया? अपनी निष्ठा बेचनेवाले इस बिकाऊ माल को लोग अपना प्रतिनिधि क्यों स्वीकार करे? उन्हें क्यों हटाया नहीं जाना चाहिए? 
दूसरा उदाहरण अभी अभी का मतलब केवल तीन वर्ष पूर्व का है| २००८ के जुलै माह में का है| मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए कुछ सांसदों को घूस देकर फोडा गया| कुछ ने सरकार के पक्ष में मतदान किया, तो कुछ ने बीमारी का बहाना बनाकर अनुपस्थित रहने का विक्रम किया| इन घूसखोर, बिकाऊ माल में भाजपा के भी छ: सांसद थे| उन्हें क्या सजा मिली? उन्हें किसने और कितने पैसे दिये इसकी सीबीआय ने या अन्य किसी केन्द्रीय अपराध अन्वेषण यंत्रणा ने जॉंच की? अब यह मामला न्यायप्रविष्ठ है| जिन्हें घूस दी गई या जिन्होंने भ्रष्टाचार का भंडाफोड करने की व्यूहरचना की, वे जेल में है; और स्वयं का आसन बचाने के लिए जिन्होंने यह भ्रष्ट खरेदी-व्यापार किया, वे सरे आम खुले घूम रहे है| यह सच है की, २००८ के कुछ माह बाद तुरंत ही २००९ में लोकसभा के चुनाव हुए| इस कारण, उन्हें वापस बुलाने से भी कुछ विशेष परिणाम नहीं होता| किंतु, इस प्रकरण में के कितने सांसद २००९ के चुनाव में खड़े हुए और कितने चुनकर आए, इसका भी हिसाब रखा जाना चाहिए| हमारे विदर्भ में के सांसद को २००९ के चुनाव में मतदाताओं ने घर बिठाया| इस प्रकरण के एक मुख्य सूत्रधार अमरसिंह कहते है की उन्हें इस प्रकरण की पूरी जानकारी है| सरकार उनका भी साक्ष दर्ज करे|

एक उपाय
मेरा मुद्दा यह है की, अपना इमान बेचनेवाले का, लोग, अपने प्रतिनिधि के रूप में बोझ क्यों ढोए?  यह सही है की निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने की प्रक्रिया आसान नहीं होगी| लेकिन वह निश्‍चित करना असंभव नहीं| मैं यहॉं एक उपाय सुझाता हूँ| उसे अंतिम या परिपूर्ण मानने का कारण नहीं| उसमें संशोधन हो सकता है| बदल भी हो सकता है| मैं विधानसभा क्षेत्र का उदाहरण ले रहा हूँ| लोकसभा का क्षेत्र बड़ा होने के कारण उसमें कुछ बदल भी किया जा सकता है|
निर्वाचित विधायक को वापस बुलाना हो, तो उस मतदारसंघ में हुए कुल मतदान के कम से कम दस प्रतिशत मतदाता कारण बताकर, यह प्रतिनिधि हमें नहीं चाहिए, ऐसा आवेदन चुनाव आयोग के पास भेजे| कल्पना करे की, उस मतदान क्षेत्र में एक लाख मतदान हुआ, तो १० हजार या उससे अधिक मतदाताओं की स्वाक्षरी का आवेदन चुनाव आयोग के पास जाना चाहिए| इस आवेदन के साथ २५ हजार रुपये अनामत चुनाव आयोग के पास जमा करानी होगी| इसके बाद चुनाव आयोग जनमत जान लेने की व्यवस्था करेगा| इसके लिए मतदार संघ में के सब मतदाताओं को मतदान करने की आवश्यकता नहीं होगी| इसके लिए एक विशेष छोटा मतदारसंघ  (Special Electoral College) होगा| उस मतदारसंघ के क्षेत्र में की ग्रामपंचायतों, पंचायत समितियों, उसी प्रकार जिला परिषदों के सब सदस्य इस विशेष मतदार संघ में मतदाता होगे| उसी प्रकार इस क्षेत्र में की नगर परिषदों और महापालिका हो तो, उस महापालिका के सदस्य भी मतदार होगे| ये सब लोगों द्वारा निर्वाचित ही होते है| मतलब एक प्रकार से वे जनता का ही प्रतिनिधित्व करते है| इस मतदारसंघ में सुबुद्ध नागरिकों का भी अंतर्भाव हो सकता है| इसके लिए उस क्षेत्र में की सब मान्यताप्राप्त प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों के मुख्याध्यापकों को भी मतादान का अधिकार होना चाहिए| मतदान सब के लिए अनिवार्य होना चाहिए| जिन्हें मतदान नहीं करना है, उन्हें पहले से ही इसके लिए, चुनाव आयोग से अनुमती लेनी होगी| हुए मतदान के ६० प्रतिशत या उससे अधिक मत, निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के प्रस्ताव के पक्ष में पड़ने पर ही, उसकी सदस्यता रद्द होगी| अन्यथा वह कायम रहेगी| दस प्रतिशत स्वाक्षरियॉं जमा करने के लिए जिस व्यक्ति या गुट की पहल होगी, उसने जमा की अनामत राशि, उस प्रस्ताव के पक्ष में ४० प्रतिशत से कम मत मिलनेपर जप्त होगी| इस कारण फालतू आरोप करनेवालों पर धाक बैठेगी| लेकिन ४० प्रतिशत या उससे अधिक मत वापस बुलाने के प्रस्ताव के पक्ष में पड़ने पर वह राशि संबंधितों को लौटा दी जाएगी|

सांसदों के लिए
लोकसभा का मतदासंघ बड़ा होता है| वहॉं पुन: मतदान कराने के लिए बनाए जानेवाले मतदारसंघ की रचना भिन्न हो सकती है| ग्रामपंचातें, पंचायत समितियॉं या जिला परिषदों के सब सदस्यों को मताधिकार देने के बदले, उस क्षेत्र में आनेवाली ग्रामपंचायतों के सरपंच और पंचायत समितियों के तथा जिला परिषदों के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तक यह अधिकार मर्यादित किया जा सकता है| नगर परिषदों और महापालिकाओं के सब सदस्यों को मताधिकार रहेगा| सुबुद्ध जनों में, उस क्षेत्र में के सब महाविद्यालयों के प्राचार्य, उसी प्रकार विश्‍वविद्यालय की सेवा में रत सब रीडर्स और प्रोफेसर्स को भी इस विशेष मतदारसंघ में समाविष्ट किया जा सकता है| अन्य नियम एवं शर्ते उसी प्रकार होगी| अनामत राशि का आँकड़ा बढ़ाया जा सकता है; और जो दस प्रतिशत स्वाक्षरी देंगे, वे मतदार, लोकसभा के क्षेत्रांतर्गत आनेवाले सब विधानसभा क्षेत्रों में से कम से कम आधे मतदारसंघों में के होने चाहिए, ऐसा निर्बंध होगा| इस कारण केवल एक-दो मतदारसंघों में के मतदाताओं की मांग होने से नहीं चलेगा| उद्देश्य यह की वापस बुलाने की प्रक्रिया में अधिकांश मतदारसंघों का प्रतिनिधित्व रहे|

भय ना रखे
६० प्रतिशत या उससे अधिक मतदान प्रस्ताव के पक्ष में हुआ, तो पुन: चुनाव होगा| इस चुनाव में, जिसके विरुद्ध प्रस्ताव पारित हुआ है, वह खड़ा नहीं रह सकेगा| यह या इस प्रकार की अन्य शर्ते रहेगी, इससे सहज या अकारण निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के प्रयत्नों पर प्रतिबध लगेगा| चुनाव आयोग ने पुन: मतदान का भय पालने की आवश्यकता नहीं| १९८९ से १९९९ इन केवल दस वर्षों के कालखंड में संपूर्ण लोकसभा के पॉंच आम चुनाव हुए| १९८९, फिर १९९१, फिर १९९६, फिर १९९८, फिर १९९९| मतलब जिस कालावधि में १९९४ और १९९९ ऐसे दो ही चुनाव होने चाहिए थे, उस कालावधि में पॉंच चुनाव हुए और उसकी सब व्यवस्था चुनाव आयोग ने की| उस तुलना में विशेष मतदारसंघ बनाकर, उसके द्वारा चुनाव लेना कई गुना आसान है| इस प्रक्रिया में अस्थिरता का प्रश्‍न ही नहीं और विकास कार्य में बाधा, यह मुद्दा तो पूर्णत: निरर्थक है|
उपर उल्लेख किये अनुसार यह एक उपाय मैंने सुझाया है| उसके विकल्प हो सकते है| मेरे विकल्प पर साधक-बाधक चर्चा हुई, तो मुझे निश्‍चित ही अच्छा लगेगा|

- मा. गो. वैद्यनागपुर
 (अनुवाद : विकास कुलकर्णी)   
       

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