Wednesday 30 November 2011

इतस्ततः


२९ नवंबर के लिए भाष्य


 

विदेश में संस्कृत

३० अक्टूबर को प्रकाशित हुए ‘ऑर्गनायझर’ इस विख्यात अंग्रेजी साप्ताहिक के दीपावली अंक में, ‘संस्कृत भारती’ के अखिल भारतीय संगठन मंत्री श्री श्रीश देवपुजारी का, विदेशों में संस्कृत कैसे लोकप्रिय हो रहा है, यह निवेदन करनेवाला एक सुंदर लेख प्रकाशित हुआ है| यहॉं प्रस्तुत जानकारी, मैंने उसी लेख से ली है|
कॉमनवेल्थ गेम्स (राष्ट्रमंडलीय क्रीडा स्पर्धा) कार्यक्रम समाप्त होने के बाद भी उसकी चर्चा कॉंग्रेस के सांसद सुरेश कलमाडी के भ्रष्टाचार की पराक्रम गाथाओं के कारण कई दिन चली थी| फिलहाल कलमाडी साहब तिहार जेल की हवा खा रहे है| लेकिन इस क्रीडा कार्यक्रम की कुछ विशेषताएँ भी है| उनमें से एक यह कि, इंग्लंड की रानी एलिझाबेथ के प्रतिनिधि ने, भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के प्रतिनिधि को क्रीडा आयोजन का अधिकारदंड (Baton) देते समय ‘संगच्छध्वम्, संवदध्वम्, सं वो मनांसि जानताम्’ यह वैदिक मंत्र पढ़ा गया; और वह भी उसके एकदम सही उदात्त-अनुदात्त-स्वरित स्वरों के आरोहावरोह के साथ| मंत्र पढ़नेवाले छात्र भारतीय नहीं थे| गोरे अंग्रेज थे| देवपुजारी ‘यू ट्यूब’ पर कुछ साहित्य खोज रहे थे, उस समय, यह आश्‍चर्यकारक बात देवपुजारी के ध्यान में आई|
उन्हें ‘यू ट्यूब’ पर अन्य भी कुछ ऐसा साहित्य मिला| दूसरी एक कतरन (क्लिप) में एक अश्‍वेत अमेरिकन ईसाई पाद्री प्रवचन दे रहा था| वह श्रेताओं को नमस्ते का महत्त्व बता रहा था! एकदूसरे को मिलते समय सब ‘नमस्ते’ कहें ऐसा आग्रह कर रहा था| वह बता रहा था कि, ‘नमस्ते’ यह परमेश्‍वर को वंदन करने का विधि है, और वह परमात्मा अन्य सब लोगों के भी अंत:करण में वास करता है| इसलिए किसी के मिलने पर ‘नमस्ते’ कहो|
तिसरी कतरन में एक प्रौढ व्यक्ति, ‘प्रणाम’ कैसे करे, यह सिखा रही थी| हम सब जानते है कि, ‘प्रणाम’ हाथ जोडकर किया जाता है और वह ‘नमस्ते’ का बोधक होता है|
एक अन्य कतरन में एक ऑर्केस्ट्रा संस्कृत गाने गा रहा था| उस आर्केस्ट्रा का नाम है ‘शान्ति:शान्ति:’!
यह किस बात का प्रभाव होगा? यह प्रभाव है ‘संस्कृत भारती’द्वारा अमेरिका में संस्कृत संभाषण के जो वर्ग चलाए जाते है उसका| प्रतिवर्ष अमेरिका में कम से कम ४० स्थानों पर यह संस्कृत संभाषण वर्ग नियमित लिए जाते है| इसका परिणाम यह हुआ है कि, कम से कम सौ अमेरिकी परिवार, आपस में संस्कृत में बोलने लगे है| कुछ संभाषण वर्ग निवासी पद्धति के होते है| वह एक प्रकार से पारिवारिक मेला ही होता है| इस मेले का नाम है ‘जान्हवी’| परिवार में के सब छोटे-बडे एकत्र आते है तथा बालक और युवक खेल आदि का आनंद लेते है, तो वयस्क लोग चर्चा करते है| लेकिन खेल हो या चर्चा, सब संस्कृत में ही चलता है|
यूरोप के फ्रान्स में भी संस्कृत का आकर्षण बढ़ रहा है| बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय के गोपबंधु मिश्र नाम के प्राध्यापक गत दो वर्ष से फ्रान्स में रह रहे है| वे वहॉं एक विश्‍वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाते है| उस विश्‍वविद्यालय में उन्होंने एक संस्कृत संभाषण शिबिर भी आयोजित किया था|
‘संस्कृत भारती’ने आयर्लंड में के चार शिक्षकों को संस्कृत पढ़ाया| अब वे अपने विश्‍वविद्यालय में संस्कृत पढ़ा रहे है| विद्यार्थींयों को संस्कृत पढ़ाने के पूर्व, उन्होंने उनके पालकों की सभा ली| उन्हें संस्कृत का महत्त्व समझाया| पालकों ने इस उपक्रम को मान्यता दी| इन चार शिक्षकों के प्रमुख का नाम रटगुर (Rutgure) है| लेकिन अब वो अपना नाम ‘मृत्युंजय’ बताता है!
पाश्‍चात्त्यों को अपने जीवन की पुनर्रचना करे, ऐसा लगता है| उन्हें योग और आयुर्वेद पढ़ने में रस निर्माण हुआ है| इससे हमारे जीवन में समतोल और शान्ति निर्माण होगी, ऐसा उन्हें लगता है| इस कारण हिंदूओं के विचार और तत्त्वज्ञान जानने की इच्छा उनके मन में जागृत हुई है| और, यहॉं भारत में? ‘गुड मॉर्निंग’ से लेकर ‘हॅपी बर्थ डे’ धडल्ले से चल रहे है| रामनवमी उनके लिए ‘बर्थ डे ऑफ राम’ होता है!

ईसाई विश्‍वविद्यालय में योग

उपर योग के बारे में आकर्षण का उल्लेख किया है| हमारे यहॉं ‘सेक्युलॅरिझम्’ का रंगीन चष्मा लगाए रहने के कारण, सेक्युलॅरिस्टों को कुछ और ही रंग दिखाई देते है| कुछ दिनों पूर्व मध्य प्रदेश में की भाजपा की सरकार ने सरकारी विद्यालयों में सूर्यनमस्कार और योग पढ़ाने की व्यवस्था की थी| उस समय ईसाई और कुछ मुस्लिम संस्थाओं के साथ ढोंगी सेक्युलरवादियों ने भी उस उपक्रम का विरोध किया था| उनका कहना था कि, हमारा संविधान ‘सेक्युलर’ है और योग तथा सूर्यनमस्कार हिंदू धर्म का अंग होने के कारण सरकारी विद्यालयों में उसकी शिक्षा देना संविधान के विरुद्ध है| लेकिन, सब ईसाई और मुस्लिम इन विचारों के नहीं है| बंगलोर से प्रकाशित होनेवाले ‘बंगलोर मिरर’ इस समाचारपत्र के १७ ऑगस्त २०११ के अंक में ऐसी जानकारी है कि, कट्टरता के लिए विख्यात देवबंद के दारुल उलूम ने ‘योग’ इस्लाविरोधी नहीं, ऐसा फतवा निकाला था| अनेक ईसाई संस्थाएँ भी अब ऐसा ही मत प्रकट करने लगी है|
अमेरिका में तो मानो योग सिखाने की चाह ही निर्माण हुई है| कॅलिर्फोनिया में कापेपरडाईन विश्‍वविद्याय, ईसाई विश्‍वविद्यालय के रूप में पहेचाना जाता है| वह विश्‍वविद्यालय ‘प्राणविन्यास फ्लो योग’ इस नाम से, सूर्यनमस्कार पर आधारित प्राणायाम सिखाता है| टेक्सास राज्य में बॅप्टिस चर्च का ‘बेलर’ (Baylor) विश्‍वविद्यालय है|  उस विश्‍वविद्यालय में अधिकृत रूप से, प्रतिवर्ष, वसंत ऋतु में, अष्टांग योग का प्रशिक्षण दिया जाता है| टेनेसी राज्य में के बेलमॉण्ट विश्‍वविद्यालय में ‘फ्लो योग’, ‘रेस्टोरेटिव्ह योग’, ‘योग ऍट द वॉल’, नामों से प्राणायाम सिखाया जाता है| इलीनाईस, मॅसॅच्युसेट्ल, वॉशिंग्टन, मिसीसीपी इन राज्यों में भी विभिन्न नामों से योग पढ़ाया जाता है| कहीं उसे ‘हठयोग’ कहा जाता है, तो कहीं ‘पॉवर योग’| वॉशिंग्टन में के व्हिटवर्थ विविश्‍वविद्यालय में ‘देवान् पूजय’, ‘येशुम् अनुसर’, ‘मानवं सेवस्व’ इन संस्कृत मंत्रों के साथ योग शिक्षा दी जाती है| इनमें के अधिकांश विश्‍वविद्यालय, अपनी पहेचान ईसाई विश्‍वविद्यालय के रूप में बताते है| अमेरिका में के ‘युनिव्हर्सल सोसायटी ऑफ हिन्दुइझम्’ इस संस्था के अध्यक्ष राजन् आनंद बताते है कि, ‘‘योग हिंदू धर्म से जुडा है, लेकिन वह संपूर्ण दुकिया की संपदा है| अपने धर्म का पालन करते हुए भी योगानुष्ठान किया जा सकता है|’’  ‘नॅशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ हेल्थ’ यह अमेरिका में की एक प्रमुख संस्था है| उस संस्था ने सार्वजनिक रूप से बताया है कि, योग से मन की उद्विग्नता दूर होती है, उसे शान्ति मिलती है और श्‍वासोच्छ्वास निरामय होता है|

‘सुयश’ यशोगाथा

पुना में ‘सुयश’ नाम की एक सेवाभावी संस्था है| उसका वनवासी बंधुओं की सेवा करने का व्रत है| ‘सुयश’ के इस सेवाकार्य का मुख्य सूत्र वनवासी बंधु आत्मनिर्भर बने, यह है| १९८२ में ‘सुयश चैरिटेबल ट्रस्ट’ की स्थापना की गई| उसके कार्य का विस्तार अब महाराष्ट्र के बाहर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और ओरिसा इन राज्यों में भी हुआ है|
वर्ष २००९ में ‘सुयश’ने निश्‍चित किया कि, वनवासी बंधु किसी की भी आर्थिक सहायता लिए बिना स्वयंपूर्ण बने| इसके अंतर्गत ११३ गॉंवों में के २४१० परिवारों ने अपने पैसों से ३६ लाख ५० हजार रुपयों के बीज खरीदे, बोए और ८ करोड ६८ लाख रुपयों का उत्पादन लिया|
वर्ष २०१० में २९३ गॉंवो में के १२ हजार ५५ परिवार इस प्रयोग में शामिल हुए| ३०० युवा किसानों की फौज खडी हुई| १ करोड ७१ लाख रुपयों के बीज खरीदे गए और उसमें से ५७ करोड ६४ लाख रुपयों का उत्पादन हुआ| आगे इस उपक्रम की प्रगति ही होती गई| २०११ में, अधिक आत्मविश्‍वास के साथ ७२८ गॉंवों के २७,८५० परिवारों ने इस योजना में भाग लिया| उनका उद्दिष्ट १४० करोड रुपयों का उत्पादन लेने का है|
‘सुयश’ने सब कार्यकर्ताओं को कृषि विकास का एक मंत्र ही दिया है| इसके लिए चार सूत्री कार्यक्रम चलाया गया| वे चार सूत्र इस प्रकार है :
१) बीज एवं बीजप्रक्रिया : पहले वनवासी बंधु बीजप्रक्रिया किए बिना बीजों का उपयोग करते थे| इस कारण फसलें रोग की शिकार होती थी| ‘सुयश’ने बीजप्रक्रिया करने का मार्गदर्शन किया| बीजप्रक्रिया के लिए, गोबर, नमक का पानी, जिवाणुसंवर्धक (रायझोबियम, ऍझेटोबॅक्टर) जैसी सेंद्रिय प्रक्रियाओं का प्रयोग करना सिखाया| अंकुरणशक्ति कैसे जॉंचे यह भी सिखाया| इससे उत्पादन में २० से २५ प्रतिशत वृद्धि हुई|
२) सेंद्रिय खाद : ‘सुयश’ने रासायनिक खाद के दुष्परिणामों की जानकारी लोगों को दी| गड्डा पद्धति से कम्पोस्ट खाद बनाना सिखाया| इसके अलावा, केंचुओं के खाद, हीरयाली के खाद, जिवाणु खाद कैसे बनाना, इसका भी मार्गदर्शन किया| यह सब करते समय मिट्टी /खाद की जॉंच के लिए, परीक्षण संच उपलब्ध करा दिए और उनका उपयोग करना भी सिखाया|
३) जैविक कीटनाशक : रासायनिक कीटकनाशकों का मानव, अन्य प्राणी, पर्यावरण और मित्र कीडोंपर दुष्परिणाम होता है और उत्पादन खर्च भी बढ़ता है| इस पर उपाय, इस रूप में ‘सुयश’ने जैविक पद्धति से कीटनियंत्रण कैसे करना और रोग आने के पहले ही फसलों का संरक्षण कैसे करना, इस बारे में मार्गदर्शन किया| गौमूत्र अर्क, वनस्पतिजन्य कीटकनाशक (दशपर्णी अर्क, निबोली अर्क) आदि का प्रयोग कैसे करे, इसका प्रशिक्षण दिया| रोग ही ना आए, इसके लिए क्या करना चाहिए यह भी बताया|
४. जलव्यवस्थापन : असमय बारिश, पानी की कमी, केवल खरीप की फसल पर परिवार चलाना असंभव है, यह सब बातें ध्यान में रखकर बांधबंधन, पत्थर के बांध, वनराई बांध, खेती तालाब, कुएँ, फेराक्रिट बंधारे आदि उपायों से बारिश का पाणी रोककर, उसका नियोजन कैसे करें, इस बारे में ‘सुयश’के कार्यकर्ताओं ने मार्गदर्शन किया| संग्रहित पानी की मात्रा कैसे गिने और उससे कितनी खेती का सिंचन हो सकता है यह भी गणित वनवासियों को समझाया| रब्बी का बुआई क्षेत्र बढ़ाकर वनवासियों के कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के लिए ‘सुयश’ने चार-पॉंच वनवासी परिवारों के लिए एक जलनियोजन प्रकल्प की व्यवस्था करना निश्‍चित किया और उसके अनुसार वनवासियों को मार्गदर्शन किया|
इस उपक्रम के कारण, गॉंव के लोगों का काम की खोज में बाहर जाना बंद हुआ| ‘सुयश’ के और भी कुछ पषशंसनीय उपक्रम है| विस्तृत जानकारी के लिए, सांगली से प्रकाशित होनेवाले ‘विजयन्त’ साप्ताहिक का २५ अक्टूबर २०११ का अंक देखें|
‘विजयंन्त’ का पता है : ‘विजयन्त’, २५५, खणभाग, सांगली| दूरध्वनि क्रमांक : २३७६४११.

वंगारी माथाई

वंगारी माथाई यह एक महिला का नाम है| वह आफ्रीका में के केनिया देश की निवासी है| आफ्रीका में से नोबेल पारितोषिक प्राप्त करनेवली वे एकमात्र महिला है| २००४ में उन्हें शान्ति का नोबेल पारितोषिक मिला था| ८ अक्टूबर को उनकी मृत्यु हुई| ईसाई होने के बावजूद उन्होंने, मेरा दाह संस्कार ही होना चाहिए, ऐसी इच्छा व्यक्त की थी| महंगे कॉफीन में अपना देह रखा जाना उन्हें मान्य नहीं था| उनकी इच्छा का सबने मान रखा, और नैरोबी की कारिओकर स्मशानभूमि में की दाहवाहिनी में उनका शव आग के स्वाधीन किया गया|
वे पर्यावरणवादी थी| पेड़ों की कटाई उन्हें पूर्णत: अमान्य थी| कॉफीन बनाकर, उसमें देह रखकर उसका दफन करने के विरोध के लिए भी उनका वृक्षप्रेम ही कारण होगा| उन्हें ‘आफ्रीका की वृक्षमाता’ (Tree Mother of Africa) कहा जाता है|
अनेक बारे में उन्होंने प्रथम क्रमांक प्राप्त किए थे| पूर्व आफ्रीका में की वे पहली महिला पीएच. डी. थी| एक पार्क में ६० मंजिला इमारत बननी थी| उन्होंने असके विरुद्ध तीव्र आंदोलन किया और सरकार को अपना प्रकल्प पिछे लेने के लिए बाध्य किया| १९९० के दशक में, मोई इस तानाशाह के सत्ता के काल में, राजनयिक कैदियों की मुक्तता के लिए उन्होंने उन कैदियों की माताओं का विवस्त्र मोर्चा निकाला था| अंत में तानाशाह की वह सरकार झुकी और उसने सब राजनयिक कैदियों को मुक्त किया|
महंगे साग कीलकडी की कॉफीन ना बनाए| शव ढोने के लिए सीडी भी सस्ते पॅपीरस के लकडी की बनाए, ऐसी अपनी इच्छा उन्होंने मृत्यु के पूर्व ही बताई थी| उसने रिश्तेदार और मित्रों ने उसकी इच्छा का सम्मान किया और उसका दाह संस्कार किया|

रूढीग्रस्त चर्च

पश्‍चिम के प्रगतिशीलता की हम खूब प्रशंसा करते है| लेकिन वहॉं चर्च अभी भी रूढीग्रस्त ही है| रोमन कॅथॉलिक पंथीयों को सर्वाधिक रुढिप्रिय माना जाता है| तुलना में प्रॉटेस्टंट चर्च सुधारवादी है, ऐसा माना जाता है| लेकिन यह धारणा प्रॉटेस्टंट पंथ के, प्रेस्बिटेरियन इस उपपंथ ने गलत साबित की है| हमारे मिझोराम में भी यह एक चर्च है| इस चर्च ने निश्‍चित किया है कि, कोई भी महिला पॅस्टर मतलब पाद्री या चर्च की अधिकारी नहीं बनेगी| १९७० के दशक में एक महिला पॅस्टर चुनी गई थी| लेकिन उसे वह पद नहीं दिया गया| ईसाई लोगों में इसके विरुद्ध असंतोष था| लोगों ने इस बार जोरदार मांग की कि, चर्च की सेवा के कार्य में लिंगभेद ना करें| लेकिन, यह मांग चर्च के कार्यकारी मंडल (सायनॉड) ने खारीज की| मिझोराम के बॅप्टिस्ट चर्च का भी महिला पुरोहितों को विरोध है|
दुनिया में हिंदूओं को रूढीवादी कहकर उनकी अवहेलना की जाती है| लेकिन हिंदूओं में शांततापूर्वक इष्ट परिवर्तन हुआ है| इतिहास इसका साक्षी है और वर्तमान ने भी इसके उदाहरण प्रस्तुत किए है| अब महिला पुरोहित यह वास्तविकता बन चुकी है| वे केवल पुराणोक्त मंत्र ही पढ़ती नहीं, तो वेदोक्त मंत्रों से धार्मिक कार्य भी करती है| इस वर्ष मुंबई में हुए गणेशोत्सव में पूजा करने के लिए करीब तीन सौ शालेय छात्राओं को प्रशिक्षित किया गया| तुलना में शालेय छात्रों की संख्या केवल ७० थी| ये छात्र शिवाजी विद्यालय, अहल्या विद्यालय और किंग जॉर्ज स्कूल में पढ़नेवालें थे| बताया जाता है कि, मुंबई में दो लाख से अधिक गणेश मूर्तिंयों की स्थापना होती है; और शहर में केवल तीन हजार पुरोहित है| अनेकों को काफी समय तक पुरोहितों की बाट जोहनी पडती है| इस पर उपाय के लिए नरेश दहीबावकर इस उत्साही व्यक्ति ने, छात्रों को पौरोहित्य सिखाना तय किया और अपना वह निश्‍चय पूरा भी कर दिखाया| श्री दहीबावकर बृहन्मुंबई गणेशोत्सव समन्वय समिति के अध्यक्ष है| किसी ने भी इन युवा महिला पुरोहितों का विरोध नहीं किया| समयानुसार जो चलते हैं वे ही टिकते हैं| जो विशिष्ट कालबिंदु के पास रुक जाते हैं, वे समाप्त हो जाते हैं, यह त्रिकालाबाधित नियम है|

- मा. गो. वैद्य
नागपुर
babujaivaidy@gmail.com

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

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