जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर तैनात पाकिस्तानी सेना की टुकडी ने नियंत्रण रेखा लांघकर- मतलब भारत की सीमा में घुसकर, दो भारतीय सैनिकों की हत्या की और उनमें से एक सैनिक का सिर भी काटकर ले गये. इस क्रूरता से सारा देश भड़क उठा. अनेक सियासी पार्टिंयों ने पाकिस्तान के इस कृत्य का तीव्र निषेध कर पाकिस्तान के साथ ‘जैसे को तैसा’ व्यवहार कर, सबक सिखाने की मॉंग की. लेकिन भारत सरकार शांत रही. उसने नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के सेनाधिकारियों की शांति-बैठक (ध्वज मिटिंग) का प्रस्ताव रखा. पाकिस्तान की ओर से पहले तो उसे सकारात्मक प्रतिसाद नहीं मिला. भारत में वातावरण इतना गर्मा गया कि, हवाई सेना प्रमुख को, ‘हमें अन्य विकल्पों का विचार करना पड़ेगा’ ऐसा कहना पड़ा. स्थल सेनाध्यक्ष ने भी ऐसे ही कठोर निर्धार के शब्दों का प्रयोग किया. अंत में देर से ही सही, वह क्रूर घटना घटित होने के एक सप्ताह बाद, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी कहना पड़ा कि, ‘‘इस राक्षसी कृत्य के बाद, पाकिस्तान से हमारे संबंध सामान्य नहीं रहेगे.’’ प्रधानमंत्री अपने वक्तव्य से देश के जनता की भावना ही व्यक्त कर रहे थे.
क्षुब्धता का आविष्कार
८ जनवरी को नियंत्रण रेखा पर हुए उस निर्दयी कत्ल के बाद सारा देश क्षुब्ध हुआ. परिणामस्वरूप हॉकी खेलने के लिए भारत में आये पाकिस्तानी खिलाडियों को वापस लौटना पड़ा. महिला विश्व क्रिकेट के मॅच मुंबई में होने वाले थे. मुंबई के क्रिकेट नियामक मंडल ने बताया कि, ये मॅच मुंबई में नहीं हो सकेगे. फिर वे मॅच अहमदाबाद में लेने का विचार प्रकट हुआ. वहॉं के क्रिकेट मंडल ने भी वही भूमिका ली. अब, वे मॅच ओडिशा में होगे, ऐसा समाचार है.
शौर्य और क्रौर्य
लेकिन कुछ प्रसार माध्यमों को, भारत का यह द्वेष पसंद नहीं. उन्होंने इसकी ‘भडकाऊ देशभक्ति’ (Chauvinistic Jingoism) कहकर आलोचना की है. इन लोगों को पाकिस्तान के ‘हितचिंतक’ कहा तो वह उन्हें जचेगा नहीं. लेकिन प्रश्न यह है कि, उन्हें पाकिस्तान ‘हितचिंतक’ क्यों न कहे? पाकिस्तान की सरकार और सेना कहती है कि, हमने भारत के सैनिक का सिर काटा ही नहीं. विपरीत उनका तो आरोप है कि भारत के ही सैनिकों ने नियंत्रण रेखा लांघकर पाकिस्तान की सीमा मे प्रवेश किया. कुछ समय के लिए हम यह मान भी ले कि, भारतीय सैनिकों ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया. इसलिए पाकिस्तान की सेना ने उन पर गोलियॉं चलाई और उन्हें मार डाला. लेकिन मारे हुए सैनिक का सिर क्यों काटा? पहले सिर काटकर, बाद में उसे मारा गया, ऐसा तो नहीं हुआ? और ऐसा होना असंभव नहीं. मुसलमानों के सिर पर कौनसा भूत सवार होता है पता नहीं, उन्हें क्रौर्य अधिक पसंद होता है. शौर्य और क्रौर्य का भेद ही उनके ध्यान में नहीं आता.
क्रौर्य का कारण?
अब सेना के अधिकारी बता रहे है कि, ऐसे सिर काटकर ले जाने की यह कोई पहली ही घटना नहीं. इसके पहले भी दो बार भारतीय सैनिकों के बारे में ऐसी ही घृणास्पद घटनाएँ हो चुकी थी. तथापि, इस पर हमने आश्चर्य करने का कारण नहीं. कारगिल युद्ध के समय, भारतीय हवाई सेना का एक विमान चालक भूल से पाकिस्तान की सीमा में चला गया, तो उसे पकडकर, भीषण यातनाए देकर उसकी हत्या की गई. कुछ वर्ष पूर्व बांगला देश के सैनिकों के हाथ कुछ भारतीय सैनिक लगे. उन्हें केवल जान से मारा नहीं गया. उनकी चमडी उधेडी गई थी. महमद घोरी ने पृथ्वीराज चव्हाण की आँखें निकालकर फिर उसकी हत्या की. औरंगजेब ने भी संभाजी महाराज की आँखें निकालकर, फिर एक-एक अवयव पर शस्त्राघात कर उनकी हत्या की थी. यह जंगली अवस्था के मध्ययुग की घटनाए है, ऐसा हम मानते है. नही, यह मध्ययुग के जंगलीपन का आविष्कार नहीं. वह मुस्लिम समाज के अंतर्भूत क्रौर्य का आविष्कार होगा ऐसा लगता है. इसलिए ऐसा राक्षसी क्रौर्य २० वी और २१ वी सदी में भी हमें दिखाई देता है. यह घटनाए अपवादात्मक नहीं. कश्मीर की घाटी से कश्मिरी पंडितों को खदेडने के लिए यही तरीका घाटी के मुसलमानों ने अपनाया था. जिज्ञासू, तेज एन्. धर की पुस्तक 'Under the shadow of militancy : the diary of an unknown Kashmiri' पढ़े. आदमी को एकदम नहीं मारना. यातनाए देकर देखने वाले के मन में महशत निर्माण करना और फिर आदमी को खत्म करना, ऐसी यह रीति है. यह रीति इस्लाम की सीख से आई कहे या, अरब टोलियों के चरित्र के अनुकरण से आई ऐसा माने, यह विवाद का मुद्दा है. लेकिन वह मुसलमानों के शौर्य का, क्रौर्य का अविभाज्य घटक बना है. सन् १९७१ में, हमारे कब्जे में पाकिस्तान के, एक-दो नहीं, करीब ९२ हजार सैनिक कैदी थे. छॉंटा गया एक का भी सिर? सिमला समझौते के बाद उन कैदियों को पाकिस्तान वापस लौटाया गया. सैनिकों के वापसी का ऐेसा एक कार्यक्रम मैंने सीमा की वाघा चौकी पर देखा है. कैदी सैनिक हाथ में पवित्र कुरान की पुस्तक लेकर भारतीय सीमा में से, नो मॅन्स लॅण्ड में और वर्हां से पाकिस्तान की सीमा मे गये. ऐसा क्यों हुआ? और पाकिस्तान या बांगला देश का व्यवहार ऐसा क्यों नहीं हो सकता, इस प्रश्न का उत्तर मुसलमानों ने ही देना चाहिए.
द्वेष में से जन्म
भारत में के कई लोगों को लगता है कि, पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अच्छे रहे. शांतता के हो. परस्पर व्यापार हो, यातायात चलता रहे. खेल, नाटक, सिनेमा आदि क्षेत्रों में परस्पर सहयोग रहे. इससे दोनों देशों के बीच के संबंध सुधरेगे. लेकिन यह अपेक्षा व्यर्थ है. हम सब, कम से कम समझदार लोग, प्रसार माध्यम और पाकिस्तान के प्रति ‘प्रेम-भाव’ रखने वाले सज्जन यह जान ले कि, यह संभव नहीं. कारण, पाकिस्तान की जनता भले ही शांततापूर्ण जीवन चाहती हो, वहॉं की सेना भारत के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखना नहीं चाहती. पाकिस्तान का जन्म ही भारत के, सही में हिंदूओं के द्वेष से हुआ है. हाल ही में वकार अहमद इस लेखक का ‘द आयडिऑलॉजी ऑफ पाकिस्तान : अ थॉर्नी इश्यु’ शीर्षक का लेख पढ़ा. लेखक प्रश्न करता है कि, पाकिस्तान का सिद्धांत क्या है? ‘इस्लाम’ कहे तो बांगला देश पाकिस्तान से विभक्त क्यों हुआ? १९४७ में तो बांगला देश पाकिस्तान का ही भाग था. वहॉं भी इस्लाम मानने वाले मुसलमान ही बहुसंख्य थे. ऐसा होते हुए भी टिक्काखान के सैनिकों ने मुसलमान बंगाली स्त्रियों पर अत्याचार क्यों किए? वकार अहमद प्रश्न उपस्थित करते है कि, स्वतंत्रता मिलने के बाद, हिंदुस्थान में जनतांत्रिक व्यवस्था में बहुसंख्य हिंदुओं का ही राज्य आएगा और उस राज्य में मुसलमानों की उन्नति और प्रगति नहीं हो पाएगी, इसलिए पाकिस्तान की मांग की गई ऐसा कहे तो बड़ी संख्या में मुसलमानों को भारत में ही क्यों रहने दिया गया? हम साथ रहते तो हमारी (मुसलमानों की) जनसंख्या ४० प्रतिशत होती. इससे हमारे सियासी अधिकार प्राप्त करने के लिए हमें अधिक ताकत मिलती. फिर विभाजन की मांग क्यों? वकार अहमद के प्रश्नों का सही उत्तर एक ही है और वह है हिंदूओं का द्वेष.
राष्ट्र निर्माण का आधार इस्लाम नहीं
सब समझ ले कि, इस्लाम, राष्ट्र निर्माण का आधार नही हो सकता. अन्यथा अरेबिया, येमेन, सीरिया, इराक, इरान, अफगाणिस्थान यह अलग राष्ट्र बनते ही नहीं और न उनके बीच परस्पर संघर्ष होते. ये संघर्ष अभी भी चल ही रहे है. राष्ट्र बनने के लिए लोगों का एक समान इतिहास आवश्यक होता है. समान परंपरा आवश्यक होती है. वर्तमान का संबंध भूतकाल से होना चाहिए. कुछ जीवन मूल्य मतलब अलग संस्कृति चाहिए. यह शर्ते जो समाज पूर्ण करता है, उसका राष्ट्र बनता है. उस समुदाय को उस संस्कृति के मूल्यों का भान होना चाहिए. पाकिस्तान के पास ऐसा कुछ भी नहीं है. १९४७ के पूर्व का संपूर्ण पाकिस्तान का अलग इतिहास नहीं है. महापुरुष नहीं. समान सांस्कृतिक मूल्य भी नहीं. ‘इस्लाम’ मजहब यही एकमात्र जोडने वाला बंध था. लेकिन वह राष्ट्रभाव निर्माण नहीं कर सकता, यह ऊपर बताया ही है. उसमें वह सामर्थ्य होता, तो बांगला देश विभक्त ही न होता. उर्दू के आग्रह से पाकिस्तान के टुकड़े हुए ऐसा कहे, तो उर्दू उनकी धर्मभाषा है ही नहीं. पवित्र कुरान उर्दू में नहीं लिखा गया. इरान या इराक की भाषा या करीब के अफगाणिस्थान की भाषा भी उर्दू नहीं; फिर उर्दू का दुराग्रह क्यों? मेरा तो मत है कि वह एक बहाना था. संपूर्ण पाकिस्तान की जनसंख्या में पूर्व पाकिस्तान की- मतलब आज के बांगला देश की जनसंख्या अधिक थी. पाकिस्तान के सत्ता-सूत्र बंगाली भाषी मुस्लिमों के हाथ न जाए, इसलिए सब उठापटक थी. इस कारण ही अवामी लीग को बहुमत मिलने के बाद भी, उस पार्टी के नेता मुजीबुर रहमान को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया. उन्हें कैद में डाल दिया. उसके बाद का इतिहास सर्वज्ञात है.
अशांत पाकिस्तान
मुझे यहॉं यह अधोरेखित करना है कि, पाकिस्तान राष्ट्र है ही नहीं. वह एक कृत्रिम राज्य है. अँग्लो-अमेरिकनों की वैश्विक सियासी सुविधा के लिए उसकी निर्मिति हुई है और उनकी वह सुविधा ही पाकिस्थान को टिकाए रखे है. लेकिन, अब दुनिया की राजनीति में आमूलाग्र परिवर्तन हुआ है. रूस का भय नहीं रहा. शीतयुद्ध समाप्त हो चुका है और इधर पाकिस्तान अशांत है. हाल ही में पाकिस्तान के बलुचीस्थान प्रान्त में, एक घटना में, करीब एक सौ शिया पंथी मुसलमानों की हत्या की गई. क्यों? कारण एक ही कि, वे मुस्लिम थे लेकिन अल्पसंख्यक शिया पंथी थे. बलुचीस्थान अशांत है. सिंध में स्वायत्तता के लिए अनुकूल हवाएँ फिर चलने लगी है. १९४७ तक वायव्य सरहद प्रान्त में कॉंग्रेस पार्टी की सरकार थी. लेकिन पश्तुभाषी पठान भारत के साथ संलग्नता चाहते थे. आज क्या स्थिति है, बताया नहीं जा सकता. लेकिन इस प्रान्त के कुछ भागों में पाकिस्तान सरकार की हुकुमत नहीं चलती, टोली वालों का हुक्म चलता है, यह वस्तुस्थिति है.
तानाशाही से लगाव
पाकिस्तान एक असफल राज्य (Failed State) है. वह टिकना संभव नहीं. वहॉं गत पॉंच वर्षों से जनतांत्रिक व्यवस्था दिखाई दे रही है. लेकिन यह अमेरिका के दबाव में हुआ है. ऐसा लगता है कि इस्लाम का जनतंत्र से बैर है. तुर्कस्थान जैसा एखाद अपवाद छोड़ दे, तो करीब सब मुस्लिम राष्ट्रों में अभी-अभी तक तानाशाही थी. अमेरिका के दबाव में जनतंत्र का दिखावा चल रहा है. अमेरिका ने हस्तक्षेप रोक दिया तो फिर सर्वत्र तानाशाही स्थापित होगी. और देशों को छोड़ दे. हमारे करीब के अफगाणिस्थान और पाकिस्तान का ही विचार करते है. एक वर्ष बाद अफगाणिस्थान से अमेरिका और उसके साथ अन्य ‘नाटो’ राष्ट्र अपनी फौज वापस ले जाने वाले है. उसके बाद अफगाणिस्थान में पुन: तालिबान की सत्ता आएगी इस बारे में संदेह नहीं. पाकिस्तान में कभी भी जनतांत्रिक व्यवस्था स्थिर नहीं हो पाई. १९५८ में अयूब खान यह फौजी सत्ताधारी बने. उन्होंने ११ वर्ष सत्ता चलाई. १९६९ में याह्या खान ने उन्हें हटाकर अपनी सत्ता स्थापन की. याह्या खान भी फौजी अधिकारी ही थे. उनके बाद याह्या खान ने झुल्फिकार अली भुत्तो को सत्ता सौंपी. उनके चुनाव के माध्यम से स्थिर होने के पूर्व ही झिया-उल-हक इस फौजी अधिकारी ने उन्हें पदच्युत कर और एक बनावट मुकद्दमे का आधार लेकर फॉंसी पर लटका दिया. फिर एक विमान दुर्घटना में झिया-उल-हक की मौत हुई. फिर कुछ समय के लिए जनतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई, और सेनापति मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बरखास्त कर सत्ता अपने हाथ में ली. अब २०१३ में पाकिस्तान में चुनाव होने है. लेकिन पाकिस्तान के फौजी प्रमुख कयानी की सत्ता पर नज़र है. कयानी ने जरदारी को पदच्युत कर सत्ता हथियाने का समाचार मिलने के लिए बहुत लंबे समय राह देखनी पड़ेगी ऐसा नहीं लगता.
नई रणनीति
यह सब ब्यौरा देने का कारण यह कि, पाकिस्तान मतलब पाकिस्तान की सरकार मतलब पाकिस्तान की जनता ऐसा समझने की गल्ती हम न करे. पाकिस्तान मतलब पाकिस्तान की फौज यह समीकरण हमने ध्यान में लेना चाहिए; और उस फौज का पराभव करके ही हम पाकिस्तानी जनता को सुखी कर सकते है. खेल या अन्य मनोरंजन के माध्यमों के सद्भाव पर पाकिस्तान सरकार या पाकिस्तानी फौज की नीति निर्भर नहीं रहेगी. अत: हमें पाकिस्तान को टिकाए रखने में रुचि होने का कारण नहीं. पाकिस्तान का विघटन ही हमारी दृष्टि से हितप्रद होगा. शुरुवात पाकव्याप्त कश्मीर से करने में हर्ज नहीं. महाराजा हरिसिंह द्वारा भारत में विलीन किया गया संपूर्ण जम्मू-कश्मीर राज्य, भारत का अविभाज्य घटक है, यह हमारी अधिकृत भूमिका है. वह हमने राष्ट्र संघ में रखी भी है. २२ फरवरी १९९४ को हमारी सार्वभौम संसद के दोनों सदनों ने एकमत से पारित किए प्रस्ताव में इस भूमिका का पुनरुच्चार किया गया है. इस जम्मू-कश्मीर राज्य का कुछ भाग पाकिस्तान ने आक्रमण कर, अवैध रूप में अपने कब्जे में रखा है. वह वापस लेने का हमे अधिकार है. वैसा मौका, कारगिल युद्ध के समय हमें प्राप्त हुआ था. अब पुन: १४ वर्ष बाद, हमारे सैनिकों के बर्बर कत्ल के बाद हमें वह मौका मिला है. इस पाकव्याप्त कश्मीर की बहुतायत जनता पाकिस्तान की चुंगुल से छूटना चाहती है. इसका हमें लाभ मिल सकता है. उन्हें भारत से मदद की अपेक्षा है.
बलुचीस्थान और सिंध भी स्वतंत्र होने के लिए उत्सुक है. वहॉं के लोगों को हमारी मदद चाहिए. भारत से पंजाब को तोड़ने के लिए पाकिस्तान खलिस्थान वालों को मदद कर सकता है, तो हमने बलूच और सिंधी लोगों की मदद क्यों नहीं करनी चाहिए? श्रीमती इंदिरा गांधी की नीति का अनुसरण करना चाहिए. कैसे और कितनी मदद करना यह ब्यौरे और रणनीति के विषय है. केवल इतना ही ध्यान में लेना चाहिए कि, पाकिस्तान के टिके रहने और उसे टिकाए रखने में हमें आस्था होने का कारण नहीं. फिर लघु दृष्टि के सेक्युलॅरिस्ट और सतही सोच रखने वाले प्रसार माध्यम कुछ भी कहे. इसका अर्थ पाकिस्तान के स्वातंत्र्योत्सुक प्रान्तों को भारत के साथ राजनीतिक दृष्टि से संलग्न करे यह नहीं. प्रथमतः सांस्कृतिक दृष्टि से वे हमारे नजदिक आने चाहिए. फिर उन्हें समावेशकता के तत्त्व का (inclusiveness) महत्त्व समझ आएगा. जैन, बौद्ध, सिक्ख ये सब अपनी धार्मिक विशेषताएँ और पंथोपपंथों का अस्तित्व कायम रखते हुए एक विशाल संस्कृति के - जिसे हिंदू संस्कृति कहा जा सकता है - भाग बने है. मुसलमान भी वैसे बन सकते है. फिर सुन्नी, शिया, कादियानी, सूफी सब समन्वय के साथ रह सकेगे और भारतीय जनता के साथ, इन प्रान्तों की जनता के सही अर्थ में स्नेह-बंध निर्माण हो सकेगे. हमें ऐसे ही स्नेह-बंध अपेक्षित है!
- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी )
babujivaidya@gmail.com
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