Monday, 21 November 2011

उ. प्र. का विभाजन और छोटे राज्यों की निर्मिति

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने. उ. प्र. का विभाजन कर, उसके चार राज्य बनाने का प्रस्ताव रखा है| यह प्रस्ताव, वे शीघ्र ही विधानसभा में प्रस्तुत करेगी; उसके पारित होने की भरपूर संभावना है| कारण, मुलायम सिंह यादव के एक समाजवादी का पार्टी के अलावा अन्य किसी विरोधी पार्टी जैसे : भाजपा, कॉंग्रेस या अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल का इसे विरोध होने की संभावना नहीं है| भाजपा ने सदैव ही छोटे राज्यों का पुरस्कार किया है| इसी नीति के अनुसार उत्तराखंड के राज्य की निर्मिती में इस पार्टी की मुख्य भूमिका थी और उसी नीति के अनुसार अलग तेलंगना और विदर्भ के अलग राज्य के बारे में भी उसकी अनुकूलता है| कॉंग्रेस ने, उत्तर प्रदेश के ही एक भाग बुंदेलखंड के पिछड़ेपन का मुद्दा उठाकर, उसका अलग राज्य बनाने को अपनी सहमति सूचित की थी| अब उत्तर प्रदेश कॉंग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती ऋता बहुगुणा जोशी ने कॉंग्रेस का छोटे राज्यों की निर्मिती को समर्थन है, लेकिन किसी एक प्रदेश का ही विभाजन करने के बदले राज्य पुनर्रचना आयोग गठित करना चाहिए, ऐसी सूचना की है| अजित सिंह के रालोद ने तो विद्यमान राज्य के पश्‍चिम भाग से ‘हरित प्रदेश’ नाम का एक अलग राज्य निर्माण करने की मांग की है| सारांश यह की, एक समाजवादी पार्टी छोड़ दे तो, अन्य प्रमुख राजनीतिक पार्टियों का उत्तर प्रदेश के विभाजन को तत्त्वत: विरोध नहीं है|

आश्‍चर्य का धक्का

मायावती ने राज्य के विभाजन का मुद्दा प्रकट करते ही, सबको आश्‍चर्य का धक्का लगा| कॉंग्रेस के एक नेता प्रमोद तिवारी ने कहा कि, कॉंग्रेस ने पूर्वांचल (उ. प्र. के पूर्व का भाग) और बुंदेलखंड के अलग राज्यों का पुरस्कार किया, तब मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उसे विरोध किया था| इस कारण, बसपा की, एकाएक यह घोषणा करने में कुछ राज छुपा है| भाजपा की उमा भारती ने, यह एक स्टंट है, ऐसा कहकर इसे अर्थहीन करार दिया है, और भाजपा के प्रवक्ता सांसद प्रकाश जावडेकर ने कहा है कि, साडेचार वर्ष बसपा खामोश थी; और अब एकदम उसका छोटे राज्यों के बारे में प्रेम उमड पड़ा है| राज्य आकाश से नहीं टपकते|

मायावती की राजनीति

यह प्रातिनिधिक प्रतिक्रियाएँ, यहीं दर्शाती है की, मायावती की इस घोषणा से उन्हें धक्का लगा है| उनका इस विभाजन को तात्त्विक रूप से विरोध नहीं| हॉं, समाजवादी पार्टी ने अपने विरोध का कारण देते हुए कहा है कि, उ. प्र. का विभाजन हुआ, तो राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में मतलब सत्ताकारण में उ. प्र. का महत्त्व समाप्त होगा| लेकिन यह कारण एकदम निराधार है| किसी भी विशिष्ठ राज्य का ही दबदबा राष्ट्रीय राजनीति में क्यों रहें? इस बारे में भी मतभिन्नता होने का कारण नहीं की, मायावती का उद्देश्य निर्मल नहीं है| उसके पीछे राजनीति है और क्यों ना रहे? क्या मायावती पारमार्थिक क्षेत्र में की कोई साध्वी है? वे अंतर्बाह्य राजनेता है और अपनी राजनीति की सुविधा के लिए वे कोई भी नया कदम उठाएगी| उनके सामने २०१२ के मार्च-अप्रेल में होने जा रहे विधानसभा के संभाव्य चुनाव है, उसका विचार होना ही चाहिए| राजनीति के दावों की जानकार इस महिला को यह निश्‍चित ही पता है की, चुनाव के लिए केवल चार-पॉंच माह ही शेष है, इस अत्यल्प अवधि में केन्द्र सरकार की ओर से राज्य विभाजन के प्रस्ताव के बारे में कोई भी निर्णय लिया जाने की संभावना नहीं है| राज्य विधानसभा ने प्रस्ताव पारित किया तो भी अमल करने की दृष्टि से, उसे महत्त्व नहीं| इस कारण, विधानसभा के चुनावों पर नजर रखकर ही मायावती ने उ. प्र. के विभाजन का मुद्दा उपस्थित किया है| लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की, उ. प्र. के विभाजन की आवश्यकता नहीं| इसकी आवश्यकता है और आगे, २०१७ के विधानसभा के चुनाव के पूर्व या संभव हुआ तो २०१४ के लोकसभा के चुनाव के पूर्व राज्य का विभाजन होना चाहिए|

ध्यान देने योग्य बात

उ. प्र. के विभाजन के बारे में ध्यान देने योग्य बात यह है की, एक बुंदेलखंड का अपवाद छोड दे तो, पिछड़ापन या आर्थिक क्षेत्र में अन्याय होने का मुद्दा इस विभाजन की जड़ में नहीं है| उसी प्रकार, मायावती ने सुझाएँ चार राज्यों की अलग अस्मिता या इतिहास भी नहीं है| तेलंगना या विदर्भ इन राज्यों की मांग की जड़ में जैसे आर्थिक विकास में अन्याय यह एक महत्त्व का कारण है, वैसे ही उनका अलग इतिहास यह भी कारण है| उ. प्र. में के संभाव्य घटक राज्यों के बारे में ये कारण नहीं है| जिस पश्‍चिम प्रदेश और पूर्वांचल का, संकल्पित विभाजन में उल्लेख है, वह दोनों भाग आर्थिक दृष्टि से समृद्ध है| पश्‍चिम प्रदेश तो सर्वाधिक संपन्न है| इस कारण, भावनात्मक मुद्दा यहॉं लागू नहीं होता| राज्य के कामकाज की सुविधा का विचार कर ही उ. प्र. का विभाजन हो सकता है और राज्य के कामकाज की सुविधा यही राज्य पुनर्रचना के संदर्भ में एकमात्र ना सही, लेकिन अत्यंत महत्त्व का निकष होना चाहिए|

एक सूत्र

व्यक्तिश: मैं छोटे राज्यों का पुरस्कर्ता हूँ| इस स्तंभ में अनेक बार मैंने इस मुद्दे की चर्चा भी की है| केन्द्र सरकार अलग-अलग विचार ना कर, पुन: एक बार राज्य पुनर्रचना आयोग गठित करे और वह अपनी सिफारिसें दे| इस संबंध में एक सूत्र का भी मैंने उल्लेख किया था| वह सूत्र इस प्रकार है : किसी भी राज्य की जनसंख्या तीन करोड से अधिक और पचास लाख से कम ना हो| आज उ. प्र. की जनसंख्या १९ करोड से अधिक हो चुकी है| २००१ कीजनगणना के अनुसार वह १६ करोड ६० लाख थी| तो मिझोराम, मेघालय, नागालॅण्ड इन पूर्व के ओर के राज्यों की और गोवा इस दक्षिण के ओर के राज्य की जनसंख्या प्रत्येकी २५ लाख से अधिक नहीं| मिझोराम की जनसंख्या तो वर्ष २००१ में ९ लाख भी नहीं थी| आज वह अधिक से अधिक १२ लाख के करीब होगी| फिर भी वह एक राज्य है| उसे अगल राज्य बनाने का कारण ईसाई लोगों ने किया विद्रोह है| उन्हें खुश करने के लिए, असम का एक जिला रहा मिझोराम एक स्वतंत्र राज्य बना| कम से कम ५० लाख जनसंख्या वहॉं होगी, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए| संभव हो तो, पडोस के छोटे-छोटे राज्य एक करें या पडोस के बड़े राज्य में उसका विलयन करें| जैसे गोवा का विलयन महाराष्ट्र में सहज संभव है| किसी अस्मिता के अहंकार में उसका जन्म होने के कारण वह अहंकार संजोते रहने की वहॉं की जनता को - सही में सत्ताकांक्षी राजनेताओं को -आदत हो गई होगी तो, उनका अलग अस्तित्व कायम रहने दे, लेकिन उसका दर्जा केन्द्रशासित प्रदेश के समान होना चाहिए| इससे जनता के, केवल उस प्रदेश में की जनता के ही नहीं, संपूर्ण भारतीय जनता के पैसों की काफी बचत होगी| इस सूत्र के अनुसार विचार किया तो उ. प्र. का विभाजन ६ या ७ राज्यों में होगा| केवल उ. प्र. ही नहीं, तो महाराष्ट्र, आंध्र, तामिलनाडू, बिहार, पश्‍चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राज्यस्थान इन राज्यों का भी विभाजन करना होगा| महाराष्ट्र, आंध्र और प. बंगाल में इस दृष्टि से आंदोलन शुरू भी हुए है|

विषम विभाजन ना हो

उ. प्र. राज्य को चार नए राज्यों में विभाजित करने का सुझाव मायावती ने दिया है| वह योग्य नहीं| सब जानते है की, इस राज्य में लोकसभा की ८० या ८१ सिटें है और राज्य विधानसभा की ४०३| यह एकमात्र राज्य है जहॉं एक लोकसभा क्षेत्र में केवल पॉंच विधानसभा क्षेत्रों का समावेश होता है| महाराष्ट्र में छ:, आंध्र, तामिलनाडु. प. बंगाल आदि राज्यों में सात; मध्य प्रदेश और राज्यस्थान में आठ तो हरियाणा और पंजाब में नौ विधानसभा क्षेत्र एक लोकसभा क्षेत्र में समाविष्ट है| लोकसभा के क्षेत्र में बदल करने का कारण नहीं, लेकिन, उत्तर प्रेदेश मे, नई रचना में, हर विधानसभा में के सदस्यों की संख्या बढ़ सकती है| मायावती की संकल्पित योजना के अनुसार विद्यमान व्यवस्था में पश्‍चिम प्रदेश के हिस्से ३१ लोकसभा क्षेत्र आते है| तो, बुंदेलखंड के हिस्से केवल ४ लोकसभा क्षेत्र आते है| पूर्वांचल के हिस्से भी ३२ लोकसभाक्षेत्र आते है, तो अवध राज्य के हिस्से केवल १३ | चार ही राज्य बनाने हो तो, हर एक के हिस्से में २० के करीब लोकसभा क्षेत्र आने चाहिए| विधानसभा क्षेत्रों के बारे में भी ऐसी ही विषमता दिखाई देती है| पश्‍चिम प्रदेश में १५० और पूर्वांचल में १५९ विधानसभा क्षेत्र आते है, तो बुंदेलखंड में केलव २१ | यह विभाजन व्यवस्था योग्य नहीं| प्रत्येक संकल्पित राज्य में, आज की व्यवस्था के अनुसार कम से कम ९० से १०० विधानसभा क्षेत्र आने चाहिए| इस प्रकार ही विभाजन की योजना होनी चाहिए| मेरे सूत्र के अनुसार विभाजन किया और छ: राज्य बनाए तो प्रत्येक के हिस्से १३ - १४ लोकसभा क्षेत्र आएगे| इसमें कुछ भी अनुचित नहीं| अलग विदर्भ की मांग मान्य हुई तो उसके हिस्से में केवल ११ लोकसभा क्षेत्र आते है| तेलगंना के बारे में मुझे निश्‍चित कल्पना नहीं है| लेकिन वहॉं भी १४ या १५ लोकसभाक्षेत्र समाविष्ट होंगे| तात्पर्य यह की, उ. प्र. के विभाजन का गंभीरता से और विशिष्ट तत्त्व निश्‍चित कर विचार होना चाहिए| मायावती के मन में आया, इसलिए राज्यरचना की, ऐसा नहीं होना चाहिए| सौभाग्य की बात यह है की, उ. प्र. के विद्यमान प्रदेश में या संकल्पित पुनर्रचना में भावना का उद्रेक नहीं है| जहॉं कहीं होगा तो वह बुहत सौम्य है|   

समझदारी आवश्यक

अलग राज्यों की निर्मिती केलिए, स्वातंत्र्योत्तर काल में उग्र आंदोलन करने पड़े, यह दु:ख की बात है| पुराने मद्रास प्रांत में से आंध्र अलग करने के लिए श्रीरामलू को अनशन कर अपने प्राणों की आहुती देनी पड़ी| उसके पश्‍चात् हुए हिंसाचार के बाद आंध्र प्रदेश अलग हुआ| द्विभाषिक से अलग होने के लिए महाराष्ट्र में भी उग्र आंदोलन हुआ| १०९ शहिदों को आहुति देनी पड़ी और १९५७ के चुनाव में कॉंग्रेस को पटकनी भी देनी पड़ी| उसके बाद महाराष्ट्र और गुजरात यह दो राज्य बने| पंजाब के अलग राज्य के लिए भी उग्र आंदोलन करना पड़ा| उत्तराखंड के लिए बहुत बड़ा आंदोलन नहीं हुआ| लेकिन थोड़ी उग्रता लानी ही पड़ी| अपवाद छत्तीसगढ़ और झारखंड इन राज्यों का है| ये राज्य समझदारी से बने| यही समझदारी तेलंगना और विदर्भ कोभी नसीब हो, और समझदारी से उ. प्र. का भी सही और व्यवस्थित विभाजन हो|

जम्मू-काश्मीर का भी विभाजन

इस निमित्त मुझे जम्मू-काश्मीर राज्य के विभाजन का भी विचार रखना है| विद्यमान जम्मू-काश्मीर राज्य के तीन स्वतंत्र भौगालिक भाग है| (१) लद्दाख (२) काश्मीर की घाटी और (३) जम्मू प्रदेश| रणजित सिंह के सरदार गुलाब सिंह के पराक्रम के कारण यह सब प्रदेश रणजित सिंह के राज्य से जोडा गया| उनकी मृत्यु के बाद केवल सात-आठ वर्ष में अंग्रेजों ने वह राज्य जीत लिया| गुलाब सिंह ने चुतराई से ७५ लाख रुपये देकर और अंग्रेजों की मांडलिकता मान्य कर, संपूर्ण जम्मू-काश्मीर पर (पाकव्याप्त काश्मीर के प्रदेश सहित) अपनी सत्ता स्थापन की| १९४७ के अक्टूबर माह में, तत्कालीन संस्थानिक (राजा) हरिसिंह ने विलीनीकरण के अनुबंध पर स्वाक्षरी कर उस भाग को भारत का अविभाज्य भाग बना दिया| उसके बाद वहॉं शेख अब्दुला की सत्ता स्थापन हुई और सर्वसामान्य मुस्लिम सत्ताधारियों के अनुसार उन्होंने अपनी अलग जड़ें जमाने के षड्यंत्र किये| काश्मीर का वह सारा इतिहास यहॉं बताने की आवश्यकता नहीं| इतना बताया तो भी काफी है कि, १९४७ से २०११ इन ६४ इन वर्षों की अवधि में जम्मू में का एक भी हिंदू काश्मीर का मुख्यमंत्री नहीं बन सका| इतना ही नहीं, विभाजन के समय जो हिंदू पाकिस्थान में से भारत में आए और जम्मू में बसे, उन चार-पॉंच लाख हिंदुओं को जम्मू-काश्मीर राज्य की नागरिकता अभी तक नहीं मिल सकी है| वे लोग, लोकसभा के चुनाव में मतदान कर सकते है, मतलब वे भारत के नागरिक है, यह केन्द्र सरकार को मान्य है, लेकिन राज्य विधानसभा या स्थानिक स्वराज्य संस्था के चुनाव लिए उन्हें मताधिकार नहीं है| नकली सेक्युलॅरिझम् का चष्मा पहने लोगों को यह अन्याय दिखाई नहीं देता| जम्मू प्रदेश और काश्मीर के घाटी की जनसंख्या समान है| लेकिन जम्मू प्रदेश के हिस्से में लोकसभा की केवल दो सिटें है, तो घाटी के हिस्से में ३ | राज्य विधानसभा में जम्मू के हिस्से ३७ सिंटे है तो घाटी के हिस्से में ४६ ! आर्थिक क्षेत्र में भी अत्यंत विषम व्यवहार है| केन्द्र से प्राप्त अनुदान की केवल १० प्रतिशत राशि जम्मू प्रदेश के हिस्से आती है| काश्मीर कीघाटी में हिंदूओं की संख्या केवल चार-पॉंच लाख थी| मतलब घाटी की कुल जनसंख्या के दस प्रतिशत भी नहीं| लेकिन वे हिंदू वहॉं रह नहीं सके| उन्हें, योजनापूर्वक हकाला गया| उनके लिए कोई दो आँसू भी बहाता| और घाटी में के मुसलमानों को तो इसके बारे में शर्म भी अनुभव नहीं होती| हाल ही में केन्द्र सरकार ने पत्रकार दिलीप पाडगॉंवकर के नेतृत्व में वार्ताकारों के तीन सदस्यों की एक टीम, जम्मू-काश्मीर के विघटनवादियों से चर्चा करने के लिए भेजी थी| उस समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की| पता नही क्यों, प्रसार माध्यमों में उसकी अधिक चर्चा नहीं हुई| ऐसी जानकारी है की, इस समिति ने जम्मू, घाटी, और लदाख यह तीन विभाग मान्य किए है, उनके विकास की ओर ध्यान देने के लिए, इन तीन प्रदेशों के लिए अलग-अलग परिषदें स्थापन करें, ऐसा सुझाव दिया है| लेकिन इस मलमपट्टी से कुछ साध्य नहीं होगा| आवश्यकता राज्य के त्रिभाजन की ही है| कारण तीनों विभाग केवल भौगोलिक दृष्टि से ही अलग नहीं, सांस्कृतिक एवं भावनिक दृष्टि से भी उनके बीच कोई मेल नहीं| जम्मू का अलग राज्य बन सकता है| काश्मीर घाटी का अलग, और लदाख केन्द्रशासित प्रदेश| उ. प्र. का विभाजन करने की अपेक्षा भी इस राज्य के विभाजन की आवश्यकता अधिक है| जम्मू प्रदेश और घाटी की जनसंख्या निश्‍चित ही अब प्रत्येकी ६० लाख से अधिक होगी|

सारांश

सारांश यह कि, राज्यरचना का मूलभूत विचार किया जाना चाहिए| इसके लिए राज्य पुनर्रचना आयोग की स्थापना की जानी चाहिए| उ. प्र. की कॉंग्रेस पार्टी ने भी, मायावती की योजना के काट में ही सही, इस मांग का उच्चार किया है| यह अच्छी बात है| आशा करें की, केन्द्र सरकार अपनी पार्टी की मांग का सहानुभूति से विचार करेगी और उ. प्र. के विधानसभा के चुनाव होने के बाद नए पुनर्रचना आयोग के नियुक्ति की घोेषणा करेगी| २०१४ और उसके बाद के चुनाव इस नई रचना के अनुसार ही हो|

- मा. गो. वैद्य, नागपुर
babujaivaiday@gmail.com

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)             

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