चौतीस दिनों के
बंदिवास के बाद ओडिशा में बिजू जनता दल के विधायक
झिना हिकाका को माओवादियों ने मुक्त किया. गुरुवार दि. २६ अप्रेल को हिकाका छूटे. माओवादी उसी प्रकार नक्षलवादी, यह हिंसाचार पर
विश्वास
रखनेवाली टोलियॉं है. उन्हें कानून से चलनेवाली व्यवस्था नहीं चाहिए. उनके अपने कानून है. किसने बनाए है ये कानून? उन्हें अपने अलग कानून बनाने का अधिकार किसने दिया?
यह प्रश्न इस
बारे में निरर्थक है. उन्हीं में से किसी शक्तिशाली
व्यक्ति ने या ऐसे व्यक्तियों की टोली ने, अपनी हिंसा के बल पर स्वयंशासन
प्रस्थापित किया है. उन्हें क्या चाहिये, यह निश्चित किसे भी पता
नहीं. क्योंकि जिनसे उन्हें कुछ चाहिए, उनके सामने आने की, उनके साथ बात करने की, उनकी तैयारी नहीं. उनकी वैसी रीत
भी नहीं. भय, ताकद, खूनखराबे के बल पर, उन्हें अपनी सत्ता चलानी है.
‘सरकार’ मतलब क्या?
कोई भी सरकार, स्वयं के सत्ता के प्रदेश
में अराजकता चलने नहीं देगी. जो व्यवस्था, यह अराजकता चला लेगी, उस व्यवस्था को ‘सरकार’ यह नाम बनाए रखने का अधिकार ही नहीं. ‘सरकार’ इस व्यवस्था की व्याख्या ध्यान में ले तो, क्या ओडिशा या छत्तीसगढ़ की सरकारों को ‘सरकार’ कहा जा सकता है, ऐसा प्रश्न किसी के भी सामने
निर्माण होगा.
श्री हिकाका ओडिशा विधानसभा के सदस्य है. अभी तक तो ‘है’ ऐसा कहना पड़ेगा. वे भी, माओवादियों के समान अनुसूचित जनजाति के है. वे लोकोपयोगी
कार्य करने में अग्रेसर थे. अपने मतदार संघ के विकास
के लिए प्रयासरत थे. यह बात माओवादियों को क्यों पसंद नहीं? वे भी यहीं दावा करते है की, वे गरिबों के हितचिंतक है;
गरीबों का शोषण करनेवालों के विरोधी है. फिर उनकी पसंद का ही काम करनेवाले
हिकाका को वे पकड़कर क्यों ले गये?
पहली नज़र में ऐसा लगता है कि, हिंसाचार या घातपात की कारवाईंयों में लिप्त, उनमें से कुछ को सरकार ने पकड़कर कारावास में रखा है, उन्हें छुड़ाने के लिए,
उन्होंने यह
दहशतवादी मार्ग स्वीकारा है. हर सरकार का एक कानून होता है. इतना ही नहीं, कानून से जो व्यवस्था चलती
है, उस व्यवस्था को ही राज्य (स्टेट)
कहते है. अर्नेस्ट बार्कर इस विचारक का वचन
प्रसिद्ध है- "It (State) is a nation
organized for action under legal rules. It exists for law: it exists in and through law: we may even say that it
exists as law." (राज्य मतलब, कानून के नियमों के अनुसार कृति करनेवाला एक राष्ट्र ही (=समाज) होता है. वह कानून के
लिए, कानून के अनुसार चलने के लिए अस्तित्व में रहता है. हम ऐसा भी कह सकते है कि
राज्य मतलब कानून ही होता है.) माओवादियों को और
नक्षलवादियों को यह कानून ही मान्य नहीं. मतलब उन्हें ‘राज्य’ मान्य नहीं. उन्हें अराजक
मान्य है. कानून अन्यायकारक हो सकता है. लेकिन उसे बदला भी जा सकता है. जनतांत्रिक व्यवस्था में उसकी भी एक
प्रक्रिया होती है, व्यवस्था होती है. यह राज्य
चलानेवाली जो व्यवस्था है, उसका ही नाम सरकार है.
राज्य क्यों बना?
कानून-विहिन समाज की संकल्पना महाभारत में भीष्माचार्य ने कथन की है. उन्होंने कहा है, ‘‘एक समय ऐसा था जब कोई राजा नहीं था, राज्य नहीं था, दंडव्यवस्था नहीं थी, वह व्यवस्था सम्हालनेवाली सरकार भी नहीं थी. सब लोग सामाजिक नीतिमत्ता से चलते थे और वह नीतिमत्ता ही परस्पर की (एक-दूसरे की) रक्षा करती थी.’’ आगे चलकर यह सामाजिक नीतिमत्ता ढह गई. बलवान दुर्बलों का छल करने लगे. तब लोगों ने ही ब्रह्मदेव से राजा की मांग की. उन्होंने आश्वासन दिया कि, इस राजा की आज्ञा और व्यवस्था का हम पालन करेंगे. और इस प्रकार राजा, राज्य, कानून, कानून का पालन करनेवालों की सुरक्षा और कानून का उल्लंघन करनेवालों को दंड ऐसी व्यवस्था उत्पन्न हुई. वह आज सारी दुनिया में चल रही है. माओवादियों को ऐसी व्यवस्था ही मान्य नहीं. उनके कुछ लोग जेल में होंगे, तो उसका कारण, उन्होंने कानून का पालन नहीं किया, ये ही होगा और सरकार उन्हें दंडित करेगी ही. क्योंकि हर सरकार दंडशक्ति से युक्त होती है और उसे समाज की भलाई के लिए दंडशक्ति का प्रयोग करना ही पड़ता है.
सरकार की इज्जत गई
उन्हें सरकार के कानून मान्य नहीं. उन्हें सरकार को, हिंसक कारवाईंयों के बल पर झुकाना है. दुर्भाग्य से, ओडिशा मे वे सफल हुए. इसके पहले भी माओवादियों की ओर से हिंसाचार हुआ है. उन्होंने लोगों
की- निरपराध लोगों की- हत्या की है. लेकिन
सरकार उनके सामने झुकी नहीं थी. ऐसी कारवाईंयॉं करनेवालों को सरकार ने जेल में डाला था. हिकाका की रिहाई के बदले उनके
कुछ साथीओं को छोड़ने की बात सरकार ने मानी है. एक
प्रकार से, उन्हें अकारण, बिना-अपराध सरकार ने जेल में डाला, यह सरकार ने मान्य किया है.
हिकाका के मामले में सरकार पूरी तरह से झुकी है. माओवादियों ने कुछ शर्ते रखी, वह
सरकार ने मान्य की. माओवादियों ने बताया कि,
हिकाका विधायक
न रहें, हिकाका ने यह मान्य किया. इस
कबूलनामें का गंभीर अर्थ समझ लेना चाहिए. हिकाका ने
लोकप्रतिनिधि न बनने की बात मानी है, ऐसा उसका अर्थ है. क्या लोकप्रतिनिधि बनना अपराध है? हिकाका वाममार्ग से तो लोकप्रतिनिधि नहीं बने थे. लोगों के लिए काम करते थे इसिलिए लोगों ने उन्हें चुनकर दिया.
उस अपने मौलिक अधिकार की, लोकमान्यता प्राप्त करा देने वाले अधिकार की ही हत्या, हिकाका ने मान्य की; और राज्य सरकार ने वह शर्त मान्य की. इसमें हिकाका नाम के एक
व्यक्ति के प्राण बचे लेकिन सरकार नाम की यंत्रणा
की हँसी हुई. उस यंत्रणा की इज्जत गई. कहा जाता है कि, हिकाका को, माओवादियों के
प्रजा-न्यायालय ने मुक्त किया. मतलब वहॉं सत्ता किसकी चलती है? माओवादियों की या ओडिशा
सरकार की? ऐसा भी कह सकते है कि, वह सरकार ‘सरकार’ रही ही नहीं. वह गुंडागर्दी को शरण गई. क्यों? अपनी सत्ता बचाने के लिए?
उस सरकार ने, यह नामुष्कि स्वीकारने के
बदले, त्यागपत्र क्यों नहीं दिया? और केंद्र सरकार ने धारा
३५६ का प्रयोग कर वह सरकार बरखास्त कर अपना शासन क्यों नहीं स्थापन किया? क्या यह संवैधानिक व्यवस्था की
असफलता नहीं है? इस असफलता के संदर्भ में ही तो यह
धारा ३५६ है.
छत्तीसगढ़ में भी ...
जो ओडिशा में, वही छत्तीसगढ़ में भी हो रहा है. वहॉं एक कलेक्टर को ही माओवादि भगाकर ले गए है. ऍलेक्स पॉल मेनन यह उनका नाम है. अत्यंत कार्यक्षम अधिकारी के रूप में वे विख्यात है. माओवादियों की सत्ता जिस भाग में चलती है, उस भाग के विकास के लिए ही मन लगाकर वे काम रहे थे. वहॉं लोगों की समस्याएँ क्या है, यह जानने के लिए वे माओवादियों के गढ़ में गए थे. उन्होंने ग्रामवासियों की सभा बुलाई थी. जनता इकठ्ठा हुई थी. वह किसी कचहरी में नहीं, एक इमली के पेड़ के नीचे. माओवादी इसे क्यों नहीं सह सके? वे भी उसी जमाव में बैठे थे. उन्होंने वहीं से हवा में गोलियॉं चलाई. श्री मेनन के दो अंगरक्षक थे, उनमें से एक को गला काटकर तो दूसरे को बंदूक की गोली से मार गिराया. और कलेक्टर को भगाकर ले गए. अभी तक (शनिवार की दोपहर तक) उन्हें छुड़ाया नहीं जा सका है. मध्यस्थता चल रही है. माओवादियों के दो प्रतिनिधि है, तो सरकार के दूसरे दो. यह लेख लिखे जाने तक समझौते की चर्चा चल रही है. शायद, वह सफल होगी और मेनन रिहा होंगे. अर्थात्, माओवादियों की शर्ते रहेगी ही. ओडिशा के समान, वे भी जेल में बंद अपने अनुयायियों को छोड़ने की मांग करेंगे. और ओडिशा में की बिजू जनता दल की सरकार के समान छत्तीसगढ़ की भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी वे शर्ते मान्य करेगी और मेनन की रिहाई पर समाधान मानेगी!
जिनकी हत्या हुई उनका क्या?
हम ऐसा मानते हे कि मेनन रिहा हुए. ठीक हुआ. लेकिन उनके जो दो अंगरक्षक थे, जिनकी माओवादियों ने सब के सामने, प्रत्यक्ष कलेक्टर की आँखों के सामने, हत्या की, उनका क्या? विधायक और कलेक्टर है, तो उनके प्राणों की किमत है और जो उनके संरक्षक है, उनके प्राणों की कोई किमत नहीं? चर्चा में, मध्यस्थ यह मुद्दा उपस्थित करेगे की केवल कलेक्टर को ही कैसे छुड़ाया जा सकता है, क्या इसका ही विचार होगा? शायद, ऐसा ही होगा. जिनकी माओवादियों ने क्रूरतापूर्वक हत्या की, उनके परिवारजनों को आर्थिक सहायता देकर, सरकार स्वयं को कृतकृत्य मानकर स्वस्थ बैठेगी.
यही परंपरा
ओडिशा और छत्तीसगढ़ की ही सरकारों को दोष नहीं दिया जा सकता. उनके निर्णय के पीछे एक परंपरा है. विश्वनाथप्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे उस समय, उनके मंत्रिमंडल के गृहमंत्री की कन्या का ही दहशतवादियों ने अपहरण किया था. जिनके ऊपर संपूर्ण देश के कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी थी उन्होंने ही अपनी कन्या की रिहाई के लिए दहशतवादियों की मांगों के सामने गर्दन झुका दी. क्या संकेत दिया मुफ्ती महम्मद सईद नाम के इस गृहमंत्री ने? उसके पश्चात, करीब दस वर्ष बाद, दहशतवादियों ने एक विमान का ही अपहरण किया. तब, अटलबिहारी बाजपेयी के नेतृत्व के राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा की सरकार थी. उन्होंने ने भी शरणागति स्वीकार की. विमान यात्रियों की रिहाई के लिए जेल में के दहशतवादियों को छोड़ा. केवल छोड़ा ही नहीं, तो एक मंत्री को उन दहशतवादियों के साथ भेजने की कृति से उनका सम्मान भी किया. इसमें देश की या सरकार की क्या इज्जत रही? इस्रायल पर ऐसा प्रसंग आता, तो क्या वहॉं की सरकार ऐसी ही झुकती और व्यवहार करती? नहीं. उन पर भी ऐसा प्रसंग आया था. वह भी उनके देश से अति दूर के प्रदेश में. उन्होंने पराक्रम से स्वकियों को छुड़ाया था.
महाराष्ट्र में भी...
ओडिशा और छत्तीसगढ़ के बाद अब महाराष्ट्र का क्रम लगा है. गडचिरोली जिले के धानोरा तहसील के दो लोगों की हत्या की गई है, और दस लोगों का अपहरण किया गया है. इन अपहृतों में शायद कोई विधायक या कलेक्टर नहीं होगा. इस कारण, सरकार को झटका नहीं लगा. सर्वसामान्य घटना इस रूप में उसे देखा जाएगा. जमीन में गाडे विस्फोटकों से जवान मरते है, उस समय जैसी शाब्दिक प्रतिक्रिया होती है, वैसी ही अब होगी. समझौता नहीं होगा, मध्यस्थ तो आएगे ही नहीं. दो मरे, दस गये, इतना ही आँकडों का हिसाब रहेगा. यह सब सहने वाली यंत्रणा को सरकार कहे?
पलायन की वृत्ति न हो
इसका अर्थ यह नहीं कि, नक्षलवादी कहे या माओवादी, उनकी कुछ मांगे नहीं अथवा उनका विचार ही करना नहीं. अवश्य विचार करें. लेकिन दहशत की छाया में नहीं. शरणागति की वृत्ति से नहीं. वृत्ति, उन्हें समझने की होगी. लेकिन, संविधान और कानून के संदर्भ में ही उनका विचार होगा. यह सरकार की- केंद्र सरकार की- दृढ भूमिका होनी चाहिए. लेकिन ऐसे भी व्यक्ति होते है, ऐसे भी प्रसंग निर्माण होते है कि जब एक पक्ष समझौते के लिए तैयार ही नहीं रहता. उस समय संघर्ष अटल होता है और किसी भी सरकार ने उससे दूर भागना नहीं चाहिए. जिनकी ऐसी भागने की वृत्ति है, वे सरकार में न रहे. हर समय, और हर देश में कुछ दुर्योधन रहते ही है. वे शिष्टाई मान्य ही नहीं करते. कृष्ण-शिष्टाई भी नहीं. फिर महाभारत अटल होता है. उससे भागना नहीं चाहिए, उसमें जीतना चाहिए.
‘फेडरल’ नहीं ‘युनियन’ है
यह नक्षली या माओवादी समस्या किसी एक या अनेक राज्यों की नहीं. उनकी कारवाईंयॉं बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र इन राज्यों के कुछ भागों चल रही है. इसलिए वह केवल उन राज्यों की समस्या नहीं. समस्या केन्द्र की है. यह जैसे केंद्र ने समझना चाहिए, वैसे राज्यों ने भी समझ लेना चाहिए. अकारण, हमारी राज्य व्यवस्था ‘फेडरल’ है, ऐसा दंभ और दर्प प्रदर्शित करने में कोई मतलब नहीं. हमारा ‘फेडरेशन’ नहीं. हमारे संविधान का पहला वाक्य 'India, that is Bharat shall be a 'Union' of States' इस प्रकार है. 'Federation of States' ऐसे शब्द नहीं है. किसी भी राज्य को इस ‘युनियन’ से बाहर निकलने का अधिकार नहीं. ऐसा अधिकार ‘फेडरेशन’ में रह सकता है. अमेरिका ने स्वयं को ‘फेडरेशन’ कहा था. फिर भी गुलामी की प्रथा पर बंदी लगाने के मुद्दे पर वहॉं दक्षिण के ओर के राज्यों ने अलग होने का प्रयास किया, तब अब्राहम लिंकन ने ताकत का प्रयोग कर और गृहयुद्ध का खतरा उठाकर, उसे कुचल डाला था. हम सब ने यह समझ लेना चाहिए की हमारा ‘फेडरेशन’ नहीं. ‘युनियन’ है. ‘युनियन’ का अर्थ ‘एक सियासी संस्था’ (One political body) होता है. इसलिए केंद्र ने ‘राष्ट्रीय दहशतवाद विरोधी केंद्र’ (National Counter Terrorism Center - NCTC) स्थापन करने का जो निर्णय लिया है, वह योग्य है. लेकिन, हमारी प्रशासकीय रचना में राज्य भी होने के कारण और उन राज्यों को हमारे संविधान ने कुछ अधिकार दिये होने के कारण, तथा उन राज्यों की सुरक्षा व्यवस्था का सहयोग भी अभिप्रेत होने के कारण, उनके साथ विचार-विनिमय करना आवश्यक है. केंद्र ने एकतर्फा निर्णय करना, नही समझदारी है, और न ही राजनीतिक परिपक्वता. लेकिन ऐसा केंद्र स्थापन करने की जिम्मेदारी और इस जिम्मेदारी से आनेवाला अधिकार केंद्र सरकार को है. दि. ५ मई २०१२ को इस संबंध में मुख्यमंत्रियों की दिल्ली में बैठक हो रही है. उसमें समझदारी से निर्णय लिया जाएगा, ऐसी अपेक्षा है.
बल-प्रयोग अटल
यह बात, सबको मान्य होनी चाहिए कि, नक्षलवादी हो, माओवादी हो या इस्लामी जिहादी, ये सब हिंसक आंदोलन है. समझदारी से वे समाप्त होंगे, ऐसा सीधा-सादा विचार करने की आवश्यकता नहीं. उन्हें शांतता के लिए मौका देने में दिक्कत नहीं. लेकिन उसमें से अपेक्षित परिणाम निकलेगा, ऐसी आशा रखने में कोई मतलब नहीं. उनके साथ, नागालँड में है, उस प्रकार की युद्धबंदी नहीं चाहिए. देश स्वतंत्र हुआ, उस समय तेलंगणा में कम्युनिस्टों ने हिंसक आंदोलन शुरू किया था. तत्कालीन सरकार ने वह ताकद के बल पर कुचल डाला. वही प्रयोग अब करना होगा. अभी तक इस हिंसाचार को समाप्त करने के लिए सेना का प्रयोग नहीं किया गया. आवश्यक हो तो वह भी होना चाहिए. बाह्य आक्रमण से सुरक्षा यह जैसे सेना का कर्तव्य है, उसी प्रकार विघटनवादी, आंतरिक, हिंसक कारवाईंयॉं समाप्त करना यह भी उनके कर्तव्य का भाग ही माना जाना चाहिए. दहशतवाद हमारे कानूनी, संवैधानिक, राज्य रूपी शरीर को लगा कर्क रोग है, ऐसा मानकर, समय रहते ही उस पर शस्त्रक्रिया की जानी चाहिए. यही सरकार का कर्तव्य है. और वही उसके अस्तित्व का प्रयोजन है.
- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
नक्सलवाद की वर्तमान समस्या के बहुआयामी पक्ष पर राष्ट्रीय हित के विचारों वाले और समाधान बताने वाले लेख हेतु मा. गो. वैद्य जी को साधुवाद !
ReplyDeleteऔर एक सुझाव है अनुवाद करने वाले से कि बिलकुल शाब्दिक अनुवाद करने के बजाय भावपरक अनुवाद करें तो पाठकों को पढ़ने में सरस लगेगा |