Thursday 10 November 2011

पाकिस्तान की दुर्दशा पर एकमात्र उपाय

प्रथम यह मान्य होना चाहिए कि, पाकिस्तान की दुर्दशा हुई है| यह तुम्हें या - हमें मान्य होने से नहीं चलेगा| यह पाकिस्तान को मान्य होना चाहिए;
अमेरिका का सहारा
यह सर्वमान्य है कि, पाकिस्तान अपने बुते पर टिक नहीं सकता| वह कब का ही समाप्त हुआ होता; लेकिन अमेरिका की फौजी और आर्थिक सहायता ने उसे बचा लिया, उस समय अमेरिका को पाकिस्तान की आवश्यकता थी| अफगानिस्थान पर रूस ने आक्रमण किया था| अपनी एक कठपुतली उसने राज्य पर बिठाई थी| आफगानिस्थान में से रूस की सत्ता समाप्त करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में फौजी और आर्थिक सहायता दी| रूस का वर्चस्व समाप्त होने के बाद, कुछ वर्ष अफगानिस्थान में गृहयुद्ध चला| उसमें तालिबान सफल हुआ और १९९४ में वहॉं तालिबान की सत्ता स्थापन हुई| इस तालिबान को पाकिस्तान की संपूर्ण सहायता प्राप्त थी| २००१ को न्यूयार्क शहर पर अल-कायदा ने आतंकी हमला कर तीन हजार से अधिक नागरिकों की हत्या करने के बाद, अमेरिका अफगानिस्थान में उतरी और उसने तालिबान को परास्त कर हमीद करजाई की सरकार स्थापन की| तथापि, पाकिस्तान के तालिबान के साथ तार जुड़े ही थे|
अमेरिका का भ्रमनिरास
अमेरिका की दृष्टि से तालिबान यह आतंकवादी संगठन है| अफगानिस्थान में अभी भी नाटो की फौज है| जब तक वह फौज वहॉं है, तब तक तालिबान की दाल नहीं गलनेवाली| ११ सितंबर २००१ के आतंकी हमले के बाद, आतंकवाद के उग्र संकट का अमेरिका को अहसास हुआ; और उसकी नीति सर्वत्र का आतंकवाद मिटाने की दिशा में मुड़ी| अमेरिका की कल्पना थी कि, इस आतंकवाद विरोधी संघर्ष में पाकिस्तान सच्चे मन से उसकी सहायता करेगा| लेकिन वह कल्पना झूठ साबित हुई| पाकिस्तान की खुफिया एजंसी -आयएसआय - के अफगानिस्तान में आतंकवाद फैलानेवाले तालिबान के ही, सिराज हक्कानी गुट के साथ अंदरूनी संबंध है, अमेरिका को अब इसका पता लग चुका है| अमेरिका के मुख्य सेनापति मुलेन ने ऐसा स्पष्ट आरोप ही किया है| अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिटंन ने भी यही कहा है और अब तो अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने भी इसकी पुष्टी की है| अमेरिका की संसद में भाषण करते समय ओबामा ने कहा है कि, ‘‘आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान के योजित उपाय परिणाम देने में असफल रहे है| विद्रोही, और अधिक शक्तिशाली बने है, नाटो की फौज के लिए खतरा और भी अधिक बढ़ गया है|’’
अफगानिस्थान का नया मोड
अमेरिका के राजनीतिज्ञ और फौज के अधिकारियों के वक्तव्यों के कारण पाकिस्तान की मुश्किल हुई है| अमेरिका पाकिस्तान की उपेक्षा करेगा तो अपना एक मित्र खो बैठेगा, ऐसी सीधी धमकी ही पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने दी है| लेकिन, इस धमकी का अमेरिका पर कोई परिणाम नहीं होगा| परंतु, इसके साथ ही पाकिस्थान के तालिबान के साथ के संबंध भी समाप्त नहीं होगे| पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा है कि, उनकी सरकार तालिबान के साथ वार्ता करने के लिए तैयार है| तालिबान के किस गुट के साथ गिलानी साहब वार्ता करनेवाले है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया| संभवत: वे सिराज हक्कानी के ही गुट के साथ चर्चा करेंगे| इसी हक्कानी गुट ने अफगानिस्थान के भूतपूर्व राष्ट्रपति बुराहनुद्दीन रब्बानी की हाल ही में हत्या की है| इस हत्या के कारण, अफगानिस्थान की राजनीति ने नया मोड लिया है| पाकिस्तान के बारे में अफगाणिस्तान का सरकार का भ्रमनिरास हुआ है| उसने तालिबान के साथ समझौते की वार्ता रोक दी है| पाकिस्तान का दबाव उन्होंने नहीं माना|       

भारत-अफगान मैत्री
अमेरिका के हवाई हमलों से उद्ध्वस्त हुए अफगानिस्थान के पुनर्निर्माण में भारत उसकी सहायता कर ही रहा था| सड़क निर्माण और आरोग्य इन दो क्षेत्रों में भारत अफगानिस्थान को बड़ी मात्रा में सहायता कर ही रहा था| नए अनुबंध के कारण, भारत अफगानिस्तान की फौज और सुरक्षा दलों को भी प्रशिक्षण देगा| अफगानिस्तान के अध्यक्ष ने पाकिस्तान हमारा जुड़वा भाई और भारत सच्चा मित्र है, ऐसा कहा है लेकिन, अफगानिस्तान के इस जुड़वे भाई को भारत-अफगान मित्रता हजम नहीं होगी| हमारे पुराण में सुंद और उपसुंद इन राक्षसों की कथा है| दोनों सग्गे भाई थे| लेकिन तिलोत्तमा नाम की अप्सरा सामने आते ही, उसको प्राप्त करने के लिए ये दोनों भाई एकदूसरे पर टूट पड़ें और परस्परों को मार डाला| पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बंधुत्व कीपरिणति इससे अलग नहीं होगी| पाकिस्तान को अफगानिस्तान उसका मांडलिक (अधीन राष्ट्र) बने और सदैव वैसा ही रहे, ऐसा ही लगेगा किंतु अफगानिस्तान के आज के सत्ताधारी यह मान्य नहीं करेंगे| अफगानिस्तान का हित स्वयं को भारत के साथ जोड़ लेने में ही है| आर्य चाणक्य के भू-राजनैतिक सिद्धांत के अनुसार भारत और अफगानिस्तान सहजमित्र है| अमेरिका को भी यह मित्रता मान्य होगी| अमेरिका और नाटो राष्ट्रों ने २०१४ मेंे अपनी फौज वापस ले जाना तय किया है| तब तक, अफगानिस्तान में पाकिस्तान उधम नहीं मचा सकता| उसे चीन ने उसकाया तो भी वह ऐसा नहीं कर सकता| दूसरी बात यह भी है कि, चीन का इस भाग में वर्चस्व स्थापन होने देना अमेरिका को पुराएगा नहीं| नाटो फौज हटने के बाद, अफगानिस्थान की मदद भारत ही कर सकता है| भारत, इस दौरान के तीन वर्षों में अफगान की फौज को और सक्षम बनाएगा, इसके अलावा पाकिस्तान ने दु:साहस किया तो भारत ही पाकिस्तान को रोक सकेगा| इस प्रदेश की भावी राजनीति की दृष्टि से भारत-अफगान मित्रता ऐसी महत्त्वपूर्ण है| इस कारण हाल ही में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हमीद करजाई ने भारत की जो दो दिनों की यात्रा की और भारत सरकार के साथ मित्रता का नया अनुबंध किया वह बहुत महत्त्वपूर्ण है|

इस्लाम और सर्व समावेशकता
आज पाकिस्तान घोर राजनीतिक संकट में फंसा है| उसने अमेरिका का विश्‍वास खो दिया है| चीन, पाकिस्तान को हडपने का मौका ही ताक रहा है| ऍग्लो अमेरिकनों को यह पसंद होगा, इसकी संभावना नहीं| लेकिन, अन्य राष्ट्र कुछ भी सोचे, पाकिस्तान ने मतलब पाकिस्तान की जनता ने ही इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए; और उसके लिए मूलगामी चिंतन भी करना चाहिए|
एक मूलभूत बात यह है कि, पाकिस्तान की निर्मिती इस्लाम खतरे मेंइस घोषणा से हुई| यह खतराकिससे, अर्थात् भारत से; और स्पष्ट ही कहे तो हिंदुस्थान से! आधारभूत तत्त्व था हिंदूद्वेष का और दिखावटी तत्त्व था इस्लामी बंधुभाव का| इसी दिखावटी तत्त्व के कारण, देड-दो हजार किलोमीटर की दूरी होते हुए भी, पश्‍चिम पाकिस्तान और पूर्व पाकिस्तान मिलकर एक पाकिस्तान बना| लेकिन, इस्लाम की शिक्षा में गुण है पर, सर्वसमावेशकता (inclusiveness) और (comradeship) सौहार्द नहीं है| वह होता तो, पूर्व पाकिस्तान (विद्यमान बांगला देश) पश्‍चिम पाकिस्तान से केवल पचीस वर्ष के भीतर अलग नहीं होता| इस विभाजन ने यह सिद्ध किया कि, भाषा का अभिमान इस्लामता पर मात कर सकता है| सर्वसमावेशकता नहीं होने के कारण ही, पाकिस्तान में, गत करीब ४५ वर्षों से अहमदिया मुसलमानों को मुस्लिमेत्तर ठहराया गया है| यहॉं यह ध्यान में ले कि, पाकिस्तान की निर्मिति होने के बाद उसके पहले विदेश मंत्री झाफरउल्ला खान अहमदिया थे| आज शिया विरुद्ध सुन्नी, पंजाबी विरुद्ध सिंधी, पंजाबी विरुद्ध बलुची ऐसे संघर्ष पाकिस्तान में हरदम चलते रहते है|

अभी की घटना
यह ताजी घटना ४ अक्टूबर की है| बलुचीस्थान की राजधानी क्वेटा शहर की| वहॉं एक बस रोककर, १३ शिया यात्रियों को बस में से उतारा और फिर उन्हें एक कतार में खड़ा कर गोलियों से भून डाला| इन शियापंथी मुसलमानों का अपराध क्या था? यही कि, वे बहुसंख्य सुन्नी पंथ के नहीं थे| क्वेटा में की यह क्रूर घटना अपवादात्मक नहीं| कराची में यह नित्य ही चलता है| शिया भी मुसलमान ही है| लेकिन वे अल्पसंख्यक है| वे सम्मान से जी सकें, ऐसा वातावरण पाकिस्तान में नहीं है| क्या ऐसा पाकिस्तान एक रहेगा? चीन का आजकल पाकिस्तान के लिए बहुत प्रेम उमड़ रहा है| क्या चीन मुसलमानों में सामंजस्य निर्माण करेगा? पाकिस्तान की जनता ने, मैं आग्रह से कहता हूँ जनता - सरकार नहीं - चीन के सिकियांग प्रांत में के मुसलमानों की स्थिति जान ले| उसी प्रकार, तिब्बत में गत साठ वर्षों में चीन ने क्या किया है, और क्या कर रहा है, यह भी समझ ले और बाद में ही चीन की ओर मुड़े|
फौज का प्राबल्य
पाकिस्तान का टुटना अटल है| वह कभी भी एक राष्ट्र नहीं था| एक राज्य’ - एक सभ्य राज्य के रूप में - वह टिक नहीं सकता| हॉं, फौज फिर अपनी सत्ता स्थापित करेगी| जरदारी-गिलानी के स्थान पर कयानी आएगे| पाकिस्तान का गत साठ वर्षों का इतिहास यही बताता है| इस्कंदर मिर्झा, अयूबखान, झिया-उल-हक, याह्याखान, मुशर्रफ ही जनता को फौज की धाक में रख सके| लियाकत अली खान का पाकिस्तान की निर्मिति में बहुत बड़ा योगदान था| लेकिन वे प्रधानमंत्री के रूप में टिक नहीं सके| लोगों ने उनके विरुद्ध अविश्‍वास व्यक्त कर, चुनाव में पराभूत कर, उन्हें पदच्युत नहीं किया| उनकी हत्या की गई| झुल्फिकार अली भुत्तो कट्टर मुसलमान थे| वे कट्टर भारतद्वेष्टा भी थे| लेकिन सेनाधिकारी नहीं थे| सेनाधिकारी झिया-उल-हक  ने उन्हें फॉंसी पर लटका दिया| नवाज शरीफ, पाकिस्तान के इस भूतपूर्व प्रधानमंत्री नसीब बलवान है, वे अभी तक जीवित है| अन्यथा उनका भी लियाकत अली खान या भुत्तों हुआ होता| बेनझीर भुत्तो भी प्रधानमंत्री थी| लेकिन फौज के प्रशासन को मान्य नहीं थी| उनकी भी हत्या हुई| क्या यह पाकिस्तान की जनता को मान्य है?

वैमनस्य छोड़ो
अमेरिका और नाटो के अफगानिस्थान से हटते ही पाकिस्तान में तालिबान की सत्ता स्थापन होना तय है| क्या बहुसंख्य पाकिस्तानी जनता तालिबान की मतांध सत्ता चाहती है? ऐसा हो तो फिर वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और जो उनके नसीब आए वह भोगे| लेकिन तालिबान की सत्ता नहीं चाहती हो, सभ्य, सुसंस्कृत समाजस्थिति चाहती हो तो करजाई की राह अपनाए| भारत के प्रति मतलब हिंदुस्थान के प्रति मतलब हिंदूओं के प्रति पाला वैमनस्य समाप्त करे| १४ अगस्ट १९४७ के पूर्व की स्थिति पाकिस्तान की जनता याद करे| बलुचिस्थान, वायव्य प्रांत, पंजाब, सिंध में के मुसलमानों को - फिर वे शिया या सुन्नी, सुफी हो या अहमदिया - उन्हें हिंदूओं की ओर से क्या कष्ट हुआ? हिंदूओं ने मुसलमानों की लड़कियों का अपहरण किया? या, मसजिदे गिराई थी? हिंदुस्थान में के मुसलमानों की ओर भी वे कुछ खुले दिल से और निर्विकार दृष्टि से देखें| जो अधिकार बहुसंख्य हिंदूओं को प्राप्त है, वह मुसलमानों को भी प्राप्त है| मुसलमान राष्ट्रपति भी हुए है| एक नहीं तो तीन : जाकीर हुसैन, फक्रुद्दीन अली अहमद, अब्दुल कलाम|बहुसंख्य हिंदूओं ने क्या कभी इसपर आक्षेप लिया? सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद भी मुसलमानों ने विभूषित किया है| उच्च न्यायालय में वे चुने गए है| राज्यों के राज्यपाल और राजदूत भी बने हैं| केवल प्रधानमंत्री और मुख्य सेनापति इस पद पर वे अभी तक आरूढ नहीं हुए है| पाकिस्तान में के प्रांत भारत में शामिल हुए तो यह भी संभव होगा|
जनता का दायित्व
यह सच है कि, पाकिस्तान की फौज यह नहीं होने देगी और चीन को भी यह पसंद नहीं होगा| लेकिन इसकाभी रास्ता है| वह ट्युनिशिया, मिस्र और लिबिया इन देशों में की जनता ने दिखाया है और येमेन की जनता भी उसका अनुसरण कर रही है| क्या होस्नी मुबारक के पास सेना नहीं थी? प्रारंभ में वह जनता के साथ नहीं थी| लेकिन जनता की ताकद देखकर बाद में वह तटस्थ बन गई| गद्दाफी को तो फौज के ताकद की ही घमंड थी| लेकिन वह चली नहीं| यह सच है कि, लिबिया की जनता को अमेरिकादि नाटो देशों ने भी मदद की इसलिए ही वे विजयी हुए| पाकिस्तान की जनता को भी आवश्यकता पड़ने पर ऐसी अंतर्राष्ट्रीय सहायता मिल सकती है| लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी| कयानी मतलब गद्दाफी नहीं| १४ अगस्ट १९४७ के समान भारत का एक घटक राष्ट्र बना, तो जो प्रांत मिलकर पाकिस्तान बना है, वहॉं मुसलमान ही मुख्यमंत्री रहेगा| क्योंकि, वह खुले और पारदर्शी चुनाव से चुना जाएगा| कुछ माह पूर्व कराची के एक मतदार संघ में हुए चुनाव में, हिंसाचार में ६५ लोगों की जान गई, भारत के साथ संलग्नता मिलने के बाद ऐसा नहीं होगा|

व्यावहारिक स्वायत्तता
इस प्रत्येक प्रांत का स्वतंत्र और स्वायत्त अस्तित्व भी रहेगा| उन्हें सब प्रकार की व्यावहारिक स्वायत्तता (functional autonomy) होगी| अंग्रेजों की सत्ता के समय भारत में अनेक रियासतें थी| हैद्राबाद, म्हैसूर, काश्मीर, ग्वालियर तो आज के प्रांतों से भी विस्तार और / या जनसंख्या से भी बडी थी और उनके राजाओं को सब प्रकार की अंतर्गत स्वतंत्रता थी| भारत के साथ संलग्न होने के बाद पाकिस्तान में के प्रांतों को भी ऐसी स्वतंत्रता मिल सकती है| उसी प्रकार काश्मीर के लिए जैसी धारा ३७० है, उस प्रकार का प्रावधान भी किया जा सकता है| इस प्रकार अंतर्गत कारोबार के लिए उन्हें पूर्ण स्वयत्तता मिल सकती है| लेकिन, तीन बातों पर भारत का नियंत्रण रहेगा : (१) विदेश संबंध| इसमें आर्थिक अनुबंधों का भी समावेश है|  (२) सुरक्षा और (३) जनतांत्रिक व्यवस्था| पाकिस्तान में जनतांत्रिक राज्यप्रणाली ही रहनी चाहिए| संसदीय या अध्यक्षीय यह तपसील का मुद्दा है| किसी फौजी अधिकारी की, जनतंत्र उखाडकर अपना एकछत्र राज्य निर्माण करने की हिंमत नहीं होनी चाहिए| इस दृष्टि से संवैधानिक व्यवस्था की जा सकती है| ब्रिटीश राज में, इस प्रकार की स्वायत्तता भोगनेवाली रियासतों में एक ब्रिटीश रेसिडेंट रहता था| उसी प्रकार भारत का कोई अधिकारी रहेगा| उसे राज्यपाल भी कह सकेगे| वह केवल संवैधानिक प्रमुख रहेगा| वह अंतर्गत कारोबार में हस्तक्षेप नहीं करेगा| लेकिन विदेश संबंध, सुरक्षा व्यवस्था और जनतंत्र की प्रतिष्ठापना देखने की जिम्मेदारी उसकी होगी| आज अस्तित्व का संकट निर्माण होने की परिस्थिति में, जनता ने ही विचार करना है कि, चीन के पीछे जाना है या भारत के साथ सौहार्द बनाना है? जनतांत्रिक व्यवस्था और मूल्य मानना है या, फौज की सत्ता अथवा तालिबानी पद्धति स्वीकारनी है? प्रश्‍न स्वार्थी राजकर्ताओं का नहीं| प्रश्‍न पाकिस्तान के आम आदमी का है| अंतिम स्वरूप का सौहार्द प्रस्थापित हो इसलिए मैं यह लिख रहा हूँ| लेकिन वह एक क्षण में होना चाहिए, ऐसा नहीं| वह क्रमश: हो| लेकिन कदम उस दिशा में बढ़ने चाहिए| इस बारे में अंतिम निर्णय पाकिस्तान की जनता को करना है| उसे कोई भी शक्ति बाहर से नहीं थोपेगी|   
                     

- मा. गो. वैद्य, नागपुर
E-mail : babujaivaiday@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

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