Sunday 15 January 2012

चुनाव : उत्तर प्रदेश विधानसभा के

   
    १८ जनवरी के लिए भाष्य

इस जनवरी माह के अंत से, पूरा फरवरी और फिर मार्च माह के पहले सप्ताह तक पॉंच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हो रहे है| पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और गोवा ये वे पॉंच राज्य है| इन सब में उत्तर प्रदेश में के चुनाव को सर्वाधिक महत्त्व है|

उत्तर प्रदेश की विशेषता

अनेक संदर्भ में उत्तर प्रदेश की विशेषता लक्षणीय है| अन्य राज्यों में चुनाव एक दिन में होंगे, तो उत्तर प्रदेश में वह छ: दौर में होंगे| वहॉं करीब एक माह मतदान चलेगा| प्रत्येक राज्य में की जनता को अपने राज्य के भावी सत्ताधीश के बारे में उत्सुकता रहेगी, लेकिन उत्तर प्रदेश के बारे में उत्सुकता केवल उस राज्य के जनता तक ही मर्यादित नहीं| उसे अखिल भारतीय आयाम है| पंजाब हो या छोटा गोवा राज्य, वहॉं के चुनाव के परिणाम उस राज्य तक ही सीमित रहेंगे| लेकिन उत्तर प्रदेश में के चुनाव का परिणाम केन्द्र शासन पर भी होगा| केन्द्र में के गठबंधन के समीकरण बदलने की क्षमता उस चुनाव के परिणाम में है|

उत्तर प्रदेश की महानता

उत्तर प्रदेश यह भारत में का सबसे बड़ा राज्य है| भूगोलीय विस्तार से शायद मध्य प्रदेश सबसे बड़ा राज्य होगा, लेकिन जनसंख्या के बारे में उत्तर प्रदेश का ही प्रथम क्रमांक है| २००१ की जनसंख्या के अनुसार इस राज्य की जनसंख्या १६ करोड ६० लाख से अधिक है| नई जनगणना में उसने १८ करोड का आँकड़ा पार किया होगा, तो आश्‍चर्य नहीं| लोकसभा की कुल सिटों में १५ प्रतिशत केवल उत्तर प्रदेश से है| लोकसभा की ८०, तो विधानसभा की ४०० सिटें हैं| महाराष्ट्र के, एक लोकसभा क्षेत्र में ६ विधानसभा क्षेत्र ऐसा हिसाब लगाया, तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा की ४८० सिटें होनी चाहिए और मध्य प्रदेश या राज्यस्थान का निकष लगाया, तो यह संख्या ६४० होनी चाहिए| इन दो राज्यों में विधानसभा के आठ मतदार संघ एक लोकसभा मतदार संघ में समाविष्ट होते है| उत्तर प्रदेश एकमात्र ऐसा राज्य है कि जहॉं पॉंच विधानसभा मतदार संघ एक लोकसभा मतदार संघ में समाविष्ट होते है|

उत्तर प्रदेश की श्रेष्ठता

हमारा देश स्वतंत्र होकर अब ६४-६५ वर्ष हो चुके है| इस प्रदीर्घ समय में, अत्यल्प समय के लिए प्रधानमंत्री पद प्राप्त करनेवाले चरणसिंह, चंद्रशेखर, देवेगौडा, गुजराल को छोड दे और कुछ दीर्घ समय के लिए इस पद पर आरूढ हुए व्यक्तियों को ही ले, तो नौ प्रधानमंत्रीयों में से छ: उत्तर प्रदेश से चुनकर आए थे| अपवाद केवल मुरारजी देसाई, पी. व्ही. नरसिंह राव और विद्यमान डॉ. मनमोहन सिंह ही है| इनमें से भी मनमोहन सिंह को छोड देने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए| क्योंकि वे कहीं से भी चुनकर नहीं आये है| पंडित जवाहरलाल नेहरु, लालबहादूर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह, अटलबिहारी बाजपेयी ये सब उत्तर प्रदेश से चुनकर आये है| यह सब ध्यान में लिया तो उत्तर प्रदेश का महत्त्व कोई भी समझ सकता है|

उत्तर प्रदेश की भिन्नता

इसलिए उत्तर प्रदेश की विधानसभा के चुनाव की ओर सब भारतीयों का ध्यान लगा होना, स्वाभाविक है| अन्य चार राज्यों में दो पार्टियॉं या दो गठबंधनों में सत्ता के लिए होड है| उत्तर प्रदेश में चार पार्टियॉं स्पर्धा में है| चुनाव के बाद किसका किसके साथ गठजोड होगा यह आज कहा नहीं जा सकता| अनेक प्रकार के आँकड़ों के अदलाबदल होने की संभावनाएँ है| चुनाव के पहले, केवल एक गठबंधन बना है| वह है कॉंग्रेस और चौधरी चरणसिंह के पुत्र अजितसिंह के राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का| २००७ के चुनाव में रालोद भारतीय जनता पार्टी के साथ था| कॉंग्रेस ने अजितसिंह को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान देने की किमत चुकाकर यह गठबंधन बनाया है|
उत्तर प्रदेश में सत्ता प्राप्त करने के लिए अखिल भारतीय स्तर की दो पार्टियॉं चुनाव के मैदान में उतरी है, तो राज्य स्तर की दो पार्टियॉं भी है| कॉंग्रेस और भाजपा पहले गुट में आते है, तो मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी (सपा) दूसरे गुट में आते है| दिलचस्व बात यह है कि, इन चारों पार्टियों ने कभी ना कभी, उत्तर प्रदेश में सत्ता प्राप्त की है| स्वतंत्रता मिलने के पहले से पंडित गोविंदवल्लभ पंत ये कॉंग्रेस के श्रेष्ठ नेता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे| वे केन्द्र सरकार में जाने के बाद चंद्रभानू गुप्त, कमलापति त्रिपाठी, हेमवतीनंदन बहुगुणा, ये सब कॉंग्रेस पार्टी के नेता मुख्यमंत्री थे| भाजपा के कल्याणसिंह और राजनाथसिंह भी इस पद पर आसीन हुए थे| सपा के मुलायमसिंह भी मुख्यमंत्री रह चुके है और बसपा की मायावती तो अभी मुख्यमंत्री है ही|

उत्तर प्रदेश की संभाव्यता

कॉंग्रेस ने अपनी ताकत पर राज किया| वह भाग्य भाजपा को नसीब नहीं हुआ| आज बसपा भी अपने बुते पर सत्ता में है| ४०० सदस्यों की विधानसभा में बसपा के २०३ विधायक है| उसके बाद सपा का नंबर लगता है, फिर भाजपा और अंत में कॉंग्रेस| यह २००७ की स्थिति है| आज ऐसे संकेत दिखाई दे रहे है कि, कोई भी पार्टी अपनी ताकत पर सत्ता में नहीं आ सकती| रालोद के साथ गठबंधन करनेवाली कॉंग्रेस भी नहीं| मतलब चुनाव के बाद गठबंधन अपरिहार्य है| यह गठबंधन, सत्ता में शामिल होकर भी  सकता है, उसी प्रकार बाहर से समर्थन देकर भी हो सकता है| मायावती, प्रथम मुख्यमंत्री बनी, तब भाजपा ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया था| फिलहाल समाचारपत्र गठबंधनों के स्वरूप के कल्पनारम्य चित्र बना रहे है| उसमें सपा सत्ता में, तो कॉंग्रेस का बाहर से समर्थन; मायावती सत्ता में तो भाजपा का बाहर से समर्थन ऐसे चित्र बनाए जा रहे है| इसमें एक गृहितकृत्य है कि, बसपा या सपा अथवा कॉंग्रेस और भाजपा का गठबंधन नहीं हो सकता| राजनीति में कुछ भी असंभाव्य नहीं होता या कोई किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, यह तात्त्विक वचन रूढ हुए है| इसे ध्यान में रखेे तो संभाव्यता के क्षेत्र में ना दिखने जैसा कुछ भी हो सकता है|

बसपा की स्थिति

सर्वत्र ही राजनीति में जातीय गुटों का थोडा-बहुत प्रभाव दिखाई देता है| शायद पश्‍चिम बंगाल, तामिलनाडु या पंजाब अपवाद सिद्ध होंगे| लेकिन उत्तर प्रदेश में जातीय गुट प्रभावशाली है; और समाचारपत्रों में के समाचार और निरीक्षण सरे आम इन गटों का निर्देश करके ही लिखें जा रहें हैं| विषय समझाने के लिए मुझे भी उसी तंत्र का प्रयोग करना पड रहा है|
आज सबसे बड़ा गुट मुसलमान मतदाताओं का माना जाता है| वह एक मजबूत वोट बँक है, ऐसी सार्वत्रिक मान्यता दिखती है| ६ दिसंबर १९९२ को बाबरी ढ़ांचे के पतन के बाद यह वोट बँक कॉंग्रेस के विरोध में गई और कॉंग्रेस सत्ता से बाहर हुई| वह मजबूती के साथ मुलायमसिंह की सपा की ओर गई और उसने मुलायमसिंह को सत्ता में बिठाया| २००७ में भी यह वोट बँक सपा की ओर ही थी| लेकिन बसपा ने अलग समीकरण बनाया| तथाकथित मनुवाद की रट लगानेवाली मायावती ने अपनी चाल बदली| ‘मनुवाद’ गया और असके स्थान पर ‘सर्वजनहिताय’ यह नारा आया| उसने ब्राह्मणों को समीप लाया| दलित और ब्राह्मण, यह कम से कम समाचारपत्रों के स्तंभों में दो छोर माने जाते है, प्रत्यक्ष में स्थिति वैसी होगी, ऐसा नहीं लगता| लेकिन ये दो छोर मायावती नेेएक दूसरे से मिला दिए| सतीशचंद्र मिश्रा के रूप में बसपा को एक नया चेहरा मिला और बसपा की स्वीकार्यता, अन्य समाजगुटों में भी बढ़कर २००७ में अपनी ताकत पर बसपा सत्ता पा सकी| बसपा की यह जीत अनपेक्षित थी| सब के लिए धक्कादायक थी| हालही में प्रकाशित समाचारों पर विश्‍वास करे तो आज वह सामंजस्य शेष नहीं रहा| तथापि, मायावती ने समझदारी की एक बात की है| वह यह कि, अपनी नीव दलितों की उन्होंने उपेक्षा नहीं की| लेकिन केवल नीव मतलब इमारत नहीं होती| सत्ता की इमारत प्राप्त करने के लिए, फिलहाल उन्हें अन्य अतिरिक्त शक्ति प्राप्त नहीं| इस कारण, मायावती ने अपनी ताकत पर सत्ता प्राप्त करना करीब असंभव लगता है| इसके अतिरिक्त, उन पर प्रचंड भ्रष्टाचार के आरोप है| अनेक मंत्रियों को उन्हें हटाना पड़ा है| अनेकों के तिकट काटने पड़े हैं| लेकिन इस शस्त्रक्रिया से बसपा की शक्ति बढ़ेगी, ऐसा कोई भी नहीं मानता| उन्हें आखिर अपना और अपनी सत्ता का बखान करने के लिए एक विदेशी विज्ञापन कंपनी की सहायता लेनी पड़ी है| इस नई तकनीक के विज्ञापन का बसपा को कितना लाभ होता हे, यह मार्च माह में ही दिखाई देगा|

मुस्लिम वोट बँक

यादव और मुसलमानों की यह वोट बँक मुलायमसिंह ने बनाई थी| इनमें से मुस्लिम वोट बँक पर फिलहाल कॉंग्रेस का चारों ओर से आक्रमण शुरू हुआ है| ओबीसी के कोटे में से मुसलमानों के लिए साडेचार प्रतिशत आरक्षण देने की कॉंग्रेस की घोषणा, इसी रणनीति का भाग है| मुस्लिम बहुल आझमगढ़ को कॉंग्रेस के एक महासचिव दिग्विजय सिंह का बार बार भेट देना इसी रणनीति का निदर्शक है; हद तो यह है कि, इस वोट बँक को हासिल करने के लिए अपनी ही सरकार को मुश्किल में फंसाने की दिग्विजय सिंह की उद्दामता भी इसी का द्योतक है| राजधानी में का ‘बाटला हाऊस’ मामला इसका ही एक ठोस उदाहरण है| वहॉं २००८ में, जिहादी आतंकियों को मारने के लिए एंकाऊंटर हुआ| इसमें एक सिपाई शहिद हुआ, तो छिपकर बैठें दो आतंकी मारे गए| वे मुसलमान थे, यह बताने की आवश्यकता नहीं| मुसलमानों का तब से यह कहना हे कि, वह एंकाऊंटर  नकली था| जो मारे गए वे आतंकी थे ही नहीं| सरकार का मत अलग है| लेकिन दिग्विजय सिंह अपने मत पर दृढ है; और उन्होंने उत्तर प्रदेश के चुनाव में कॉंग्रेस की कमान अपने हाथ में ली है, राहुल गांधी भी दिग्विजय सिंह के मत से सहमत होगे ऐसा दिखता है| मुस्लिम वोट बँक को खुष कर अपनी ओर मोडना तय करने के बाद ऐसी कलाबाजियॉं दिखानी ही पड़ती है|

भाजपा की प्रतिमा

भाजपा भी सत्ता की दावेदार है| भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी बसपा और टू जी, राष्ट्रकुल स्पर्धा, हवाला, विदेश में का काला पैसा ऐसे अनेक आर्थिक घोटालों के कारण बदनाम हुई कॉंग्रेस, भ्रष्टाचार में सने इन दो प्रतिस्पर्धिंयों की तुलना में साफ प्रतिमा के भाजपा की ओर स्वाभाविक ही जनमत का झुकाव दिखता था| जाति-गुटों के बारे में सोचे, तो ओबीसी, ठाकूर और ब्राह्मणों का समर्थन भाजपा को मिलना संयुक्तिक ही माना जाना चाहिए| इसके अलावा, किसी भी जाति-गुट में शामिल ना होने वाले, किसी विशिष्ट जाति के होने पर भी, राजनीति के लिए अपने जाति का गुट बनाने का और किसी मुआवजे के लिए उसका उपयोग करने का तंत्र जिन्हें मान्य नहीं, ऐसे बहुत बड़ी संख्या के मतदाताओं का झुकाव स्वाभाविक ही भाजपा की ओर था| टीम अण्णा प्रचार में शामिल होती और स्वयं अण्णा प्रचार के संग्राम में उतरतेे, या नहीं आते, और वे किसी भी राजनीतिक पार्टी का नाम नहीं लेते, फिर भी उनके प्रचार का लाभ भाजपा को ही हुआ होता| लोग कहते थे कि भाजपा को कम से कम सौ सिटें मिलेंगी| मतलब २००७ की तुलना में दुगनी| लेकिन भाजपा को क्या दुर्बुद्धि सूझी पता नहीं| उसने भ्रष्टाचार के मामले में फंसे मायावती के मंत्रिमंडल में के एक मंत्री - बाबूसिंह कुशवाह को - पार्टी में शामिल कर लिया और इस कारण पार्टी में प्रचंड नाराजी फूंटी| केन्द्र में के नेता भी अस्वस्थ हुए| आखिर कुशवाह को पार्टी की सदस्यता देना स्थगित किया गया| लेकिन हानि तो हो चुकी है| प्रतिमा को धब्बा तो लग ही गया| उत्तर प्रदेश की राजनीति के एक सखोल अभ्यासक ने मुझे बताया कि, भाजपा की कम से कम १८ से २० सिटें कम होगी| बुंदेलखंड में कुशवाह भाजपा को लाभ दिला सकते है| ऐसा होगा भी लेकिन होने वाली हानि, इस होनेवाले लाभ से दोगुना से अधिक की होगी| उनके मतानुसार भाजपा के विधायकों की संख्या ७५ से आगे नहीं जा सकती|

सद्य:स्थिति

मतलब, आज की स्थिति यह है कि, बसपा को, स्पष्ट बहुमत न मिलने पर भी वह सबसे बड़ी पार्टी रहेगी| दुसरे स्थान के लिए,  सपा, भाजपा और रालोद के साथ कॉंग्रेस स्पर्धा में है| २००७ के विधानसभा चुनाव में कॉंग्रेस को जोरदार चपत लगी थी| लेकिन २००९ के लोकसभा के चुनाव में उसने लोकसभा की २५ सिटें जिती थी| कॉंग्रेस का अनुमान है कि, मुस्लिम मतदाताओं ने बड़ी संख्या में कॉंग्रेस के पक्ष में मतदान किया तो राजद की मदद होने के कारण यह गठबंधन सौ का आँकड़ा पार कर जाएगा| कॉंग्रेस, गठबंधन के साथ १५० सिटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुनकर आने के स्वप्न देख रही है| यह दिवास्वप्न है या इसे कोई यर्थाथ आधार है, यह ६ मार्च को ही दिखाई देगा| भाजपा भी हुई हानि की कैसे पूर्ति करती है यह भी आगे स्पष्ट होगा| प्रत्यक्ष मतदान शुरू होने के लिए अभी करीब पौन माह बाकी है| इस कारण आज का अंदाज सही साबित होगा, इसकी गारंटी नहीं| हॉं, इतना सही है कि, उत्तर प्रदेश के इस चुनाव की ओर सबका ध्यान लगा रहेगा| उन्हें यह २०१४ के आम चुनाव आगाज लगेगा|

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी) 

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