किसी भी देश की सुरक्षा-व्यवस्था निरोगी, निकोप और विश्वासार्ह होनी चाहिए. उस व्यवस्था में राजनीति नहीं होनी चाहिए. सेनाधिकारियों के बीच मत्सर और परस्पर द्वेष नहीं होना चाहिए. उसमें भ्रष्टाचार तो होना ही नहीं चाहिए. सामान्य परिस्थिति में भी यह नितांत आवश्यक है. और,जब हमारा देश आक्रमक और कुटिल शत्रुराष्ट्रों से घिरा है, तब तो, इसकी अत्यंत आवश्यकता है. ठीक यही बात हमारी सुरक्षा-व्यवस्था के बारे में नहीं दिखाई देती. वह अनेक प्रकार के विवादों से खोखली हुई नज़र आती है. देश के राजकर्ताओं ने इस परिस्थिति का अत्यंत गंभीरता से विचार करना चाहिए.
ये देश के हितचिंतक?
लेकिन क्या आज के राजकर्ता ऐसा स्वार्थनिरपेक्ष विचार कर सकेंगे? मुझे संदेह है. सामान्य जनता को भी संदेह है. सुरक्षा-व्यवस्था में शस्त्रास्त्रों का भी अत्यंत महत्त्व है. सक्षम शस्त्र नहीं होगे, तो युद्ध में सेना किसके बल पर लड़ेंगी? हमारा इस संदर्भ में उपेक्षा का भयंकर परिणाम हमने देखा है. जरा पचास वर्ष पीछे देखे. १९६२ की याद करें. चिनी सेना ने आक्रमण किया था. उस आक्रमण को रोकने के लिए हमारे पास सक्षम साधन ही नहीं थे. प्रत्यक्ष रणक्षेत्र में सेनापति ही गायब था! वह भाग गया था. वीर जवान प्राणों की परवाह किए बिना अपने स्थान पर डटे रहें. लेकिन बलवान शत्रु के सामने उनकी कुछ न चली. बर्फीले प्रदेश में खड़े रहने के लिए हमारे जवानों के पास जूतें तक नहीं थे. सेना की दुरवस्था करनेवालों और उसे चलने देन वालों को देश के शत्रु समझे या हितचिंतक? १७५७ में बंगाल में प्लासी की लड़ाई हुई थी. उस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई और तब से यहॉं अंग्रेजों के राज्य की नीव पड़ी, ऐसा हम पुस्तक में पढ़ते है. मैंने वह प्लासी शहर देखा है. वहॉं के लोगों से बात की. उनसे जानकारी मिली कि, लड़ाई हुई ही नहीं! लड़ाई का नाटक हुआ. दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थी. लेकिन बंगाल के नबाब के सेनापति ने लड़ाई का नाटक कर, अंग्रेजों की शरणागति स्वीकार की. जहॉं सेना के मुख्य अधिकारी का ही वर्तन इस प्रकार होगा, वहॉं औरों के बारे में क्या कहे? अंग्रेजों का राज्य यहॉं आया, वह स्थिरपद हुआ और डेढ सौ वर्ष टिका, इसमें क्या आश्चर्य है?
देश की बदनामी
शस्त्रों की खरीदी का अभी का प्रकरण है बोफोर्स तोपों की खरेदी. हमने स्वीडन से ये तोपें खरीदी. उनकी क्षमता ठीक है, ऐसी जानकारी है. लेकिन इन तोपों की खरेदी में प्रचंड भ्रष्टाचार हुआ. किसने किया यह भ्र्रष्टाचार? प्रत्यक्ष प्रधानमंत्री और उनका परिवार उसमें लिप्त पाया गया. जहॉं देश के राजकारोबार का सर्वोच्च अधिकारी ही दलाली खानेवाला होगा, तो क्या उस देश की सुरक्षा-व्यवस्था सलामत रह सकेगी? उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. उनके विरुद्ध किसी फालतू आदमी ने आरोप नहीं लगाए थे. उनके ही मंत्रिमंडल के एक जिम्मेदार मंत्री ने ही यह आरोप लगाए थे. और वह झूठे थे, ऐसा अब कहा भी नहीं जा सकता. कारण, इस सौदे में कात्रोची नाम का एक इटालियन व्यक्ति दलाल था. राजीव गांधी की पत्नी सोनिया भी इटालियन और कात्रोची भी इटालियन! ऐसे यह तार जुड़े थे. कात्रोची, हमारे हाथ लगा भी था. लेकिन क्या उसे सज़ा मिली? विपरीत, वह सही सलामत भाग गया. वैसी व्यवस्था ही की गई थी. इंग्लैंड में का उसका बँक खाता सील किया गया था. वह कुछ समय बाद मुक्त कर दिया गया. कात्रोची सही सलामत. सोनिया जी अधिकार पद पर बरकरार. हानि किसकी हुई? किसी भी व्यक्ति की नहीं. लेकिन देश की बहुत बड़ी बदनामी हुई. कितने लोगों को इसका दु:ख है?
ट्रक खरेदी का मामला
अब और एक मामला सामने आया है. सेना के काम आने वाले ट्रक खरेदी का. इस प्रकार के ट्रक का नाम है ‘तात्रा’. उसकी पूर्ति करनेवाली कंपनी का नाम है ‘व्हेक्ट्रा’. इस कंपनी के अध्यक्ष है रवि ऋषि. नाम से भारतीय लगते है; लेकिन रहते है इंग्लैंड में. यह ‘तात्रा’ ट्रक खरीदे, इसके लिए उन्होंने हमारे सेना प्रमुख व्ही. के. सिंह को १४ करोड़ रुपये घूस देने का प्रयास किया गया था! यह करीब दो वर्ष पहले की बात है. यह घूस देने के लिए कौन मिला था सेना प्रमुख से? रवि ऋषि? नहीं. झेक कंपनी के कोई अधिकारी? वे भी नहीं. हमारी सेना के ही एक अधिकारी! सही-झूठ का फैसला तो अब न्यायालय मे ही होगा. कारण, इस सेनाधिकारी ने, घूस देने के मामले में, उनका नाम लेने के लिए सेना प्रमुख के विरुद्ध मानहानि की नोटिस दी है.
ये ‘तात्रा’ ट्रक सेना के लिए, मुख्यत: क्षेपणास्त्रों का हमला करते समय उपयोग में लाने के लिए खरीदे गए है, इस व्यापार का माध्यम सरकार का ही एक विभाग था. ‘भारत अर्थ मुव्हर्स लिमिटेड’ यह उस विभाग का नाम है. उसका अंग्रेजी में संक्षेप होता है ‘बीईएमएल’. हम उस विभाग को ‘बेमेल’ कहे. इस ‘बेमेल’ने ‘तात्रा’ ट्रक की खरेदी में घोटाले किए. केंद्रीय अपराध अन्वेषण विभाग (सीबीआय) को इसकी जॉंच का काम सौपा गया है. इस विभाग ने, ‘बेमेल’ के अध्यक्ष और प्रबंध संचालक व्ही. आर. एस. नटराजन् की जॉंच करने के लिए सरकार से अनुमति मांगी है. ये नटराजन् साहब गत दस वर्षों से ‘बेमेल’ के अध्यक्ष है. व्हेक्ट्रा के ऋषि की नटराजन् के साथ मिलीभगत दिखती है. देश की दृष्टि से अत्यंत महत्त्व की सुरक्षा-व्यवस्था में के ऐसे लफडे क्या देशभक्त नागरिकों का मन उद्विग्न नहीं करेंगे?
बड़ों का बौनापन
सेना प्रमुख, दूसरे सेनाधिकारी, एक बड़े महत्त्वपूर्ण सरकारी विभाग के अध्यक्ष, - कितने बड़े बड़े लोग है ये. लेकिन ऐसा लगता है कि उनके मन बहुत छोटे है. सेना प्रमुख के आयु का ही मामला ले. उनका जन्म वर्ष १९५० या १९५१ यह विवाद का मुद्दा बना. सरकारी दप्तर में जन्म तारीख १९५० लिखी है. उसके अनुसार सेना प्रमुख विक्रम सिंह आगामी मई माह के अंत में सेवानिवृत्त होंगे. सेना प्रमुख, एक वर्ष पहले निवृत्त होते, तो क्या बिगडता? आसमान गिर पड़ता या सब सेना दल बेकाम हो जाते? इतने बड़े पद पर के व्यक्ति के ध्यान में यह बात नहीं आती, यह चमत्कारिक ही मानना पडेगा! वे सरकार को निवेदन देते, तो बात समझ में आती. वैसा निवेदन उन्होने दिया भी. लेकिन सरकार ने उसे मान्य नहीं किया. उसके बाद इस सेना प्रमुख ने क्या किया? मान्य किया सरकार का निर्णय? नही! उन्हें वह महान् अन्याय लगा. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. जन्म तारीख की एक सामान्य बात के लिए इतनी उठापटक! सेना प्रमुख के अति उच्च पद पर आरूढ इस व्यक्ति ने स्वयं को बहुत बौना बना लिया. संपूर्ण भारतीयों की नज़र में वे गिर गए है.
हमारे प्रधानमंत्री
सेना प्रमुख ने, सुरक्षा-व्यवस्था में की त्रुटियों के बारे में रक्षा मंत्री के साथ चर्चा करना क्रमप्राप्त ही है. सेना प्रमुख व्ही. के. सिंह ने वैसी चर्चा निश्चित ही की होगी. लेकिन, ऐसा लगता है कि, रक्षा मंत्री ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया. क्यों? हम ऐसा मान ले कि, सेना प्रमुख की मांग रक्षा मंत्री को जची नहीं होगी. ऐसे मतभेद होना अस्वाभाविक नहीं है. फिर सेना प्रमुख ने, उस आशय का एक पत्र प्रधानमंत्री को भेजा. इसमें भी कुछ अनुचित नहीं है. अर्थात् ही वह पत्र गोपनीय होगा. लेकिन वह लीक हुआ. किसने लीक किया होगा वह पत्र? सेना प्रमुख ने तो लीक करना संभव ही नहीं. अन्यथा उन्होंने वह प्रधानमंत्री के पास भेजा ही नहीं होता. केवल रक्षा मंत्री की बदनामी ही हेतु होता, तो किसी समाचारपत्र के प्रतिनिधि को पकड़कर उसे वह जानकारी देते. अर्थात् ही अब संदेह की सुई प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर मुडी है. प्रधानमंत्री, हमारे देश का सर्वोच्च अधिकारी है. उसका कार्यालय ऐसा ढीलाढाला हो? विद्यमान प्रधानमंत्री की किसे धाक ही नहीं, किसी भी बात पर उनका नियंत्रण ही नहीं, किसी की कृपा से वे उस सर्वोच्च स्थान से चिपकें है, ऐसी लोक-भावना है. वह गलत या किसी गलतहफमी पर आधारित हो सकती है. लेकिन ऐसा है, यह सच है. जनमानस में प्रश्न यह निर्माण हुआ है कि, सही में प्रधानमंत्री है कौन? मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी? बोफोर्स मामले से संदेह सोनिया गांधी पर स्थिर है. सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे धाडसी जन नेता सीधे-सीधे उन पर प्रहार करते है, विदेशी बँकों में अनका कालाधन जमा है, २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले की वे भी एक बड़ी लाभार्थी है, ऐसा स्वामी अपरोक्ष तरीके से सूचित कर रहे है. लेकिन वे बिल्कुल खामोश बैठी है. मानो जैसे उनका मौन संमतिसूचक है, ऐसा ही कोई समझे! फिर, सुरक्षा-व्यवस्था के बारे में रक्षा सज्जता के बारे में निर्णय कौन ले? रक्षा मंत्री निष्क्रिय और प्रधानमंत्री तटस्थ. इसे हमारे देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य कहे!
१६ जनवरी की घटना
और, दि. ४ अप्रेल के अंक में, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ इस विख्यात अखबार ने मानो एक बड़ा ‘बम विस्फोट’ किया, ऐसा लगने वाला, एक प्रदीर्घ लेख पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से प्रकाशित किया. इस वर्ष के १६-१७ जनवरी की यह घटना है. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ कहता है- ‘‘१६-१७ जनवरी की रात को, हरियाणा के हिस्सार से यंत्र सज्ज पैदल सेना की टुकड़ी, राजधानी दिल्ली की ओर निकली. दिल्ली वहॉं से १५० किलोमीटर दूर है. इस टुकड़ी के गतिविधि की पूर्व जानकारी रक्षा मंत्रालय को नहीं दी गई थी. सेना का कहना है कि कोहरे में, सेना की गतिविधि कैसी हो इसका अभ्यास करने के लिए यह एक सामान्य प्रयोग था. दि. १६ जनवरी का महत्त्व यह है कि, उसी दिन, अपनी जन्म तारीख के विवाद के संदर्भ में सेना प्रमुख सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था. हिस्सार की ओर से मतलब पश्चिम दिशा से यह टुकड़ी आगे बढ़ रही थी, उसी समय, दक्षिण की ओर से मतलब आग्रा से भी एक टुकड़ी दिल्ली की ओर निकली थी. वह हवाई जहाज से निकली. स्वाभाविक ही, इसकी जानकारी मिलते ही चिंता का वातावरण निर्माण हुआ. पुलीस को, सब वाहनों की जॉंच करने के आदेश दिए गए. रक्षा सचिव शशिकांत शर्मा मलेशिया गये थे. उन्हें तुरंत दिल्ली आने के लिए कहा गया. उसके अनुसार वे राजधानी लौट आये. आधी रात को अपने कार्यालय गए. उन्होंने सेना गतिविधियों के संचालक ले. ज. चौधरी को तुरंत बुलाया और पूछा - यह क्या चल रहा है. चौधरी को शायद इसकी जानकारी होगी. उन्होंने जानकारी लेकर बताया कि, यह कोहरे में किया जाने वाला अभ्यास है.’’
प्रश्न ही प्रश्न
इस पर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने अनेक प्रश्न उपस्थित किए है. उसमें का मुख्य और महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, राजधानी के समीप ऐसा कोई अभ्यास करना हो तो रक्षा मंत्रालय को इसकी सूचना देनी होती है, वैसी सूचना क्यों नहीं दी गई थी? और दूसरा प्रश्न यह कि, उसी समय आग्रा से पॅराशूट से उतारने वाले वैमानिकों को भी दिल्ली की दिशा में क्यों भेजा गया? सेना की ओर से इसके ठीक तरह से और समाधान करनेवाले उत्तर नहीं मिले. इससे तर्क किया गया की, जनरल सिंह के मन में कोई खोट थी. उस बहाने रक्षा मंत्रालय को, मतलब केन्द्र सरकार को उन्हें धमकी देनी थी; और जन्म तारीख के संदर्भ में सरकार की भूमिका में बदल कराना था.
संयम की आवश्यकता
लेकिन मुझे, यह सब तर्क अतिरंजित लगता है. सेना की एक टुकड़ी या पॅराटुपर्स लेकर आनेवाला कोई एक विमान, भारत जैसे विशाल देश का प्रशासन उखाड़ फेंक सकता है, ऐसा मानना नितांत मूर्खता है. सेना को फौजी क्रांति करनी ही होगी, तो तीनों दलों के सेनापतियों और अधिकारियों का इस बारे में एकमत रहेंगा. वैसी वस्तुस्थिति नहीं है. सेना और नागरी प्रशासन के बीच तालमेल नहीं, ऐसा दिखता है. वह तालमेल होना आवश्यक है, इस बारे में विवाद होने का कारण नहीं. इस प्रकरण से यह भी स्पष्ट हुआ हे कि, सेना प्रमुख सिंह और रक्षा मंत्री अण्टोनी के बीच सहयोग और सामंजस्य नहीं है. लेकिन इस कारण सेना प्रमुख सिंह सत्ता ही पलटने का विचार करते होंगे, ऐसी कल्पना करना हास्यास्पद है. देर से सही, जनरल सिंह ने, ‘मूर्खता से भरी कहानी’ ऐसा कहकर इस समाचार को निरस्त किया, यह ठीक हुआ. ऐसा भी कहना योग्य होगा कि, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ने सनसनीखेज समाचार प्रकाशित करने के बदले अपने पास की जानकारी रक्षा मंत्री या प्रधानमंत्री को दी होती, तो वह अधिक औचित्यपूर्ण सिद्ध होता. अकारण संभ्रम, संदेह और खलबली निर्माण नहीं होती. प्रसारमाध्यमों ने भी रक्षा जैसे संवेदनशील विभाग के बारे में समाचार देते समय संयम और देश-हित का प्रकटीकरण करना ही चाहिए. मिला हुआ समाचार देना, यह प्रसारमाध्यमों का मौलिक अधिकार है, इस बारे में विवाद होने का कारण नहीं. लेकिन, हर अधिकार की एक मर्यादा होती है. वह मर्यादा है देश-हित की. उसका उल्लंघन टाला जाना चाहिए. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने उस मर्यादा का पालन नहीं किया, ऐसा खेद के साथ कहना पड़ेगा.
जनता का कर्तव्य
शस्त्रास्त्र खरेदी में का भ्रष्टाचार, दलालों की मध्यस्थी, निम्न दर्जे के शस्त्रास्त्रों की खरेदी तथा प्रत्यक्ष सेनाधिकारी और रक्षा मंत्रालय के बीच विश्वास का अभाव, यह हमारी रक्षा व्यवस्था में के महान् प्रमाद है. वे यथाशीघ्र दुरस्त किए जाने चाहिए. सेना के पास सक्षम शस्त्र होने चाहिए. बाहर के देशों से उन्हें खरीदना गलत नहीं. लेकिन यह खरेदी का व्यवहार पारदर्शी होना चाहिए. दलाली खाने के लिए समाज-जीवन के अनेक क्षेत्र उपलब्ध है. रक्षा विभाग को उससे अलिप्त रखा जाना चाहिए. वह अलिप्त नहीं रहा है, यह पंडित नेहरु के समय की पनडुब्बियों की खरेदी, राजीव गांधी के समय का बोफोर्स तोप प्रकरण और हाल ही का ‘तात्रा’ ट्रक खरेदी का सौदा, इन व्यवहारों ने स्पष्ट किया है. इतने बड़े पद पर के व्यक्तियों के भ्रष्टाचार देश की स्वतंत्रता ही खतरे में ला सकते है. इसलिए देशभक्त जनता ने ही इसका गंभीरता से विचार करना चाहिए. विद्यमान राजकर्ताओं के हाथ गंदे होने के कारण उनसे अच्छे कर्मों की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है. लेकिन यह कोई चिरंजीव सरकार नहीं है. दो वर्ष बाद इस सरकार को हटाने का मौका जनता को मिलने वाला हे. जनता ने अपने मत का योग्य प्रयोग कर, नए, सशक्त, स्वाभिमानी, देशभक्त, राजकर्ताओं को चुनना चाहिए.
- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
अनुवाद- विकास कुलकर्णी
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