इस्लामी सियासी जगत् में जनतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं. कुछ अपवाद हो सकते है; लेकिन नियम इस्लामी सत्ता और जनतांत्रिक व्यवस्था की
दुश्मनी का है. अनेक राज्यों के नाम में ‘जम्हुरिया’
शब्द का अंतर्भाव है. उसका अर्थ गणराज्य होता है. मतलब वहॉं
राजशाही नहीं. गणों का मतलब लोगों का राज्य है. लेकिन प्रत्यक्ष में वह लोगों का
नहीं होता. किसी न किसी तानाशाह का होता है. अरब राष्ट्रों में मिस्त्र सबसे
प्राचीन और संख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा है. (८ करोड़ से अधिक जनसंख्या) वहॉं
होस्नी मुबारक इस तानाशाह ने तीस वर्ष से अधिक समय सत्ता भोगी. इसी प्रकार लिबिया
में गडाफी का शासन भी अनेक दशक चला. इराक, सौदी अरेबिया,
ट्युनेशिया, सीरिया आदि सब देशों में राजशाही चली; या तानाशाही.
क्रान्ति की लहरें
इस अरब जगत् में गत दो वर्षों से जनतंत्र की प्रस्थापना के लिए क्रांति हुई.
वह शांति के मार्ग से होनी संभव ही नहीं थी. ‘इस्लाम’
का ‘अर्थ’ शांति है, लेकिन इस्लाम माननेवालों का वर्तन सामान्यत: इस अर्थ के
विरुद्ध ही रहा है. हमारे देश में के इस्लामी राज का इतिहास यहीं बताता है. गझनी
के महमद ने अपने भाई का खून कर राज हथियाया. अपने चाचा का खून कर अल्लाउद्दीन
बादशाह बना. औरंगजेब ने तो पिता को ही कैद में डालकर और अपने तीन सगे भाईयों की
हत्या कर सत्ता हथियायी. ऐसी ही हिंसात्मक और घमंडी तानाशाही के विरोध में अरब
देशों में क्रांति की लहरें चाल रही है. पहले ट्युनेशिया, फिर मिस्त्र,
और बाद में येमेन और अब सीरिया में परिवर्तन के लिए
रक्तरंजित क्रांति चल रही है. क्रांति कहने के बाद, रक्तपात आता ही है. ट्युनेशिया इसे अपवाद सिद्ध हुआ होगा. मिस्त्र की राजधानी
मतलब काहिरा के तहरिर चौक में हो रहे निदर्शन शांतिपूर्वक थे. लेकिन मुबारक के
सरकार ने हिंसा का उपयोग किया; और आंदोलकों
ने उसे प्रखर उत्तर देकर होस्नी मुबारक को सत्ता से उखाड फेका. येमेन का तानाशाह
कर्नल अली अब्दुला सालेह,
जान बचाने के लिए भाग गया, इसलिए वहॉं रक्तपात नहीं हुआ. सीरिया में अध्यक्ष बशर-अल आसद के विरुद्ध
अत्यंत उग्र संघर्ष चल रहा है. राष्ट्र संघ के बिनति की ऐसी तैसी कर अभी भी हवाई
जहाज से बम गिराए जा रहे है. समाचारपत्रों के अंदाज से, सीरिया के गृह यद्ध में अब तक चालीस हजार लोग मारे जा चुके
है. लेकिन संघर्ष थमा नहीं.
यूरोपीय राष्ट्रों का हेतु
ऐसा दिखाई देता है कि,
अमेरिका और यूरोप के अन्य देश - मुख्यत: इंग्लैंड और फ्रान्स ने
तानाशाही सत्ता हटाने के लिए आंदोलकों को सक्रिय मदद दी. अपनी सेना तो वहॉं नहीं
उतारी लेकिन मिस्त्र में आंदोलकों को हवाई सुरक्षा दी. सीरिया में भी विद्रोहियों
को शस्त्रास्त्रों के साथ सब मदद दी जा रही है. सीरिया के संघर्ष में अध्यक्ष आसद
को रूस की मदद थी. अब उसमें कटौती हुई है, ऐसा दिखता है. रूस सरकार के एक अधिकारी ने तो बशर-अल-आसाद के दिन जल्द ही
समाप्त होगे और विद्रोही विजयी होगे, ऐसा कहा है.
विकट सूरों की आहट
किसी भी जनतंत्रवादी व्यक्ति और राष्ट्र को भी लगेगा कि, एक देश की तानाशाही खत्म हुई है और लोगों ने चुने, उनके प्रतिनिधि ही अब राजकर्ता बने है. अमेरिका जनतंत्रवादी
है,
इस बारे में कोई मतभेद नहीं. इस कारण, उसने अपनी शक्ति का उपयोग जनतंत्र की स्थापना और रक्षा के
लिए करना स्वाभाविक माना जाएगा. लेकिन अब ऐसा ध्यान में आ रहा है कि, अमेरिका की आस्था जनतंत्र की प्रस्थापना में उतनी नहीं, जितनी अरब देशों की खनिज संपत्ति मतलब तेल में है. ऐसा तर्क भी किया जा सकता है कि, पुराने तानाशाहों के राज में, अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों को खनिज तेल के निरंतर और सुरक्षित पूर्ति के
बारे में विश्वास नहीं होगा इसलिए उन्होंने तथाकथित जनतंत्र समर्थकों का पक्ष
लिया.
अरब जगत् में यह जो परिवर्तन का युग शुरु हुआ था, उसे ‘वसंतागम’ (अरब स्प्रिंग) यह मधुर नाम दिया गया था. लेकिन दुर्भाग्य से
इस वसंतागम के बाद मधुर गुंजन के स्वर सुनाई नहीं दे रहे. फिर वहीं, जनतांत्रिक व्यवस्था का तिरस्कार करने वाले विकट, कर्कश स्वर निकल
रहे हैं. जनतंत्रवादियों की अपेक्षा हिंसक अतिरेकी ही अमेरिका को करीब तो नहीं
लगने लगे,
ऐसा संदेह निर्माण हो सकता है. मैं यहॉं केवल मिस्त्र और
सीरिया इन दो देशों में की घटनाओं की ही चर्चा करूंगा.
कट्टरवादियों का वर्चस्व
मिस्त्र अरब जगत् में सबसे बड़ा देश है. वहॉं जनतांत्रिक पद्धति से ही सरकार
सत्ता में आई. लेकिन वह मुस्लिम ब्रदरहूड इस कट्टर इस्लामवादी संगठन पुरस्कृत सियासी
पार्टी की है. वहॉं अध्यक्षीय पद्धति स्वीकारी गई, इस बारे में आक्षेप का कारण नहीं. चुनाव पद्धति से ही मोहमद मोर्सी
राष्ट्राध्यक्ष बने. बीच के संक्रमण काल में, सत्ता के सूत्र फौज के हाथों में थे. वह अब धीरे-धीरे लोक-निर्वाचित अध्यक्ष
मतलब मोर्सी के हाथों में आए. वैसे तो यह परिवर्तन प्रशंसनीय ही लगेगा. लेकिन लगता
है कि,
मोर्सी को जनतांत्रिक व्यवस्था के प्राथमिक तत्त्वों का भी
भान नहीं होगा. उन्होंने फतवा निकाला कि, उनके किसी निर्णय या कृति पर न्यायपालिका विश्लेषण नहीं कर सकेगी. इस फतवे के विरोध में न्यायपालिका ने हड़ताल
की. इतना ही नहीं,
न्यायपालिका के अधिकारियों के समर्थन में, मिस्त्र का मुस्लिम ब्रदरहूड यह एकमात्र संगठन छोड़कर, संपूर्ण जनता उतर पड़ी. इस आंदोलन के दबाव में मोर्सी ने
फतवा तो पीछे लिया लेकिन ऐसी जनतंत्र विरोधी कृति को ताकत देने के लिए, जल्दबाजी में २२ नवंबर २०१२ को एक संविधान घोषित किया.
उसमें अध्यक्ष की कृति न्यायालय के विचाराधीन नहीं होगी, ऐसी धारा है. इस संविधान को जनता की मान्यता है, यह दर्शाने के लिए जल्दबाजी में ही जनमत-संग्रह (रेफरेण्डम)
कराने की भी घोषणा की. मोर्सी की यह चालाकी जनता के ध्यान में आई और उसने पुन:
तहरिर चौक में निदर्शन किए. उनकी भूमिका है कि, २०११ में जनता ने आंदोलन कर, मुबारक की जो
तानाशाही दूर की,
उसकी जगह नई रचना में एक पार्टी का मतलब कट्टरतावादी
मुस्लिम ब्रदरहूड का अनियंत्रित राज लाया जा रहा है.
नए भोग
पहले तो मिस्त्र की जनता ने इस जनमत-संग्रह का बहिष्कार करने का निर्णय लिया
था. लेकिन बाद में उसने अपना यह विचार बदला; और मतदान में भाग लिया. लेकिन जनता को सरकार पुरस्कृत संविधान के भयावह
परिणामों के बारे में उद्बोधन करने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं मिला. वह समय
मिलना ही नहीं चाहिए इसलिए ही यह जल्दबाजी की गई थी. अब जनमत-संग्रह के परिणाम
घोषित हुए है. इस संविधान के पक्ष में ६२ प्रतिशत और विरोध में केवल ३७ प्रतिशत मत
पड़े. यहॉं यह ध्यान में रखे कि, होस्नी मुबारक
को हटाने के आंदोलन में,
मुस्लिम ब्रदरहूड आंदोलन के पक्ष में था. लेकिन इस आंदोलन
में वे आगे नहीं थे. जो लोग आगे थे, उन्हें यह पार्टी की तानाशाही मान्य नहीं. प्रश्न यह है कि, मुबारक को हटाकर मिस्त्र की जनता ने क्या हासिल किया? व्यक्ति की तानाशाही गई लेकिन एक संगठन की तानाशाही उनके
नसीब आई. पार्टी की तानाशाही कैसी अत्याचारी, जनतंत्र-विरोधी,
मानवी मूल्यों को पैरों तले रौंधने वाली होती है, यह हम रूस के ७० वर्षों के शासन से जान सकते है. क्या
मिस्त्र में फिर क्रांति होगी? पता नहीं!
क्या इस नए आंदोलन को अमेरिका आदि जनतंत्रवादी पश्चिम के देशों की सहानुभूति और
मदद मिलेगी?
इस प्रश्न का उत्तर वहॉं की नई सत्ता अमेरिका को खनिज तेल
के संदर्भ में क्या देती है इस पर निर्भर होगा. आज तो मिस्त्र की जनता को उनके
नसीब आई तानाशाही प्रवृत्ति, कट्टरता, धर्मांधता के बाधित भोग भोगने है.
हिंसाचारी उग्रवादियों की पहल
सीरिया में का पेच अधिक गंभीर है. बशर-अल-आसद तानाशाह है, इसमें विवाद नहीं. लेकिन उन्हें हटाने के लिए आंदोलन करने वाले, जिन्हें अमेरिका आदि राष्ट्रों की भरपूर मदद है, वे कौन है? आपको यह जानकर
आश्चर्य होगा कि वे अल-कायदा इस हिंसाचारी उग्रवादी संगठन से प्रेरित है. ‘नूसरा फ्रंट’ यह इस उग्रवादी अल-कायदा का ही एक धडा है. इस नूसरा फ्रंट को इराक के अल-कायदा
से धन और हथियार मिलते है. आसद के अधिकार में के सुरक्षा की दृष्टि से महत्त्व के
स्थान काबीज करने में यह फ्रंट सक्रिय है. सुरक्षा की दृष्टि से महत्त्व के, बागियों के अधिकार में के ऐसे सब स्थानों पर इस फ्रंट का कब्जा
है. इराक के अल-कायदा के प्रतिनिधि कहते है कि, ‘‘ हमारे मित्रों को मदद करने का यह हमारा सामान्य मार्ग है.’’ रूस के समान ही अमेरिका भी समझ चुकी है कि, आसद के दिन अब लद गए है. उन्हें चिंता है कि, आसद जाने के बाद नूसरा फ्रंट वाले सत्ताधारी बने, तो हमारा क्या होगा? मिस्त्र के आंदोलकों को अमेरिका आदि राष्ट्रों ने जो मदद की, उसकी तुलना में बहुत ज्यादा मदद सीरिया में के बागियों को
अमेरिका ने दी है.
अमेरिका सर्तक
ऐसा लगता है कि,
अमेरिका इस बारे में सतर्क हुई होगी. ७ दिसंबर को, बागी सेनाधिकारियों की तुर्कस्थान में एक बैठक हुई. उसका
उद्देश्य सेनाधिकारियों की एक संयुक्त रचना करना था. यह बैठक अमेरिका की पहल पर ही
आयोजित की गई थी. इस बैठक के लिए ‘नूसरा फ्रंट’
या अन्य किसी उग्रवादी समूहों को निमंत्रण नहीं था. नूसरा
फ्रंट के संदर्भ में अमेरिका की भूमिका समझी जा सकती है. इराक में अमेरिका ने फौज
का उपयोग कर सद्दाम हुसेन को मिटा दिया. उन्हें अनुकूल ताकतों की सरकार स्थापन की.
लेकिन इराक के अल-कायदा को यह पसंद नहीं. अल-कायदा कट्टर सुन्नी पंथीय है.
उन्होंने इराक में अनेक अमेरिकी सैनिकों और अधिकारियों की हत्या की है. इस
अल-कायदा ने ही नूसरा फ्रंट तैयार किया है, और उसे पैसा,
हथियार और लड़ने के लिए सैनिक भी मुहया कराता है. अमेरिका एक
विचित्र संकट में फंसा है. नूसरा फ्रंट पर बहिष्कार डालता है, तो वह आसद के
विरोध में जो कड़ा संघर्ष कर रहे है, उन पर ही बहिष्कार डालने के समान है. आसद के विरुद्ध की लड़ाई में शामिल लोग
कहते है कि,
हमें अमेरिका हथियार नहीं देता और जो हथियारों की मदद देते
है,
उन्हें दहशतवादी कहकर अमेरिका बहिष्कृत करती है!
यहॉं भी उग्रवादी
नूसरा फ्रंट अमेरिका की दोहरी नीति समझ चुका है. उसने स्पष्ट भूमिका ली है कि, हमें अमेरिका की मदद नहीं चाहिए. नूसरा फ्रंट केवल अमेरिका विरोधी ही
नहीं,
उसे तो इस्लामी पद्धति की सत्ता अभिप्रेत है. आसद विरोधी
संघर्ष में सक्रिय अनेकों ने इस्लामी पोशाख और व्यवहार अपनाया है. इस कारण इराक, इरान आदि देशों के कट्टरवादियों से उन्हें सब मदद मिल रही
है. अमेरिका भी यह समझ चुकी है. उसने आसद विरोधी बागियों को मान्यता दी, यह सच है लेकिन उसी समय नूसरा फ्रंट को ब्लॅक लिस्ट में
डाला है. अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष बराक ओबामा ने एक साक्षात्कार में कहा कि, आसद विरोधी संघर्ष में उतरे सब लोग हमें अनुकूल नहीं है.
उनमें से कुछ ने अमेरिका के विरोध की भूमिका और कार्यक्रम शुरु किया है. आसद
विरोधी संघर्ष का नेतृत्व करने वाले संगठन का नाम ‘नॅशनल कोऍलिशन ऑफ सीरियन रिव्होल्युशनरी फोर्सेस’ है. हम उसका अनुवाद क्रांतिकारी सेना का राष्ट्रीय मोर्चा ऐसा कर सकते है. उसे मतलब
उनकी ही सरकार को हम मान्यता देंगे, ऐसा भी ओबामा ने सूचित किया है. लेकिन इतने से ही अमेरिका का संपूर्ण हेतु
साध्य होगा,
इसकी कोई गारंटी नहीं. सीरिया के अध्यक्ष बहुसंख्यक सुन्नीय
पंथ के नहीं है. सीरिया में सुन्नी ७४ प्रतिशत है. आसद शिया संप्रदाय के एक उपपंथ
से आते है. यह संघर्ष अंत तक लड़ने का उनका निर्धार है. उन्होंने हवाई सेना का
उपयोग करने का भी निर्णय लिया है. फिर भी, उनका अस्त समीप है. लेकिन प्रश्न यह है कि, इसमें अमेरिका ने क्या साध्य किया? मिस्त्र के वसंतागम में मुस्लिम ब्रदरहूड के विकट स्वर उमड़े. सीरिया में के
वसंतागम में नूसरा फ्रंट या अल-कायदा कहे, के उससे भी कर्कश स्वर उमड़ने की संभावना है. क्या इसे वसंतागम कहे? क्या एक प्रकार की तानाशाही सत्ता हटाकर उसके स्थान पर
धर्मांध प्रतिगामी अनियंत्रित कारोबार (ऑटोक्रॅसी) की स्थापना के लिए अमेरिका ने
यह उठापटक की?
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद :
विकास कुलकर्णी )
babujivaidya@gmail.com
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