रविवार १३ मई को, संसद के दोनों सभागृहों की दिन भर संयुक्त बैठक हुई. प्रसंग था पहली संसद की पहली बैठक को साठ वर्ष पूर्ण होने का. मतलब संसद की पहली बैठक १३ मई १९५२ को हुई. हमारा संविधान २६ जनवरी १९५० को कार्यांवित हुआ और उसके मार्गदर्शन में १९५२ को आम चुनाव हुए. इस चुनाव के बाद केन्द्र में नई संसद और राज्यों में नई विधानसभा निर्माण हुई. उस घटना को १३ मई को ६० वर्ष पूर्ण हुए. मतलब संसद की बैठक का हीरक महोत्सव,
संसद सदस्यों ने मनाया.
सार्वभौम कौन?
ऐसे किसी भी औपचारिक उत्सव के समय जैसे मीठा बोला जाता है,
अपनी ही आरती उतारी जाती है और दिल में कुछ भी हो, लेकिन ओठों से भद्रवाणी ही स्रवित होती है, वैसा ही उस दिन हुआ. एक स्वाभाविक मानवी प्रवृत्ति और वृत्ति मानकर ही,
कोई उस प्रसंग को देखेगा. सबने, अलग-अलग भाषा में बताया कि, संसद की प्रतिष्ठा और सार्वभौमता की रक्षा की ही जानी चाहिए. इसमें कुछ भी अनुचित नहीं. प्रतिष्ठा के बारे में तो वाद होगा ही नहीं. सार्वभौमता के बारे में वाद हो सकता है और है भी. संसद कोई कानून बनाती है,
उस कानून को न्यायालय में आव्हान देने का अधिकार जनता को है या नहीं? कोई भी यह अधिकार अमान्य नहीं करेगा. इसका अर्थ ही यह है कि,
संसद के सार्वभौमत्व को न्यायपालिका की मर्यादा है. आव्हान देने का अधिकार किसे है? अर्थात् जनता को,
फिर सार्वभौम कौन?
जनता या संसद?
क्या कहते है हमारे संविधान के प्रारंभ के शब्द?
- ‘‘हम भारत के लोग, भारत का एक सार्वभौम गणराज्य निर्माण करना गंभीरता से निश्चित कर रहे है और स्वयं अपने लिए यह संविधान दे रहे है.’’ "We The People Of India" ऐसे शब्द मोटे अक्षरों में है. इस संविधान के,
हम मतलब लोग निर्माता है और इस संविधान की निर्मिति संसद है. संविधान की पहली धारा संसद की प्रतिष्ठापना के संबंध में नहीं. ७८ वी धारा के बाद संसद के निर्मिति की प्रक्रिया बताई गई है. तब प्रश्न सामने आया कि, सार्वभौम कौन? जनता या संसद?
तो उसका उत्तर है जनता. और दूसरा प्रश्न सार्वभौम कौन?
संविधान या संसद?
तो उत्तर है संविधान. संसद की सार्वभौमत्व की भाषा बोलने वालों ने यह ध्यान में रखना ही चाहिए. कई बार ऐसा दिखाई दिया है कि,
वे यह बात ध्यान में लेते नहीं और कभी-कभी तो अपने व्यवहार से संविधान का अपमान करने में भी उन्हें शर्म नहीं आती.
एक प्रसंग
कुछ प्रसंग याद करे. पी. व्ही. नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे. उनकी सरकार के पास स्पष्ट बहुमत नहीं था. संसद की प्रतिष्ठा की रक्षा का व्रत लेनेवालों ने लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त करने के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत किया होता और वह प्रस्ताव पारित न होने पर त्यागपत्र दे कर खुद मुक्त हो जाते. लेकिन, क्या ऐसा हुआ?
नहीं. झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को घूस देकर सरकार के पक्ष में किया गया और बहुमत ऐसे झूठे,
लज्जाजनक पद्धति से प्राप्त किया गया. क्या इसमें संसद की प्रतिष्ठा बची रही? किसने की उसकी हत्या? हम ऐसा मान ले कि,
थोडा बिकाऊ माल संसद में जमा हुआ था. लेकिन सरकार में जो बैठे है उन्होने वह क्यों खरीदा? बात न्यायालय तक गयी. तकनिकी मुद्दों पर घूस देने वालों को न्यायालय ने छोड़ दिया. तो क्या समझे? संसद की इज्जत तकनिकी मुद्दों पर टिकी है या सांसदों के व्यवहार पर?
हत्यारे कौन?
दूसरा प्रसंग,
जो अभी कुछ समय पूर्व का है. उसे पूरे चार वर्ष भी नहीं हुए है. २००८ के जुलाई माह का. डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को, बाहर से समर्थन दे रही वामपंथी पार्टिंयों ने, अपना समर्थन वापिस लिया. मनमोहन सिंह की सरकार अल्पमत में आई. क्या मनमोहन सिंह ने त्यागपत्र दिया?
नहीं. उन्होंने सांसदों की खरीदी की. एक-एक को करोड़ों रुपये दिये गए,
ऐसा कहा जाता है. मतलब कुछ सांसद बिके. कुछ को थोड़ी शर्म आई,
इसलिए उन्होंने बीमार होने का ढोंग रचा. क्या मनमोहन सिंह ने संसद के प्रतिष्ठा की रक्षा की?
उन्होंने उसी समय त्यागपत्र दिया होता,
तो संसद की प्रतिष्ठा पर आसमान टूट पड़ता क्या?
मनमोहन सिंह को संसद की प्रतिष्ठा का हत्यारा कहे तो क्या वह गलत होगा? इस गंदे कारस्थान में वे अकेले ही तो शामिल नहीं होगे. पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी का आशीर्वाद रहे बिना,
संसद की अप्रतिष्ठा करने का यह पाप हो ही नही सकता. फिर कौन है,
संसद की प्रतिष्ठा के हत्यारे?
कॉंग्रेस के ये लोग और उनका साथ देने वाले अमरसिंह जैसे सांसद या अण्णा हजारे और रामदेव बाबा?
लालू जी का बलस्थान
लालू प्रसाद यादव के चरित्र का क्या बखान करे? जानवरों का चारा भी वे खा सकते है, वे ऐसे बलशाली सांसद है! १३ मई को उन्होंने कहा, ‘‘लोकपाल के नाम पर, यह देश और संसद नष्ट करने का आंदोलन चल रहा है. वे सांसदों को घेराव करने की बात करते है. वे हमें चोर और डाकू कहते है. हमारे सिर पर वे किसी को बिठाना चाह रहे है. संसद की बदनामी करने का यह गहरा कारस्थान है.’’ कितने सुंदर शब्द है ये! लेकिन क्या चोरी,
डकैती, बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वाले लोग संसद में नहीं है?
ऐसी जानकारी है कि, करीब १६० सांसद ऐसे हे,
जिनके ऊपर ऐसे गंभीर आरोप है. शहाबुद्दीन साहब फिलहाल जेल में है. अभी वे सांसद है या नहीं, यह मैं बता नहीं सकता. लेकिन २००४ से २००९ तक वे सांसद थे. लोकसभा के सदस्य थे. किसने कम की संसद की प्रतिष्ठा?
अण्णा हजारे और रामदेव बाबा ने या शहाबुद्दीन ने?
विशेष न्यायपीठ
हमारी न्याय व्यवस्था कहती हे कि,
जब तक आरोप सिद्ध नहीं होता, तब तक आरोपी को निष्कलंक माना जाना चाहिए. इसी प्रावधान का आधार लेकर चोर, बलात्कारी और हत्यारें संसद में बैठे है. ऐसा किसी ने भी नहीं कहा है कि,
संसद के सब याने करीब ७०० सदस्य हत्यारें और चोर है. लेकिन क्या संसद में ऐसे कोई भी नहीं है कि,
जिनके ऊपर ये आरोप है?
बोलो, लालू जी बोलो! तुम बोलोगे ही नहीं. तुम्हारी तो बोलती ही बंद हुई है. लालू प्रसाद हो या नरसिंह राव,
या मनमोहन सिंह,
या सोनिया जी,
ऐसा कोई विशेष न्यायपीठ क्यों स्थापन नहीं करते जो रोज कामकाज चलाकर, छ: माह के भीतर, माननीय सांसदों पर के आरोपों का और मुकद्दमों का फैसला करेगा. उनके पास आज तो पर्याप्त बहुमत है. वे यह कानून अवश्य बनाए. सामान्य न्याय प्रक्रिया में होने वाले विलंब का अनुचित लाभ उठाने में ये सांसद होशियार है. और इसलिए काफी चालाख लोग सांसद बन रहे हैं. हाल ही में ए. राजा छूटे; और संसद में हाजिर भी हुए. उनकी सदस्यता समाप्त क्यों नहीं की गई?
वे निरपराध थे तो जेल क्यों भेजे गये? कम से कम बिचारे राजा जैसों पर का अन्याय दूर करने के लिए ही सही,
विशेष न्यायपीठ स्थापन करने की आवश्यकता ध्यान में ली जानी चाहिए. लेकिन वह सांसदों के ध्यान में नहीं आएगी. गुड़ से चिपके मकोड़ों के समान उनकी वृत्ति बन गई है. वे घूस देंगे,
कुछ घूस खाएगे,
(घूसखोर है, इसीलिए तो घूस देने का प्रयोग सफल होता है) और संसद में अपना स्थान कायम रखेंगे. कौन है संसद की गरिमा पर डाका डालने वाले दुष्ट लोग?
अण्णा हजारे और रामदेव बाबा या सांसद?
सभागृह में का वर्तन
अब इन मान्यवरों के संसद भवन में के व्यवहार का विचार करे. हमने संसदीय जनतंत्र स्वीकार किया है. संसद में जनता के प्रतिनिधि जाते है. उनका काम कानून बनाना है. जनता के प्रश्न, चर्चा के माध्यम से हल करना है. सरकार की ओर से जनता के लाभ की जानकारी प्राप्त हो, इसके लिए प्रश्न-उत्तर का समय होता है. संसद के अधिवेशन में कुल कितने दिन यह प्रश्न-उत्तर का सत्र चला. १३ मई को अनेकों के, दिन भर, मधुर भाषण हुए. किसी ने यह मुद्दा उठाया? नहीं. संसद की प्रतिष्ठा का हौवा खड़ा करने वालों को इतना तो निश्चित ही समझता होगा कि, विधि मंड़ल में विरोध के हथियार अलग होते है और बाहर आंदोलन करने वाले विरोधी राजनीतिक आदमी के हाथ में के शस्त्र अलग होते है. फिर, ये लोग चर्चा क्यों नहीं होने देते?
क्यों हो हल्ला करते है?
क्यों सभापति-अध्यक्ष के सामने की खाली जगह में (वेल में) दौडकर जाते है?
क्यों वहॉं धरना देते है?
विद्यमान ७०० सांसदों में से कितनों ने, ऐसा व्यवहार कर संसद का अपमान किया. किसी ने जानकारी के अधिकार में यह पता किया, तो कौनसा चित्र,
यह माननीय सांसद उपस्थित करेंगे?
जो अपना स्थान छोड़कर खुली जगह में जाएगा, उसकी सदस्यता अपने आप समाप्त होगी, क्या ऐसा नियम संसद के प्रतिष्ठा की लंबी-चौड़ी बातें करने वाले बनाएगे?
वे ऐसा नियम अवश्य बनाए. सांसदों में अनुशासन आएगा. उन्हें उनके मर्यादाओं का अहसास करा देना चाहिए या नहीं?
या वे सर्वज्ञ और सत्त्व गुणों के पुतले है,
ऐसा मानकर स्वस्थ बैठे रहें?
येचुरी का मुद्दा
इस निमित्त,
राज्य सभा के मार्क्सवादी सदस्य सीताराम येचुरी का जो भाषण हुआ,
वह लक्षणीय है. उन्होंने कहा,
वर्ष में कम से कम सौ दिन संसद का अधिवेशन होना चाहिए. येचुरी के इस विधान का अर्थ क्या है? यही है न कि, वर्ष के एक तिहाई दिन भी संसद चलती नहीं. क्यों? येचुरी ही बताते है कि,
इंग्लंड में उनकी पार्लमेंट वर्ष में कम से कम १६० दिन तो चलती ही है. हमारे सांसदों के लिए क्यों यह संभव नहीं होता? मेरा तो सुझाव है कि कम से कम १८० दिन संसद चलनी ही चाहिए. वह पूर्ण समय चलनी चाहिए. हंगामें के कारण, सभापति पर स्थगिति लादने की नौबत नहीं आनी चाहिए. एक सादा नियम बना ले कि,
संसद की बैठक का जो कालावधि होगा,
वह किसी भी कारण पूर्ण नहीं किया गया, तो उस दिन की बैठक का भत्ता सांसदों को नहीं मिलेगा. फिर देखों संसद कैसे ठीक तरह से चलती है. यह नियम सुझाने की नौबत,
हम जैसे सामान्यों पर आए, यह इस संसद का कितना घोर अपमान है! लेकिन वह उन्होंने अपनी ही करनी से करा लिया है. हंगामा, शोर,
घोषणाबाजी, धरना, एक-दूसरे पर दौड़कर जाना,
यह शस्त्र सार्वजनिक जीवन में उपयुक्त होगे भी. लेकिन वह संसद के सभागृहों के बाहर. रस्ते पर,
मैदान में. संसद की गरिमा रखनी होगी तो संसद सही तरीके से चलनी ही चाहिए. सभागृह में विहित काम होना ही चाहिए. तर्क-शुद्ध चर्चा होनी ही चाहिए, और जिन्हें जन प्रतिनिधि के रूप में सभागृह में बैठने का अधिकार प्राप्त हुआ है,
उन्होंने उस काम के लिए वर्ष में के आधे दिन उपलब्ध रखने ही चाहिए. जिन्हे किसी भी कारण से यह संभव नहीं होता होगा,
वे सांसद ही क्यों बने?
मोटा वेतन प्राप्त करने के लिए या स्थानीय विकास फंड में की राशि के कमिशन के लिए?
२००४ से २००९ इन पॉंच वर्ष के हमारे संसदीय प्रवास में,
संसद की प्रतिष्ठा का दंभ भरने वाले सांसदों ने,
संसद चलाने का प्रमाण प्रतिवर्ष केवल ६६ दिन रखा था. मतलब वर्ष में के २९९ दिन ये सांसद क्या करते थे?
श्री येचुरी ने कहा कि,
इन ६६ में से २४ प्रतिशत दिन,
मतलब मोटे तौर पर १६ दिन, कार्य स्थगन सूचना और हंगामें के कारण व्यर्थ गए. मतलब संसद केवल ५० दिन सही तरीके से चली. जिन्होंने हंगामा किया क्या उन्हें इसके लिए खेद है?
कल्पना करें उन्हें वेतन का केवल पॉंचवा हिस्सा ही दिया गया,
तो उन्हें ठीक लगेगा?
अध्यक्षीय पद्धति
संसद की प्रतिष्ठा बनाए रखने की जिम्मेदारी सांसदों की है. उन्हें उसकी अप्रतिष्ठा करने में संकोच नहीं होता होगा, तो जनता क्यों संसदीय जनतंत्र सहे? रामदेव बाबा ने कहा कि,
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का चुनाव जनता करें. उनके इस मत का उपहास करने का कारण नहीं. संसदीय पद्धति यह जनतांत्रिक व्यवस्था की एक पद्धति है. अमेरिका में, फ्रान्स में, जनतंत्र ही है,
लेकिन संसदीय पद्धति नहीं. वह अध्यक्षीय पद्धति का जनतंत्र है. स्वयं श्रीमती इंदिरा गांधी को यह पद्धति पसंद थी. जन-मत का अंदाजा लेने के हेतु से,
उनकी ही प्रेरणा से, वसंतराव साठे और बॅ. अंतुले ने इस विचार का सूतोवाच किया था. श्री साठे आज हमारे बीच नहीं है. लेकिन बॅ. अंतुले है. वे इस पर प्रकाश डाल सकेंगे. व्यक्तिगत स्तर पर मुझे अपने राष्ट्र का एकसंधत्व जन-मानस पर अंकित करने की दृष्टि से अध्यक्षीय जनतंत्र ही पसंद है. राज्यों में आज के समान व्यवस्था रहने में कोई आपत्ति नहीं. लेकिन केन्द्र में संपूर्ण देश का विचार करने वाली व्यवस्था रहनी चाहिए. इस व्यवस्था का ब्यौरा (तपसील) भिन्न हो सकता है. जैसी पद्धति अमेरिका में है,
वैसी फ्रान्स में नहीं. उसी प्रकार अध्यक्षीय पद्धति में प्रधानमंत्री का जनता की ओर से चुनाव करने का भी प्रयोजन नहीं रहेगा. लेकिन वह स्वतंत्र विषय है.
सांसदों की जिम्मेदारी
मुख्य विषय है संसद की प्रतिष्ठा बनाए रखने का. यह जिम्मेदारी सांसदों की ही है. वे उसे सही तरीके से नहीं निभा रहे है,
इसलिए अलग-अलग विचार प्रकट हो रहे है. जनता ने भी यह देखना चाहिए कि,
वह अपना प्रतिनिधित्व योग्य, सभ्य,
विचारक्षम व्यक्ति को ही अर्पण करती है. शालेय क्रमिक पुस्तक में के व्यंगचित्र पर बंदी लगाने के बारे में संसद सदस्यों ने अपनी विचारशीलता का, जनतंत्र के मुख्य तत्त्व अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का,
और प्रगल्भता का परिचय दिया,
ऐसा नहीं कहा जा सकता. व्यंगचित्रों को निष्कासित कर वे स्वयं ही हास्य के पात्र बन गए है. विचारशीलता और विनोद में बैर नहीं. आंबेडकर भक्तों ने,
६३ वर्ष पूर्व जो व्यंगचित्र प्रकाशित हुआ था, उसके ऊपर अब आक्षेप लिया यह कितना बड़ा आश्चर्य है. उस समय तो डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जिंदा थे. लेकिन बाबासाहब ने उसके ऊपर आक्षेप नहीं लिया था. अब उसके ऊपर आक्षेप लेना यह अंधश्रद्धा का प्रकार है. बाबासाहब ने जीवन भर अंधश्रद्धा और व्यक्तिपूजा को भारतीयों के दुगुर्ण मानकर उसकी आलोचना की थी. आंबेडकर भक्तों की बात छोड़ दे. सांसदों को तो सब ही राजनीतिक नेता निष्कलंक चारित्र्य के अवतार लगे, यह कितना बड़ा आश्चर्य कहे! संसद की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए विनोद बुद्धि और विनोद का मर्म जानने की क्षमता को तिलांजली देने का क्या कारण है?
इस बारे में कोई एखाद अपवाद छोड़ दे तो सब का हुआ एकमत देखकर अचंबा हुआ. ऐसी एकजूट, संसद अधिवेशन की कालावधि, सभागृह में संसदीय परंपरा का पालन और सांसदों के स्वच्छ एवं निरोगी आचरण के बारे में कुछ नियम करने के बारे में दिखाई दी तो कितना अच्छा होगा?
- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
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