Tuesday, 15 May 2012

संघ स्वयंसेवकों के व्यवहार

दिनांक २८ मार्च २०१२ के अंक में प्रकाशित हुए संघ की व्याप्ति, शक्ति और रीतिइस शीर्षक के भाष्यपर मुझे बहुत प्रतिक्रियाएँ मिली. इसका कारण, केवल उस भाष्य की गुणवत्ता नहीं, तो संघ के श्रेष्ठ अधिकारियों ने उसकी दखल ली और वह, संघ के जो जागरणपत्र प्रकाशित होते है, उनमें प्रकाशित हो, ऐसी सूचना की. शायद अलग अलग प्रान्तों में प्रकाशित होनेवाले और संघ विचारों से अनुप्राणित अन्य नियतकालिकों में भी उसका अनुवाद प्रकाशित हुआ होंगा. मुंबई से प्रकाशित होनेवाले विवेकइस राठी साप्ताहिक में, जैसे वह लेख प्रकाशित हुआ, उसी प्रकार दिल्ली से प्रकाशित होने वाले पाञ्चजन्यइस हिंदी साप्ताहिक में भी, कुछ संक्षिप्त कर ही सही, प्रकाशित हुआ. हरियाणा के संघ के एक भूतपूर्व ज्येष्ठ अधिकारी ने भी, उस लेख का हिंदी अनुवाद पढ़कर, उसका अंग्रेजी में अनुवाद होना चाहिए, ऐसी उत्कट च्छा प्रक की. इतना ही नहीं, तो हरियाणा के सब हिंदी दैनिकों में उसे प्रकाशित करने के लिए प्रयास करेंगे ऐसा भी सूचित किया.

प्रतिक्रिया

उल्लेखित भाष्यऔरंगाबाद से प्रकाशित होने वाले देवगिरी तरुण भारतमें और सोलापुर के सोलापुर तरुण भारतमें प्रकाशित हुआ होगा. लेकिन उस क्षेत्र से कोई प्रतिक्रिया मुझ तक नहीं पहुँची. शायद, वह समाचारपत्र तक ही मर्यादित होगी. विदर्भ से प्रतिक्रिया आने का संभव ही नहीं था. कारण, नागपुर से प्रकाशित होने वाले तरुण भारतकी मुझ पर वक्रदृष्टि होने के कारण, वह वहॉं प्रकाशित होना संभव ही नहीं था. लेकिन विवेकमें का लेख पढ़कर मुंबई तथा सांगली से प्रतिक्रियाएँ मिली. उस लेख का संदर्भ देते हुए, लेकिन स्वतंत्र रूप में भी नासिक से एक अलग ही प्रतिक्रिया प्राप्त हुई.     

प्रश्

इन प्रतिक्रियाओं में का सराहना का भाग छोड़ दे, तो भी एक समान मुद्दा, वह भी आलोचनात्मक, जो प्रकट हुआ, वह ऐसे व्यापक, शक्तिशाली और राष्ट्रभक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के, समाजजीवन के विविध क्षेत्र में कार्य करने वाले स्वयंसेवकों के व्यवहार के संदर्भ में था. एक प्रतिक्रिया प्रश् करती है कि, क्या संघ स्थान पर और संघ के कार्यकम तक ही संघ के संस्कार सीमित होते है? अन्य क्षेत्रों में उनका प्रकाश क्यों नहीं दीखता? सांगली के एक स्वयंसेवक की, दि. मई को यवतमाल के कार्यक्रम में भेट हुई. प्रसंग था संघ के एक बहुत अच्छे कार्यकर्ता और रानी लक्ष्मीबाई विद्यालय के सेवा-निवृत्त मुख्याध्यापक श्री वसंतराव फडणवीस ने लिखे आत्मचरित्र त्वदीयाय कार्यायके प्रकाशन का. उस कार्यक्रम में मेरा मुख्य भाषण था. मेरे भाषण का केन्द्र-बिंदु संघ का स्वयंसेवक ही था. कार्यक्रम समाप्त होने केाद सांगली के वे व्यक्ति मेरे पास आए और कहा, क्या संघ के स्वयंसेवक संघ के बाहर अच्छा बर्ताव नहीं कर सकते? उन्होंने सांगली की ही एक शिक्षा संस्था का उदाहरण दिया. संचालक गण संघ के ही मतलब संघ-संबंधित है. लेकिन संस्था का कारोबार भ्रष्टाचार से अलिप्त नहीं. वहॉं सामाजिक हित की अपेक्षा व्यक्तिगत स्वार्थ को प्राधान्य है. यवतमाल के कार्यक्रम समाप्ती के गड़बड़ी के वातावरण में उनके साथ विस्तार से चर्चा करना संभव नहीं था. इसके अलावा, हमें नागपुर लौटने की भी जल्दी थी. लेकिन उनके प्रश् का मुझे विस्मरण नहीं हुआ.

रीत ही न्यारी

कल-परसो ही, दूसरे संदर्भ में, नासिक के एक स्वयंसेवक ने, भाजपा के नेताओं को भेजे पत्र की एक प्रति ही मेरे लिए भेज दी. उसमें वह लिखता है, ‘‘मुझे गत अनेक दिनों से तीव्रता से लगता है कि, संघ ने भाजपा की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए. हिंदुत्व विचारों की पार्टी - भाजपा - स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर केन्द्र में सत्ताधारी बननी चाहिए. इसके लिए संघ ने सर्वंकष प्रयत्न करना चाहिए.’’ यह पत्र मैंने एक स्वयंसेवक को पढ़ने के लिए दिया. उसने प्रश् किया कि, ‘‘क्या सही में भाजपा हिंदुत्व विचारों की पार्टी रही है?’’ २८ मार्च के उस लेख में संघ के व्याप्ती का विषय रखते हुए मैंने कहा था कि, नागपुर में हुई मार्च २०१२ की प्रतिनिधि सभा में, संघ के स्वयंसेवक समाजजीवन के जिन विविध क्षेत्रों में कार्य कर रहे है, ऐसे ३५ संगठनों ने अपना ब्यौरा प्रस्तुत किया था. भाजपा, विहिंप, विद्यार्थी परिषद, भामसं आदि बड़े संगठनों के नाम तो सर्वविदित है ही. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में, राष्ट्र सीमा सुरक्षा और जागृति के क्षेत्र में, अनगिनत जनजातियों द्वारा व्याप्त वनवासी क्षेत्र में, संघ के स्वयंसेवक जो कार्य कर रहे है, उसकी कितने लोगों को जानकारी होगी? राजनीति में के गतिविधियों की ही प्रसार माध्यमों में विशेष चर्चा रहती है. वह स्वाभाविक भी है और संघ मतलब संघ के स्वयंसेवक प्रचार के पीछे लगे भी नहीं रहते. संघ १९२५ में स्थापन हुआ. लेकिन उसका सादा प्रचार विभाग भी नहीं था. वह १९९४ में मतलब करीब करीब ७० वर्ष बाद स्थापन हुआ. मुझे नहीं लगता, प्रसिद्धि के बारे में किसी संस्था की इतनी अनास्था होगी? संघ का कोई अधिकृत प्रवक्ता भी नहीं था. सन् २००० में मैं पहला प्रवक्ता बना. मैं तीन वर्ष प्रवक्ता था और मजे की बात तो यह है कि २००६ के बाद यह पद ही समाप्त कर दिया गया. संघ कीीत ही न्यारी है.

राष्ट्रगौरव के लिए

मैं जोर देकर बताते रहता हूँ कि, संघ संपूर्ण समाजजीवन का संगठन है. समाज के अंतर्गत एक संगठित गुट या टोली या एखाद संस्था स्थापन कर अपनी अलग विशेषता संजोते रहना संघ को अभिप्रेत नहीं. वह संपूर्ण समाजजीवन को अपनी परिधि में लेता है. द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के दो वचनों का मैं अनेक बार संदर्भ देता हूँ. १९५४ में गुरुजी ने कहा था कि, ‘‘विभिन्न क्षेत्रों में गये हमारें स्वयंसेवक संघ के राजदूत है.’’ उस समय तो केवल दो ही क्षेत्र में संघ के कार्यकर्ता गये थे. () राजनीति में मतलब भारतीय जनसंघ में और () विद्यार्थी क्षेत्र में - विद्यार्थी परिषद के रूप में. करीब करीब १८ वर्ष बाद ठाणे में कार्यकर्ताओं की चिंतन बैठक में श्री गुरुजी ने कहा था, ‘‘विभिन्न क्षेत्र में गये हमारें कार्यकर्ता हमारें सेनापति है.’’ राजदूत किसी भी देश में गया तो भी अपने देश के ही हित का विचार करता और सेनापति अपने देश के लिए ही विजय प्राप्त करता है. संघ के ये राजदूतऔर सेनापतिइन्हें क्रमश: किस का हित देखना है और किसके लिए पराक्रम करना है? अर्थात्, समाज का हित, राष्ट्र का हित देखना है और समाज के लिए विजिगीषू पराक्रम करना है. संघ के किसी भी व्यक्ति को स्वयं के ब़डप्प की हाव नही; होती ही नहीं; और उसे स्वयं के लिए कोई पद भी नहीं चाहिए. कोई प्रसिद्धि भी नहीं चाहिए. उसे अभिप्रेत होती है अपने देश की प्रतिष्ठा, अपने देश का वैभव और अपने देश का गौरव.

संघ मतलब?

देश की कहे या राष्ट्र की प्रतिष्ठा, वैभव और गौरव किस पर अवलंबित होते है? उस देश के नागरिकों वर्तन पर ही! क्षणभर, हम देश और राष्ट्र का विचार अलग रख दे. संघ की प्रतिष्ठा और संघ का गौरव इस पर ही हमारा लक्ष्य केन्द्रित करें. किन पर अवलंबित है संघ की प्रतिष्ठा और गौरव? अर्थात् ही संघ के स्वयंसेवकों पर. कारण संघ मतलब आखिर क्या है? संघ मतलब स्वयंसेवक ही है या नहीं? संघ मतलब केवल भगवा झंडा नहीं; संघ स्थान भी नहीं; केवल कार्यक्रम भी नहीं; इतना ही नहीं तो केवल संघ के पदाधिकारी भी नहीं. संघ मतलब स्वयंसेवक. स्वयंसेवकों को निकाल दे तो क्या संघ बचा रहेगा? इसलिए स्वयंसेवकों पर बड़ी जिम्मेदारी है.

गौरव के लिए

सादे-सादे व्यवहार में स्वयंसेवकत्व प्रकट होना चाहिए. चौक में लाल बत्ती लगी है, फिर स्वयंसेवक का वाहन रुकना ही चाहिए. टिकट निकालना है, उसने कतार में खड़ा होना ही चाहिए. घर में शादी है तो दहेज आदि से अलिप्त रहना ही चाहिए. कारखाना हो या कार्यालय, काम पूरी ताकद और विशुद्ध प्रामाणिकता के साथ उसने करना चाहिए. शिक्षक है, तो उसने सही तरीके से पूरी तैयारी कर सीखाना चाहिए. मेरा विद्यार्थी, मैं जो विषय पढ़ाता हूँ उसमें कभी अनुत्तीर्ण नहीं होगा, ऐसी उसकी वृत्ति होनी चाहिए. इसके लिए अधिक मेहनत आवश्यक होगी, तो वह भी उसने करनी चाहिए. वह दुकानदार होंगा, तो उसके दुकान में का सामान मिलावट रहित, सही वजन और योग्य किमत का ही होना चाहिए. कारखानेवाला होगा, तो उसके कारखाने में बनने वाला माल श्रेष्ठ दर्जे का ही होना चाहिए. इन सामान्य बातों से वह स्वयं की ही केवल प्रतिष्ठा और गौरव नहीं बढ़ाता, तो संघ की मतलब देश की भी प्रतिष्ठा और गौरव बढ़ाता है.

कुछ उदाहरण

स्वयं ने अनुभव किया एक उदाहरण देता हूँ. करीब साठ-पासठ वर्ष पूर्व का. मैं उस समय नागपुर के हिस्लॉप कॉलेज में प्राध्यापक था. मुझसे ज्येष्ठ एक प्राध्यापक ने, इंग्लैंड में मुख्यालय रहने वाली फ्लेक्स कंपनी का जूता खरीदा था. एक माह में ही उसके तलवे का चमड़ा उखड़ गया. वह उसने मुझे दिखाया. मैंने कहा कंपनी को पत्र लिखेंगे. मैंने एक पोस्ट कार्ड पर शिकायत लिखी और कंपनी को भेज दी. कंपनी का पत्र आया कि, वह जूता हमारे पास भेज दे. मैंने उनसे कहा, ‘‘जूता भेज दो.’’ लेकिन वे तैयार नहीं हो रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘यह जूता मैं दुरुस्त कर के पहनूँगा.’’ लेकिन, मेरे आग्रह के कारण उन्होंने वह जूता कंपनी को भेज दिया. आठ दिनों में, कंपनी की ओर से नया जूता, क्षमा याचना का पत्र और जूता भेजने के खर्च की राशि आई. किसकी प्रतिष्ठा बढ़ी? केवल फ्लेक्स कंपनी की नहीं, इंग्लैंड की भी. हम संघ में अनुशासन का पालन करते है. समय का भी पालन करते है. लेकिन अन्य घरेलू या सार्वजनिक कार्यक्रम में समय का ध्यान रखते है? घोषित समय पर कार्यक्रम शुरू होता है? ऊपर, यवतमाल के कार्यक्रम का उल्लेख है. दोपहर बजे कार्यक्रम शुरू होना था. मई माह में की दोपहर! हम ठीक चार बजे सभागृह के प्रवेश-द्वार पर पहुँचे. सुहागनों ने हमारा स्वागत किया और चार बजकर पॉंच मिनट पर हम मंच पर स्थानापन्न हुए. यह संघ की रीत है. राजनीति में गये संघ स्वयंसेवक क्या ऐसा व्यवहार करते है? उन्हें यह क्यों संभव नहीं होता? देर से जाने में प्रतिष्ठा है इसलिए? या हम संघ के स्वयंसेवक है, यह याद नहीं रहता इसलिए? स्व. रामभाऊ म्हाळगी भी राजनीति में थे. वे कभी कार्यक्रम में देर से पहुँचे - ऐसी घटना याद है? प्रधानमंत्री मुरार जी की बात बताता हूँ. १९७७ में प्रधानमंत्री बनें. अखिल भारतीय संपादक परिषद के कार्यकारिणी की बैठक दिल्ली में थी. मुरार जी भाई को उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया गया था. निमंत्रण पत्रिका में सुबह १० का समय छापा गया था. मैं उस कार्यकारिणी का सदस्य था. परिषद के एक पदाधिकारी उनके पास गए और उनसे कहा, ‘‘आप सव्वा दस तक आईये.’’ मुरार जी भाई ने कहा, ‘‘मैं नहीं आऊँगा. १० बजे कार्यक्रम है, तो मैं १० बजे ही पहुँचूंगा.’’  संपादक परिषद के पदाधिकारी कह रहे थे, ‘‘हम ही आपको बता रहे है कि आप सव्वा दस बजे आईये.’’ इस पर मुरार जी भाई ने कहा, ‘‘कितने लोगों को आप यह बताएगें? अधिकांश लोग तो यही समझेंगे कि, मुरार जी पंधरा मिनिट देर से आये.’’ वे ठीक दस बजे आये. मुरार जी भी राजनीति में ही थे!

शस्त्र की धार

यह सच है कि, मैंने इस अंक में सामान्य बातें बताई. बड़ी बात भ्रष्टाचार की है. भाजपा में पर्याप्त स्वयंसेवक है. फिर क्यों उनके भ्रष्टाचार की ही चर्चा होती है? कई स्वयंसेवक पूछँते है कि, ‘‘क्या येदीयुरप्पा संघ के स्वयंसेवक है? क्या बंगारू  लक्ष्मण संघ के स्वयंसेवक है?’’ मेरे पास कोई जबाब नहीं होता. राजनीति में के लोगों के बारे में भ्रष्टाचार के ऐसे अनेक किस्से सुनने में आते है और फिर बार बार प्रश् उठते है कि, संघ के संस्कारों का क्या? मैं उनका समाधान करता हूँ कि, संस्कार की धार शस्त्र के धार के समान होती है. एक बार ही तेज करने से काम नहीं बनता. कुछ समय बाद वह उतर जाती है. क्या उस्तरे को बार बार तेज नहीं करना पड़ता? संस्कारों का भी वैसा ही है. पुन: उसकी धार तेज नही की गई तो वह कम होगी ही. जहॉं अपने आप धार तेज की जाती है, ऐसे संस्कार स्थान से, मतलब संघ स्थान से कहे या संघ के वातावरण से वे दूर रहे है. इसलिए यह अध:पतन है.

राजदूत?

कर्नाटक, उत्तराखंड, हाल ही में राज्यस्थान इन राज्यों में के भाजपा के तथाकथित श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं का वर्तन देखे, तो प्रश् निर्माण होता है कि, किस अर्थ से उन्हें हम स्वयंसेवक कहे? पद के लिए, टिकट के लिए, पॉंव खींचें जाय? ‘के बदले मंत्री बना या विधायक बना, या उसे टिकट मिला तो देश का क्या अहित होने वाला है? लेकिन ऐसे प्रश् मन में निर्माण ही नहीं होते है. क्या ये संघ के राजदूत या सेनापति है? मैंने केवल राजनीति के क्षेत्र का ही उदाहरण लिया है. सहकार क्षेत्र में भी हमारे कार्यकर्ता है. उन्होंने ने भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई हमारे ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप तो नहीं करेगा. जो सहकार क्षेत्र का वही शिक्षा और अन्य क्षेत्रों का भी. २८ मार्च के लेख में मैंने सरकार्यवाह के चुनाव का प्रसंग जानबुझकर वर्णन किया है. क्यों ऐसे चुनाव नहीं होते, राजनीतिक पार्टियों में याहकार के क्षेत्र में? कहीं कहीं तो स्वयं को स्वयंसेवक कहनेवालों के ही दो-दो पॅनेल खड़े रहते है? किसलिए?

अधिष्ठान

मुझे इस संदर्भ में दो उपाय सुझते है. एक मतलब मूलभूत, आधारभूत ऐसा जो तत्त्व या तत्त्वज्ञान है, उसका बार-बार स्मरण करा दिया जाना चाहिए. भगवद्गीता ने इसे ही अधिष्ठानकहा है. किसी भी कार्य की सिद्धी के लिए यह अधिष्ठाननितांत आवश्यक है. फिर आता है दूसरा घटक. गीता ने उसे कर्ताकहा है. कर्ता मतलब कार्यकर्ता. उसके बाद आते है साधन (करण) और कार्यक्रम (विविधाश्च चेष्टा:). हमारा अधिष्ठान है हिंदुत्व’. मतलब सांस्कृतिक राष्ट्रभाव. उसका यहॉं विस्तार करने का कारण नहीं. लेकिन हर किसी को हर क्षण प्रतीत होना चाहिए, कभी भी विस्मरण नहीं होना चाहिए कि, ‘हिंदुत्वमें कोई संकुचितता नहीं, सांप्रदायिकता नहीं. सर्वसमावेशकता है. इसलिए यह ध्यान में लेना चाहिए और हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि, ‘हिंदुत्वकी राह अपनाई तो भाषीक, जातीय, प्रांतीय संकुचित अस्मिता पीछे छूट जाएगी. फिर जनगणना में जाति का अंतर्भाव करने का विचार स्वीकृत नहीं होगा. संस्कृति या सांस्कृतिक व्यवस्था कहने पर एक विशिष्ट मूल्य-व्यवस्था (Value-system) होती है. उसकी मुहर कार्यकर्ताओं की मन-बुद्धि पर स्थायी रूप में अंकित होनी चाहिए. उस मुहर से अंकित हुआ कर्ता मतलब कार्यकर्ता. फिर वे मूल्यनिष्ठ साधन इकट्ठा करेंगे. उन मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए कार्यक्रम की रचना भी करेंगे. मूल्यनिष्ठ जीना होगा तो उसके लिए जो किमत देनी होती है, वे वह देंगे. आवश्यक किमत देने की तैयारी और हिंमत होगी तो ही कोई मूल्य प्रस्तापित होता है. ऐसी मूल्यनिष्ठा से ओत-प्रोत कार्यकर्ता ही अपनी संस्था का गौरव बढ़ाते है.

स्वच्छ प्रवाह

हर क्षेत्र में गैरव्यवहार की गंदगी हो सकती है. कहीं अधिक, कहीं कम. राजनीति के क्षेत्र में वह अधिक होगी. उसे साफ करना होगा, तो उस क्षेत्र में उतरना ही होगा. लेकिन साफ पानी का प्रवाह लेकर ही. अन्यथा उस गंदगी से हमारे मुँह भी काले हुए बिना नहीं रहेंगे. इस साफ पानी के प्रवाह के दो घटक होते है. एक होता है मूलभूत अधिष्ठान और दूसरा कार्यकर्ता का निष्कलंक चारित्र्य. संघ के स्वयंसेवक के व्यवहार में, फिर वे किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हो, यह चारित्र्य प्रकटना चाहिए. इससे उनका ही नहीं, तो उस कार्यक्षेत्र का, अर्थात् संघ का और अर्थात् ही अपने प्राणप्रिय देश का और राष्ट्र का भी गौरव बढ़ेगा. स्वयं को संघ के स्वयंसेवक कहने वाले को यह जिम्मेदारी निभाते आनी चाहिए. क्या इस दृष्टि से विचार करने के लिए वे प्रवृत्त होगे?

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

No comments:

Post a Comment