Monday 9 January 2012

काश्मीर समस्या : पाडगावकर और न्या. मू. रत्नपारखी

भाष्य ११ जनवरी के लिए

                                                


 भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर की जनता के साथ और मुख्यतः विघटनवादी शक्तियों के साथ वार्तालाप करने के लिए जो वार्ताकार टीम नियुक्त की थी, उसके प्रमुख श्री दिलीप पाडगावकर २५ दिसंबर को नागपुर आए थे। निमित्त था मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्या. मू. एम. एस. उपाख्य अण्णासाहब रत्नपारखी ने हाल ही में लिखे पुस्तक 'Kashmir Problem and its Solution'  के प्रकाशन का। प्रकाशन का कार्यक्रम उसी दिन सायंकाल संपन्न हुआ। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री. विकास सिरपुरकर कार्यक्रम के अध्यक्ष थे।प्रकाशन का यह औपचारिक कार्यक्रम होने के पूर्व सुबह, श्री पाडगावकर का दस-बारह लोगों के साथ अनौपचारिक वार्तालाप हुआ। इन दोनों कार्यक्रमों में मैं उपस्थित था।

पूर्व ग्रह दूर हुए

मुझे यह मान्य करना चाहिए कि, समाचारपत्रों में प्रकाशित समाचारों से वार्ताकार टीम के बारे में हमारे जो ग्रह बने थे, वह बड़ी मात्रा, इस वार्तालाप के कारण और सायंकाल कश सार्वजनिक कार्यक्रम में हुए भाषण के कारण दूर हुए। मेरे समान ही अनेकों की कल्पना थी कि, पाडगावकर विघटनवादियों का पक्ष लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस वार्ताकार टीम ने उनकी रिपोर्ट सरकार को दी है। वह गोपनीय है। लेकिन वह सदैव गोपनीय रहे, ऐसी पाडगावकर की इच्छा नहीं। उन्होंने स्पष्ट ही कहा कि, यथाशीघ्र वह प्रकट हो और उस पर सार्वजनिक चर्चा हो। केन्द्र सरकार उसे गोपनीय क्यों रख रही है यह एक पहेली है। लोकप्रबोधन की दृष्टि से वह प्रकट होना अत्यंत आवश्यक है। इससे, इन वार्ताकारों के बारे में जो गलतफहमियाँ फैली है, वह तो दूर होगी ही, लेकिन उन्हें उस राज्य में क्या अनुभव हुआ, यह भी स्पष्ट होगा।

प्रश्न नागरिकता का

सुबह की अनौपचारिक चर्चा में, पाडगावकर की करीब चालीस मिनट की प्रस्तावना के बाद मैंने ही उन्हें प्रथम प्रश्न पूछा कि, १९४७ से पाकिस्तान में से जो हिंदू निर्वासिहत जम्मू-काशमीर राज्य में, वास्तव में जम्मू प्रदेश में स्थायिक हुए, क्या उनमें से कोईआपसे मिला? जानकारों को पता होगा कि, ये जो तीन-चार लाख निर्वासित है, उन्हें भारत सरकार ने नागरिकता प्रदान की है, लेकिन जम्मू-काश्मीर की सरकार ने उन्हें नागरिकता नहीं दी है। इस कारण ये लोग, लोकसभा के चुनाव के लिए मतदान कर सकते है, लेकिन राज्य में के पंचायत चुनाव से विधानसभा के चुनाव तक उन्हें मतदान का अधिकार नहीं। इन लागों की व्यथा पाडगावकर को समझी है, ऐसा उनके उद्‌गारों से सूचित होता है। इस बारे में उनकी टीम ने उनके रियोर्ट में क्या कहा है, यह अभी तक तो गुप्त है। पाडगावकर ने सुबह के वार्तालाप में और सायंकाल के भाषण में यह जोर देकर बताया कि, वह रिपोर्ट गोपनीय होने के कारण, उसमें क्या है, यह मैं बताऊंगा नहीं और आप भी, मेरा भाषण सुनकर या अन्य रिति से, उस रिपोर्ट के बारे में अंदाज बनाना टाले। मुझे यह भी अच्छा लगा कि, इन लोगों को सरकार के एक भेदभावपूर्ण नीति का अहसास है।

रास्ता भटके?

पाडगावकर ने यह भी कहा कि, वे जम्मू में न जाकर, लाहोर के रास्ते भारत आते, तो यह समस्या ही निर्माण नहीं होती। भारत के प्रधानमंत्री बने दो व्यक्ति पाकिस्तान से आए थे। उनमें से एक विद्यमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह है, तो दुसरे इंद्रकुमार गजराल है। लेकिन मेरे मतानुसार, वे रास्ता भटके या उनके मुकाम का स्थान गलत था, यह उनके दुर्भाग्य का कारण नहीं। उनके दुर्भाग्य का सही कारण, वे हिंदू है, यह है। वे मुसलमान होते, तो उनके राज्य के नागरिक बनने में कोई बाधा नहीं आती। यह केवल तर्क नहीं। वस्तुस्थिति है। १९४७ में, जम्मू-काश्मीर पर पाकिस्तान ने किए आक्रमण के समय, जो लोग, उसी प्रदेश में से पाकिस्तान में भाग गए, वे वापस आए इसलिए, एक प्रकार से, रेड कार्पेट बिछाने का उद्योग जम्मू-काश्मीर की सरकार ने किया। राज्य विधानसभा में उस बारे में कानून ही पारित किया। जो लोग पाकिस्तानवादी थे, जिन्होंने भारत के विरुद्ध सब प्रकार के हिंसक आंदोलनों में भाग लिया होने की संभावना है, उन्हें वापस लाने के लिए राज्य सरकार उत्सुक है। कारण एक ही कि वे सारे मुसलमान है! जम्मू-काश्मीर के राज्यपाल ने उस विधेयक को सम्मति नहीं दी और वह विधेयक वापस लौटा दिया तब, विधानसभा ने उसे वैसी ही पुनः पारित किया। इस कारण राज्यपाल के सामने उस पर स्वाक्षरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। फिर वह राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए गया, उस समय किसी राष्ट्रहितैषी व्यक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और उस कानून अमल को स्थगिति मिली। कुछ वर्ष बाद स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने ही वह स्थगिति हटाई थी। लेकिन फिर कोई पुनः न्यायालय में गया और उसे पुनः स्थगिति मिली। इस कारण उस पर अमल रूका है। यह विघातक विधेयक जिस फारूक अब्दुला की सत्ता के समय दो बार मंजूर किया गया, वे आज डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्रिपद भोग रहे है! और दिलचस्व बात यह है कि, इस भेदभाव के समर्थन के लिए, जिनके विरोध में शेख महमद अब्दुला की नॅशनल कॉन्फरन्स ने सतत आग उगली है, उन महाराजा हरिसिंग के कार्यकाल में के एक नियम का वे आधार ले रहे है।

पंडितों का प्रश्न

इस वार्तालाप में, मैंने काश्मिरी पंडितों के पुनर्वसन के बारे में भी प्रश्न पूछा था। ऐसा लगा कि, पाडगावकर को इस समस्या का भी अहसास है। मैंने मेरा एक अनुभव बताया। मैं दिल्ली में संघ का प्रवक्ता था उस समय, काश्मिरी पंडितों में से कोई मुझे मिलने आया था। उनकी मांग है कि, काश्मीर की घाटी में ही एक विशिष्ट क्षेत्र में उनका पुनर्वसन होना चाहिए। करीब पाँच लाख की जनसंख्या का वह शहर होगा और उसे केन्द्र शासित प्रदेश मानकर, केन्द्र सरकार ने, चंडीगढ़ या पुदुचेरी नगर के समान उसकी भी सुरक्षा करनी चाहिए। 'पनून काशमीर' यह जो इन पंडितों की प्रातिनिधिक संस्था है, उसकी भी यही मांग है। श्री जगमोहन राज्यपाल थे उस समय, उन्होंने घाटी में के तीन स्थानों पर उनके पुनर्वास की योजना बनाई थी। लेकिन उस पर अमल नहीं हो सका। न्या. मू. अण्णासाहब रत्नपारखी ने भी उनकी पुस्तक में इस त्रिस्थली पुनर्वास की योजना का समर्थन किया है। लेकिन मेंरा मत, 'पनून काश्मीर' के मतानुसार है। उनका एक अलग नगर कहे या जिला होना चाहिए और वह केन्द्र शासित हो। जम्मू-काश्मीर की विद्यमान सरकार पुडितों की दुरावस्था के बारे में कभी कभार मगरमछ के आँसू बहाते दिखती है और निर्वासित पंडित अपने अपने गाँव लौटे, ऐसा भी वे सुझाते है। लेकिन पंडित पुनः अपने उपर विपत्ति नहीं ओढ लेंगे; और वे पुनः खतरा क्यों मोल ले? उन्हें अपने घर-बार छोडकर निर्वासित क्यों होना पड़ा? वे क्या कर रहे थे? मुसलमानों के घरों में आग लगा रहे थे या उनके महिलाओं-लड़कियों को भगाकर ले जा रहे थे? उनका अपराध एक ही था कि वे हिंदू थे। उनकी सुरक्षा के लिये सरकार आगे क्यों नहीं आई? मेरे कहने का आशय यह कतई नहीं कि, सब मुसलमान, पंडितों की सम्पत्ति या सम्मान लुटने के विचारों के थे! नहीं। कुऐ सज्जन भी थे। लेकिन उन सज्जनों की, मुस्लिम गुंडों के सामने कुछ नहीं चली। इस संदर्भ में आँखें खोलने वाला एक प्रसंग 'अंडर द शाडो ऑफ मिलिटन्सी : द डायरी ऑफ ऍन अन्‌नोन काश्मीरी' इस पुस्तक में वर्णित है। मेरे 'काश्मीर : समस्या और समाधान' इस पुस्तक में भी मैंने वह उद्‌धृत किया है। (जिज्ञासुओं को मेरे पुस्तक में पृ. १५०-१५१ पर वह मिलेगा या उपर उल्लेखित पुस्तक के मराठी अनुवाद 'दहशतीच्या छायेत' इस पुस्तक के पृ. ५७ और ५८ देखे।)

समस्या पर उपाय

जम्मू-काश्मीर समस्या पर क्या उपाय है, यह पाडगावकर के भाषण में से समझ नहीं आया। उनकी रिपोर्ट में, शायद, उसकी चर्चा होगी। उन्होंने इतना अवश्य बताया कि, कट्टर आतंकी विघटनवादी नेताओं में से कोई भी उन्हें मिलने नहीं आया। निमंत्रण मिलने के बाद भी वे नहीं आये। तथापि, न्या. मू. रत्नपारखी की पुस्तक में, काश्मीर समस्या पर के उपायों की विस्तृत चर्चा है। सियासी तथा फौजी दोनों उपयों की उन्होंने दखल ली है। उनके सब प्रतिपादनों से सहमत होना ही चाहिए, ऐसा नहीं। लेकिन उन पर चर्चा हो सकती है और वह होनी भी चाहिए यही लेखक की इच्छा होगी। हमारे संविधान में की धारा ३७० हटाए और जम्मू-काश्मीर राज्य, भारत में के अन्य राज्यों के समान एक घटक राज्य बनें, ऐसी एक मांग है। स्वयं भूतपूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अपनी 'माय फ्रोजन टर्ब्युलन्स इन्‌ काश्मीर' इस पुस्तक में धारा ३७० ने किए दुष्परिणामों का उत्तम वर्णन किया है। न्या. मू. अण्णासाहब ने वह परिच्छेद ही संपूर्ण अपने पुस्तक में उद्‌धृत किया है। लेकिन वे जगमोहन के मतों से सहमत नहीं दिखते। उन्हें जगमोहन का प्रतिपादन मतलब भावनोद्रेक लगता है। किसी उपन्यास के समान लगता है। उसमें तर्कवाद या युक्तिवाद का अभाव है, ऐसा उन्हें लगता है। उनके मतानुसार काश्मीर की अलगता और निवासियों में भेदभाव का कारण अपने संविधान की धारा ३७० नहीं। जम्मू-काश्मीर राज्य का जो स्वतंत्र संविधान है, उस संविधान की धारा ६ के कारण यह होता है और इस धारा ६ को हमारे संविधान में की धारा ३५-अ ने आधार दिया है। न्यायमूर्ति का प्रतिपादन है कि, प्रथम धारा ३५-अ हमारे संविधान में से रद्द करें। मैंने सहज ही मेरे पास की संविधान की प्रति देखी। उसमें २००३ तक के संशोधन अंतर्भूत है। लेकिन उसमें ऐसी आक्षेपार्ह धारा दिखाई नहीं दी। न्या. मू. रत्नपारखी का संविधान का अभ्यास अत्यंत सखोल एवं सर्वंकष है। इस कारण, उनसे गलती होना संभव ही नहीं। मुझसे ही गलती होने की संभावना है।

३७० का समर्थन

पाडगावकर को भी धारा ३७० के कायम रहने में कोई गलती है, एोस नहीं लगता। न्या. मू. रत्नपारखी लिखते है कि, धारा ३७० भारत को काश्मीर से जोडनेवाला पूल है। प्रश्न यह है कि ऐसा पूल म्हैसूर, बडोदा या ग्वालियर इन रियासतों के लिए क्यों नहीं? पाडगावकर ने अपने सार्वजनिक भाषण में कहा कि, धारा ३७० के अनुसार ही भिन्न भिन्न राज्यों के लिए धारा ३७१ है। पाडगावकर का कहना सही है। 'ए' से 'आय्‌' तक धारा ३७१ की उपधाराएँ हैं और वह क्रमश: नागालँड, असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, (फिर आंध्र प्रदेश), सिक्कीम, मिझोराम, अरुणाचल और गोवा इन राज्यों के लिए है। धारा ३७० यदि इतनी निरुपद्रवी होगी और धारा ३७१ के जम्मू-काश्मीर के लोगों का समाधान होना होगा, तो धारा ३० रद्द कर ३७१ के 'आय्‌' बाद का  'जे' अक्षर लेकर वह भी जम्मू-काश्मीर को लागू करें। कोई भी शिकायत नहीं करेगा!

स्वायत्तता एवं विभाजन

यह मान भी ले कि, मुसलमानों को खुष करने के लिए यह अलग व्यवस्था आवश्यक है। उन्हें अधिक स्वायत्तता चाहिए और अनेकों को यह समर्थनीय लगता है। फिर उनसे विचार विनिमय कर निश्चित करे, उस स्वायत्तता का आकार और प्रकार (content and complexion) लेकिन वह उस राज्य के अन्य भागों पर क्यों लादे? जिन्हें वह चाहिए, उन्हें वह भोगने दे। औरों  पर उसकी जबरदस्ती क्यों? इस विचार से रा. स्व. संघ के त्रिभाजन की मांग करनेवाले प्रस्ताव का उगम हुआ है। वह, वर्ष २००२ में, संघ के कार्यकारी मंडल ने (प्रतिनिधि सभा ने नहीं) पारित किया। तब और एक कारण उपस्थित हुआ था। १९४७ में पाकिस्तान में जो मुसलमान भाग गये और जिन्हें वापस लाने के लिए फारूक अब्दुला सरकार तड़प रही थी, उन सब का जम्मू प्रदेश में पुनवर्सन करने की योजना थी। विद्यमान जम्मू प्रदेश में मुसलमानों की संख्या ३५ प्रतिशत है। उसे और बढ़ाने की यह चाल थी। जम्मू के लोगों को डर लगा कि, यह जनसंख्या का अनुपात बिगाडने का षड्‌यंत्र है। जम्मू का अरग राज्य बना, तो भेदभाव समाप्त होगा। काश्मीर में जितने बड़े मतदार संघ के लिए एक विधायक है, उतने बड़े मतदार संघ के लिए जम्मू में भी एक विधायक रहेगा। आज काश्मीर घाटी का वर्चस्व कायम रखने के लिए करीब समान जनसंख्या होते हुए भी जम्मू-काश्मीर के हिस्से विधानसभा की ३७ सिटें हैं, तो घाटी के हिस्से ४६। काश्मीर घाटी के एक विधानसभा क्षेत्र में करीब ५३ हजार मतदाता होते है, तो जम्मू प्रदेश के एक मतदार संघ में मतदाताओं की संख्य करीब ६७ हजार होती है। जो बेचारे गत साठ वर्षों से अधिक स्थानिक एवं राज्यस्तरीय मतदान से वंचित है, उन्हें, जम्मू प्रदेश का अलग राज्य बन गया तो राज्य की नागरिकता भी प्राप्त होगी। आज ये लोग भारत के नागरिक है, लेकिन जम्मू-काश्मीर के नहीं। क्या अन्य राज्यों में ऐसी स्थिति है। विद्यमान राज्य के विभाजन से, घाटी में एक छोटा पाकिस्तान निर्माण होगा, यह न्यायमूर्ति का भय निरर्थक है, ऐसा मेरा मत है। पाकिस्तान में की आज की प्रचंड गडबडी देखकर कोई मुसलमान पाकिस्तान में जाने की इच्छा रखता होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता।
जो भी हो। संघ का प्रस्ताव होकर अब एक तप बीत रहा है। संघ ने भी उसके लिए ज्यादा आग्रह किया ऐसा नहीं दिखता। भाजपा का तो असे विरोध ही है। फिर, जैसे थे स्थिति रखने में हर्ज नहीं। लेकिन यह राज्य अन्य राज्यों के समान होना चाहिए। जम्मू-काश्मीर के संविधान में कहेनुसार वह भारत का अविभाज्य भाग होना चाहिए और वह वैसा दिखना चाहिए तथा महसूस भी होना चाहिए।

प्रशंसनीय मुद्दे

कुछ प्रशंसनीय मुद्दे न्या. मू. रत्नपारखी के इस पुस्तक मे है। (१) जम्मू-काश्मीर प्रश्न हल करने में पाकिस्तान की कोई भूमिका नहीं। (२) यह प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता से हल नहीं होगा। (३) हमगरी ताकद के भरोसे ही यह समस्या हल हो सकेगी। न्यायमूर्ति के शब्द है - "The problem will be solved on our own strenght. Our strenght lies in our economic and military power and democracy." (पृ. २३४

पाकव्याप्त काश्मीर


एक प्रश्न पाकव्याप्त काश्मीर का भी है। उसकी अधिक चर्चा न्यायमूर्ति के पुस्तक में नहीं है। लेकिन परिशिष्ठ क्रमांक १२ में २२ फरवरी १९९४ को संसद के दोनों सदनों ने पारित किया संपूर्ण प्रस्ताव उन्होंने अतंर्भूत किया है। उस प्रस्ताव में पाकव्याप्त काश्मीर के क्षेत्रे के साथ लदाख काश्मीर घाटी और जम्मू प्रदेश यह सब मिलकर जो जम्मू-काश्मीर राज्य है वह भारत का अविभाज्य भाग है ऐसा प्रतिपादित किया गया है। यह प्रस्ताव पारित कर आज १८ वर्ष हो रहे है। लेकिन सरकार को उस प्रस्ताव का ही सम्रण नहीं होगा ऐसा दिखता है। अन्यथा कारगिल युद्ध के समय युद्धबंदी सीमा रेखा के तथाकथित पावित्र्य से हमने हाथ-पाँव नहीं बांध लिए होते। इसी प्रकार काश्मीर में हिंसक कारवाईंयाँ करनेवालों के इस भाग में के प्रशिक्षण शिबिर हमनें उद्‌ध्वस्त करने की योजना की होती। काश्मीर समस्या के संदर्भ में पाकिस्तान का संबंध केवल उसके कपट से हथियाया प्रदेश कब मुक्त किया जाता है इसी मुद्दे तक मर्यादित है। हुरियत के नेता और अन्य लोग मुख्यतः अंतर्राराष्ट्रीय क्षेत्र के देश कुछ भी कहें जम्मू-काश्मीर राज्य की व्यवस्था के संदर्भ में केवल भारत एवं संपूर्ण काश्मीर की जनता (संपूर्ण राज्य की केवल घाटी की नहीं) इनका ही संबंध है यह भारत को छाती ठोककर बताते आना चाहिए। सौभाग्य से आज की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति हमारे लिए अनुकूल है। पाकिस्तान की समर्थक रही अमेरिका पाकिस्तान को पहले के समान मदद करने की मानसिकता में नहीं है। संपूर्ण मुस्लिमबहुल पश्चिम एशिया अंतर्गत रक्तलांच्छित घटनाओं से अस्वस्थ बना है। और मुख्य यह कि, पाकव्याप्त काश्मीर में की जनता पाकिस्तान के विरोध में है। इस मुद्दे का तपसील एक लेख की मर्यादा में देना असंभव है। उसकी चर्चा मैंने अपने 'काश्मीर, समस्या एवं समाधान' इस पुस्तक में की है। जिज्ञासू वहाँ पृ. १८०, १८१ और १८२ पर देखें। तात्पर्य यह कि समस्या का समाधान अपनी शक्ति पर अवलंबित है। न्यायमूर्ति ने फौजी एवं आर्थिक शक्ति का उल्लेख किया है। मुझे, उस शक्ति के साथ राजकर्ताओं की शक्ति भी चाहिए, यह जोडना है। इच्छा शक्ति होगी तब ही अन्य दो शक्तियों का उपयोग हो सकेगा।

- मा. गो. वैद्य

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

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