हमारे देश के राष्ट्रपति के पद के लिए, आगामी जुलाई माह में होने वाले चुनाव की हवाएँ
तेजी से चलने लगी है. कुछ बातें स्पष्ट है. पहली यह कि, विद्यमान राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल
को दुबारा अवसर नहीं मिलेगा. ऐसा अवसर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का एक अपवाद छोड़ दे, तो अन्य किसी राष्ट्रपति को नहीं मिला.
दूसरी यह कि, किसी एक पार्टी के पास, या किसी एक गठबंधन के पास भी, अपने पसंद का उम्मीदवार निश्चित रूप से चुनकर लाने इतनी मत संख्या नही. सबसे बड़ी पार्टी सत्तारूढ कॉंग्रेस के पास भी बहुमत नहीं. कॉंग्रेस समर्थित संयुक्त प्रगतिशील मोर्चे (संप्रमो) के पास बहुमत है; और उसी के बल पर यह मोर्चा सत्ता में है, लेकिन इस मोर्चे में भी गड़बड़ी हुई है. उसकी एकजूट कायम नहीं है. सबसे बड़ी विरोधी पार्टी भाजपा के पास बहुमत होना संभव ही नहीं. लेकिन भाजपा समर्थित गठबंधन के पास, मतलब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पास भी बहुमत नहीं है. वाम पार्टियों सहित, अन्य सब पार्टिंयॉं एक हुई, तो भी उनका भी बहुमत नहीं होता.
तीसरी बात यह कि, इस स्थिति के कारण, किसी भी एक के पसंद की व्यक्ति उसकी योग्यता का विचार न कर, राष्ट्रपति पद पर आना संभव नहीं. एक जमाने में, अकेले कॉंग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत होने के कारण फक्रुद्दीन अली अहमद या ग्यानी झैलसिंग जैसे बड़े कहे या बौने व्यक्ति भी राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए थे. वैसा इस बार नहीं होगा. इसे एक भाग्य योग ही माने.
अंदाज
अनेक विचारों की अफवाएँ चल रही है. अनेक नाम लिए जा रहे है. जितनी जल्दी में वे सामने आ रहे है, उतने ही जल्दी पीछे भी लिए जा रहे है. हमारे चाणाक्ष नेता शरद पवार ने लोकसभा के भूतपूर्व सभापति संगमा का नाम आगे किया; और पलटी मारने के अपने अभिजात स्वभावानुसार वापस भी लिया. किसी ने कहा कि, राजनीतिक व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर नहीं चाहिए. फिर अण्वस्त्र संशोधक अब्दुल कलाम का नाम आगे आया और शीध्र ही पीछे भी पड़ा. फिर अझीम प्रेमजी इस अमीर व्यक्ति का नाम सामने आया. तो इसके विपरित समाजवादी पार्टी के अध्वर्यू मुलायम सिंह ने कहा कि, राजनीतिक व्यक्ति ही राष्ट्रपति बनना चाहिए. कॉंग्रेस पार्टी की ओर से - अर्थात् अनधिकृत रूप में, मतलब हवा की दिशा परखने के लिए - विद्यमान उपराष्ट्रपति हमीद अन्सारी और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का नाम चलाया गया. लेकिन, वे भी अधिक समय तक नहीं चलें. तुरंत कॉंग्रेस के प्रवक्ता ने घोषित किया कि, मुखर्जी की आवश्यकता सरकार और पार्टी में अधिक है. मानो २०१४ में कॉंग्रेस ही सत्ता में आ रही है. ये नाम चर्चा में आते ही, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि, कॉंग्रेस पुरस्कृत ये दोनों नाम हमें पसंद नहीं; कारण वे आवश्यक ऊँचाई (स्टेचर) के नहीं है. उसी समय, भाजपा का ही मित्र दल जनता दल (यू) ने उसका प्रतिवाद किया. ऐसा चल रहा है. ‘धागा न कपास, जुलाहों में लठ्ठम् लठ.’ जैसी स्थिति है.
चुनाव की पद्धति
हम, मतलब नागरिक और विशेष रूप में जिन्हें राष्ट्रपति पद के चुनाव में मताधिकार है उन्होंने कुछ मूलभूत बातें समझ लेनी चाहिए. सामान्य नागरिक यह समझ ले कि, इस चुनाव के लिए राज्य विधानसभाओं में जो सदस्य चुनकर जाते है उन्हें ही मताधिकार होता है. विधान परिषद के सदस्यों को मताधिकार नहीं होता. विधानसभा के सदस्यों के समान ही संसद के दानों सदनों मतलब लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्यों को ही मताधिकार होता है. लेकिन राष्ट्रपति ने नियुक्त किये सदस्यो को मताधिकार नाही होता.
मतलब सचिन तेंडुलकर को मताधिकार नहीं.
और एक बात समझ लेनी चाहिए कि, सब राज्यों में के विधानसभा के सदस्यों के मतों का मूल्य समान नहीं होता. इस चुनाव के लिए ‘एक व्यक्ति, एक मत’ यह नियम नहीं. गोवा विधानसभा में के विधायक के मत की तुलना में महाराष्ट्र विधानसभा के विधायक के मत का मूल्य अधिक है. यह मूल्य निश्चित करने का एक गणित है. वह हमारी संविधान की धारा ५५ में दिया है. वह गणित पेचिदा है. अत: वह पूरा समझ लेने का प्रयास करने का कारण नहीं. मोटे तौर पर यह समझ ले कि, राज्य की जनसंख्या को प्रथम राज्य विधानसभा के कुल सदस्य संख्या से भाग दे; उस भागाकार को पुन: एक हजार से भाग दे; उसके बाद जो संख्या आएगी, वह उस विधायक के मत का मूल्य होगा. या ऐसा मान ले कि, उतने मत एक विधायक के पास होंगे. गोवा की जनसंख्या २००१ की जनगणना के अनुसार १३॥ लाख है. हिसाब के लिए हम १५ लाख मान ले. विधानसभा के सदस्यों की संख्या ६० है. १५ लाख × ६० = २५००० और २५०००/१००० = २५. मतलब गोवा के विधानसभा के विधायक के मत का मूल्य २५ होता है. महाराष्ट्र की जनसंख्या करीब १० करोड़ है और विधानसभा के सदस्यों की संख्या २८८. इस कारण महाराष्ट्र विधानसभा के विधायक के मत का मूल्य ३४० से अधिक होता है. सर्वाधिक मूल्य उत्तर प्रदेश के विधायक के मत का होगा. सांसदों के मतों का मूल्य समान होता है. लेकिन वह मूल्य निकालने की रीत भी पेचिदा ही है. उसे हम छोड़ दे.
मतों का पसंद का क्रम
यह चुनाव एकल संक्रमण चुनाव पद्धति से होता है. Single Transferrable
Preferential Voting System ऐसा उसका पूर्ण शास्त्रीय नाम है. इस चुनाव पद्धति के कारण कोई भी मत व्यर्थ नहीं जाता. कितने भी उम्मीदवार खड़े हो फिर भी चुनकर आने वाले को विशिष्ट अंश (कोटा) प्राप्त करना ही होता है. कोटा निश्चित करने की भी एक पद्धति है. मोटे तौर पर कहे तो कुल हुए मतदान की संख्या को, चुनकर देने के सिटों में एक जोड़कर, उससे भाग देना और उत्तर में आई उस भागाकार की संख्या में एक जोड़ना. जो संख्या आएगी वह कोटा होगी. राष्ट्रपति पद एक ही होने के कारण एक और एक मतलब दो से, मतदान हुए संख्या को भाग देकर उसमें एक जोड़े, तो संख्या अपने आप पचास प्रतिशत से अधिक होगी. लेकिन जहॉं एक से अधिक सिटें होती है, तब कोटा अलग ही निश्चित होता है. हाल ही में झारखंड में राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव हुआ. कुल मतदाता थे ६८ और सिटें थी दो. मतलब ६८ को, दो अधिक एक मतलब तीन से भाग दे. उस भागाकार में एक जोड़े तो कोटा आता है -जो वहॉं आया २३ था. २३ मत केवल दो को ही मिल सकते थे. तिसरे को नहीं. सौभाग्य से चुनकर आए हुए दोनों को २३ से अधिक मत मिले और ज्यादा माथापच्ची न होते हुए निर्वाचन प्रक्रिया सम्पन्न हुई. लेकिन एक को ३० मत मिलते और अन्य दोनों को समान मतलब १९-१९ मत मिलते या असमान २० और १८ मत मिलते, तो पहले उम्मीदवार को कोटे से अधिक जो मत मिलते उन मतों का विभाजन पसंद क्रमानुसार करना पड़ता. और शायद १८ मत प्राप्त करने वाला २० मत प्राप्त करने वाले को मात भी देता. इसलिए इस पद्धति के चुनाव में पसंद क्रम को बहुत महत्त्व होता है.
कई लोगों को ऐसा लगता है कि, एक सिट हो तो एक ही पसंद क्रम होता है. लेकिन यह गलत है. जितने उम्मीदवार खड़े होते है, उतने पसंद क्रम मतदाता को उपलब्ध होते है और उसने उन पसंद क्रमों का उपयोग करना चाहिए. दो चुनावों के उदाहरण मुझे याद है. १९६९ में हुए भारत के राष्ट्रपति के चुनाव में तीन उम्मीदवार खड़े थे. (१) श्री संजीव रेड्डी (२) श्री वराह गिरी व्यंकट गिरी और (३) श्री चिंतामणराव देशमुख. श्री रेड्डी को सर्वाधिक मत मिले थे. लेकिन वह ‘कोटा’ पूरा करने में कम थे. फिर सब से कम मत प्राप्त करने वाले श्री सी. डी. देशमुख चुनाव से बाहर हुए और उन्हें मिले हुए मतों में दूसरी पसंद के मत किसे मिले, उसकी गिनती की गई. उसमें गिरी जिते. श्री गिरी को स्वयं को मिले पहले पसंद के मत, और उसमें श्री देशमुख की ओर से मिले दूसरी पसंद के मतों को जोड़ने के बाद, उसका जोड़ संजीव रेड्डी को मिले पहली और दूसरी पसंद के मतों से अधिक होने के कारण श्री गिरी राष्ट्रपति चुने गए. फ्रान्स में भी ऐसा ही हुआ था. वर्ष शायद १९८१ होगा. डि-इस्टांग को सर्वाधिक मत मिले थे. मितरॉं दूसरे क्रमांक पर थे. तिसरा भी एक उम्मीदवार था. किसी ने भी कोटा पूर्ण न करने के कारण तीसरा उम्मीदवार चुनाव से बाहर हो गया और उसके दूसरी पसंद के मतों में अधिकांश मत मितरॉं को मिले और वे राष्ट्रपति बने. पहले दौर में सर्वाधिक मत प्राप्त करने के बाद भी डि-इस्टांग पराभूत हुए.
अनुचित नहीं
यह सब पेचिदा जानकारी बताने का कारण यह कि, कॉंग्रेस पार्टी की ओर से दो उम्मीदवार खड़े रहे तो भी कुछ बिगड़ता नहीं. जिसे कम मत मिलेंगे, उसके दूसरी पसंद के मत पहले आने वाले के हिस्से में जाएगे. मान लो, संप्रमो में एकमत नहीं होता, तो भी कुछ नहीं बिगड़ेगा. ममता बॅनर्जी ने अलग उम्मीदवार खड़ा किया, तो भी उसकी मतपत्रिका में, दूसरा पसंद क्रमांक कॉंग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार को मिला, तो वह सब मत कॉंग्रेस के उम्मीदवार को मिले मतों में ही जुड़ेंगे. ऐसा ध्यान में आया है कि, भाजपा और जद (यू) में उम्मीदवार के बारे में एकमत नहीं. फिर भी चिंता करने का कारण नहीं. भाजपा के उम्मीदवार को मिले पहले पसंद के मतों की संख्या जद (यू) को मिले मतों से अधिक होगी और जद (यू) के उम्मीदवार को मतदान करनेवालों ने अपनी पसंद का दूसरा क्रमांक भाजपा के उम्मीदवार को दिया होगा, तो वह सब मत भाजपा के उम्मीदवार के मतों से जोड़े जाएगे. इस चुनाव पद्धति में कोई भी मत व्यर्थ नहीं जाता. लेकिन, केवल एक ही पसंद का क्रम देकर कोई भी मतदाता मत खराब न करे. दो ही उम्मीदवार होगे और दोनों के बीच ही सीधी टक्कर होंगी, तो दूसरा पसंद क्रम देने का प्रयोजन नहीं. लेकिन दो से अधिक उम्मीदवार होगे, तो मताधिकार प्राप्त विधायक और सांसद, जितने उम्मीदवार होगे उतने पसंद के क्रम अवश्य दे. उम्मीदवार के नाम के सामने के चौकोन में आँकड़ा ही तो लिखना होता है.
संभाव्यता
आगामी जुलाई माह में होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव में कम से कम तीन उम्मीदवार खड़े होगे ऐसी संभावना मुझे दिखाई देती है. एक उम्मीदवार संप्रमो का होगा, तो दूसरा राजग का और तीसरा तीसरे मोर्चे का. पहले दौर की मत गणना में किसी के भी कोटा पूरा करने की संभावना नहीं है. मतलब सब से कम मत प्राप्त करनेवाला उम्मीदवार चुनाव से बाहर होगा; और उसकी मतपत्रिका में जिस उम्मीदवार को दूसरा पसंद क्रमांक मिला होगा, उसके खाते में वह मत जाएगे. एक उदाहरण ले. तीनों भी एक पार्टी नहीं. तीनों गठबंधन है. कल्पना करें, तीसरें मार्चे में, बिजू जनता दल, तेलगू देसम्, अद्रमुक आदि पार्टियॉं है. उनकी दूसरी पसंद स्वाभाविक ही भाजपा का उम्मीदवार होगी. उनके मत भाजपा के उम्मीदवार को मिले मतों में जोड़े जाएगे. मान ले, भाजपा अथवा राजग के उम्मीदवार की अपेक्षा तिसरे मोर्चे के उम्मीदवार ने अधिक मत प्राप्त किए, तो भाजपा के दूसरी पसंद के मत उसके खाते में जाएगे. इस तीसरे मोर्चे में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, इसी प्रकार वाम दल होंगे, तो उनके दूसरी पसंद के मत कॉंग्रेस की ओर जाएगे. यह सब उदाहरण के लिए है. उम्मीदवार कौन, उसकी गुणवत्ता क्या, यह सब देखा जाएगा. और ये ही देखा जाना चाहिए. मतदान गुप्त पद्धति से होता है, इस कारण, व्यक्तिगत पसंद को भी काफी अवसर है. निष्ठावान विधायक ने भी, अपनी पहली पसंद अपने पार्टी के उम्मीदवार को देने के बाद, दूसरी पसंद, अपने मनचाहे उम्मीदवार को दी, तो भी अनुशासन भंग नहीं होगा. होना भी नहीं चाहिए. अन्यथा, यह जो मतदान पद्धति है उसका औचित्य ही समाप्त होगा. अब्दुल कलाम, अझीम प्रेमजी, अन्सारी, अडवाणी, प्रकाश सिंग बादल, प्रणव मुखर्जी, अनिल काकोडकर आदि को भी खड़े होने दे. जितने उम्मीदवार उतने पसंद के क्रम मतदाता को उपलब्ध है. लेकिन उसने अपने इस अधिकार का उपयोग करना चाहिए. पार्टी-निष्ठा और पार्टी-अनुशासन के नाम पर, केवल पहला क्रमांक देकर अपना मत न खराब करे. सामान्य जीवन में भी चुनाव करते समय हम पसंद क्रम का उपयोग करते है या नहीं! आखिर पसंद क्रम है क्या? यह नहीं आया, तो वह आए, यह हमारी इच्छा होती है या नहीं? ऐसा भी समाचार है कि, सहमती से उम्मीदवार निश्चित करने के प्रयास चल रहे है. वैसा हुआ तो अच्छा ही है. लेकिन चुनाव की नौबत आई तो डरने का कारण नहीं, यह मुझे यहॉं अधोरेखित करना है. लेकिन राष्ट्रपति आदिवासी हो या मुसलमान हो इस प्रकार के वक्तव्य उस उच्च पद का अपमान करनेवाले है. वे टाले गए तो अच्छा होगा.
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
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